आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग

December 1950

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(श्री स्वामी शिवानन्दजी सरस्वती)

यदि आप जल्दी आध्यात्मिक उन्नति चाहते हैं तो इसके लिए सजगता, होशियारी रखना बहुत जरूरी है आध्यात्मिक मार्ग में थोड़ी-सी सफलता थोड़ी सी मन की गंभीरता, एकाग्रता, सिद्धियों के थोड़े से दर्शन, थोड़े से अन्तर्यामी ज्ञान की शक्ति से ही कभी संतुष्ट मत रहो। इससे ज्यादा ऊंची चढ़ाइयों पर चलना अभी बाकी है।

सदा सेवा करने को तैयार रहो। शुद्ध प्रेम, दया और नम्रता सहित सेवा करो। सेवा करते समय कभी मन में भी खीझने या कुढ़ने का भाव मत आने दो। सेवा करते हुए मुख पर खेद और ग्लानि के भाव मत आने दो। ऐसा करने से जिसकी सेवा करते हो वह आपकी सेवा स्वीकार नहीं करेगा। आप एक अवसर खो दोगे। सेवा के लिए अवसर ढूँढ़ते रहो। एक भी अवसर को मत जाने दो बल्कि अवसर खुद बनालो।

अपने जीवन को सेवामय बना दो सेवा के लिए अपने हृदय में चाव तथा उत्साह भर लो। दूसरों के लिये प्रसाद बन कर रहो। यदि ऐसा करना चाहते हो तो आपको अपने मन को निर्मल बनाना होगा। अपने आचरण को दिव्य तथा आदर्श बनाना होगा। सहानुभूति, प्रेम, उदारता, सहनशीलता और नम्रता बढ़ानी होगी। यदि दूसरों के विचार आपके विचारों से भिन्न हों तो उनसे लड़ाई झगड़ा न करो। अनेक प्रकार के मन होते हैं। विचारने की शैली अनेक प्रकार की हुआ करती है विचारने के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण हुआ करते हैं। अतएव हर एक दृष्टिकोण निर्दोष है, लोगों के मत के अनुकूल बनो। उनके मत को भी ध्यान तथा सहानुभूति पूर्वक देखो और उसका आदर करो। अपने अहंकार चक्र के क्षुद्र केन्द्र से बाहर निकलो और अपनी दृष्टि को विस्तृत करो। अपना मत सर्वग्राही और उदार बना सब के मत के लिए स्थान रखो। तभी आपका जीवन विस्तृत और हृदय उदार होगा। आपको धीरे-धीरे मधुर और नम्र होकर बातचीत करनी चाहिए। मितभाषी बनो। अवाँछनीय विचारों और सम्वेदनाओं को निकाल दो। अभिमान या चिड़चिड़ेपन को लेश मात्र भी बाकी नहीं रहने दो। अपने आपको बिल्कुल भुला दो। अपने व्यक्तित्व का भी अंश या भाव न रहने पावे। सेवा कार्य के लिए पूर्ण आत्मसमर्पण की आवश्यकता है यदि आप में उपरोक्त सद्गुण मौजूद हैं तो आप संसार के लिये पथ प्रदर्शक और अमूल्य प्रसाद रूप हो। आप एक अलौकिक सुगन्धित पुष्प हो जिसकी सुगन्ध देश भर में व्याप्त हो जायेगी। आपने बुद्धत्व की उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर लिया।

नम्र, दयालु, उपकारी और सहायक बनो। यही नहीं कि कभी-कभी यथावकाश इन गुणों का उपयोग किया जावे बल्कि सर्व काल में आपके सारे जीवन में इन्हीं गुणों का अभ्यास होना चाहिये। एक भी शब्द ऐसा मत कहो जिससे दूसरों को ठेस पहुँचे। बोलने से पहले भली प्रकार विचार करो और देख लो कि जो कुछ आप कहने लगे हो वह दूसरों के चित्त को दुखी तो नहीं करेगा-क्या वह बुद्धिसंगत मधुर सत्य तथा प्रिय तो है। पहले से ही ध्यानपूर्वक समझ लो कि आपके विचार शब्दों और कार्यों का क्या प्रभाव होगा। प्रारम्भ में आप कई बार भले ही असफल हो सकते हो परंतु यदि आप अभ्यास करते रहे तो अंतः में आप अवश्य सफल हो जाओगे।

