गायत्री साधना का अधिकार

December 1950

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गायत्री मन्त्र का अधिकार केवल द्विजों का ही है। जिनका दूसरा जन्म नहीं हुआ है उनके लिए गायत्री व्यर्थ है। अनाधिकारी होने के कारण न तो उनका इस महान साधना में मन लगता है न विश्वास होता है और न वे तदनुकूल आचरण कर पाते हैं। आयुर्वेद पढ़ना हो तो आरम्भ में हिन्दी और संस्कृत का ज्ञान होना आवश्यक है। अशिक्षित व्यक्ति आयुर्वेद कालेज में नाम लिखाने जाएं तो प्रिंसिपल को यही कहना पड़ेगा कि आपको प्रविष्ट नहीं किया जा सकता।

द्विजत्व का अर्थ है-दूसरा जन्म। एक जन्म माता-पिता से होता है। पशु-पक्षियों का जन्म भी इसी प्रकार होता है। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के बाद मानव शरीर पाने पर भी उसमें पिछले पाशविक संस्कार ही प्रधान रहते हैं। पेट भरना, कामवासना, लोभ, स्वार्थ एवं अहंकार आदि की पाशविक वृत्तियों से प्रेरित होकर वह सोचता है, इच्छा करता है और कार्य प्रवृत्त होता है। यदि यही गतिविधि जारी रहे तो वह नर पशु ही बना रहता है।

पशुता की विचार धारा और कार्य प्रणाली से ऊँचा उठ कर मनुष्यता की जिम्मेदारियों को कन्धे पर लेना, मानवोचित इच्छाएं करना, विचार एवं कार्यों को अपनाना दूसरा जन्म है। पशु का आदर्श इन्द्रिय भोग और स्वार्थ है। मनुष्य का आदर्श आत्मोन्नति और परमार्थ हैं। पशु अपने लाभ के लिए दूसरों की हानि की परवाह नहीं करता मनुष्य दूसरे की सेवा के लिए अपने सुख और स्वार्थ का बलिदान कर देता है। शूद्र का तात्पर्य है-नर पशु। ऐसे व्यक्तियों को शास्त्रों में श्वान समान तिरस्कृत और बहिष्कृत किया है। गायत्री से भी उन्हें आत्मिक अयोग्यता के कारण ही वंचित रखा गया है।

पानी नीचे की ओर अपने आप बहता है। जितनी अधिक सिंचाई होगी उतना ही बहाव तेज होगा। पर यदि पानी को ऊपर की ओर, ऊँचाई की ओर बढ़ाना हो तो कितने ही कष्ट साध्य प्रयत्न करने पड़ते हैं। पशुता की ओर, पतन की ओर, भोग और स्वार्थ की ओर मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, इस प्रवृत्ति पर नियन्त्रण करके धर्म की ओर, संयम की ओर, कल्याण की ओर, अग्रसर होने के लिए जो विशेष अवरोध करना पड़ता है उसका नाम है- द्विजत्व का वृत्त, यज्ञोपवीत संस्कार, गुरु दीक्षा।

पहला स्थूल जन्म माता-पिता के रज-वीर्य से होता है। दूसरा सूक्ष्म जन्म माता गायत्री और पिता गुरु के संयोग से होता है। रोगी अपना इलाज अपने आप नहीं कर सकता, अपने दोषों को समझना, अपनी मानसिक स्थिति को तोलना और आत्मनिर्माण का कार्यक्रम बनाना इस महान योजना को बिना अनुभवी पथ-प्रदर्शक के पूरा नहीं किया जा सकता। जैसे सभी बीमारी की एक दवा नहीं दी जाती उनकी अपनी सूक्ष्म परिस्थितियों को समझ कर अनुभवी वैद्य पृथक-पृथक प्रकार की औषधियों और अनुमानों का विधान करता है ऐसे ही हर व्यक्ति की मिश्र मनोभूमि के अनुरूप ही आत्मोन्नति की योजना बनाई जाती है। यह कार्य दिव्यदर्शी, सूक्ष्म बुद्धि, स्वार्थ रहित, सदाचारी, ज्ञानवृद्ध महापुरुष ही कर सकते हैं। ऐसे ही लोगों को गुरु कहा जाता है। बगीचे का व्यवस्थित विकास करने के लिए ऐसे माली का संरक्षण आवश्यक है जो ठीक समय पर बोना, जोतना, खींचना एवं काट-छाँट करना जानता है। इस प्रकार की नियुक्ति हो जाने पर द्विजत्व का एक महत्वपूर्ण भाग पूरा हो जाता है।

