सुख−शान्ति का एकमात्र उपाय

March 1962

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

यह सर्वथा सम्भव और सरल है कि मानवीय अन्तःकरण में निवास करने वाली दैवी या आसुरी वृत्तियों में से किसी को भी—सजग करके इस मिट्टी के पुतले को असुर या देवता के रूप में परिवर्तित किया जा सके। हर बुरी या भली वृत्ति अपने अनुकूल वातावरण मिलने से पनपती और प्रतिकूल वातावरण मिलने पर मुरझा जाती है। यह वातावरण बाहरी जीवन में देखा−देखी का भी होता है। दूसरों को कोई आचरण करते देखकर आमतौर पर मनुष्य उनकी नकल करने लगता है। अधिकाँश लोग ऐसे होते हैं जो किसी तथ्य पर स्वयं विचार न करके केवल बाहरी जीवन में घटित होने वाली या आस−पास दिखाई देने वाली घटनाओं से प्रभाव ग्रहण करते और उसी मार्ग पर चलने लगते हैं। इसलिए लोगों की प्रवृत्तियों को मोड़ने के लिए परिस्थितियों एवं घटनाओं को ऐसा क्रम बनाना पड़ता है जिससे प्रभावित होकर लोग उसका अनुकरण करने की इच्छा करने लगें।

अनुपयुक्त परम्पराऐं

वातावरण में अनुपयुक्त परम्पराऐं जो चल पड़ती हैं, समय−समय पर उन्हें सुधारने के लिए सुधार आन्दोलन चलाने पड़ते हैं। नाली में जब बहुत कीचड़ जम जाती है तो पानी फैलने लगता है, बदबू भी उड़ती है और बीमारियाँ फैलने का खतरा उपस्थित हो जाता है। ऐसी दशा में नाली को जड़ तक साफ करने और उसकी कीचड़ को एक बार पूरी तरह साफ कर देने की जरूरत पड़ती है। इस सफाई को ही सुधार आन्दोलन, सामाजिक क्रान्ति या युग−निर्माण कहते हैं। दुष्कर्मों को देखकर दूसरे लोग दुष्कर्म करने पर उतारू होते हैं और यह परम्परा छूत की बीमारी की तरह जब फैलने लगती है तो सारा वातावरण गंदा हो जाता है। इसलिए युग निर्माण के लिये नितान्त आवश्यक होता है कि दुष्प्रवृत्तियाँ हटें और उनका स्थान सत्प्रवृत्तियाँ ग्रहण करें। सत्कर्म जब बढ़ेंगे, सज्जनता की प्रथा परम्परा एवं गतिविधि का वातावरण चारों ओर दीख पड़ेगा तो साधारण लोग उसी से प्रेरणा ग्रहण करने लगेंगे और यह अच्छाई का प्रसार भी उसी तरह होगा जिस प्रकार कि बुराई की छूत एक से दूसरे को लगती है।

स्वस्थ परम्पराओं की स्थापना

कुकर्मों अन्धविश्वासों कुविचारों और दूषित परम्पराओं को हटा कर उनके स्थान पर सत्कर्मों, सद्विचारों और स्वस्थ परम्पराओं को प्रतिष्ठित करने का क्रान्तिकारी परिवर्तन यों बहुत ही कठिन मालूम पड़ता है पर यदि विचारक्रान्ति की सफल साधना कर ली जाय तो जन मानस में हेर−फेर होते ही उसका परिणाम बाह्य जीवन में तुरंत और प्रत्यक्ष दीखने लगता है। विचार बदलने से ही मनुष्य बदलता है। मनोभूमि का परिवर्तन बाह्य जीवन में दृष्टिगोचर न हो ऐसा सम्भव नहीं। पर बिना विचारों का परिवर्तन हुए बलात् किन्हीं बुराइयों को रोकने को प्रयत्न किया जाय तो वे बुराइयाँ कुछ समय के लिए दब तो सकती हैं पर थोड़ी ही देर में वे कोई और रूप धारण कर प्रकट हो जाती हैं या चुपके−चुपके भीतर ही भीतर बढ़ती रहती हैं। दहेज जैसी घातक कुरीति का भी उन्मूलन नहीं हो पा रहा है। दहेज विरोधी कानून बन जाने पर लोग चुपके−चुपके लेन−देन करने लगे हैं। इसे कौन सा कानून रोक पावेगा? रिश्वतखोरी, व्यभिचार सरीखे परस्पर सहयोग से चलने वाले पाप कदाचित ही कभी पकड़ में आते हैं। इसलिए दुष्प्रवृत्तियों को बाहरी दमन या प्रतिबन्ध से शमन करने की बात सोचना निस्सार है। ऐसे प्रतिबन्ध होने तो चाहिएं पर उनसे ही काम चल जायेगा, ऐसा नहीं सोचना चाहिए। इसका एक-मात्र उपाय हृदय परिवर्तन ही है जो विचार परिवर्तन के साथ ही संभव होता है।

