विलासी मनुष्य धर्मात्मा नहीं हो सकता।

May 1957

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(महात्मा टॉलस्टाय)

वर्तमान समय में संसार में जो अनेकों प्रकार के भ्रम फैले हैं उनमें से एक मुख्य भ्रम यह भी है कि मनुष्य अपनी वासनाओं की पूर्ति में लगे रहते हैं इस वासनामय जीवन को अच्छा समझते हैं, और साथ ही यह भी ख्याल करते रहते हैं कि उनका जीवन उपयोगी, न्याय तथा प्रेम पूर्ण माना जा सकता है। यह बात इतनी आश्चर्यजनक है कि मेरे ख्याल से आने वाली पीढ़ियाँ यह समझ ही न सकेंगी कि ‘उत्तम जीवन’ से हमारे पूर्वजों का तात्पर्य क्या था? जब धनिक वर्ग के ठूँस-ठूँसकर खाने वाले विलासी और कामुक लोगों के लिए यह कहा जाय कि वे उत्तम जीवन बिताते थे, तो फिर यह समझ सकना बड़ा कठिन है कि खराब जीवन किसको कहा जा सकता है? आप धर्म और आध्यात्म के सिद्धान्तों को तो दूर रख दीजिये अगर न्याय और मानवता के साधारण नियमों के अनुसार भी विचार करें तो आप यही कहेंगे कि धनिक वर्ग के इन विलासी लोगों को ‘उत्तम जीवन’ की चर्चा करने का कोई अधिकार नहीं है।

इसलिए हमें यह कहने में तनिक भी शंका नहीं कि जो कोई आदमी उत्तम जीवन बिताने का निश्चय करे उसके लिये यह आवश्यक है कि वह सब से पहले बुरा जीवन व्यतीत करना त्याग दे और उस दुष्ट जीवन के वातावरण का ही नष्ट कर दे, जिससे वह घिरा रहता है। यही हमारा समस्त जीवन सच्चा, न्यायपूर्ण और दयालु हो तभी हमारा कोई काम सत्कार्य माना जा सकता है। यदि हमारा आधा जीवन अच्छा हो और आधा बुरा हो तो हमारे कार्य अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी। पर यदि हम सर्वथा बुरा और गलत जीवन बिता रहे हैं, तो हम जो काम करेंगे वह बुरा ही हो सकता है, अच्छे काम की आशा करना ही व्यर्थ है।

हमारे धनिक वर्ग का जीवन आजकल ऐसा हो गया है कि उसके वातावरण में रह कर मनुष्य से अच्छे कार्यों का हो सकना असम्भव है। हम यह कहना चाहते हैं कि जो मनुष्य भोग विलास में डूबा है वह कभी सत्यतापूर्ण जीवन नहीं बिता सकता। जब तक वह अपने जीवन में परिवर्तन नहीं करता, सत्य की ओर जाने वाली पहली सीढ़ी पर पैर नहीं रखता, तब तक सद्जीवन के लिए वह वह जो भी प्रयत्न करेगा, सब निष्फल जायेंगे। आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन को नापने का एक ही तरीका है और वह यह कि मनुष्य खुद को कितना प्रेम करता है और दूसरों को कितना? हम खुद को जितना कम प्रेम करेंगे, अपने लिए जितनी कम चिन्ता करेंगे, और अपने स्वार्थ के लिए दूसरों से जितना ही कम काम कराएंगे उतने ही उत्तम हम हो सकते हैं। दूसरों से जितना अधिक प्रेम करेंगे, हम उनके लिए जितना परिश्रम करेंगे उतना ही हमारा जीवन उत्तम माना जायगा। संसार के सभी सन्त पुरुषों ने अच्छाई का यही अर्थ बतलाया है, सभी सच्चे धार्मिक पुरुष ऐसा ही कहते हैं और आजकल जन-साधारण भी इसी सिद्धाँत को ठीक मानते हैं। मनुष्य जितना ही अधिक दूसरों को देता है और उतना ही वह श्रेष्ठ होता है। इसके विपरीत जितना ही कम वह दूसरों को देता है और अपने लिए जितना ही अधिक चाहता है, उतना ही वह बुरा होता है।

जो मनुष्य दूसरों के लिए अधिक से अधिक प्रेम वासना रखता है और अपनी खुद की ओर से उदासीन रहता है उसके लिये श्रेष्ठ बनना उतना ही सुगम होता है। इसके विपरीत जो मनुष्य अपने को जितना अधिक प्रेम करता है और दूसरों से अपनी, जितनी ही अधिक सेवा कराता है, उतना ही वह दूसरे लोगों की भलाई कम कर सकता है। एक मनुष्य दूसरों को खिलाने के बजाय खुद ही बहुत अधिक लेता है, तो वह अन्य लोगों की दो प्रकार से हानि करता है। एक तो उसके अधिक खाने से दूसरों के भोजन में कमी पड़ जाती है और दूसरे अधिक खा लेने से वह अपनी शक्ति को भी खो बैठता है और दूसरों का हित करने के योग्य नहीं रहता।

