स्वार्थ को नहीं, परमार्थ को साधा जाय

March 1962

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स्वार्थ और परमार्थ में बहुत थोड़ा−सा अन्तर है। स्वार्थ उसे कहते हैं जो शरीर को तो सुविधा पहुँचाता हो पर आत्मा की उपेक्षा करता हो। चूँकि हम आत्मा ही हैं शरीर तो हमारा वाहन या उपकरण मात्र है। इसलिये वाहन या उपकरण को लाभ पहुँचे किन्तु स्वामी दुख पावे तो ऐसा कार्यक्रम मूर्खतापूर्ण कहा जायेगा। इसके विपरीत परमार्थ में आत्मा के कल्याण का ध्यान प्रधान रूप से रखा जाता है, आत्मा के उत्कर्ष होने से शरीर को सब प्रकार सुखी एवं सन्तुष्ट रखने वाली आवश्यक परिस्थितियाँ अपने आप उपस्थित होती रहती हैं। केवल अनावश्यक विलासिता पर ही अंकुश लगता है। फिर भी यदि कभी ऐसा अवसर आवे कि शरीर को कष्ट देकर आत्मा को लाभ देना पड़े तो उसमें संकोच न करना ही बुद्धिमानी है। यही परमार्थ है। परमार्थ का अर्थ है पर स्वार्थ। जिस कार्य के द्वारा तुच्छ स्वार्थ की, शरीर तक सीमित रहने वाले स्वार्थ की पूर्ति होती है वही त्याज्य है। जो स्वार्थ अपनी आत्मा का, शरीर का, परिजनों का एवं सारे समाज का हित साधन करता है, वह तो प्रशंसनीय ही है। ऐसा परमार्थ सर्वत्र अभिनंदनीय माना जाता है। वही मनुष्य की सर्वोत्तम दूरदर्शिता का चिन्ह भी है। इसी पथ पर चलते हुए इस सुरदुर्लभ मानव जीवन का लक्ष पूरा हो सकता है।

परमार्थ की साधना

आत्म−कल्याण और युग−निर्माण का जो कार्यक्रम लेकर हम चले हैं वह सच्चे अर्थों में परमार्थ की साधना है क्योंकि उससे अपना तो लौकिक और पारलौकिक हित साधन होता ही है साथ ही आस−पास का वातावरण भी सुधारता है, दूसरों को भी लाभ मिलता है। युग−निर्माण कार्यक्रम की योजना सफल होने से दूसरों को लाभ है ही किन्तु साथ ही अपना दुहरा लाभ है। जिस सुधार कार्य को हम आरंभ करेंगे वह सबसे पहले हमारे निकटवर्ती लोगों को प्रभावित करेगा क्योंकि यह प्रचार और प्रसार कहीं दूर देश में नहीं वरन् अपने घर कुटुम्ब और पड़ौस से ही आरंभ करना है। उनके विचार उत्कृष्ट बनने से उनमें श्रेष्ठता और देवत्व की मात्रा बढ़ने से निश्चय ही हम पर उसका अत्यधिक प्रभाव पड़ेगा। वे असहयोगी एवं आक्रमणकारी न रह कर हमारे लिए प्रेम, सहयोग एवं सज्जनता से बरतने वाले बनेंगे। इससे अपनी आन्तरिक शान्ति तो बढ़ेगी ही, बाहरी सहयोग एवं स्नेह भाव बढ़ने से संगठन जैसी शक्ति भी बढ़ेगी और सहयोग रहने से आर्थिक, सामाजिक एवं अन्य अनेक प्रकार के लाभों में भी अभिवृद्धि होगी। इसके अतिरिक्त लोकसेवा, जनहित एवं व्यक्ति निर्माण का जो पुण्य प्राप्त होगा वह भी साथ में जुड़ा हुआ है। यह दुहरा लाभ मिलता है।

