हमें भगवान कैसे मिलें?

September 1960

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(पं. मुकटबिहारीलाल शुक्ल बी. ए., एल. एल. बी.)

लोग कहते सुने जाते हैं हम भगवान की याद करते हैं, हम नित्य प्रति उनको भजते हैं पर वे कृपा नहीं करते, वे सुनते तक नहीं। भगवान की याद तो हम करते हैं परन्तु क्या कभी उस याद का हमने विश्लेषण किया है? उस याद का क्या मूल्य है? किस प्रकार की वह याद है? क्या हमने उस कथित याद और भगवान् के प्रति कहे जाने वाले प्रेम को जो कोई माता अपने दूर देश में बसे हुए और मुद्दतों से न देखे गये पुत्र के प्रति या कोई युवक अपनी नव-विवाहित-पत्नी से या कोई कंजूस अपने धन से प्रेम करता है, किया है? अंग्रेजी में कहावत है प्रेम से प्रेम उत्पन्न होता है। यह कैसे सम्भव है कि स्वयं तुम अपने मित्र से प्रेम सच्चे अर्थों में न करो और अपना स्वार्थ पूरा करने की गरज से उससे दोस्ती करो और आशा यह करो कि वह पूरी तौर से तुम्हारी मदद करे। यही व्यवहार अगर कोई भी तुम्हारे प्रति चाहे वे तुम्हारे भाई बहिन, माता पिता ही क्यों न हों, करे तो क्या तुम पसन्द करोगे? और भरसक उनकी सहायता करोगे? अथवा उनसे निष्कपट प्रेम करोगे? जब तुम इसके लिए स्वयं तैयार नहीं हो तो भगवान् को क्यों दोष लगाते हो? वह तुम्हारी सहायता नहीं करते, तुम्हें नहीं अपनाते और वे तुम्हें दर्शन तभी देंगे जब तुलसी दास जी की भाँति तुम्हारी आन्तरिक भावना यह हो :-

“कामहिं नारि पियार जिमि लोभिहिं प्रिय जिम दाम। तिमि रघुनाथ निरन्तर प्रिय लागहु मोहिं राम॥

यह कहना निरर्थक है कि भगवान् सुनते नहीं हमारी पुकार पर उनकी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। यह सम्भव है कि स्विच दबाने पर बिजली का बल्ब न जले परन्तु यह तो असम्भव है कि सच्चे दिल से भगवान् को पुकारो और वह शरणागत हितकारी होते हुए भी मदद न करे। एक दो नहीं अनेक उदाहरण केवल हमारे देश में ही नहीं अन्य देशों में भी प्रसिद्ध हैं कि भगवान् ने अपने शरणागत भक्त की सहायता की है और कभी उसे निराश नहीं किया। महात्मा गाँधी ने स्पष्ट भाषा में इसी सिद्धान्त का समर्थन किया है। वह कहते हैं कि—”मैंने कभी भगवान में प्रतिक्रिया का अभाव नहीं पाया। जब जब मुझे अन्धकार नजर आया और जब-जब मेरी जीवन नैया सुविधा पूर्वक चलती न दीख पड़ी मैंने उसे अपने हाथ के पास बिल्कुल समीप पाया। मुझे जीवन में एक क्षण भी तो ऐसा याद नहीं आता जब मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि भगवान मेरा साथ छोड़ रहे हैं।”

आगे महात्माजी कहते हैं कि—”इस दुनिया में मैंने भगवान से अधिक कड़ाई से काम लेने वाला मालिक नहीं देखा। वह निरन्तर हमारी परीक्षा करता रहता है और जब हमें प्रतीत होता है कि हमारा विश्वास हट रहा है या शरीर हमें जवाब दे रहा है और हम डूबे जा रहे हैं तो वह किसी न किसी प्रकार हमारी सहायता को आते हैं और यह साबित करते हैं कि हमें उसका विश्वास इस दशा में भी नहीं छोड़ना चाहिए। वह हमारी सच्ची पुकार पर सदा हमारी मदद करने को तैयार हैं लेकिन अपने ढंग से, न कि जिस प्रकार हम चाहते हैं उस प्रकार, ऐसा मैंने पाया है। एक भी तो उदाहरण मुझे ऐसा याद नहीं आता जब ऐन वक्त पर भगवान ने मुझे छोड़ दिया हो।”

