प्रगति का मूलमंत्र—आत्मोत्कर्ष

March 1962

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मानव प्राणी यदि अपने कर्तव्य−धर्म का ठीक प्रकार पालन करे तो ईश्वर का अविनाशी राजकुमार एवं सृष्टि का मुकुटमणि ही माना जायेगा, क्योंकि उसके अन्दर की महानता जब प्रकट, प्रस्फुटित एवं परिपुष्ट होती है तो वह महामानव, देवता एवं परमात्मा के रूप में दृष्टिगोचर होने लगता है। इस धरती पर अब तक ऐसे अगणित अवतारी महापुरुष, नर−रत्न, महान आत्मा, ऋषि, महर्षि, देवदूत एवं त्यागी तपस्वी उत्पन्न हुए हैं जिनके शरीर भले ही आज जीवित न हों पर उनका अमर यश सर्वसाधारण के लिए आज भी प्रकाश−दीप बनकर मार्ग दर्शन कर रहा है। कितने ही भूले−भटके व्यक्ति उस प्रकाश में अपना मार्ग खोज निकालते हैं। ऐसे आदर्शवादी नररत्न बनने का श्रेय उन्हें ही प्राप्त हुआ है जिनने अपनी महानता को विकसित किया है। देवत्व हर व्यक्ति के अन्दर पर्याप्त मात्रा में भरा पड़ा है यदि वह चाहे तो आसानी से उसे जगा सकता है और जिसके अन्दर का सोया देवत्व जगा, उसका बाह्य जीवन सब प्रकार उज्ज्वल बनना सर्वथा स्वाभाविक है।

नव−रत्नों का भाण्डागार

भारत का प्राचीन इतिहास ऐसे नव−रत्नों का इतिहास है जिनने अपने देवत्व को जगाया ही नहीं, जगमगाया भी था। इस देश के प्रत्येक मानव में यह प्रतिस्पर्धा होती रही है कि वह श्रेष्ठता की दृष्टि से अपने किसी साथी से पीछे न रहे। यहाँ हर व्यक्ति ने यह प्रयत्न किया है कि मानवता की कसौटी पर वह सर्वथा खरा उतरे, उसके चरित्र एवं व्यक्तित्व में कोई ऐसा दाग धब्बा न लगे जिससे उसके अन्तःकरण में निवास करने वाले देवता को लज्जा या संकोच अनुभव करना पड़े। इसी विशेषता के कारण यह भारत भूमि धरती का स्वर्ग कहलाती रही है और यहाँ के तेतीस कोटि निवासी अपने आदर्शवाद के कारण संसार भर में भूसुर—पृथ्वी के देवता कहलाते रहे हैं। तेतीस कोटि देवता इसी भारत भूमि पर निवास किया करते थे।

भौतिक सुख−शान्ति, समृद्धि एवं सम्पत्ति मानवीय व्यक्तित्व की अनुगामिनी रहीं हैं, रहती हैं। गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से जो व्यक्ति पूर्णता के निकट पहुँचता जायेगा वह कभी अभावग्रस्त न रहेगा। स्वेच्छा से त्याग करे, बात दूसरी है, पर सद्गुणी व्यक्ति प्रकृति की ओर से कभी अभावग्रस्त या दीन दरिद्र नहीं रखा जाता। पुरुषार्थी उद्योगी, दृढ़-चरित्र कर्मयोगी के लिए पर्वत रास्ता देते हैं और बादल उन पर छाया करते हैं। अभावग्रस्त और दीन दरिद्र तो उन्हें रहना पड़ता है जिनका व्यक्तित्व दोषपूर्ण है। जिनके गुण कर्म स्वभाव का स्तर मानवता के मापदंड तक ऊँचा उठा हुआ है उनके लिए इस संसार में विपत्तियों का नहीं सम्पदाओं का ही उपहार प्रस्तुत रहता है। प्राचीनकाल में जिस प्रकार हमारा देश नर−रत्नों से भरा पड़ा था वैसे ही भौतिक ऐश्वर्य की भी कमी न थी। जहाँ सज्जनों का बाहुल्य होगा वहाँ सुख−शान्ति भी चिरस्थायी रहेगी ही। जहाँ सन्मार्ग का पथ अपनाया हुआ है वहाँ न तो समस्याऐं उपजती हैं न गुत्थियाँ उलझती हैं।