गायत्री के चौबीस अक्षर जीवन की गतिविधि का निर्णय करने में कसौटी का काम देते हैं। प्रत्येक अक्षर एक-एक स्वर्ग शिक्षा का प्रतीक हैं। ‘ॐ’ की शिक्षा है कि सर्वत्र परमात्माओं को व्यापक समझ कर कहीं भी गुप्त या प्रकट रूप से बुराई न करो। ‘भू’ की शिक्षा है कि-अपने अन्दर सम्पूर्ण उत्थान पतन के हेतुओं को ढूंढ़ो। ‘भुवः’ का अर्थ है-कर्त्तव्य कर्म में तत्परता से प्रवृत्त रहो और फल के लालच में अधिक न उलझो। ‘स्वः’ का सन्देश है कि-स्थिर रहो, हर्ष शोक में उद्विग्न न बनो। ‘तत’का तात्पर्य है कि- इस शरीर के क्षणिक सुखों को ही सब कुछ मत समझो, जन्म जन्मान्तरों के स्थायी सुखों का महत्व समझो। ‘सवितुः’ का भावार्थ है- अपने को विद्या, बुद्धि, स्वास्थ्य, धन, यश, मैत्री, साहस आदि शक्तियों से अधिकाधिक सुसंपन्न करना। ‘वरेण्यं’ का संदेश है कि इस दुरंगी दुनिया में से केवल श्रेष्ठता का ही स्पर्श करो। ‘भर्गो’ का अर्थ है-शरीर, मन, मकान, वस्त्र तथा व्यवहार को स्वच्छ रखना। ‘देवस्य’ का अर्थ है- उदारता, दूरदर्शिता। ‘धीमहि’ अर्थात्- सद्गुण, उत्तम स्वभाव, दैवी संप्रदाय, उच्च विचार। ‘धियो’ का तात्पर्य है- किसी व्यक्ति, ग्रन्थ या सम्प्रदाय का अंधानुयायी न होकर विवेक के आधार पर केवल उचित को ही स्वीकार करना। ‘यो नः’ की शिक्षा है- संयम, तप, ज्ञान, सहिष्णुता, तितीक्षा, कठोर श्रम, मितव्ययिता, शक्तियों का संचय और सदुपयोग। ‘प्रचोदयात्’ अर्थात् प्रेरणा देना, गिरे हुओं को ऊँचा उठाना, उत्साहित करना, प्रफुल्लित, सन्तुष्ट एवं सेवा परायण रहना।

संपूर्ण वेद शास्त्रों में अनेक शिक्षायें अपने-अपने ढंग से दी गई हैं उन सब का सार भाग उपरोक्त पंक्तियों में आ गया है उतनी बातें भली प्रकार हृदयंगम कर ली जाएं तो समझ लीजिये कि चारों वेदों के पंडित हो गये। गायत्री के 24 अक्षरों में दिव्य जीवन की समस्त योजना, नीति, विचारधारा, कार्यप्रणाली सन्निहित है, इस पर चलने में व्यवहारिक सहयोग देना, पथ-प्रदर्शन करना, गुरु का काम है। इस प्रकार गायत्री माता और गुरु पिता द्वारा हमारे आदर्शवादी जीवन का जन्म होता है। यही द्विजत्व है।

