जीवन यात्रा का महान पथ

September 1960

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“आज मैं कुछ नहीं चाहता, आज मैं पाने की प्रार्थना नहीं करूंगा। आज मैं देना चाहता हूँ। देने की शक्ति चाहता हूँ। तुम्हारे संसार में कर्म के द्वारा तुम्हारी जो मैं सेवा करूंगा वह निरन्तर होकर मेरे प्रेम को जागृत और निष्ठावान बनाये रखे। तुम्हारे सामने मैं अपने आपको परिपूर्ण रूप से रिक्त कर दूँगा। रिक्त करके अपने को परिपूर्ण करूंगा।”

—रवीन्द्रनाथ टैगोर

विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की उक्त भाव व्यंजना में कर्म की अनवरत साधना से परमात्मा की पूजा का सन्देश झंकृत हो रहा है। अपनी कर्मशीलता और परिश्रम पुरुषार्थ आदि के द्वारा किस प्रकार उस परमपिता परमात्मा की पूजा करके उसकी प्राप्ति की जा सकती है। विराट का साक्षात्कार करके आत्म लाभ प्राप्त किया जा सकता है। यह विश्व कवि ने अपनी छोटी सी भाव व्यंजना में स्पष्टतया व्यक्त किया है। इससे सर्व प्रथम हमें जीवन में कर्मशीलता अबाधित गतिशीलता पुरुषार्थ का सन्देश मिलता है।

सृष्टि का प्रत्येक तत्व गतिशील है, कर्मशील है, परिवर्तनशील है, कदम कदम पर नई मंजिल की ओर बढ़ना इसका मूल मन्त्र है। कर्मशीलता, गतिशीलता के अभाव में विश्व का कोई अस्तित्व ही नहीं रह जाता। प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ निरन्तर विश्व के उक्त सत्य का सन्देश दे रहा है। नदी अपनी निरंतर गतिशीलता से बही जा रही है। सूर्य उदय होता है, आकाश में आते सम्पूर्ण आलोक से प्रकाशित होता है, छिपता है, रात्रि अपनी काली चादर ओढ़े आती है, चली जाती है फिर दिन आता है। पेड़ वनस्पतियाँ उगते हैं, बढ़ते हैं, मिटते हैं। गतिशीलता, निरन्तर कर्मशीलता ही विश्व का मूल मंत्र है, प्रेरणा है, प्रकृति का नियम है। जहाँ गतिशीलता नहीं है, कर्म का निरन्तर क्रम नहीं है, वहाँ विश्व का अस्तित्व नहीं है, सृष्टि संचालन की आशा नहीं है।

मानव जीवन का अस्तित्व भी विश्व के प्रकृति के उक्त आदेश का पालन करने में ही है। कर्म ही जीवन है। महान विचारक रस्किन ने कहा है—”मनुष्य के श्रम का सर्वोच्च पारितोषिक उसे उपलब्ध पुरस्कार नहीं वरन् उसका सम्पूर्ण जीवन ही है।” जीवन की सार्थकता निरन्तर कर्मशीलता में है। उपनिषद् में है—

कुर्वन्नेवेह कर्माणि, जिजी विषेत्..... कर्म करते हुए ही हम सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करें।” कर्म के अभाव में प्राण प्रज्ञा एवं ज्ञान का विशेष महत्व नहीं है। कर्म के सम्पुट से ही प्राण प्रज्ञा और ज्ञान के संयोग से जीवन बना है। कर्म एक निरन्तर साधना है जिससे जीवन के वास्तविक मूल्य की प्राप्ति की जा सकती है। महापुरुषों का जीवन कर्म शीलता का जागृत उदाहरण है। ईसा, बुद्ध, शंकराचार्य, गाँधी की जीवनियों से ज्ञात होता है कि उन्होंने कर्म को ही अपना जीवन साथी चुना और उसके सहारे महानता प्राप्त की। पं. नेहरूजी ने एक जगह लिखा है “काम के भार से मैं अपने शरीर और मस्तिष्क की स्फूर्ति कायम रख पाता हूँ। श्रम ही जीवन है।” अमेरिका के धनपति हेनरी फोर्ड “हमारा काम ही हमें जीवन प्रदान करता है।” लोकमान्य तिलक ने लिखा है- “संसार में एक ही वस्तु को मैं परम पवित्र मानता हूँ, वह है मनुष्य का अनवरत श्रम।”

मनुष्य जीवन की सार्थकता सफलता, सिद्धि में श्रम का कर्मशीलता का प्रमुख स्थान है। श्रम का अवलम्बन लेकर मनुष्य महान बन सकता है। संसार का मार्ग बदल सकता है। कर्म शक्ति से क्या-क्या नहीं हो सकता। कर्म सन्देश देते हुए ही ऋषियों ने कहा है “उत्तिष्ठत जाग्रत, प्राप्य वरान्नि वरोधत।” उठो जागो और यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करो।

