राम-राज्य कैसे स्थापित हो?

May 1957

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(सन्त विनोबा भावे)

इस जमाने में जो राज्य होता है, वह राज्य नहीं, बल्कि पूजा (पूजा का राज्य) है। पहले जमाने में जो लोगों को दबाता था वही राजा होता था। इसका अर्थ यह कि जो जंगल के प्राणियों को खा जाता है, वह जंगल का राजा होता है। इस प्रकार की राज-सत्ता अब नहीं चलेगी। अब आगे राज-सत्ता का अर्थ होगा सेवा की सत्ता।

गाँव-गाँव में जो बुद्धिमान, संपत्तिवान और समझदार लोग हों, वे गाँव के माता-पिता बन जाएँ और गाँव की सेवा करके वहाँ का राज्य चलायें। जो बुद्धिमान पिता होते हैं, वे अपने लड़कों के लिये यही इच्छा करते हैं कि हमारे लड़के हमसे ज्यादा बुद्धिमान बनें। इसलिए गाँव के जो बुद्धिमान लोग होंगे, वे इस तरह काम करेंगे कि वहाँ के सब लोग उन्नति करके उनसे भी अधिक समझदार बन जायें। ऐसा ही ग्राम-राज्य फिर राम राज्य बनेगा।

स्वराज्य का अर्थ है-सारे देश का राज्य। जब दूसरे देश की सत्ता अपने देश पर नहीं रहती है, तो स्वराज्य हो जाता है। लेकिन जब हर एक गाँव में स्वराज्य हो जाता है तो उसको रामराज्य कहा जाता है। गाँव के सब लोग बुद्धिमान बने हैं किसी पर सत्ता चलाने की जरूरत नहीं पड़ती है, तब उसका नाम है ‘रामराज्य’। जब गाँव के झगड़े शहर की अदालत में जाते हैं और शहर के लोग उनका फैसला करते हैं, तो उसका नाम है- गुलामी, दासता या परतंत्रता। गाँव के झगड़े गाँव में ही मिटाने का नाम है स्वतंत्रता पर स्वराज्य। और जब गाँव में झगड़े ही न हों उसका नाम है रामराज्य।

जो राज-सत्ता दिल्ली में इकट्ठी हुई है उसे गाँव-गाँव में बाँटना है। हम तो परमेश्वर के भक्त हैं। इसलिये ईश्वर का ही उदाहरण सामने रखें। ईश्वर ने अगर अपनी सारी बुद्धि बैकुण्ठ में ही रखी होती, और किसी प्राणी को बुद्धि दी ही न होती, तो दुनिया कैसे चलती? फिर तो जब किसी मनुष्य को बुद्धि की जरूरत पड़ती, तो उसे बैकुण्ठ को टेलीग्राम भेज कर बुद्धि मंगानी पड़ती। आज जब बात-बात पर आपके मंत्रियों को विमान से दौड़ना पड़ता है, तो फिर भगवान को कितना दौड़ना पड़ता। लेकिन भगवान ने ऐसी सुन्दर योजना की है कि सबको बुद्धि बाँट दी है।

पहले लंदन में सत्ता थी। वहाँ से पार्सल द्वारा वह दिल्ली आयी है। यह तो बड़ी कृपा हुई। लेकिन वह पार्सल दिल्ली में ही अटक गया है, उसे अब गाँव में पहुँचाना है। हमें लोगों को स्वराज्य की शिक्षा देनी है। इसका रूप होगा ‘शासन-विभाजन’। शासन का आज जो केंद्रीकरण हुआ है, उसके बदले शासन का विभाजन करना होगा और हर गाँव में शासन या सत्ता बाँटनी होगी। फिर जब गाँव के सबके सब लोग राज्य शास्त्र के ज्ञाता हो जायेंगे और गाँव के सब लोग जब झगड़ा करेंगे ही नहीं तो उस हालत में शासन से छुटकारा हो जायेगा और रामराज्य आयेगा।

