प्रेरणा-प्रद दोहे (kavita)

September 1960

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चार वेद घट शास्त्र में बारु मिली है दोय।

दुख दीने दुःख होत है, सुख दीने सुख होय॥1॥

ग्रन्थ पन्थ सब जगत के, बात बतावत ठीन।

राम हृदय, मन में दया, तन सेवा में लीन ॥2॥

तन मन धन दै कीजिये, निशि दिन पर उपकार।

यही सार नर देह में, वाद-विवाद बिसार॥3॥

चींटी से हस्ती तलक, जितने लघु गुरु देह।

सबकौं सुख देवो सदा, परम भक्ति है येह॥4॥

काम-क्रोध अरु लोभ मद, मिथ्या छल अभिमान।

इनसे मनकौ रोकिबो, साँचौ व्रत पहिचान॥5॥

श्वास-श्वास भूल नहीं, हरि का भव अरु प्रेम।

यही परम जिय जानिये, दैंत कुशल अरु क्षेम॥6॥

मान धाम धन नारि सुत, इन में जो न आसक्त।

परमहंस तिहिं जानिये, घर ही माहिं विरक्त ॥7॥

प्रिय भाषण पुनि नम्रता, आदर प्रीति विचार।

लज्जा क्षमा अयाचना, ये भूषण नर धार ॥8॥

शीश सफल संतनि नमें, हाथ सफल हरि सेब।

पाद सफल सत्संग गत, तब पावै कछु मेव ॥9॥

तनु पवत्र सेवा किए, धन पवित्र अरु दान।

मन पवित्र हरि भजन कर, होत त्रिविध कल्यान ॥10॥

धिक मानस तनु भक्ति बिन धिक मति बिना विवेक।

विद्या धिक निष्ठा बिना, धिक सुख हरि बिन टेक ॥11॥

विद्या बल धन रूप यश, कुल सुत बनिता मान।

सभी सुलभ संसार मे, दुर्लभ आतम ज्ञान ॥12॥

प्रिय भाषी शीतल हृदय, संयम सरल उदार।

जो जन ऐसौ जगत में, तासो सबको प्यार ॥13॥

पूरण भय जगदीश को, जाके मन में होय।

गुप्त प्रगट भीतर बहिर, पाप करत नहिं सोय ॥14॥

सत्य वचन आधीनता, परतिय मात समान।

इतने में हरि ना मिलें, तुलसीदास जमान॥15॥

राम नाम जपते रहो, जब लगि घट में प्रान।

कबहुँ दीनदयाल के, भनक परैगी कान॥16॥

दया धरम का मूल है, नरक मूल अभिमान।

तुलसी दया न छोड़िये, जब लग घट में प्रान ॥17॥


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