प्रलय तो होगी-पर अभी कुछ देर है।

September 1960

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इटली के साधुओं ने एक भविष्यवाणी की थी कि 14 जुलाई को प्रलय होगी। यद्यपि भारतीय ज्योतिषियों और आध्यात्म वेत्ताओं ने इसका एक स्वर से खण्डन किया था, फिर भी बात दूर दूर तक फैल गई और लोगों के मन में भय तथा चिन्ता का संचार हुआ। उस दिन बहुत से लोगों का मन परेशानी तथा आशंका में डूबा रहा।

बात बीत गई। प्रलय एक उपहास एवं मखौल की चीज बन गई है। इटली के वे योगी जिनने भविष्यवाणी की थी त्रिकाल दर्शन की उच्च भूमिका तक पहुँचे न होने पर भी अपनी उथली अनुभूतियों को उच्च श्रेणी की विभ्रांत मानने लगे होंगे। समय से पूर्व अपनी स्थिति निश्चय हो जाने से पहले जो लोग अभिमत प्रकाशित करने लगते हैं उन्हें इसी प्रकार उपहासास्पद एवं लाँछित होना पड़ता है। साथ ही वे महत्वपूर्ण आध्यात्म विद्या को भी लाँछित करते हैं इसलिए योग शास्त्र के भारतीय तत्व वेत्ताओं ने परिपक्वावस्था आने से पूर्व अपनी किन्हीं अनुभूति को प्रकाशित न करने का विधान किया है।

14 जुलाई बीत जाने पर लोग प्रलय के संबंध में निश्चिंत हो गये। एक चिन्ता जनक भ्रान्ति का निराकरण समय ने कर दिया यह अच्छा ही हुआ। फिर भी प्रलय एक पहेली है ही। मनुष्य जाति को एक न एक दिन उसका शिकार होना ही है। भले ही वह दिन बहुत नजदीक न हो पर ज्योतिष शास्त्र एवं भौतिक विज्ञान के अनुसार वह सत्यानाशी दिन क्रमशः निकट ही आता चला जा रहा है। और 14 जुलाई न सही—फिर कभी इस दुर्दिन का हमें सामना करना ही होगा। एक दिन हम सबको प्रलय का शिकार होना ही है। उस दिन की सम्भावना किस प्रकार निकट आती जा रही है, आइये इस पर कुछ विचार करें।

खगोल विद्या के वर्तमान विज्ञानाचार्यों के अनुसार आज से पाँच अरब वर्ष पूर्व विश्व की सारी भौतिकी सामग्री एक केन्द्र बिन्दु पर एकत्रित थी। तब उसका स्वरूप क्या था, इसका ठीक ठीक निर्णय नहीं हो सका, पर इतना निश्चित है कि उस एकत्रित सामग्री से किसी अज्ञात कारण से विस्फोट हुआ और उसके असंख्य टुकड़े टुकड़े होकर चिनगारियों की तरह अलग अलग दिशाओं में भाग निकले। यही टुकड़े विभिन्न ग्रह नक्षत्र हैं। वैज्ञानिकों की दृष्टि से यही सृष्टि का आरम्भ है। उस मूल विस्फोट की भड़क से जो शक्ति उत्पन्न हुई थी वह धीरे-धीरे कम तो होती जा रही है पर बनी अभी भी हुई है। प्रत्येक ग्रह नक्षत्र जहाँ अपनी धुरी पर चक्कर लगाता है, अयन कक्ष की यात्रा करता है वहाँ वह तेजी के साथ अपने सौर परिवार को साथ लिए एक दूसरे से दूर भी हटता जा रहा है।