आपको कोई काम निरुत्साह से, लापरवाही से, बेमन से नहीं करना चाहिए यदि मन की ऐसी वृत्ति रखोगे तो जल्दी उन्नति नहीं कर सकते। सम्पूर्ण चित्त, मन, बुद्धि आत्मा उस काम में लगा होना चाहिये। तभी आप उसे योग या ईश्वर पन कह सकते हो। कुछ मनुष्य हाथों से काम करते हैं और उनका मन कलकत्ते के बाजार में होता है, बुद्धि दफ्तर में होती है और आत्मा स्त्री या पुत्र में संलग्न रहती है। यह बुरी आदत है। आपको कोई भी काम हो उसे योग्य सन्तोषप्रद ढंग से करना चाहिये। आपका आदर्श यह होना चाहिये कि एक समय में एक ही काम अच्छे ढंग से किया जाये। यदि आपके गुरु मित्र आपसे तौलिया धोने को कहें तो आपको ना उन्हें बताए हुए ही उनके और कपड़ों को भी धो डालने चाहिए।

लगातार असफलता होने से आपको साहस नहीं छोड़ना चाहिए असफलता के द्वारा आपको अनुभव मिलता है। आपको वे कारण मालूम होंगे जिनसे असफलता हुई है और भविष्य में उनसे बचने के लिये सचेत रहोगे। आपको बड़ी-बड़ी होशियारी से उन कारणों से रक्षा करनी होगी। इन्हीं असफलताओं की कमजोरी में से आपको शक्ति मिलेगी। असफल होते हुए भी आपको अपने सिद्धान्त, लक्ष्य, निश्चय और साधन का दृढ़ मति होकर पालन और अनुसरण करना होगा। आप कहिये “कुछ भी हो मैं अवश्य पूरी सफलता प्राप्त करूंगा, मैं इसी जीवन में-नहीं नहीं, इसी क्षण आत्म साक्षात्कार करूंगा। कोई असफलता मेरे मार्ग में रुकावट नहीं डाल सकती।”

प्रयत्न और कोशिश आपकी ओर से होनी चाहिये भूखे मनुष्य हो आप ही जाना पड़ेगा। प्यासे को पानी पीना ही पड़ेगा। आध्यात्मिक सीढ़ी पर आपको हर एक कदम अपने अपने आप ही रखना होगा। इस बात को भली प्रकार स्मरण रखिये। साहसी बनो। यद्यपि बेरोजगार हो कुछ खाने को नहीं हो, तन पर वस्त्र भी न होवे तब भी सदा प्रसन्न रहो। आपका यथार्थ स्वभाव सच्चिदानन्द है। यह बाह्य नाशवान स्थूल शरीर तो माया का ही कार्य हैं मुस्कुराओ, सीटी बजाओ, हँसो कूदो और आनन्द में मग्न होकर नाचो।

कर्मयोगियों को सुशील, मनोहर मिलनसार प्रकृति का होना होगा। उसको पूर्ण रूप से, अनुकूलता, क्षमाशीलता, सहानुभूति करने वाला, विश्व प्रेम, दया के गुणों से युक्त रहना होगा। उनको दूसरों की चाल तथा आदतों के अनुकूल ही अपने को बनाना होगा। उनको अपने हृदय को ऐसा बनाना होगा कि सभी को अपने गले लगा सकें। उन्हें अपने मन को शाँत तथा समतुल्य रखना होगा। दूसरों को सुखी देखकर उनको प्रसन्न होना होगा। अपनी सब इन्द्रियों को अपने वश में करना होगा। अपना जीवन बहुत सादगी से व्यतीत करना होगा। उन्हें अनादर, अपकीर्ति, निन्दा, कलंक, लज्जित होना, कठोर वचन सुनना, शीत-उष्ण तथा रोगों के कष्ट को सहना होगा। उन्हें सहनशील होना होगा। उनको आप में, ईश्वर में, शास्त्रों में, अपने गुरु के वचन में पूरा विश्वास रखना होगा।