मानवता के आदर्शों पर आस्था

युग−निर्माण का हमारा स्वप्न यही है कि हममें से हर व्यक्ति मानवता के आदर्शों पर सच्ची आस्था रखने वाला और उस पर निरन्तर आरुढ़ रहने वाला बने। दूसरे लोगों की कल्पना दूसरी तरह की है। वे सोचते हैं धन दौलत, उद्योग, सम्पत्ति एवं साधन सुविधाऐं जुटा देने से मनुष्य का जीवन स्तर ऊँचा उठ जायेगा और उसकी समस्याऐं सुलझ जायेंगी। सम्पत्ति की वृद्धि करना अच्छी बात है, सुविधाऐं बढ़ेंगी तो उससे आसानी ही रहेगी पर यह ध्यान रखना चाहिए कि यदि भावना और आदर्श की दृष्टि से मनुष्य का आन्तरिक स्तर गिरा रहा तो सम्पत्ति और सुविधा बढ़ने से भी चैन न मिलेगा वरन् उन्हें पाकर अनीतिवान मनुष्य और भी अधिक दुष्कर्म करने लगेगा, और भी अधिक विपत्ति में फँसेगा। ऐश्वर्य बढ़ना चाहिए, पर साथ ही उत्तरदायित्व को समझने एवं उपलब्ध साधनों का सदुपयोग करने की विवेकशीलता भी बढ़नी चाहिए।

मनुष्य का आन्तरिक स्तर इसी आधार पर ढाला जाना चाहिए कि वह स्वयं चैन से रहे और दूसरों को चैन से रहने दे। स्वयं प्रगतिशील बने और दूसरों को प्रगति के पथ पर चलने में सहयोग प्रदान करे। अनीति को न तो सहन करे और न किसी को अन्यायपूर्वक सतावें। अपना कर्तव्य पालन करे और दूसरों के सामने ऐसा आदर्श प्रस्तुत करे जिससे उन्हें भी श्रेष्ठता के मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले। धन संग्रह की तृष्णा, पद, अधिकार, सत्ता, एवं अहंकार की पूर्ति में आज जिस प्रकार लोग अपनी उन्नति समझते हैं और मौज-मजा कर लेने को जैसे जीवन की सफलता मानते हैं वैसे ही यदि जीवन को आदर्श, महान, कर्तव्यरत एवं धर्मपरायण बनाने की हर व्यक्ति को लगन लग जावे तो मनुष्य आदर्श मनुष्य बन सकता है और मानव प्राणी कितना महान है इसका प्रतिक्षण अनुभव कर सकता है। सद्भावनाओं में जिन लोगों का मन डूबा रहेगा उनका शरीर आदर्श कार्य ही करेगा और उन कार्यों से उन व्यक्तियों का निज का कल्याण तो होगा ही साथ ही जो उनके सम्पर्क में आवेंगे वे भी सन्तोष एवं प्रसन्नता अनुभव करेंगे।

विकास का सच्चा प्रयास

आज हम उन्नति तो चाहते हैं पर मानवीय सद्गुणों के विकास का प्रयत्न नहीं करते। समाज में शान्ति और सम्पन्नता रहे यह सभी की इच्छा है पर इसके मूल आधार पारस्परिक प्रेम भाव की वृद्धि का उपाय नहीं करते। भौतिक सुविधाओं में वह शक्ति नहीं है कि व्यक्ति को श्रेष्ठ बना दे पर अच्छे व्यक्तित्व में गुण मौजूद हैं कि वह सम्पन्नता का उपार्जन कर ले। हम इस तथ्य को जब तक न समझेंगे तब तक दौलत के पीछे भागते रहेंगे। आदर्शवाद की उपेक्षा करके सम्पन्नता के लिए घुड़दौड़ लगाने का परिणाम लाभ के स्थान पर हानिकारक ही सिद्ध हो सकता है। यह दुनियाँ अधिक अच्छी, अधिक सुन्दर, अधिक सम्पन्न अधिक शान्तिपूर्ण बने, यदि हम सब यही चाहते हैं तो फिर इस प्रगति के मूल आधार—व्यक्तित्व की श्रेष्ठता की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया जाता यही आश्चर्य है। प्रगति तभी स्थायी रह सकेगी, सुख शान्ति में तभी स्थिरता रहेगी जब मनुष्य अपने को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने का प्रयत्न करे। इस उपेक्षित तथ्य को अनिवार्य आवश्यकता के रूप में जब तक हम स्वीकार न करेंगे और व्यक्तिगत एवं सामूहिक चरित्र को ऊँचा उठाने के लिए कटिबद्ध न होंगे तब तक अगणित समस्याओं की उलझनों से हमें छुटकारा न मिलेगा।