इस बात को यों समझिये—एक रबड़ का गुब्बारा लिया जाए, उस पर स्याही के कुछ निशान लगा दिये जाय। तब उसमें हवा भरी जाए। गुब्बारा जैसे-जैसे फूलता जाएगा वे स्याही के निशान एक दूसरे से दूर होते जायेंगे। इसी प्रकार इस आदि विस्फोट की शक्ति से यह ब्रह्माण्ड अभी भी गुब्बारों की तरह फूलता ही जा रहा है और सारे ग्रह नक्षत्र उस अनन्त शून्य में अपने मूल केन्द्र से निरन्तर दूर अधिक दूर—भागते चले जा रहे हैं। पर जिस प्रकार बारूद का पटाखा फूटने पर उससे उचटे हुए टुकड़े थोड़ी देर बाद ठंडे होते, रुकने और गिरने लगते हैं, उसी प्रकार वह पाँच अरब वर्ष पहले विस्फोट की भड़क से उत्पन्न हुई शक्ति भी शिथिल होनी शुरू हो गई है। ग्रहों के आगे भागने की शक्ति काफी क्षीण हो गई है। आगे यह और भी कम होती जाएगी और एक दिन ऐसा आ जाएगा कि प्रत्येक ग्रह नक्षत्र की धुरी पर घूमने, अयन वृत्त में चक्कर काटने, एक दूसरे से अलग भागने की आदि की सभी गतियाँ शिथिल हो जायेंगी और वे अशक्त होकर गिर पड़ेंगे और एक केन्द्र पर आपस में टकरा कर फिर एकत्रित हो जायेंगे। इसके बाद वही विस्फोट वाला क्रम फिर चलेगा।

वैज्ञानिकों की प्रलय यही है। जबकि स्थूल विस्फोट की शक्ति समाप्त हो जाने से अशक्त ग्रह पुनः अपना अस्तित्व समाप्त करने के लिए गिर पड़ने और टूट फूट जाने के लिए विवश होंगे। वर्षों की सही गणना तो नहीं हो सकी कि वह प्रलय कितने दिन बाद होगी पर इतना निर्विवाद है कि मानव जाति के भाग्य का इस ब्रह्माण्ड के अस्तित्व का अंतिम निपटारा करने वाला वह दिन तेजी से निकट आ रहा है।

मूल विस्फोट से उठी हुई जिस चिनगारी ने पृथ्वी के रूप में अपना अस्तित्व प्रकट किया वह बहुत दिनों तक आग के गोले की तरह घूमती रही। धीरे-धीरे वह ठंडी हुई फलस्वरूप कितने ही प्रकार की गैसों का उद्भव हुआ। भारतीय ज्योतिषी उनकी संख्या 49 बताते हैं। 49 पवन प्रसिद्ध हैं। इन गैसों के कारण अजस्र वर्षा आरम्भ हुई। दीर्घ काल पश्चात् जब वह वर्षा रुकी तो बादलों को चीरकर सूर्य की किरणें पृथ्वी पर आई और उनके प्रभाव में वनस्पतियों तथा जीवों का प्रादुर्भाव हुआ। फिर भी भीतर की गर्मी पूर्णतया शान्त नहीं हुई। वह यदाकदा भूकम्पों के रूप में ज्वालामुखी फूटने एवं अग्नि रस (लावा) उगलने के रूप में बाहर आती रही। जिससे समय समय पर भयंकर दृश्य उपस्थित होते रहे। छोटे बड़े भूकम्प तो अभी भी आते रहते हैं। पर पृथ्वी के आरम्भ काल में भीतरी अग्नि ने भड़क कर भयंकर विस्फोट उपस्थित कर दिये। एक विस्फोट में पृथ्वी का एक टुकड़ा उड़ गया जो मंगल ग्रह के रूप में विचरण कर रहा है। मंगल को भूमि पुत्र माना जाता है। एक विस्फोट में एक टुकड़ा उड़ा कि वह चन्द्रमा बन गया। कहते हैं कि जहाँ आज समुद्र हैं वहाँ का भूखण्ड उड़कर चक्कर काटता हुआ गोल पिण्ड के रूप में परिणत हो गया और पृथ्वी की परिक्रमा करने वाला यही चन्द्रमा है। हमारी पृथ्वी जिस सौर मण्डल की सदस्या है उसमें बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि, यूरेनस, नैपच्यून और प्लूटो यह आठ ग्रह और भी हैं। कुछ ग्रहों के साथ चन्द्रमा जैसे उपग्रह भी हैं। इन नौ ग्रहों के बीच में कई सौ अवात्तर ग्रह एवं कई हजार बहुत छोटे पिण्ड हैं। जिन्हें पुच्छल तारों या उल्काओं के रूप में हम कभी कभी देखते हैं। यह भी किसी ग्रह से उचटी हुई ऐसी ही सामग्री है जिसने कोई उल्लेखनीय स्थान नहीं बनाया है और यों ही छितराई हुई उड़ती फिरती है। हो सकता है इनमें से कुछ पुच्छल तारे या उल्काएं पृथ्वी में से फूटी हों।