यह सब काम सरकारी कानून से नहीं होगा। कुछ लोग कहते हैं कि गाँवों के बिना जमीन वाले लोगों को भूदान द्वारा जमीन देने की क्या जरूरत है, सरकार खुद क्यों नहीं जमीन दे देती। पर सरकार जमीन बाँटेगी तो गाँवों का राज्य नहीं होगा, दिल्ली-राज्य होगा। लंदन-राज्य के बदले अब दिल्ली राज्य आया है, पर हम चाहते हैं कि दिल्ली-राज्य के बदले गाँव का राज्य आये। जिस प्रकार अपनी भूख मिटाने के लिए हमको ही खाना पड़ता है, दूसरा कोई हमारे लिए नहीं खा सकता, उसी तरह हमारे गाँव में रामराज्य लाने के लिए हमें ही भूदान करके व्यवस्था ठीक करनी होगी। फिर आज जैसे दिल्ली में बैठकर लोग सोचते हैं कि अपने देश में बाहर से कौन-कौन सी चीजें आनी चाहिए और देश की कौन-कौन सी चीजें बाहर जानी चाहिए, उसी तरह गाँव-गाँव के लोग सोचेंगे कि अपने गाँव में कौन सी चीजें शहरों से आनी चाहिए और कौन-कौन सी बाहर जानी चाहिए। आज तो जिसकी मर्जी में जो आता है उसके अनुसार वह बाहर की चीजें खरीदता जाता है, लेकिन आगे यह नहीं चलेगा। सारे गाँव वाले मिलकर चर्चा करेंगे और निर्णय करेंगे। अगर किसी को गुड़ की जरूरत हुई, तो गाँव वाले सोचेंगे और तय करेंगे कि इस साल गाँव में गुड़ नहीं बन सकता, इसलिये एक साल के लिए बाहर से गुड़ खरीदना होगा। लेकिन गाँव की दुकान से खरीदेंगे। इस तरह गाँव के लोग बाहर का गुड़ गाँव की दुकान से एक साल तक खरीदेंगे फिर अगर साल के लिए गुड़ तैयार कर लेंगे।

इस तरह सारा गाँव एक हृदय से सोचेगा। गाँव में पाँच सौ लोग रहेंगे तो गाँव में एक हजार हाथ होंगे, एक हजार पाँव होंगे, पाँच सौ दिमाग होंगे, लेकिन मन एक होगा।

गीता के एकादश अध्याय में विश्वरूप दर्शन की बात है। विश्वरूप दर्शन में हजारों हाथ हैं, हजारों पाँव हैं, कान हैं, आँखें हैं, लेकिन उसमें आपको यह नहीं मिलेगा कि हृदय एक ही होगा। उसी तरह गाँव का हृदय एक होगा। पाँच सौ दिमाग होंगे। वे सलाह करके बात तय करेंगे। यह योजना सबका हित करने वाली-सर्वोदय की होगी।

अब आप बताइये कि यह सर्वोदय का काम गाँव वाले या आपकी राजधानी वाले और दिल्ली वाले करेंगे? यह ठीक है कि आप लोग अपनी योजना करेंगे, तो इसमें राजधानी वाले और दिल्ली वाले आपको कुछ मदद देंगे। लेकिन योजना तो आपको ही अपने गाँव के लिए करनी होगी। अगर गाँव-गाँव में जाकर यह बात समझा देंगे, तो बुद्धिमान किसानों को यह बात समझने की अक्ल है। फिर तो एक-एक गाँव के लोग आपके सामने आकर कहेंगे कि हमने अपने गाँव के भूमिहीनों का मसला हल कर दिया है। अपने गाँव के भूमिहीनों को और कम भूमि वालों को हमने पूरी जमीन दे दी है। फिर इस तरह सब लोगों के दस्तखत के दानपत्र वे आपकी भूदान-समिति के आफिस के पास पहुँचा देंगे। अब गाँव की सारी जमीन गाँव की बना दीजिये। आज आपके गाँव में भूमिहीन कोई नहीं रहा है। अब भूमि मालिक कोई नहीं रहना चाहिये।

