चमत्कार को नमस्कार

May 1957

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(श्री सत्यदेव शर्मा)

अविकसित मानसिक स्तर की जनता में चमत्कारों के प्रति बड़ा आकर्षण होता है। जो बात साधारणतया नित्य देखने में नहीं आती-उस अनोखी बात या वस्तु को देखकर लोग आश्चर्य करते हैं और उसे देखने दौड़ते हैं। पहाड़ी तराइयों में हाथियों के झुँड वैसे ही घूमते फिरते हैं जैसे यहाँ खेतों और मैदान में हिरन घूमते हैं। इसलिये उन वन्य प्रदेशों के निवासी हाथियों के देखने में कुछ आश्चर्य वहीं मानते। पर जिन स्थानों में हाथी नहीं पहुँचते वहाँ कभी एकाध हाथी का आ जाना तमाशे से कम नहीं समझा जाता। बाजीगर, नटविद्या, अजायबघर, चिड़ियाघर आदि अनेकों आविष्कार मनुष्य की इस कौतुक, कौतुहल अथवा चमत्कार की आकाँक्षा रखने वाली बुद्धि को तृप्त करने के लिए ही हुए हैं।

कोई बात हमको तभी तक चमत्कार लगती है, जब तक वह आमतौर पर प्रचलित नहीं होती। पर जब उसका रहस्य प्रकट हो जाता है या वह बात प्रायः देखने में आने लगती है, तो फिर वह चाहे कितना भी महान चमत्कार ही क्यों न हो, उसका आकर्षण जाता रहता है। वैज्ञानिकों आविष्कारों के आरम्भिक दिनों में, जब रेल, तार, टेलीफोन, हवाई, जहाज, मोटर, आदि का क्या-क्या प्रचलन हुआ था तब लोग इन्हें देखने के लिए सौ-दो सौ मील पैदल चल कर आते थे और इन वस्तुओं को देखकर आश्चर्य के समुद्र में डूब जाते थे। पर धीरे-धीरे जब ये वस्तुएं नित्य के व्यवहार में आने लगीं तो कुछ दिनों में उनका आकर्षण जाता रहा- चमत्कार समाप्त हो गया।

असामान्य वस्तुओं और घटनाओं को देख कर मनुष्य उनके पीछे किसी असामान्य अथवा गुप्त शक्ति होने की कल्पना करता है। अनगिनत, देवी, देवताओं का आविर्भाव आदिम युग में इसी मनोवृत्ति से हुआ था। बिजली चमकने जैसी प्राकृतिक बात का ठीक कारण मालूम न होने से उसका कोई ‘तुक’ बिठाने के लिये इन्द्र के हाथ में वज्र चमकने की बात सोच ली गई। बीमारियों अथवा महामारियों के पीछे किसी देवी, देवता का प्रकोप होने की बात, शरीर-शास्त्री और आरोग्य-विज्ञान से अनभिज्ञ लोगों में अभी तक प्रचलित है। तरह-तरह के रोगों का दूर करने के लिए भूतों और जिन्नों को भगाने वाले ओझा लोगों की मान्यता अभी पिछड़े हुए लोगों में मौजूद है। पर ये बातें विचारशील लोगों में मूर्खतापूर्ण समझी जाती हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि बीमारी स्वास्थ्य-संबंधी नियमों के उल्लंघन का परिणाम है किसी देवी-देवता की नाराजी या प्रसन्नता का इससे सम्बन्ध नहीं।

जब मनुष्य जाति की सभ्यता का विकास होने ही लगा था तब किसी वस्तु, व्यक्ति , शक्ति या घटना की महानता नापने की कोई बुद्धिसंगत कसौटी उसके पास न थी। उस समय चमत्कार ही बड़प्पन का एकमात्र लक्षण मान लिया गया। इसलिये बिजली चमकना, वर्षा होना, भूकम्प, तूफान, अकालमृत्यु, बीमारी, संतान होना या न होना, संपत्ति-विपत्ति आदि सभी घटनाओं से किसी न किसी देवी-देवता का संबंध जोड़ा गया। नवग्रहों की पूजा इसी आधार पर चल पड़ी। किसी व्यक्ति को यदि ऋषि, महर्षि, देवदूत या अवतार सिद्ध करना होता तो उसके द्वारा कुछ चमत्कार होने की बात अवश्य बतानी पड़ती। जो चमत्कार न दिखा सके वह भी महापुरुष हो सकता है, इस बात को मानने के लिए कोई तैयार न होता था। इसलिये जिन स्वर्गीय सत्पुरुषों को उनके अनुयायी ‘महान’ सिद्ध करना चाहते थे उनके साथ कुछ न कुछ चमत्कारी घटनाओं की किंवदंतियां अवश्य जोड़ते। भले ही उन्हें यह कार्य अनिच्छापूर्वक ही करना पड़ता हो।