यह विस्फोट का सिलसिला अब समाप्त हो गया हो तो बात नहीं है। पृथ्वी के गर्भ में भरी हुई अत्यंत तीव्र अग्नि कभी भी भड़क सकती है और जहाँ हम आप बैठे हैं इस भाग को उल्का, पुच्छल तारे, चन्द्रमा, मंगल आदि के रूप में परिणत कर सकती है। ऐसी सम्भावना यदि सार्थक हो जाए तो सारी पृथ्वी के लिये न सही उस उखड़े हुए भाग के लिये तो प्रलय ही होगी।

यों ब्रह्माण्ड में अगणित सूर्य भरे पड़े हैं, सबके अपने अपने ग्रह हैं और वे अपने ग्रह मण्डल को लिए एक अयन वृत्त में घूमते भी रहते हैं। इनमें से कोई सूर्य ठंडा पड़ जाए, विकृत हो जाए, भड़क उठे या सन्तुलन खो बैठे तो अन्य सौर मण्डलों से टकरा कर उन्हें चूर चूर कर सकता है और फिर यह क्रम आगे बढ़कर अन्य ग्रह नक्षत्रों से टकराने का क्रम जारी रखता हुआ यह प्रलय का आयोजन कर सकता है। अनन्त सौर मण्डलों में से कई सूर्य काफी बूढ़े हो चुके हैं उनकी जीवन लीला भी मनुष्य की ही भाँति समाप्त हो सकती है। और वह प्रलय जिसमें हमें भारी भय लगता है बात की बात में सामने आ खड़ी हो सकती है।

जिस सूर्य से हमारी पृथ्वी जीवन, गुरुत्वाकर्षण तथा अन्यान्य अनेकों तत्व प्राप्त करती है। वह सूर्य भी समय समय पर भड़कता रहता है। कई हजार वर्ष पूर्व सूर्य में एक भयंकर विस्फोट हुआ था जिसका भारी प्रभाव पृथ्वी पर पड़ा, वह अपने केन्द्र से विचलित हो गई और दीर्घ काल तक भयंकर हिम वर्षण होता रहा। यदि वह उस झटके से सम्भल न गई होती तो उस समय प्रलय हो गया होता और हम लोग आज उसकी चर्चा करने के लिये उपस्थित न होते। बीस हजार वर्ष पूर्व भी सूर्य ताप में अचानक कमी आ जाने से भी पृथ्वी को ऐसा ही झटका लगा था, तब उसकी भीतरी आग बाह्य स्तर ठंडा होने के दबाव से भड़क उठी थी और उस भीतर से ऊपर आये हुये अग्नि रस ने हिमालय की पर्वत माला, अरब की भूमि, काश्मीर एवं मारवाड़ के रेगिस्तान को जन्म दिया था, जब यह प्रदेश ऊपर उगले गये। तभी अन्य अनेकों सुसंस्कृत प्रदेश समुद्र के गर्भ में अदृश्य हो गये। आज जो भूखण्ड का नक्शा हमें दिखाई पड़ता है वह उसी 20 हजार वर्ष पूर्व वाली खण्ड प्रलय के बाद का है, इससे पूर्व इस पृथ्वी का नक्शा भिन्न ही था। आज का बहुत सारा स्थल उस समय पूर्ण जल मग्न था। यही उस समय का विस्फोट समुद्र तल आज थल के रूप में प्रस्तुत हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी ऐसे पाँच हिम युगों से गुजर चुकी है। कौन जाने कब छठा हिम युग आ जाए और उसे पार कर सकना पृथ्वी के लिए सम्भव हो भी सके या नहीं? सूर्य ऐसी फिर कोई गड़बड़ी कर बैठे तो बेचारी पृथ्वी को न जाने इसके इशारे मात्र से क्या क्या दुःख भोगने को प्रस्तुत होना पड़े।

