(पं. तुलसीराम शर्मा, वृन्दावन)
निरपेक्षं मुनिंशान्तं निर्वैरंस मदर्शनम्।
अनुब्रजाम्यहं नित्यं प्रयेयेत्यं ध्रिरेणुभिः॥
—श्री.भा. 11।14।16
भगवान् कृष्ण कहते हैं कि जिन्हें तृष्णाएँ नहीं सतातीं, जिन्हें किसी से बैर नहीं, जो सबको समता की दृष्टि से देखते हैं, जिनका चित्त शान्त रहता है। ऐसे श्रेष्ठ मानवों के मैं सदा पीछे-पीछे इसलिए घूमता रहता हूँ कि इनकी चरणरज से मैं स्वयं पवित्र हो जाऊँ।
नैष ज्ञान वताशक्य तपस्या नैवचेज्यया।
सम्प्राप्तुमिन्द्रियाणाँ तुसं य मेनैवशक्येत्॥
—म. भा. शाँ. अ. 280
परमात्मा उन्हें नहीं मिलता जो केवल शास्त्र चिंतन, तप, यज्ञ आदि तक ही सीमित हैं। आत्म संयम ही परमात्मा की प्राप्ति का प्रधान हेतु है।
यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु पापकम्।
कर्मणा मनसावाचा ब्रह्मसम्पद्यतेतदा॥
-म.भा.शाँ.अ. 174।57
जिस स्थिति में मनुष्य पूर्ण निर्वैर हो जाता है मन, वचन और कर्म से किसी के प्रति अशुभ भाव नहीं सोचता है, उसी स्थिति में ब्रह्म की प्राप्ति संभव होती है।
तितिक्षया करुणया मैत्र्या चाखिल जन्तुषु।
समत्वे न च सर्वात्मा भगवान् सम्प्रसीदति॥
—श्री. भा. 4।11
भगवान को प्रसन्न करने के तीन ही उपाय हैं—
तितीक्षा—प्रतिकूलताओं का मुकाबला करना
करुणा—दूसरों के दुःख को अपना दुःख मानना
मित्रता—सबके लिए आत्मीयता की भावना रखना।
विप्रान् स्वलाभ सन्तुष्टान् साधून् भूतसुहृत्तमान्।
निरहंकारिणः शान्तान्भमस्ये शिरसाऽसकृत्॥
—श्री. भा. 10।52।30
भगवान् कृष्ण कहते हैं कि मैं उन ब्रह्मगुण सम्पन्न व्यक्तियों को बार बार प्रणाम करता हूँ जो अहंकार रहित, सन्तोषी, शांतचित्त, सबको प्यार करने वाले और परमार्थ परायण हैं।
न ही दृशं सं वननं त्रिषुलोकेषुविद्यते।
दया मैत्री च भूतेषुदानं च मधुराचवाक्॥
—म. भा. आदि 87।12
दीन दुखियों के प्रति दया, सर्वसाधारण के प्रति उदारता और सज्जनों से मित्रता की वृत्ति रखने वाले व्यक्ति मनुष्यों की तो क्या बात, परमात्मा को वश में कर लेते हैं।
पर पत्नी पर दृव्य परहिंसासु मतिष्ट।
न करोति प्रमान् भूवतोष्यते तेन केशव॥
—भविष्य पुराण 1।112
भगवान् उन पर प्रसन्न रहते हैं जो पर स्त्री के प्रति, पराये धन के प्रति पवित्र भाव रखते हैं और किसी को नहीं सताते।
परापवादं पैशुन्य मनृतं च न भाषते।
अन्योद्वेगकरं चापि तोष्यहतेन केशवः॥
—विष्णु पु. 3।8
जो पराई निन्दा, चुगली, मिथ्या भाषण और कटु वचन बोलने की दुष्प्रवृत्तियों से बचे रहते हैं भगवान् उन पर प्रसन्न होते हैं।
तप्यन्ते लोक तापेन प्रायशः साधबोजनाः।
परमाराधनंतद्धि पुरुषस्या खिलात्मनः॥
-भा. 8। 7
भगवान की भक्ति का चिन्ह यह है कि दूसरों की हीन दशा देखकर हृदय करुणद् हो उठे। सज्जन सदा दूसरों के दुःख में पिघल जाते हैं।
यदन्येषाँहितं नस्यादात्मनः कर्म पौरुषम्।
