साहित्य, संगीत और कला

December 1950

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ले-श्री किशोरीलाल घ. मशरुवाला

आज मैं देखता हूँ कि जहाँ-तहाँ साहित्य, संगीत और कला की उपासना की जा रही है हमारे महाविद्यालयों में इनकी बड़ी पूछ है बड़ा आदर है। सत्याग्रह-आश्रम की बुनाईशाला के द्वारों पर एक-2 पटिया टंगी रहती थी, जिस पर लिखा रहता था - ‘कला ही राष्ट्र का जीवन है।’ और, अगर यह कहूँ कि संगीत की उपासना तो गुजरात में सत्याग्रहाश्रम से ही शुरू हुई तो अत्युक्ति न होगी। भर्तृहरि ने साहित्य, संगीत और कला से हीन मनुष्य को पशु से भी बदतर कहा है एक श्रुति ने तो रस ही को ब्रह्म कहा है। इन प्रबल प्रमाणों के रहते हुए भी आज साहित्य, संगीत और कला की जो विचार-हीन उपासना हो रही है, उसका विरोध करना कर्त्तव्य हो जाता है।

मैं इस बात को मानने से इनकार करता हूँ कि साहित्य, संगीत और कला मनुष्य को पूर्णता के समीप पहुँचाते हैं। पुरातत्वज्ञ ऐसे उदाहरण भी हमारे सामने रख सकते हैं कि जहाँ एक ही मनुष्य में इन तीनों का विकास हुआ है, फिर भी वह मनुष्य नीच से नीच है। वैसे तो कोई भी वस्तु ब्रह्म से भिन्न नहीं है, इसलिए रस का अर्थ साहित्य, संगीत और कला की पोषक वृत्ति करके भी ‘रसो वैस’ वाक्य को मैं मिथ्या नहीं कह सकता। फिर भी मैं यह कहना चाहता हूँ कि जो उपासना मनुष्य को पूर्णता तक पहुँचा सकती है, जिससे समस्त प्रजा का कल्याण हो सकता है, वह अकेले साहित्य, संगीत और कला की उपासना नहीं।

किसी मनुष्य को दूसरे किसी मनुष्य से किसी कार्य-वश या उसके हित के लिए जो कुछ कहना पड़ता है, उसे वह (सभ्यता और सौजन्य की दृष्टि से) चुने हुए उपर्युक्त शब्दों में, शुद्ध उच्चारण के साथ, और एक ही अर्थ की द्योतक वाक्य-रचना द्वारा अपने भावों को पूरी तरह व्यक्त कर सकने वाले स्पष्ट शब्दों और दृष्टान्तों के उपयोग से, यदि ठीक-ठीक कह सकता है, तो इतना कहने की शक्ति प्राप्त करने के लिये साहित्य की जितनी उपासना आवश्यक है, मेरे विचार में वही साहित्यिक उपासना की सीमा का सूचन करती है। उसके हृदय में उत्पन्न होने वाली सात्विक प्रसन्नता से और उसके जीवन की पूर्णता से उसकी वाणी में जितना आनन्द उत्पन्न हो सकता है, वही सात्विक का सच्चा रस है और उसमें जितनी स्वाभाविक सुन्दरता प्रतीत होती है वही सच्ची कला है।

जिस कथन या उक्ति से किसी भी आवश्यक कार्य का सम्बन्ध नहीं, न जिससे किसी का हित हो ही सकता है, वह कितनी ही सुन्दर लच्छेदार भाषा में क्यों न कहा जाय और उत्कृष्ट साहित्य का कैसा ही सुन्दर नमूना क्यों न माना जाय मनुष्य के विकास के लिये मैं तो उसे निरुपयोगी ही समझता हूँ।

इसी प्रकार हृदय में होने वाले उदात्त मन्थन के परिणाम-स्वरूप सहज गति से सार्थक शब्दों का जो राग-बद्ध या ताल-बद्ध प्रवास निसृत होता है, उसमें जितना संगीत है, वह क्षम्य हैं और केवल वैज्ञानिक छान-बीन की दृष्टि से उस संगीतगत स्वर्ग का अभ्यास भी क्षम्य है। मैं उसे क्षम्य मानता हूँ लेकिन, अर्थ को भुलाकर या गौण बनाकर केवल स्वरों की जो कसरत की जाती है, मैं नहीं समझता कि उससे मानव-जाति के विकास में कोई सहायता पहुँचती है।