प्रार्थना की प्रतिक्रिया का विवेचन करते हुए गाँधीजी आगे और भी स्पष्ट हैं—”भगवान धृष्ट की प्रार्थना स्वीकार नहीं करते, न उनकी प्रार्थना स्वीकार करते हैं जो उनके साथ सौदा करते हैं। अगर तुम्हें भगवान से मदद लेनी हो तो तुम (विषयों से) नग्न होकर उनके पास जाओ, बिना किसी दुराव के उन तक पहुँचो और तुम्हारे दिल में यह भय और संदेह भी न हो कि तुम जैसे पतित की वह कैसे मदद करेंगे। वे किसी से भेद नहीं करते और तुम्हें मालूम होगा कि एक-2 करके तुम्हारी सारी प्रार्थनायें स्वीकार हो गई। मैं यह सब अपने निजी अनुभव से कह रहा हूँ। मैं अग्नि परीक्षा पार कर चुका हूँ।”

कमजोर दिल और निर्बल आत्मा पुरुष भगवान से भौतिक सुख, धन, सन्तान, यश, स्वास्थ्य, आदि क्षणिक सुख देने वाली तुच्छ वस्तुयें माँगा करते हैं। उच्चकोटि के भक्त भी इन पदार्थों की भीख माँगना अपने स्वाभिमान का खोना समझते हैं। वे अपनी छोटी-2 बातों के लिए भगवान का एहसान लेने को तैयार नहीं।

एक सन्त ने कहा है कि “मुझे भगवान से कुछ नहीं चाहिये। अगर भगवान को किसी चीज की आवश्यकता हो तो वह मुझसे ले सकता है।” कौन परवाह करता है कि वह सर्वशक्तिमान है या नहीं। मुझे न उसकी शक्ति चाहिए , न उसकी शक्ति का प्रदर्शन। मैं, भगवान से प्रेम करता हूँ क्योंकि मैं उनसे प्रेम करना चाहता हूँ और मेरे लिए वह प्रेम रूपी भगवान है यह बहुत काफी है। मनुष्य के अन्दर भगवान से ज्यादा ताकत है, क्योंकि भगवान में ताकत नहीं कि इन्सान को सुधार सके लेकिन इन्सान की ताकत है कि भगवान को अपने प्रेम और तड़पन द्वारा बुला सके।

जिस प्रकार जो प्रेमी आपस में घुल मिल जाते हैं। उनके दरम्यान कोई परदा या छिपाव नहीं रहता। किसी को अपने स्वार्थ सिद्धि की परवाह नहीं, अगर परवाह है तो निःस्वार्थ भाव से अपने प्रेमी की सेवा और सहायता करने की और उससे सच्चा निष्कपट प्रेम करने की। उसी प्रकार जब उस ‘असरन सरन’ की शरण में भक्त चला जाता है तो भगवान के दर्शन देने का क्या प्रश्न, वह तो परछांई की भाँति हर वक्त अपने भक्त के साथ रहते हैं। शरण पड़ने के विषय में महर्षि रमन के विचार कैसे सुन्दर हैं। वह कहते हैं। “भक्त भगवान की शरण जाता है और इसका मतलब यह है कि भक्त का अपना व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है। अगर शरणागति सम्पूर्ण है तो अपना निजी मान समाप्त हो जाता है और तब फिर कोई दुख और शोक नहीं हो सकते।”

एक अंग्रेज ईश्वर भक्त ने भी इन्हीं विचारों का समर्थन बड़े सुन्दर प्रकार से किया है। वह लिखता है “शरण जाने में प्रेमी प्रतीत करता है कि प्रेमी और परमात्मा एक हो गए हैं” और यही भगवान् का सच्चा और पूर्ण दर्शन है।

और यही हृदयोद्गार तो स्वामी रामतीर्थ के हैं :-

मैं अपनी सूरत पैं आप शैदा,

कि राम मुझ में मैं राम में हूँ।


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