सुरक्षा की चारदीवारी

प्राचीन काल में राजा लोग अपनी राजधानी की सुरक्षा के लिए नगर से बाहर एक बड़ा परकोटा बनाते थे ताकि शत्रु का हमला उस परकोटे के बाहर रुका रहे और अपनी सुरक्षा में सहायता में सहायता मिले। किसी जमाने में युग−निर्माण जैसे कार्यक्रम विशुद्ध पुण्य की दृष्टि से कोई भले ही करते रहे हों पर आज वह हमारा सर्वोपरि स्वार्थ है। समाज का ढाँचा अब इतना शृंखलाबद्ध एवं सघन हो गया है कि एक का प्रभाव दूसरे पर पड़े बिना नहीं रह सकता। हम व्यक्तिगत रूप से अपनी भौतिक उन्नति कितनी ही करे लें पर बुरे स्वभाव के कुटुम्बियों, मित्रों और पड़ौसियों से घिरे रहने पर हमें निरन्तर चिन्तित रहना पड़ेगा। जो सद्गुण हमने अपने स्वभाव में बड़ी कठिनाई से सम्मिलित किये हैं उन्हें भी बुराई का वातावरण स्थिर न रहने देगा और उनकी दुष्टता की प्रतिक्रिया में हमारी अच्छाई भी डूबने लगेगी। इसलिए अब अपने आपकी भलाई, अपने आपकी अच्छाई की संकुचित सीमा में सोचते रहने से काम न चलेगा। अब वह दायरा बढ़ाकर कुछ अधिक विस्तृत क्षेत्र में फैलाना पड़ेगा तभी अपनी शान्ति और सुरक्षा की समस्या हल होगी।

सच्चा स्वार्थ इसी से सधेगा

युग−निर्माण कार्यक्रम सच्चे अर्थों में अत्यन्त दूरदर्शितापूर्ण स्वार्थ-साधन है क्योंकि उसके द्वारा हम अपने आस−पास सज्जनों का निर्माण करते हैं, सज्जनों का स्नेह एवं सहयोग हमारे सुख में बढ़ोत्तरी ही करेगा। सेवा करने का आत्म−सन्तोष, यश, प्रतिष्ठा एवं परलोक के लिए पुण्य संचय का विशेष लाभ इसके अतिरिक्त है। इस ओर बढ़ाये हुए कदम हमें युग−निर्माता, लोक सेवी, देश भक्त, समाज सुधारक, धर्मात्मा, परोपकारी एवं महापुरुषों की श्रेणी में ले जाकर बिठा देते हैं इतिहासकारों की कलम के नीचे हमारा नाम जमता है और जनता हमें अभिनंदनीय मानती है, यह लाभ इसके अतिरिक्त हैं। वस्तुतः यह अपनी और अपने बच्चों की स्वार्थ−साधना का श्रेष्ठ तरीका है। इन प्रयत्नों से कोई और न सुधरे, केवल हमारा परिवार ही सम्भ्रान्त बन जावे तो उसकी सज्जनता से हमारा आज का समय भी आनंद से कटेगा और बुढ़ापा भी उनके बीच रहते हुए शान्ति से बीतेगा। कुसंस्कारी परिजन नरक में रहने वाले यमदूतों से अधिक दुख देते हैं इसका अनुभव उन्हें भली−भाँति होगा जिनको स्त्री, पति, पुत्र, पुत्री, भाई, भतीजे, दामाद, बहनोई, कर्कश, उद्दण्ड एवं कुमार्गगामी मिले हैं। उनकी गतिविधियों से जिसका जी दिन−रात जलता रहता है, वह बेचारा घायल से भी बुरा पड़ता है। घायल अपने कष्ट को कह तो सकता है, कराह तो सकता है पर उस बेचारे के लिए तो इस पर भी प्रतिबंध है। जी की जलन में भीतर ही भीतर सुलगते रहने की व्यथा कितनी कष्टकारक होती है इसे कोई भुक्त-भोगी ही जान सकता है।

समय से पहले चेतें

इस व्यथा से छुटकारा दिलाने का कोई कारगर उपाय यदि मिल सके तो कोई इस प्रकार का परिजन−पीड़ित—पड़ौसियों और स्वजन संबंधियों का सताया हुआ मनुष्य, उसके लिए बड़े से बड़ा त्याग और खर्च करने को तैयार हो सकता है। हमें सोचना चाहिए कि भयंकर बीमारी में फँस जाने पर प्रचुर धन खर्च करने की अपेक्षा, उस बीमारी को न होने देने या रोके रहने के लिए समय रहते कुछ थोड़ा खर्च कर लिया जाय तो क्या वह बुद्धिमानी न होगी? शत्रु का हमला होने पर उसे लड़कर परास्त करने का तरीका महँगा और समय रहते शत्रु को निरस्त कर देने का तरीका सस्ता है। हैजा या इन्फ्लुऐंजा फैलने के दिनों में क्या हम अपने घर में सब को सुरक्षा की सुई नहीं लगवा देते? सुरक्षा की सुई के रूप में ही हमें अपने निकटवर्ती क्षेत्र में सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों का शिक्षण कार्य आरंभ कर देना चाहिए। अपने बच्चों का भविष्य बनाने और उन्हें सुखी रखने के लिए यों हम बहुत कुछ सोचते और बहुत कुछ करते हैं। अच्छा भोजन, अच्छे वस्त्र, ऊँची शिक्षा, विवाह शादी में विपुल खर्च, चिकित्सा, मनोरञ्जन आदि की सुविधाऐं जुटाने में हर अभिभावक बहुत त्याग और बहुत खर्च करता है, इन बातों पर सोचता-विचारता भी बहुत रहता है। अपने प्यारे बच्चों और परिजनों के लिए ऐसा करना उचित भी है। पर इसी स्थान पर दाल में नमक डालना भूल जाने की तरह एक बहुत बड़ी भूल हम कर बैठते हैं कि उन्हें सुसंस्कारी बनाने के लिए कुछ नहीं करते। शिक्षा तो देते दिलाते रहते हैं पर दीक्षा की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता।