जो मनुष्य संसार की सेवा करता है वह अपनी ही सेवा करता है। जो मनुष्य दूसरों की मदद करता है वास्तव में वह अपनी ही मदद करता है। यह सदा ध्यान में रखने योग्य बात है। जब आप दूसरे व्यक्ति की सेवा करते हैं, जब आप अपने देश की सेवा करते हैं तब आप यह समझकर कि ईश्वर ने आपको सेवा द्वारा अपने को उन्नत तथा सुधारने का दुर्लभ अवसर दिया है। उस मनुष्य के आप कृतज्ञ हों जिसने आपको सेवा करने का अवसर दिया हो।

कर्मयोग ही मन को अन्तर्ज्योति तथा आत्मज्ञान की प्राप्ति का उपयुक्त पात्र बनाता है। वह हृदय को विशाल बनाकर सब प्रकार के बाधा विघ्नों को जो एकता प्राप्त करने में बाधक हुआ करते हैं, हटा देता है। कर्मयोग ही चित्त वृद्धि के लिये एक सफल साधन है।

निष्काम सेवा करने से आप अपने हृदय को पवित्र बना लेते हैं। अहंभाव, घृणा, ईर्ष्या, श्रेष्ठता का भाव और उसी प्रकार के और सब आसुरी सम्पत्ति के गुण नष्ट हो जाते हैं। नम्रता, शुद्ध प्रेम, सहानुभूति, क्षमा, दया की वृद्धि होती है। भेद-भाव मिट जाते हैं। स्वार्थपरता निर्मूल हो जाती है। आपका जीवन विस्तृत तथा उदार हो जायेगा। आप एकता का अनुभव करने लगेंगे। अन्त में आपको आत्मज्ञान प्राप्त हो जायेगा। आप सब में “एक” और “एक” में ही सबका अनुभव करने लगेंगे। आप अत्यधिक आनन्द का अनुभव करने लगेंगे। संसार कुछ भी नहीं है केवल ईश्वर की ही विभूति है। लोक सेवा ही ईश्वर की सेवा है। सेवा को ही पूजा कहते हैं।

अधिकाँश साधक कुछ सेवा के बाद ही शीघ्र ही ईश्वर प्राप्ति के लिये अधीर हो जाते हैं यह निष्काम सेवा या कर्मयोग का लक्षण नहीं, कर्मयोगी वे हैं जो नम्रता तथा आत्मभाव से मनुष्यों की सेवा करते हैं। वही वास्तव में अखिल विश्व के नायक बन जाते हैं। सब लोग उनकी बड़ाई तथा आदर करते हैं। जितना ही आत्मभाव से सेवा करने जायें आप उतनी ही विशेष शक्ति, पौरुष, तथा योग्यता प्राप्त करेंगे। आप इसका अभ्यास करके ही स्वयं अनुभव प्राप्त करें।

जब दूसरों की भलाई करने का भाग मनुष्य का एक अंग ही बन जाता है, तब रेचक मात्र ही किसी प्रकार की कामना नहीं रह जाया करती है। उनको दूसरों की सेवा तथा भलाई करने से ही अत्यन्त आनन्द का अनुभव हुआ करता है। दृढ़ निष्काम सेवा करने से एक विचित्र प्रकार की प्रसन्नता तथा आनन्द हुआ करता है। उनको निष्काम तथा निस्वार्थ कर्म करने से आन्तरिक आध्यात्मिक शक्ति और बल होता है।

आप दूसरों की सेवा करते समय बीज या निराशा, विरक्ति तथा उदासी के भावों को कभी मन में भी न लाया करें। सेवा में ही आनन्दित होकर सेवा किया करें। दूसरों के सेवा करने के लिए सदा प्रस्तुत रहा करें। सेवा करने के अवसर को ढूँढ़ा करें। एक भी अवसर न चूके। सेवा करने का अवसर स्वयं बना दिया करें।

कर्मयोग के अभ्यास में किया गया परिश्रम कभी निष्फल नहीं होता। यह असाध्य भी नहीं है इसमें अपराध तो होता ही नहीं उल्टे इसका थोड़ा भी अभ्यास करते रहने से जन्म-मरण रूप दुःख तथा उसकी सहयोगिनी बुराइयों के ही निवृत्ति होती है। निदान “आत्मज्ञान” की प्राप्ति कर्मयोग से होती है। यहाँ अनिश्चित कुछ भी नहीं है। कर्मयोग का यह आध्यात्म अंत में आत्मानन्द को परमगति तक पहुँचा देता है।


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