हम देखते हैं कि पौराणिक काल के सभी देवी, देवता ही नहीं, महापुरुष भी ऐसी सिद्धियों या जादूगरी जैसी अलौकि से पूरी तरह सुसज्जित हैं। हर देवता या महापुरुष के अनुयाइयों ने अपने उपास्य की महिमा बढ़ाने और उसे अन्यों से बढ़कर अलौकिक शक्ति सम्पन्न सिद्ध करने के लिये प्रयत्न किया है। इस प्रकार की प्रशंसा के गीत गाने की घुड़दौड़ में पौराणिक काल में एक अत्यन्त विशालकाय साहित्य तैयार हो गया है। यद्यपि उनमें शिक्षा और विचारोत्तेजक सामग्री भी पर्याप्त है, पर मुख्य उद्देश्य अमुख देवता या महापुरुषों को बढ़ा-चढ़ाकर सबसे अधिक चमत्कारी सिद्ध करना ही है। योगेश्वर कृष्ण और मर्यादा पुरुषोत्तम राम के द्वारा मानव-जाति के लिये किये गये महान कार्यों को पर्याप्त न समझा गया, वरन् अनेक साधारण घटनाओं को अलौकिकताओं के पुट देकर तिल का ताड़ बना दिया गया। उस काल की स्थिति के अनुसार यह सब सिद्ध करना अनिवार्य ही हो गया था।

पिछले समय में साधु महात्माओं के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार की मान्यता जन साधारण में रही है कि जो जितना पहुँचा हुआ फकीर-सिद्ध, महात्मा होगा, वह उतना ही चमत्कार दिखला सकेगा। इस गलत कसौटी के कारण अनेक सत्पुरुष, जो अपनी सत्य निष्ठा पर कायम रहे, जनता में सम्मान प्राप्त न कर सके और न किसी पर अपना प्रभाव जमा सके। इस असफलता से खिन्न होकर कई सत्पुरुषों ने मौन स्वीकृति से अपने चमत्कार होने की बात स्वीकार कर ली, और अनेक अपने भक्तों द्वारा गुण गाथा गाये जाने से सिद्ध बन गये, कुछ ने तो जान बूझकर इस प्रकार का आडम्बर स्वयं बना लिया। धूर्तों की इस अज्ञानान्धकार में खूब बन आई। आज भी अनेक साधु और महात्मा नामधारी ऐसे ही अड्डे जगह-जगह लगाये बैठे हैं।

सौभाग्यवश यह अज्ञानान्धकार का युग अब धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है और महापुरुषों की महानता का मूल्याँकन दूसरी कसौटी पर किया जाने लगा है। अब यह बात रही कि सूर्य को गाल में बन्द किये बिना हनुमान जी की महत्ता को स्वीकार न किया जाय। उनका अखंड ब्रह्मचर्य, न्याय पक्ष का समर्थन और अन्याय पक्ष से लड़ने में निःस्वार्थ भाव से अपनी जान की बाजी तक लगा देना आदि ऐसी महान बातें हैं कि अगर हम हनुमानजी के सूरज को मुँह में रख लेने वाली कथाओं को छोड़ भी दें तो उनके व्यक्तित्व में किसी प्रकार की कमी नहीं आती। अमुक टीले पर गाय के थन में से अपने आप दूध की धार निकलती थी, वहाँ खोदने पर अमुक देवता की मूर्ति निकली और उसका यह मन्दिर बना है। अनेकों मन्दिरों के विषय में फैली हुई यह किंवदंती अब उतनी महत्वपूर्ण नहीं मानी जाती, जितनी कि यह बात कि अमुक देवस्थान द्वारा जन हित के क्या-क्या कार्य सम्पादन होते हैं? यह रुचि परिमार्जन सत्य की प्रतिष्ठ के लिए एक शुभ लक्षण है। चमत्कारों की पुरानी, खोटी कसौटी पर तो केवल अज्ञान और धूर्तता की वृद्धि होना ही संभव है।