यह ठीक है कि इन सब कामों में समय लगेगा, लेकिन ज्यादा समय की आवश्यकता नहीं। अगर गाँव के लोग समझ लें तो एक साल में ऐसा संगठन कर सकते हैं। आवश्यकता यही है कि हम इसके मूल सिद्धान्त को समझ जायें। इनमें पहली बात है केन्द्रीय स्वराज्य, दूसरी है विभाजित स्वराज्य और तीसरा है रामराज्य।

कुछ लोग इस योजना के विषय में कहते हैं कि यह स्वावलम्बन की योजना है, जबकि इस समय परम्परालंबन की योजना आवश्यक है। हम भी परस्परालंबन चाहते हैं, परन्तु वह दो प्रकार का होता है। एक अंधे और लंगड़े का परस्परालंबन होता है। अंधा देख नहीं सकता, परन्तु चल सकता है और लंगड़ा देख सकता है परन्तु चल नहीं सकता। लंगड़ा अंधे के कंधे पर बैठता है। वह रास्ता दिखलाने का काम करता है और अंधा चलने का। इस तरह क्या आप समाज के कुछ लोगों को अंधा रखना चाहते हैं और कुछ को लंगड़ा रखना चाहते हैं, और फिर दोनों का परस्परालम्बन चाहते हैं? हम ऐसा परस्परालम्बन चाहते हैं कि दोनों आँख वाले हों और फिर हाथ में हाथ मिलाकर दोनों साथ-साथ चलें। हम समर्थों का परस्परालंबन चाहते हैं और वे लोग अपाहिजों का परस्परालम्बन चाहते हैं।

हम जानते हैं कि सारी की सारी चीजें एक गाँव में नहीं बन सकतीं। एक गाँव को दूसरे गाँव के साथ और गाँवों को शहरों के साथ सहयोग करना होता है। लेकिन हम यह नहीं चाहते कि गाँवों में शहरों से चावल कूट कर, आटा पिसवाकर और चीनी बनवाकर लाई जाय। हम चाहते हैं कि ये चीजें गाँव में ही बनें। लेकिन गाँवों में चश्मा, थर्मामीटर, लाउडस्पीकर जैसी चीजों की जरूरत पड़ी, तो वे चीजें शहर से लाई जायं। आज यह होता है कि शहर वाले गाँव वालों के उद्योग खुद करते हैं। गाँव में कच्चा माल होता है और उसका पक्का माल गाँव में ही बन सकता है। लेकिन आज शहरों में यन्त्रों के द्वारा पक्का माल बनाया जाता है और उधर परदेश का माल शहरों में आता है, उसे रोकते नहीं। हम चाहते हैं कि गाँव के उद्योग गाँव में चले, और परदेश से जो माल आता है उसे रोकने के लिए वह माल शहरों में बनाया जाय। अगर गाँवों के उद्योग खत्म होंगे, तो न सिर्फ गाँवों पर संकट आयेगा, बल्कि शहरों पर भी आयेगा। फिर गाँव के बेकार लोगों का शहरों पर हमला होगा और ऊपर से परदेशी माल का हमला तो होता ही रहेगा। इस तरह दोनों हमलों के बीच में शहर वाले पिस जायेंगे। इसलिए यह आवश्यक है कि गाँवों और शहरों के बीच ऐसा सहयोग रहे कि गाँव वाले अपने उद्योग गाँव में चलायें और शहर वाले परदेश से आने वाली चीजें बनायें। इस तरह प्रत्येक गाँव पूर्ण हो जायगा और उनमें पूरा सहयोग होगा।


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