यज्ञोपवीत में तीन लड़ें होती है प्रत्येक लड़ में तीन-तीन धागे होते हैं। जैसे देवताओं की मूर्ति पाषाण या धातुओं की होती हैं वैसे ही हर घड़ी छाती से लगाये रहने योग्य गायत्री की मूर्ति यज्ञोपवीत रूपी बनाई गई है। गायत्री में तीन पद और नौ शब्द हैं। यज्ञोपवीत में तीन लड़े और नौ सूत्र हैं। तीन व्याहृतियों की प्रतीक तीन ग्रंथियाँ हैं। ऊँकार ब्रह्म ग्रन्थ है। यज्ञोपवीत धारण करने का अर्थ है-“गायत्री से सन्निहित शिक्षाओं को जीवन व्यवहार में क्रियात्मक रूप से चरितार्थ करने का उत्तरदायित्व कन्धे पर उठाना।” इस जिम्मेदारी को स्वीकार करने की प्रतिज्ञा लेना ही यज्ञोपवीत संस्कार या द्विजत्व में प्रवेश कहलाता है।

यज्ञोपवीत धारण का अर्थ उसी दिन इन सब गुणों से परिपूर्ण हो जाना एवं पुराने कुसंस्कारों से तत्क्षण मुक्त हो जाना नहीं है। यह पूर्ण सिद्धावस्था अन्तिम लक्ष्य है “हम सच्चे हृदय से गायत्री में निर्धारित जीवन नीति की उत्तमता को स्वीकार करेंगे।” इस प्रतिज्ञा के साथ द्विजत्व का आरम्भ होता है। जन्म जन्मान्तरों के कुसंस्कार एक दिन में नहीं छूट जाते वरन् उन्हें हटाने के लिए काफी लम्बा धर्मयुद्ध करना पड़ता है। कई बार हम कुसंस्कारों पर विजय पाते हैं कई बार कुसंस्कारों की जीत होती है। यह लड़ाई निरंतर जारी रहनी चाहिये। पाप एवं पतन के सामने कभी भी आत्मसमर्पण न करना चाहिये। उसके प्रति घृणा और प्रतिरोध का भाव सदा जारी रहे। कोई बुराई अपने में हो और छूट न पा रही हो तो भी उसे अपनी कमजोरी या भूल समझकर पश्चाताप ही करें और उससे छुटकारा पाने के लिए यथा शक्ति प्रयत्न जारी रखें। बुराई को भलाई के रूप में स्वीकार करना, उसका समर्थन करना, उसका विरोध छोड़ देना, उसमें रस लेना यह शूद्रत्व का चिन्ह है। हम पाप के प्रतिरोध में अपनी अन्तःचेतना को समक्ष रखें तो हम द्विजत्व की प्रतिज्ञा पर दृढ़ कहे जा सकते हैं। चाहे पूर्ण शुद्ध होने में, पूर्ण सफलता मिलने में, पूर्ण विजय प्राप्त होने में, कितनी ही देर क्यों न लग जाय।

पशुत्व का विरोध और मनुष्यता का समर्थन करने की प्रतिज्ञा लेना, द्विजत्व का व्रत स्वीकार करना आत्मोन्नति का सर्वप्रथम एवं अत्यन्त आवश्यक धर्म कृत्य है। इसे करने के उपरान्त आदर्शवाद के अनुयायियों में अपनी गणना करा लेने के पश्चात् ही हमें वह अधिकार मिलता है कि गायत्री साधना द्वारा देवी शक्तियों को प्राप्त करें। अनाधिकारी व्यक्ति किसी प्रकार उसे प्राप्त भी कर लें तो उसका दुरुपयोग ही करेंगे इसलिए शास्त्रकारों ने प्रतिज्ञा हीन, व्रत हीन, यज्ञोपवीत हीन व्यक्तियों को शूद्र संज्ञा देकर गायत्री का अनाधिकारी ठहरा दिया है। यह प्रतिबन्ध सर्वथा उचित एवं दूरदर्शितापूर्ण ही हैं।

जन्म से हर मनुष्य शूद्र होता है। कर्म से, संस्कार से वह द्विज बनता है। हम में से हर एक को यह प्रयत्न करना चाहिए कि अपनी जन्मजात शूद्रता का परित्याग करके सन्मार्ग गमन रूपी द्विजत्व की प्रतिज्ञा लें इस प्रतिज्ञा के साथ-साथ की हुई गायत्री साधना ही सफल हो सकती है।


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