बुझ गये जो दीप उनकी याद में जल रहे हैं ज्योति के प्यासे नयन।
समय की नौका नियत की धार में,
लहर की सीमा बंधी पतवार में।
जिन्दगी की जीत शायद है छिपी,
आदमी की विवशता में हार में॥
चल चुके जो चरण हैं इस पथ पर प्रगति करती है उन्हीं का अनुसरण
कल्पना के आवरण में कामना,
कामना में मूर्त मन की याचना।
याचना की इष्ट बस केवल यही,
सिद्धि बन जाये स्वयं सम्भावना॥
साँझ की धुँधली प्रभा के अंक में मुस्कराती ज्योत्सना का अवतरण।
ज्योति की अनुराग मय मंगल शिखा,
त्याग का वह पाठ देती है शिखा।
युग युगों से जो मनुज के मोह को,
लक्ष्य है उत्सर्ग का देता सिखा॥
श्वास के अन्तहीन प्रवाह का गमन बनता है किसी का आगमन।
—शिवशंकर एम. ए.
सम्पादकीय