कर्मशीलता निरन्तर गतिशीलता, आगे बढ़ने में भी अवरोधों, अभिघातों का आना स्वाभाविक है। सम्भव है यही विश्व की संघर्ष शीलता है जीवन संग्राम है। विश्व का कोई तत्व कोई पदार्थ ऐसा नहीं है जहाँ प्रतिरोध संघर्ष अभिघातों का सामना न करना पड़े। नदी को अपनी निरन्तरता गतिशीलता को कायम रखने के लिए कितने पहाड़ों घाटियों मैदानों में होकर गुजरना पड़ता है और कितने प्रतिरोधों का सामना करना पड़ता है। बीज को विशाल वृक्ष बनने की तैयारी में पृथ्वी के कठोर तल का सामना करके उसे तोड़ना पड़ता है। फिर अपनी वृद्धि के क्रम में कितने प्रतिरोध सहने पड़ते हैं। ठीक इसी प्रकार जीवन की गतिशीलता, कर्मशीलता में प्रतिरोधों का सामना करना भी स्वाभाविक ही है। क्योंकि बिना इनकी गतिशीलता के तीव्रता शक्ति स्फूर्ति पैदा नहीं होती। मनुष्यत्व के पथिकों को, आत्मलक्ष्य के जिज्ञासुओं को, जीवन यात्रा के यात्रियों को, जीवन के सफल कलाकारों को, अपनी गतिशीलता कर्मशीलता को जारी रखने के लिए आने वाले अभिघातों कष्टों प्रतिरोधों का सामना करते हुए आगे बढ़ते रहना आवश्यक है। अपने पुरुषार्थ, अखण्ड परिश्रम, कर्म की गति को रोकना नहीं चाहिए वरन् अपनी जीवन नौका को इन बल्लियों से सुख दुःखों की उत्ताल तरंगों के ऊपर से बहा ले जाना चाहिए। कष्टों का वरण करके अपनी गतिशीलता का क्रम जारी रखना चाहिए। पथ की कठोर विभीषिकाओं की ओर संकेत करते हुए ऋषियों ने कहा है “क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया, दुर्गं पथस्तत कवयो वदन्ति” वह पथ क्षुरधारा के समान दुर्गम है ऐसा कवियों ने, जीवन यात्रा के सफल पथिकों ने जीवन दर्शकों ने कहा है।

किन्तु यह सब किस लिये, यह संघर्ष क्यों, इस विषम भार को वहन कर जीवन को तिल-तिल क्यों घिसा जाए? यह प्राण प्रण चेष्टा क्यों की जाए? इसका प्रत्युत्तर हमें उस पुष्प के जीवन से मिलता है जो अपनी मनोरम आभा, मधुर मकरन्द, सुन्दर छवि शक्ति सामर्थ्य तथा स्वयं को निखिल विश्व में उस विराट की अंक में एक आहुति तथा उसकी पूजा के रूप में प्रस्तुत कर रहा है। हमारे प्रश्नों का प्रत्युत्तर देती हुई नदी हमें अपना मूक सन्देश दे रही है जिसके एक ओर की गतिशीलता, प्रतिरोध, अभिघात और कठिनाइयों का सामना सुदीर्घ यात्रा, मार्ग की उलझने और उसके दूसरी ओर जहाँ वह जा रही है विराट महासागर जिसमें वह अपने आपका उत्सर्ग कर अस्तित्व को मिटाकर अपने आपकी एक आहुति देती है और अपने को पूर्ण रूपेण उसमें लय कर देती है।

ठीक इसी प्रकार जीवन की गतिशीलता कर्मशीलता निरन्तर श्रम का निशेषलय भी उस एक विराट की अनन्य सत्ता में है। जगत के इस विशाल यज्ञ कुण्ड में मानव जीवन एक आहुति है। वेद में कहा गया है “कस्मै देवाय हविषा विधेम” अपनी जीवन रूपी हवि से हम परमदेव की अर्चना करते हैं। जीवन की कर्मशीलता का उद्देश्य भी विश्व यज्ञ की आहुति के रूप में होना आवश्यक है। शास्त्र कहता है “यद् यद् कर्म प्रकुर्वीततद् ब्रह्मनि समर्ययेत” ब्रह्मनिष्ठ गृहस्थ जो जो कर्म करे उन्हें ब्रह्म को उस विराट सत्ता को समर्पण कर दे जिसकी प्रेरणा से यह सृष्टि का क्रम चल रहा है। जहाँ एक ओर संसार संग्राम है निरन्तर गतिशीलता, कर्म, श्रम का सन्देश है उसके दूसरी ओर उस कर्तृत्व को उस परम सत्ता में जहाँ सारे कर्तृत्व घट विघटन का निःशेष रूप से लय होता है विसर्जित करके अपने आपको उस विराट में समर्पित करके अखण्ड आनन्द, प्रेम, पूर्णता, परम शान्ति, आत्मलक्ष्य प्राप्त करना आवश्यक है। यही जीवन यात्रा की कर्मशीलता श्रम, गति के उद्देश्य का निर्धारित सत्य है जो प्रत्येक बुद्धिमान मानव को अपनाने का प्रयत्न करना चाहिए।


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