(डॉ. गोपाल प्रसाद ‘वंशी’, बेतिया)
चरित्र-हीन मूर्ख-चरित्र-हीन विद्वान् से अच्छा है, क्योंकि मूर्ख तो अन्धा होने के कारण पथभ्रष्ट हुआ, पर विद्वान् दो आँखें रखते हुए भी कुएं में गिरा।
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अपने पड़ौसी भिक्षुक से आग मत माँग, उसकी चिमनी से जो धुँआ तू निकलता देखता है, वह लौकिक आग का नहीं बल्कि उसके हृदय में सुलगी हुई दुख की आग का है।
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यदि तेरा मृत्यु-समय उपस्थित नहीं हुआ है तो शेर या चीते के मुँह में पहुँच कर भी तू जिन्दा रह सकता है।
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जो दूसरे को देखकर जलता है, उस पर जलने की जरूरत नहीं, क्योंकि दाह-रूपी शत्रु उसके पीछे लग रहा है। उससे शत्रुता करने की हमें फिर क्या जरूरत है।
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कठोर और मूर्ख मधुमक्खी से कह दो कि जो तू शहद नहीं देती तो डंक भी मत मार।
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जिसने लोगों को धोखा देने के लिए सफेद कपड़े पहिने हैं, उसने अपना भाग्य काला किया है। साँसारिक विषयों से हाथ को रोकना चाहिये। आस्तीन छोटी हो या बड़ी एक ही बात है।
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अपने परिश्रम से जुटाया हुआ अन्न सिर का और साग-रोटी से अच्छा है जो गाँव के सरदार ने दी है।
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विद्वान् की मूर्खों में वही दशा होती है जो किसी सुन्दरी की अन्धों में और धर्म-पुस्तक की नास्तिकों में।
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पत्थर सैकड़ों वर्षों में कहीं लाल बन पाता है उसे एक क्षण में पत्थर से नहीं तोड़ डालना चाहिये।
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बुद्धि आत्मा के इस प्रकार अधीन है, जिस तरह कोई भोला पुरुष किसी चालाक स्त्री के वश में।
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जो साधु ईश्वर के लिए एकाँत-वास नहीं करता, उसका एकान्त-वास धुँधले शीशे की तरह है जिसमें कुछ दिखाई नहीं देता।
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यदि एक बेकार पत्थर सोने के मूल्यवान प्याले को तोड़ दे तो पत्थर मूल्यवान और सोना मूल्यहीन नहीं हो सकता।
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जबर्दस्त के साथ लड़ाई मत ठानो। जबर्दस्त के सामने अपने हाथ बगल में दबा लो।
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किसी आदमी की विद्या बुद्धि का हाल तुम एक दिन में भले ही मालूम कर लो, पर उसके मानसिक दोषों का पता तुम्हें वर्षों तक नहीं चल सकता। इसलिए किसी की विद्या आदि पर मोहित होकर उस पर एक साथ विश्वास मत करो।
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मैं न राज्य चाहता हूँ, न स्वर्ग चाहता हूँ, और न मोक्ष ही चाहता हूँ। मैं दुःखी पीड़ित प्राणियों के दुःख का नाश चाहता हूँ।