ग्रह विज्ञान के ज्ञाताओं को ऐसे लक्षण भी दृष्टि गोचर हुए हैं जिनसे सूर्य के फट पड़ने की आशंका की जाती है। ऐसी स्थिति में हम सब पर क्या बीतेगी, इसकी कल्पना करना भी कँपा देने वाला है। सूर्य ही क्यों पृथ्वी भी जैसे-2 बूढ़ी होती जा रही है उसकी शक्ति गिरती जा रही है। ऋतुएँ परिवर्तित हो रही हैं। उत्पत्ति का क्रम शिथिल हो रहा है। अन्न की पैदावार घट रही है, तेल एवं खनिज पदार्थों का भी भण्डार धीरे-धीरे चुकता जा रहा है। धीरे-धीरे ऐसी समस्या भी उत्पन्न हो सकती है कि अन्न या दूसरे जीवनोपयोगी पदार्थों के अभाव में लोग भूखों मर जाएं, वह भी एक प्रकार की प्रलय होना ही है। चन्द्रमा के समान ठंडी हो जाने पर पृथ्वी पर भी कोई जीव न रह सकेगा। नाम के लिए पृथ्वी चन्द्रमा की भाँति बनी रहे पर उस पर जीवों का गुजारा न हो तो प्रलय के अतिरिक्त क्या कहा जाएगा? चन्द्रमा बेचारा प्रलय ही भोग रहा है।

पृथ्वी पर ऋतु परिवर्तन एवं सर्दी गर्मी की प्रक्रिया भी विचित्र रीति से परिवर्तित हो रही है। उत्तरी ध्रुव गरम होता चला जा रहा है और उधर की बर्फ तेजी से पिघल रही है। उधर दक्षिणी ध्रुव दिन दिन ठंडा होता चला जा रहा है जिससे बर्फ का बोझ बढ़ रहा है। पृथ्वी अपनी वर्तमान धुरी पर इन दोनों ध्रुवों का भार सन्तुलित होने के कारण ही घूम रही है। वह सन्तुलन बिगड़ जाए; एक ध्रुव हलका और दूसरा भारी हो जाए तो पृथ्वी की अपनी धुरी भी बदलनी पड़ेगी। उस स्थिति में आज जहाँ भूमध्य रेखा है वहाँ अगाध जल और हजारों फुट मोटी बर्फ से ढके ध्रुव होंगे और जहाँ आज ध्रुव है वहाँ खेती के लायक जमीन निकल आवेगी। उस स्थिति में भूमध्य रेखा के आस पास बसी हुई आबादी के लिए प्रलय ही होगी और उस नई निकली जमीन पर बसने के लिए बचे खुचे लोगों का जो प्रयत्न होगा वह भी आरम्भ में ही गिनती गिनने सीखने के समान एक नया ही प्रयत्न होगा।

आज जहाँ उत्तरी ध्रुव है वहाँ 10 हजार वर्ष पूर्व स्थल था और मनुष्य तथा पशु-पक्षी रहते थे। उन स्थलों में ऐसे पशु शरीर मिले हैं जिनके मुँह में घास है। बर्फ की ठण्डक में उनके शरीर इतने दिन तक भी सुरक्षित बने रहे हैं। मुँह में लगी घास में यह निष्कर्ष निकाला गया कि यह हिम प्रलय यकायक हुआ। कोई प्राणी भागने या सम्भलने भी न पाया कि पलक मारते यह परिवर्तन हो गया। जल-थल में और थल-जल में परिवर्तित हो गया। गर्म प्रदेश हिम से लद गये और हिमाच्छादित प्रदेशों की भूमि ऊपर निकल आई। हटा हिम युग यदि फिर आ जाए तो पलक मारते मारते ऐसी ही प्रलय फिर सामने आ उपस्थित हो सकती है।