अनुकरण की प्रवृत्ति

यह ध्यान रखने की बात है कि मनुष्य सब कुछ स्वयं ही सोचने और करने नहीं लगता। मौलिकता की मात्रा तो बहुत थोड़ी होती है, अधिकतर तो लोग बाहर से ही प्रभाव ग्रहण करते हैं। चूँकि बुराइयों की चर्चाऐं और घटनाऐं बहुत होती रहती हैं इसलिए लोगों का मन उसी ओर झुक पड़ता है। यदि विचारों का प्रवाह अच्छाई की दिशा में प्रवाहित हो रहा हो तो लोगों के मन उसकी ओर भी झुके बिना नहीं रह सकते। आज इसी प्रवाह परिवर्तन की सबसे बड़ी आवश्यकता है। उत्तम विचारों में शक्ति न हो सो बात नहीं है, पर वे इतनी कम मात्रा में हमसे संबंधित रहते हैं कि उनका थोड़ा−सा ही प्रभाव पड़ता है। यदि अधिक समय तक अधिक गहरे सद्विचारों का सम्पर्क किसी व्यक्ति को उपलब्ध हो तो उसकी मनोदशा श्रेष्ठता की दिशा में मुड़े बिना नहीं रह सकती। स्वाध्याय और सत्संग की धर्म-ग्रन्थों में भूरि−भूरि प्रशंसा की गई है। उन्हें जीवन का नितान्त आवश्यक एवं अनिवार्य धर्म कर्तव्य माना गया है। स्वाध्याय की उपेक्षा करने वाले की भर्त्सना करते हुए शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है ‟जो व्यक्ति जिस दिन स्वाध्याय नहीं करता उस दिन वह अपने कर्तव्य और वर्ण धर्म से पतित हो जाता है।” यही बात सत्संग के बारे में भी है। अच्छे व्यक्ति और अच्छे विचारों की तुलना पारस पत्थर से की गई है जिसे छूकर लौह सरीखे कलुषित अन्तःकरण भी स्वर्ण जैसे बहुमूल्य बन जाते हैं।

स्वाध्याय और सत्संग

जीवन को परिवर्तन करने वाले स्वाध्याय और सत्संग की आज कोई व्यवस्था नहीं दीखती। पुराणों की दन्त कथाओं को रटते रहने का नाम स्वाध्याय और परलोक की, देवताओं की या दार्शनिक बातों की कल्पना में उड़ते रहने वाले विचारों को सत्संग कहा जाता है। ऐसी परम्पराऐं जहाँ−तहाँ दीख तो पड़ती हैं पर उनमें कोई तथ्य न होने से उसका प्रभाव कुछ नहीं पड़ता। सजीव स्वाध्याय और सत्संग का यदि आयोजन बन पड़े तो उसमें मनुष्य की अन्तरात्मा को हिला डालने की शक्ति प्रत्यक्ष दिखाई देगी। यदि वेश्या का नृत्य देखकर, गन्दे गीत सुनकर, अश्लील साहित्य पढ़कर, वासनापूर्ण चित्र देखकर, कामुकता की चर्चा में सम्मिलित होकर हमारा मन तुरन्त कलुषित एवं विचलित हो उठता हो तो श्रेष्ठता के विचार एवं कार्य हमें अच्छाई की ओर मुड़ने के लिए क्यों प्रेरणा न देंगे? शर्त केवल इतनी ही है कि जिस प्रकार कामुकता की विचारधारा सजीव होती है वैसा ही सजीव हमारा स्वाध्याय और सत्संग भी होना चाहिए। सात्विकता में यदि कोई शक्ति न होती तो संसार में अगणित महापुरुष अपने जीवन को इतना आदर्श एवं महान बना सके और संसार की इतनी बड़ी सेवा कर सके वह कैसे संभव होता?