मलीनता का वातावरण

आत्मा स्वभावतः पवित्र है, उसमें परमात्मा का प्रचुर अंश विद्यमान रहने में देवतत्व की सभी विशेषताऐं और संभावनाऐं मौजूद हैं। पर प्रस्तुत वातावरण की मलीनता से प्रभावित होकर वह भी मलीन जैसा बन जाता है। अपनी यह दुर्गति देखना हमें कदापि सहन न होना चाहिए। कोई दूसरा कीचड़ में फँस जाय या नदी नाली में गिर पड़े तो हमें उस पर दया आती है और उसे निकलने के लिए उदारतापूर्वक प्रत्येक संभव सहायता देने का प्रयत्न करते हैं। यह उचित भी है और मानव धर्म के अनुकूल भी। किन्तु आश्चर्य तब होता है जब अपने आपको मलीनता की कीचड़ में कंठतम धँसे होने पर भी स्वयं निकलने का प्रयत्न नहीं करते और न उसके संबंध में कुछ सोचते हैं। औरों की सहायता करना पुण्य है पर अपनी सहायता करना, अपना उद्धार करना, अपना उत्कर्ष करना तो उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है। आत्मा का उद्धार करना सबसे बड़ा पुण्य परमार्थ माना गया है।

सुख की खोज करते−करते मनुष्य दौलत की देहरी पर अपना सिर पटकता रहता है। दौलत−मंदी के बाहरी ठाट−बाट को देखकर, भोग सामग्री को देखकर यह भ्रम होता है कि वस्तुतः यही सुखी है और इनकी स्थिति यदि अपने को प्राप्त हो जाय तो हम भी भरपूर आनंद उठा सकेंगे, पर यह बात अनुभव की कसौटी पर कसे जाने से गलत ही सिद्ध हुई है। दौलत की आवश्यकता उतनी ही मात्रा में है जितने से कि दैनिक जीवन का साधारण कार्यक्रम पूरा होता रहे, इससे अधिक परिग्रह जिसके पास भी होगा, जहाँ भी होगा वहाँ नाना प्रकार की समस्याऐं उत्पन्न होंगी और आदर्शवाद के अभाव में वे समस्याऐं ऐसे उलझती रहेंगी कि व्यक्ति अपनी साधारण और स्वाभाविक शान्ति से भी हाथ धो बैठेगा। धन कमाना या संग्रह करना अपने आप में कुछ भी महत्व नहीं रखता, महत्वपूर्ण तो उसका सदुपयोग ही है। कितने ही व्यक्ति विपुल सम्पदा के स्वामी होते हैं पर उसका उपयोग नहीं जानते। कंजूस की तरह उसे जोड़ते रहते हैं और अन्त में दूसरों के लूट ले जाने के लिए सब कुछ पड़ा छोड़ जाते हैं। धन से किसी ने यदि कुछ लाभ उठाया है तो उसका श्रेय सदुपयोग करने वाली बुद्धि को ही दिया जायेगा। यह विवेक बुद्धि ही सुख शान्ति की सच्ची आधारशिला है।

सच्ची प्रगति का एकमात्र उपाय

आत्म−कल्याण के लिए सद्गुणों की, सद्विचारों की सद्भावनाओं की सत्कर्मों की अभिवृद्धि होनी चाहिए। जब तक यह प्रगति रुकी है तब तक प्रगति जैसी लगने वाली तड़क−भड़क एक खोखली विडम्बना मात्र ही रहेगी। मनुष्य का सच्चा धन उसका आत्मिक−स्तर ही है। यह स्तर जिस का जितना ऊँचा है वह उतना ही धनी माना जायेगा। महानता वस्तुओं में नहीं मानवीय गुण, कर्म, स्वभाव में सन्निहित रहती है। हम उत्कर्ष की ओर चढ़ें, उन्नति करें, सुख साधन बढ़ावें पर यह भली−भाँति याद रखें की धन सम्पदा से नहीं, मानवीय सद्गुणों के मूल्य पर ही वह आनन्द और उत्कर्ष प्राप्त हो सकता है जो वास्तविक, सुदृढ़ और चिरस्थायी है।


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