कुसंस्कारों की गरिमा

हजार योग्यताऐं और लाख समृद्धियाँ एक ओर और सुसंस्कारों को एक ओर रखकर तोला जाय तो सुसंस्कारों का पलड़ा भारी बैठेगा। सुसंस्कारी व्यक्ति गरीब रहते हुए भी आनंद एवं उल्लास का जीवन व्यतीत कर सकता है पर कुसंस्कारी व्यक्ति कुबेर सी सम्पदा और इन्द्र से वैभव का स्वामी होते हुए भी संतप्त रहेगा और अपने संबंधियों को संतप्त करेगा। इसलिए प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति का कर्तव्य है कि अपने उत्तराधिकारियों को जमीन, घर, नकदी, शिक्षा आदि से विभूषित करने की बात ही न सोचें वरन् उन्हें सुसंस्कारी बनाने के लिए भी प्रयत्न करें। यह कार्य अध्यापकों पर नहीं छोड़ा जा सकता यह तो हमारे स्वयं करने का है। युग−निर्माण योजना के अन्तर्गत व्यक्ति निर्माण के लिए हम जो कुछ करते हैं उससे इसी आवश्यकता की पूर्ति होती है। अपने परिजनों को दीक्षा देने का, उन्हें सुसंस्कारी, सद्विचार, सद्भाव, उदार दृष्टिकोण, सच्चरित्रता, मानवता एवं दूरदर्शिता अपनाने के लिए प्रेरणा देने का जितना कारगर उपाय इस योजना में सन्निहित है उतना अन्य प्रकार से संभव नहीं हो सकता। यदि हम इस ओर उपेक्षा करते हैं तो मानव जीवन को धन्य बनाने वाले एक श्रेष्ठ पुण्य परमार्थ से ही वञ्चित नहीं होते वरन् अपने निकटवर्ती लोगों को कुमार्गगामी बनने से रोकने में उपेक्षा करने के अपराधी भी बनते हैं और उस अपराध का दंड हमारे परिजन और पड़ौसी वैसे ही देंगे जैसे गत अंक में छोटे−छोटे कारणों पर अपने परिवार के लोगों को मार तक डालने वाले समाचारों वाले लेख में चर्चा हुई थी।

संकीर्णता नहीं, दूरदर्शिता चाहिए

हम स्वार्थ में ही न लगे रहें परमार्थ की बात भी सोचें। परमार्थ किसी पर कोई अहसान या उपकार करना नहीं वरन् अपने ही दूरवर्ती एवं चिरस्थायी स्वार्थ को बुद्धिमत्ता के साथ सम्पन्न करना है। जो परमार्थ साधता है वही सच्चा स्वार्थी है क्योंकि उसे आज ही नहीं कल भी सुख प्राप्त होता है। उसकी आज की ही अभिलाषा पूर्ण नहीं होती वरन् चिरकाल तक अपने अभीष्ट की सिद्धि का लाभ उठाता रहता है। हम संकुचित स्वार्थ की सीमा से बाहर सिर उठाकर यदि दूर तक देख सकें दूर तक सोच सकें तो व्यक्ति-निर्माण की, युग−निर्माण की प्रस्तुत योजना रोटी कमाने के आवश्यक कार्यों की तरह ही उपयोगी एवं अपनाने योग्य प्रतीत होगी। यदि इसके लिए हम कुछ करने भी लगें तो प्रतीत होगा कि हम अपने जीवन के बहुमूल्य क्षणों का उपयोग एक ऐसे कार्य में कर रहे हैं जिससे हमारा, हमारे परिजनों का, सारे संसार का सब प्रकार भारी हित साधन संभव होता है, हो रहा है।


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