महानाश की छाया (Kavita)

May 1957

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अब हो जाओ तैयार साथियो! देर न हो,

दुश्मन ने फिर बारूदी बिगुल बजाया है,

बेमौसम फिर इस नये चमन में फूलों पर,

सर कफ़न बाँधने वाला मौसम आया है।

फिर बनने वाला है जग मुरदों का पड़ाव,

फिर बिकने वाला है लोहू बाजारों में,

करने वाली है मौत मरघटों का सिगार,

सोने वाली है फिर बहार पतझरों में।

फिर सूरजमुखी सुबह के आनन की लाली,

काली होने वाली है धूम घटाओं से,

भरने वाली है कब्रों-कफ़न-चिताओं से।

जिनके माथे की बेदी मन की हँसी-खुशी,

जिनके कर की मेंहदी घर की उजियाली है,

जिनके पग की पायल आँगन की चहल-पहल,

जिनकी पीली चुनरी होली-दीवाली है।

अपनी उन शोभा सीता, राधा, लक्ष्मी के,

फिर मुझे घूँघटों के खुल जाने का डर है,

अपनी उन हिरनी सी कन्याओं, बहनों पर,

खूँखार भेड़ियों के चढ़ आने का डर है।

सारी थकान की दवा कि जिनकी किलकारी,

सब चिन्ताओं का हल जिनका चंचल पन है,

सारी साधों का सुख जिनका तुतलाता मुख,

सारे बन्धन की मुक्ति जिनकी चितवन है।

अपने आँगन के उन शैतान चिरागों के,

हाथों का दूध खिलौना छिनने वाला है,

अपने दरवाजे के उन सुन्दर फूलों से,

दुश्मन भालों की माला बुनने वाला है।

जिन खेतों में बैठा मुस्काता है भविष्य,

जिन खलिहानों में लिखी जा रही युग गीता,

जिस अमराई में भूल रहा इतिहास नया,

जिन बागों की हर ऋतु रानी है परिणीता।

उन सब पर एक बार फिर असमय अनजाने,

छाने वाली है स्याह-नकाबी खामोशी,

उन सब पर एक बार फिर भरी दुपहरी में,

आने वाली है जहर बुझाई बेहोशी।

उन सब पर बुरी निगाह हुई दुश्मन की,

उन सब पर आग बिछाने का उसका मन,

रह जाये मानवता का नाम न शेष कहीं,

ऐसा सैलाब बुलाने का उसका मन है।

लेकिन घबराने की बात नहीं साथी,

एशिया धधकते हुये पहाड़ों का घर है।

है मद चीन के हाथ उधर हँसिया कुदाल,

इस ओर हिमालय की मुट्ठी में दिनकर है।

यह हँसते खेत रहें मुस्काते बाग रहें,

यह तानें रहें झूलती मेघ-मल्हारों की,

यह सुबह रचाये रहे महावर इसी तरह,

यह रात सजे यूँ ही बारात सितारों की।

ऐसे ही ढोलक बजे, मँजीरा झंकरे,

ऐसे ही हँसें झुनझुने बाजें पैजनियाँ,

ऐसे ही झुमके झुमें, चूमें बाल गाल,

ऐसे ही सोहरें, लोरियाँ, रस बतियाँ।

ऐसी ही बदली छाये, कजली अकुलाने,

ऐसे ही बिरहा-बोल सुनाये साँवरियाँ,

ऐसी ही होली जले दिवाली मुस्काने,

ऐसे ही खिले फले हरियाये हर बगियाँ।

ऐसे ही चूल्हे जलें राख यह रहे गरम,

ऐसे ही भोग लगाते रहें महावीरा,

ऐसे ही उबले दाल, बटोई उफनाये,

ऐसे ही चक्की पर गाये घर की मीरा।

इसलिये शपथ है तुम्हें तुम्हारे सर

जिस दिवस एशिया पर कोई बादल छाया,

वह शीश तुम्हारा ही हो जो सबसे पहले,

दुश्मन के हाथों की तलवार मोड़ आय।

*समाप्त*

(श्री नीरज)


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