अपत्र पेतवा येन न तत्कुर्यात् कथंच न॥
-महा. शा. अ. 150। 63
अपने जिस किसी कार्य या पुरुषार्थ से दूसरे का हित न होता हो और जिसके करने से समाज में लज्जित होना पड़े, वह कार्य कदापि न करना चाहिए।
यद्यप्य शीला नृपते प्राप्नुवन्ति श्रियं कचित्।
न भुँजते चिरंतात समूलाश्चिन साँतते॥
कुकर्मी लोग यदि लक्ष्मी प्राप्त भी करलें फिर भी वह लक्ष्मी का भोग अधिक दिन नहीं कर सकते। कुछ दिन बाद मूल से नष्ट हो जाते हैं।
न पण्डितो मतोराम बहु पुस्तकं धारणत।
परलोक भयं थस्य न अड़िपण्डितं वुधाः॥
-विष्णुधर्मोत्तर पु.खं. 2 अ. 51
बहुत पुस्तकें पढ़ने वाले को पण्डित नहीं कहते। पण्डित तो वह है जो परलोक का भय मन में भली प्रकार धारण करके कुमार्ग से बचते हुए सन्मार्ग पर ही चलता है।
निषेवते ब्रशस्तानि निन्दितानि नसेवते।
अनास्तिकः श्रद्दघान एतत्पण्डित लक्षणम॥
-म.भा.उघोग.अ. 33
किसी व्यक्ति के आस्तिक होने की दो ही परीक्षायें हैं- 1. दुष्कर्मों से बचना 2. सत्कर्मों में प्रवृत्त रहना।
वृत्तेन भवत्यार्यो न धनेन न विद्यया।
-म.भा. उ. अ. 90
मनुष्य की श्रेष्ठता धन या विद्या से नहीं- सदाचार में सन्निहित है।
बृत्तस्थ मपिचाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः।
चरित्रवान् चाण्डाल को देवता लोग ब्राह्मण ही समझते हैं।
शूद्रोऽपि शील सम्पन्नो ब्राह्मणादधिको भवेत्।
ब्राह्मणो विगताचारः शूद्राद्धीन तरोभवेत्॥
-भ. पु. अ. 44
सदाचार सम्पन्न शूद्र भी ब्राह्मण से अधिक है दुराचारी ब्राह्मण शूद्र से गया हुआ है।
चतुर्वेदोपि दुवृर्न्त सशूद्रादतिरिच्यते।
-म.भा. वन. अ. 313
चारों वेदों का जानकार ब्राह्मण यदि दुराचारी है तो वह शूद्र से गया बीता है।
वृत्तं यत्नेन संरत्तयं ब्राह्मणेन विशेषतः।
अक्षीण वृत्तोन क्षीणो वृत्ततस्तुहतोहतः॥
-म.भा. वन. अ. 313
अपने चरित्र की भली प्रकार रक्षा करनी चाहिए और ब्राह्मण विशेष रूप से अपने चरित्र को अच्छा बनावे। जो सदाचार से गिरा नहीं, वह गिरा नहीं और जो व्यवहार में गिर गया, वह गिर गया।
यज्ञ दान तषाँसीह पुरुषस्य न भूतये।
भवन्ति यः सदाचार समुलूलंघ्य प्रवर्तते॥
मार्कण्डेय पु. अ. 31
जो पुरुष सदाचार को त्याग कर पापपूर्ण जीवन यापन करते हैं उनके लिए यज्ञ, दान, तप मंगल देने वाले नहीं होते।
शीलेनहि त्रयोलोकाः शक्याजेतुँ न संशयः।
नहि किंचिदसाध्यं वैलोके शीलवताँ भवेत्॥
-म. भा. शाँ. 124। 15
सच्चरित्रता से ही तीनों लोक जीते जाते हैं और इसमें संशय नहीं और संसार में शीलवानों को कुछ भी कार्य कठिन नहीं।
यद्यप्पशीला नृपते प्राप्नुवन्तिश्रियंकचित्।
न भुज्जते चिरंतात समूलाश्चन संतिते॥
-म. भा. शाँ. अ. 124
यद्यपि कभी-कभी दुराचारी पुरुष भी सम्पत्ति प्राप्त कर लेते हैं फिर भी अन्त में जड़ चेतन से नष्ट हो जाते हैं।