उत्तरी ध्रुव के आस पास लाखों वर्गमील क्षेत्र में फैली हुई 2000 से लेकर 9850 फुट तक मोटी बर्फ की तरह यदि पूरी तरह पिघलने लगी तो समुद्र की सतह 150 से 200 फुट तक ऊँची उठ जाएगी। अभी भी समुद्र जल दिन-दिन बढ़ रहा है और उसकी सतह बराबर ऊँची उठती चली आ रही है। जब यह 200 फुट ऊँची उठी तो कितने ही प्रदेशों को ले डूबेगी फिर बहुत थोड़ी पृथ्वी मनुष्य के रहने लायक बचेगी। उत्तर में गर्मी बढ़ जाने से हिमाचल आदि पहाड़ों की ऊँची चोटियों की जमी हुई बर्फ भी पिघल चुकेगी ऐसी दशा में जो अनेकों नदियाँ बहती हैं वे भी सुख चुकेंगी। केवल वर्षा जल मात्र पर नदी सरोवरों को निर्भर रहना होगा। तब जमीन के भीतर की पानी की सतह भी नीची हो जाएगी। ऐसी दशा में सिंचाई के लिये ही नहीं पीने के लिए जल भी दुर्लभ होगा। इस निर्जल व्रत को करता हुआ मनुष्य अपने अस्तित्व को आखिर कितने दिन बनाये रहेगा?

और यह शैतान का सपूत मनुष्य क्या कम नटखट है। वह भी इस काँच के महल में पत्थर फेंकने की, इस फूँस के झोंपड़े में दिया सलाई का खेल करने को मचल रहा है। एटम बमों, हाइड्रोजन बमों में जो विस्फोट एवं परीक्षण हो रहे हैं वे किसी दिन बारूद में डाली हुई चिनगारी का काम दे सकते हैं। ध्रुव प्रदेशों का सन्तुलन बिगड़ने में ऐसे कुछ ही बम पर्याप्त हैं। पृथ्वी पर फैली हुई और समुद्रतल में भरी हुई हाइड्रोजन गैस इन बमों के कारण ‘हेलियम गैस’ में बदल सकती है। तब पृथ्वी और समुद्र में से हजारों फुट ऊँची अग्नि ज्वाला उठेगी और उनकी लपटों में से इस पृथ्वी पर कुछ बच सकेगा इसकी आशा नहीं की जा सकती।

शास्त्रों में लिखा है कि यह पृथ्वी धर्म पर टिकी हुई है। जैसे जैसे धर्म घटता जाता है वैसे वैसे पृथ्वी भारी होती जाती है। जब यह पाप भार बहुत बढ़ जाता है तो शेषजी उसे अपने फन पर धारण नहीं कर पाते, वह गिर पड़ती है और टूट कर चूर-चूर हो जाती है। हम देखते हैं कि पाप का बोझ दिन दिन बढ़ रहा है। लोग धर्म से विमुख और पाप में प्रवृत्त होते जाते हैं। यह क्रम चलता रहा तो बेचारे शेषजी कब तक? और क्यों? इस पाप का भार वहन करेंगे। जिस दिन वे ऊब गये, समझिए बस उसी दिन ही प्रलय है। इस कच्ची मिट्टी की बनी धरती के चूर-चूर होने में लगेगी ही कितनी देर!

प्रलय की बात मखौल नहीं है, वह एक सुनिश्चित तथ्य है। आज के वैज्ञानिकों की तरह 11 वीं शताब्दी के भारतीय ज्योतिष विद्या के आचार्य भास्कराचार्य भी इस दुखदायी सम्भावना से चिन्तित थे। इसका उनने उल्लेख भी किया है। पर इससे क्या? प्रकृति का उदय और अस्त अवश्यंभावी है। आज नहीं तो कल वह होने ही वाला है। पर वह इतनी निकट नहीं है जितनी इटली के साधुओं ने समझा। प्रलय तो होगी ही—पर अभी कुछ देर है।


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