बहुत से लोग ऐसा प्रकट करते हैं कि वे दूसरों से प्रेम करते हैं, पर उनका प्रेम केवल शब्दों तक ही सीमित रहता है। हम दूसरों के साथ तभी वास्तविक प्रेम कर सकते हैं जब कि अपने साथ प्रेम करना या अपना अनुचित स्वार्थ छोड़ें। ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं जिनमें हम समझते हैं कि हम दूसरों से प्रेम करते हैं, पर वास्तव में हमारा प्रेम शब्दों तक ही सीमित होता है। दूसरों के लिए भोजन खिलाना या आश्रय देना हम भूल जाते है, पर अपने लिये भोजन तथा आश्रय प्राप्त करना कभी नहीं भूलते। इसलिए दूसरों को सचमुच प्रेम करने के लिए हमको वास्तव में अपने आपको अधिक प्रेम करना छोड़ना होगा।

हम विलासी जीवन बिताने वाले और अपने सुख के ही लिए प्रयत्न करने वाले व्यक्ति के लिए भी कुछ ऊपरी बातों को देख कर अनेक बार कह देते हैं कि “वह श्रेष्ठ जीवन बिता रहा है।” किन्तु ऐसा व्यक्ति चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, और चाहे उसमें चरित्रशीलता के कितने ही अच्छे गुण-नम्रता, अच्छा स्वभाव आदि-क्यों न हों, अच्छा आदमी नहीं हो सकता और न अच्छा जीवन बिताने का दावा कर सकता है। जिस प्रकार एक चाकू कैसे भी बढ़िया लोहे का क्यों न बनाया गया हो और उसका बनाने वाला भी कैसा ही कारीगर क्यों न हो, पर जब तक उसमें धार न लगाई जायगी वह तेज और कारगर नहीं हो सकता। अच्छा आदमी बनने और अच्छा जीवन व्यतीत करने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य दूसरों से जितना ग्रहण करे, उससे अधिक उन्हें लौटा दे। किन्तु स्व-भोगी (अपने सुख का ध्यान रखने वाला) मनुष्य, जो ऐश आराम की जिन्दगी बिताने का अभ्यासी है ऐसा कर ही नहीं सकता। इसका पहला कारण तो यह होता है कि हमेशा उसको अपने लिये बहुत से पदार्थों की जरूरत रहती है। यह उसकी स्वार्थपरता के कारण नहीं होता वरन् इसलिए भी होता है कि वह भोग विलास का अभ्यस्त होता है और जिन पदार्थों का वह अभ्यस्त होता है, उनसे वंचित रहना उसको कष्टकर जान पड़ता है। दूसरे, वह अन्य लोगों से जो कुछ प्राप्त करता है उस सब का उपयोग स्वयं ही करके अपने आपको कमजोर और काम करने के अयोग्य बना लेता है और इस प्रकार दूसरों की सेवा करने में असमर्थ हो जाता है। एक स्वयं-भोगी मनुष्य, जो देर तक कोमल शैय्या पर सोता है, गरिष्ठ और मीठे पदार्थों का सेवन करता है, हमेशा बढ़िया और फैशनेबल कपड़े पहनता है, कभी मेहनत का काम नहीं करता, वह कभी किसी का उपकार या सेवा करने योग्य नहीं रहता। ऐसा मनुष्य अपने भोग विलासमय जीवन को तिलाँजलि दिये बिना किस प्रकार दूसरों का भला कर सकता है? किस प्रकार सद्जीवन व्यतीत कर सकता है?

मैं समझता हूँ कि मेरा बार-बार इन शब्दों का दुहराना अधिकाँश साधन-सम्पन्न श्रीमानों को अच्छा न लगेगा और वे इन शब्दों के प्रति उदासीनता या विरोध-सूचक मौन का ही परिचय देंगे।

पर एक नीतिमान व्यक्ति चाहे वह उच्च-श्रेणी का हो या मध्यम श्रेणी का इस विषय पर विचार करके कभी इस प्रकार की सामाजिक पद्धति का समर्थन नहीं कर सकता। वे जानते हैं कि जिन पदार्थों का वे व्यवहार करते हैं वे बहुसंख्यक पददलित श्रमजीवियों द्वारा तैयार किये जाते हैं। हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिये ही इन गरीब लोगों को ऐसी परिस्थिति में रखा जाता है कि उनको न तो स्वास्थ्यकर भोजन मिलता है, न स्वास्थ्य कर मकान, न काफी कपड़े मिलते हैं, न मनोरंजन के उचित साधन ही नसीब होते हैं। वृद्ध, बालक और स्त्रियाँ, जो श्रम, मजदूरी के लिये रात-रात भर जगाने और रोगों आदि से जर्जर हो गये हैं, वे ही हमारे लिये आराम और विलास की ऐसी चीजें तैयार करने में अपना जीवन खपा देते हैं, जो उन्हें कभी नसीब नहीं होतीं, पर जो हमारे लिये जरूरी होती हैं। इसलिये कोई भी मनुष्य तब तक नीतिमान और धार्मिक होने का दावा नहीं कर सकता जब तक मनुष्यता तथा न्याय की रक्षा के लिये वह अपने विलासमय जीवन में परिवर्तन करने को तैयार न हो।


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