मेरे विचार में कला का भी ऐसा ही मर्यादित स्थान है। अगर मेरे उपयोग की चीज इतनी अच्छी तरह बनायी गयी है कि उसके उपयोग में मुझे पूरी-पूरी सुविधा होती है, तो उसके जैसी और जितनी कला है, उसी में कला की आवश्यक सीमा आ जाती है। उदाहरण के लिए, चर्खे को ले लीजिये। अगर मुझे चर्खे का उपयोग करना है तो जरूरी है कि वह टिकाऊ हो, उसके जोड़ इस प्रकार जोड़े गए हों कि चलाने में कोई तकलीफ न हो, उसमें कम से कम घर्षण होता हो, उसका तकुआ चकली सरलता से घूमने वाली हो और उसे तेल पिलाने की जगह इस तरह बनी हो कि जहाँ तेल की जरूरत नहीं है वहाँ बिलकुल न पहुँचे तो मैं कहूँगा कि उसके बनाने में कारीगर ने अपनी पूरी कुशलता का उपयोग किया है। मैं यह उम्मीद न करूंगा कि वह चर्खा तरह-तरह के रंगों से रंगा हुआ हो अथवा उसकी लकड़ी पर जगह-जगह सुन्दर खुदाई का काम किया गया हो। मनुष्यत्व के विकास के लिये उतनी ही कला आवश्यक है, जितनी मनुष्य को उसके काम में कुशल बनाती है, इससे अधिक जो कुछ है सब आडम्बर है और मनुष्य जीवन को उसके ध्येय से विमुख करने वाला है।

साहित्य, संगीत और कला पर किया गया मेरा यह प्रहार यदि किसी को अरुचिकर प्रतीत हो तो उनसे मैं यह निवेदन करूंगा कि ये इन तीनों विभूतियों को, कम से कम अपने जीवन में, पूरी तरह उतारें।

जब मैं देखता हूँ कि कोई साहित्यिक अपनी खानगी बातचीत में गन्दी और अश्लील बात ही विशेष करता है तो मुझे साफ कहना चाहिये कि उसके लिखे हुए साहित्य को पढ़ने या सोचने का कोई उत्साह मुझ में नहीं रह जाता।

ऐसे गायक भी पाये जाते हैं, जिनके गान और तान में जन-समूह को मुग्ध करने की शक्ति है, लेकिन उनके जीवन को देखा जाय तो उसमें कोई संगीत नहीं होता, उनकी राग-बद्ध वाणी जितनी मीठी और आह्लादकारक, उनकी मामूली बातचीत उतनी ही कठोर और घृणास्पद, इतनी कि उनसे बोलने को जी नहीं होता।

मैंने ऐसे चित्रकार और बढ़ई देखे हैं, जिनकी कारीगरी को देखते ही मुँह से ‘वाह-वाह’ निकल पड़ता है, लेकिन, अगर उनके कपड़े, घरद्वार, साज-सामान आदि देखे जायं, तो वे इतने भद्दे और अव्यवस्थित होंगे कि देखने को जी ही न चाहेगा। ऐसे समय में यह सोचने लगता हूँ कि काश, ये कलाकार अपने कला-नैपुण्य का कुछ अंश कम करके भी बचे हुए समय को कपड़े धोने, पैबँद लगाने, घर को साफ-सुथरा रखने, दरवाजों और खिड़कियों को कसा-गँसा रखने, खटिया के पायों को सीधा करने, लत्ते-कपड़ों को खूँटी पर टाँगने और अपने औजारों को हर तरह सम्भाल कर रखने में खर्च करें, ताकि इनके विश्वकर्मा प्रभु इन पर विशेष प्रसन्न हो।

जिसके चरित्र को मैं आदर की दृष्टि से नहीं देखता, उसके आध्यात्मिक लेखों में कितनी ही तर्कपटुता और योग शक्ति क्यों न हो, मैं उन्हें त्याज्य ही समझता हूँ। इसी तरह साहित्य, संगीत और कला की भक्ति से जिनकी दिनचर्या में वह आवश्यक परिवर्तन नहीं होता, जो होना चाहिये, उनकी सिद्धियों से लाभ उठाने की मुझे जरा भी इच्छा नहीं होती।

मेरी प्रार्थना है कि साहित्य, संगीत और कला विषयक अपनी वृत्ति और रुचि का हम एक बार फिर विचार करें। मेरे विचार तो मुझे यह सुझा रहे हैं कि जिस प्रकार किफायत और मेहनत में आबादी या समृद्धि का प्राण बसता है और निरंकुश भोग-विलास में समृद्धि सम्पत्ति का ध्येय है, उसी प्रकार गीता भाषा और मजदूरी या कारीगरी की सादगी में और व्यवहारोपयोगिता में राष्ट्र के प्राण समाये हुए हैं, जबकि साहित्य, संगीत और कला के विलास अथवा विकास में राष्ट्र के प्राण का क्षय निहित है।


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