हम चाहें तो विचार शक्ति का उपयोग अपने आपको सुधारने और दूसरों में भारी हेर−फेर करने के लिए कर सकते है। युग−निर्माण के लिए उपयुक्त विचारधारा अखण्ड−ज्योति प्रस्तुत करने के लिए अब विशेष रूप से कटिबद्ध हुई है। जीवन के हर पहलू पर विचार कर सकने योग्य पाठ्य सामग्री अगले दिनों अखण्ड−ज्योति के पृष्ठों पर और छोटे ट्रैक्टों के रूप में प्रस्तुत की जाने वाली है। उस विचारधारा को अधिकाधिक लोगों से परिचित कराने का कार्य अखण्ड−ज्योति नहीं कर सकती, वह तो परिवार के प्रत्येक सदस्य को ही करना पड़ेगा। माना कि हम सब की व्यक्तिगत क्षमता, योग्यता, चरित्र एवं शैली ऐसी नहीं है कि लोगों को प्रभावित कर सकें पर इतना तो किया ही जा सकता है कि श्रेष्ठ विचारों से सम्पर्क बनावें। संदेश वाहक का कार्य करना तो कुछ कठिन नहीं है। डाक्टर बनना हर एक के लिए कठिन है। इलाज करना हर कोई नहीं जानता पर इतना तो कोई भी कर सकता है कि बीमार और डाक्टर का संयोग मिला दे। दोनों के मिल जाने से भी रोग निवृत्ति का एक स्वर्ण सुयोग जैसा बड़ा महत्वपूर्ण निमित्त बन जाता है। ऐसा सुयोग बनाने का प्रबन्ध भी हम सब करने लगें तो बहुत बड़ा काम युग परिवर्तन की दिशा में हो सकता है।

दोष और दुर्गुणों से ग्रसित लोगों को कुमार्ग से हटा सकने में यदि किसी प्रकार सफलता मिल जाती है तो यह एक बहुत बड़ा पुण्य परमार्थ हो जाता है। धन या धन से खरीदी जा सकने वाली वस्तुऐं दूसरों को दान दे सकना हर आदमी का काम नहीं है यह तो वे ही कर सकते हैं जिनके पास जीवन निर्वाह की आवश्यकताऐं पूरी करने के बाद कुछ बचा रहता है। जिनके लिए अपने परिवार का भरण पोषण भी कठिन है वे किस प्रकार दूसरों का कोई बड़ा आर्थिक उपकार कर सकेंगे। यों तात्कालिक सहायता के रूप में कभी किसी को कुछ दे दिया तो उससे उसका कुछ बनने वाला भी नहीं है। यदि विचार साधन उपलब्ध करके हम किसी के जीवन में हेर−फेर का अवसर उपस्थित कर देते हैं तो उतने मात्र से इतना बड़ा उपकार हो सकता है जो बड़े−बड़े धनी और अमीरों द्वारा बन पड़ने वाले दान−पुण्य की अपेक्षा अनेक गुना अधिक प्रभावशाली होगा।

सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा

एक व्यक्ति सद्विचारों के प्रसार को अपना धर्म कर्तव्य मानकर निरन्तर अपने सम्बन्धित व्यक्तियों को सत्प्रेरणाऐं देता रहता है। उस प्रेरणा से प्रभावित होकर मान लीजिए एक आदमी ने बीड़ी पीना छोड़ दिया तो देखने में वह एक बहुत छोटी बात हुई पर गम्भीरता से विचार करने पर प्रतीत होगा कि इस छोटी सफलता का पुण्य भी कितना बड़ा उपकार है। जिसने बीड़ी पीना छोड़ा वह यदि चार आना प्रतिदिन की भी बीड़ी−दिया सलाई में खर्च करता तो महीने में 7॥ रु. और साल में 90 रु. होते। यदि चालीस वर्ष वह और जिये तो 90 × 40 = 3600 रु. हुए। चालीस साल तक यदि यह रकम बैंक या पोस्ट आफिस में जमा करते रहा जाय तो कम से कम दूनी हो सकती है। इस प्रकार 7200 रु. का लाभ उस बीड़ी छोड़ देने से हो सकता है। बीड़ी पीने से आँखों में, फेफड़े में, पेट में, रक्त में अनेक दोष उत्पन्न होते और उनसे बीमारियाँ उपजने एवं आयु घटने की हानि होती। बीमारियों में शारीरिक कष्ट के अतिरिक्त खर्च भी पड़ता है और उपार्जन नहीं हो पाता। बीड़ी छोड़ देने पर उन बीमारियों के खर्चों से बचत, शारीरिक कष्टों से बचत, कमाने में बाधा पड़ने से जो हानि होती उससे बचत, आयु में कई वर्ष बढ़ जाने का आनन्द और अर्थ लाभ इस प्रकार केवल आर्थिक दृष्टि से ही विचार किया जाय तो बीड़ी छोड़ने वाले को उन 7200 रु. की अतिरिक्त यह बचत होने का लाभ उसके अतिरिक्त है। यह सारे लाभ उस व्यक्ति को तब मिले जब किसी ने उसके पीछे पड़कर बीड़ी छोड़ने के लिए प्रभावित कर लिया। वस्तुतः इसमें सारा पुण्य उसी व्यक्ति का है जिसने बीड़ी छोड़ने की प्रेरणा दी। यह प्रेरणा देने वाला यदि 7200 रु. दान देना चाहता तो वैसा कर सकना कठिन था फिर भी उसका प्रचार कार्य इतना महत्वपूर्ण रहा कि उसके फल से उस व्यक्ति को इतना लाभ हो गया। नशेबाजी के कारण बुद्धि के तमोगुणी होने पर वह जो और भी दुष्कर्म करता उनसे बचे रहना संभव हो गया सो अलग। इस प्रकार उपकार की दृष्टि से देखा जाय तो हजारों रुपया दान करने वाले की अपेक्षा यह धर्मप्रचार का कार्य अधिक महत्वपूर्ण ठहरा।

इसी प्रकार अन्य बुराइयाँ छुड़ाने से कितना बड़ा उपकार होता है इसका वर्णन हो सकना कठिन है। एक व्यक्ति से माँसाहार छुड़ा दिया तो सैकड़ों प्राणियों को करुणाजनक प्राणघात जैसे उपयुक्त समय तक विवाह के लिए प्रतीक्षा करने की सलाह देते रहता तो क्या उचित न होता? फिर वे कार्य क्यों करने पड़ते जो अपनी या बेटी की हत्या के समान ही भयंकर थे।

छोटी−छोटी बातों पर आये दिन आत्म−हत्याऐं होती रहती हैं इनका कारण धैर्य का अभाव है। मामूली बातों पर एक दूसरे का कत्ल कर डालते हैं, इनका कारण असहिष्णुता है। छोटे−छोटे प्रलोभनों पर लोग अपना नैतिक पतन कर लेते हैं इनका कारण दूरदर्शिता की कमी है। थोड़े से असंयम के कारण लोग अपना स्वास्थ्य खो बैठते हैं, इसका कारण आत्म−नियंत्रण की शिथिलता है। लोग अशिक्षित एवं अभावग्रस्त बने रहते हैं, इसका कारण आलस और लापरवाही है। सामाजिक कुरीतियों पर बहुत धन खर्च करना पड़ता है इसका कारण विवेकशीलता की त्रुटि है। फिजूलखर्ची, फैशन−परस्ती और शेखी−खोरी की आदतों से लोग अपना आर्थिक संतुलन बिगाड़ लेते हैं यह विवेक की दुर्बलता है। इस प्रकार की अनेकों बौद्धिक एवं मानसिक दुर्बलताऐं हमारे जीवन को अपंग बनाये रहती हैं। सब प्रकार समर्थ होते हुए भी हम इन छोटी−छोटी कमियों के कारण अपने जीवन को असंतुष्ट और दुखमय बनाये रहते हैं। ईर्ष्या द्वेष की वेदी पर अपनी बहुमूल्य रचनात्मक शक्तियों को लोग लड़ाई-झगड़े में खर्च करते रहते हैं। ऐसे लोगों ने यदि सही मार्ग में विचार करने की पद्धति जान ली होती तो आज की स्थिति की अपेक्षा उनकी स्थिति निश्चय ही भिन्न होती।

विचारकता और दूरदर्शिता

विचारकता का, दूरदर्शिता का जीवन की समस्याओं पर सही ढंग से सोच सकने का, उचित दृष्टिकोण से वस्तुस्थिति को देख सकने का, क्षणिक प्रलोभन और स्थायी लाभ में अन्तर कर सकने का, उचित और अनुचित के परिणामों को समुचित निरूपण कर सकने का, मानव−जीवन के लक्ष और सदुपयोग की उपेक्षा करके उसे व्यर्थ गंवाने पर अन्त में उपस्थित होने वाले पश्चात्ताप का यदि हम ठीक प्रकार विश्लेषण करने लगें तो उस स्थिति में कदापि पड़े नहीं सकते जिसमें कि आज पड़े हुए हैं। यदि यह विचारशीलता जागृत हो सकी होती तो जीवन का स्वरूप कुछ और ही होता। जिनने अपने जीवन को सफल बनाया है सदुपयोग किया है और उत्कर्ष का वरदान प्राप्त किया है उनने विचारशीलता की ही आराधना की है। सद्विचारों के बिना किसी का अच्छा स्वभाव नहीं बन सकता, अच्छे स्वभाव के बिना अच्छे आचरण बन सकना कठिन है और अच्छे आचरणों के बिना महानता का लाभ किसी को भी प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए जिसे मानव−जीवन की महानता के अनुरूप श्रेय एवं उत्कर्ष प्राप्त करना हो उसे विचारशीलता का ही अवलम्बन ग्रहण करना पड़ता है।

सद्विचारों की प्रधानता

विचारों की शक्ति अपार है। सद्विचारों की प्रधानता वाला समय ही सतयुग है। सद्भावनाओं से परिपूर्ण प्रदेश ही स्वर्ग है। सत्प्रवृत्तियों से ओत−प्रोत मनुष्य ही देवता है। इस संसार में जो कुछ सुख−शान्ति है वह सद्विचारों का ही परिणाम है। जब इस तत्व की कमी हो जाती है, कुविचार प्रबल हो जाते हैं तभी कलियुग दीखने लगता है, तभी नरक के दृश्य सामने आते हैं, तभी नर−पशुओं की संख्या बढ़ती है, और सर्वत्र क्लेश-कलह के, अशान्ति-आपत्ति के बादल घुमड़ने लगते हैं। असुरता और देवत्व के दोनों पक्ष सामने हैं। एक नाश का दूसरा निर्माण का मार्ग है। हम चाहें जिसे स्वेच्छापूर्वक अपना सकते हैं और उनके परिणामों का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं। प्राचीनकाल में ऋषि−मुनि और साधु-ब्राह्मण इस तथ्य को भली प्रकार जानते थे और वे सत्प्रवृत्तियों को जन−मानस में भरे रहने के लिए निरन्तर प्रयत्न करते रहते थे। नारद जी का सारा जीवन धर्मप्रचार में लगा, वे स्वल्प ही एक जगह ठहरते थे और निरन्तर भ्रमण करके सद्ज्ञान का विस्तार करते रहते थे। उनकी इसी सेवा से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें चाहे जब स्वर्ग में बेरोक−टोक आ सकने का विशेष अधिकार दिया था जो और किसी ऋषि को प्राप्त न था। जगद्गुरु शंकराचार्य, बुद्ध, महावीर, दयानन्द, गाँधी, विवेकानन्द, रामतीर्थ, चैतन्य, मीरा, सूरदास, तुलसीदास, कबीर, नानक आदि सभी समाज सुधारकों को अपने−अपने ढंग से धर्मप्रचार का कार्यक्रम अपनाना पड़ा है। कालान्तर में गिरते-गिरते जब मनुष्य का मानसिक स्तर चिन्ताजनक स्थिति तक उतर जाता है तो उसे उठाने के लिए फिर कुछ विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता होती है। इस आवश्यकता को प्रत्येक युग के विवेकशील लोग अनुभव करते रहे हैं और उनने उसकी पूर्ति के लिए प्राण−प्रण से प्रयत्न भी किया है।

सुख−शान्ति का एकमात्र उपाय

मानव−जाति सुख−शान्ति से रहे और सब लोग इस नर−तनु का समुचित लाभ प्राप्त करें इसका उपाय इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि सद्विचारों की पूँजी कम न होने दी जाय। हर व्यक्ति सद्विचारों का महत्व समझे, उसकी प्रचण्ड शक्ति का सही अनुमान लगावे और अपने को तथा अपने समीपवर्ती लोगों को अधिकाधिक मात्रा में सद्विचारों से ओत−प्रोत करने का प्रयत्न करे। तभी यह संभव है कि जीवन की दिशा बदले और हर कुकर्म छोड़कर सत्कर्मों से प्रवृत्त हों। संसार की सुख−शान्ति इसी पर निर्भर है। युग−निर्माण योजना इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118