चमत्कारों की इस युग की कसौटी यह है कि कौन व्यक्ति , वस्तु या घटना किस हद तक सदुद्देश्यपूर्ण, मानवता की सेवा करने वाली एवं धर्म मर्यादा के अनुकूल है। अब किसी को सच्ची सती सिद्ध करने के लिये छः महीने तक सूरज को रोके रखने और ब्रह्मा, विष्णु, महेश को बालक बना देने की आवश्यकता नहीं समझी जाती। चित्तौड़ की रानियों का आत्मत्याग अब किसी अनुसुइया से कम नहीं समझा जाता। अब अवतार माने जाने के लिये विराह भगवान की तरह दाँत पर या कच्छप भगवान की पीठ पर पृथ्वी उठाने का प्रकरण ढूँढ़ने की जरूरत नहीं है, वरन् अब कुछ भी चमत्कार न करने वाले परमत्यागी और सच्चे संत बुद्ध भगवान को केवल उनके ज्ञान, सेवा, तपस्या, त्याग के आधार अवतार मान लिया गया। महात्मा गाँधी, स्वामी दयानन्द, शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द आदि अनेकों युग-निर्माता महापुरुषों के जीवन-चरित्र में कोई चमत्कार या जादूगरी की बात नहीं है। ये सभी सीधे सादे सत्पुरुष और समाज सेवी थे, फिर भी जनता ने उनको महान और दैवी शक्ति सम्पन्न मान लिया।

तप एक विज्ञान है और प्रत्येक विज्ञान एक शक्ति उत्पन्न करता है। कोई भी साधारण साधक या विशेष तपस्वी यदि साधना करता है, तो निश्चित है कि उसे अपने परिश्रम के अनुकूल आत्मबल प्राप्त होगा। जिस प्रकार बुद्धिबल, बाहुबल, धनबल, संगठनबल, पुण्यबल आदि बलों के द्वारा अनेक प्रकार की सफलताएं और परास्त और समृद्धि को वरण किया जा सकता है, उसी प्रकार तप द्वारा उत्पन्न आत्मबल के बदले में भी भौतिक एवं आध्यात्मिक समृद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। जप, अनुष्ठान, यज्ञ, दान आदि का यही रहस्य है। जिस प्रकार अपने पास धन न होने पर किसी से उधार, दान या सहायता के रूप में प्राप्त करके अपना रुका हुआ काम चलाया जा सकता है, उसी प्रकार एक व्यक्ति दूसरे को अपने तप का पुण्यफल देकर मनोवाँछित सहायता कर सकता है। तप-साधना का विज्ञान यही है कि कोई मनुष्य चाहे तो स्वयं परिश्रम करके तप-शक्ति एकत्रित करे, या कोई तपस्वी किसी के दुख पर द्रवित होकर अपना पुण्यफल उसे दान करके सुखी बना दे। बस इतनी ही तप-शक्ति की मर्यादा है।

जो व्यक्ति लोगों को आश्चर्य में डालने वाली करामातें दिखाते हैं वे या तो धूर्त या मूर्ख होते हैं। एक दो करामात दिखाने में ही वर्षों की संचित तपस्या व्यय हो जाती है। केवल बाजीगर जैसा कौतुक करने में कोई बुद्धिमान व्यक्ति अपनी तपस्या के फल को निरर्थक नष्ट करेगा यह बात समझ में नहीं आती। यदि कोई करता है तो उसे अवश्य महामूर्ख समझा जायगा। अन्यथा ऐसे व्यक्ति में धूर्तता का छिपा होना निश्चित है। इस प्रकार की अगणित घटनाओं का भंडाफोड़ होते रहने के कारण जनता अब बहुत सतर्क हो गई है और उसने अपने महानता नापने के गज को ठीक कर लिया है। अब जनता उन व्यक्तियों तथा कार्यों में महानता का दर्शन करना चाहती है जिनमें स्वार्थत्याग, आत्मसंयम, परोपकार, लोकहित का कुछ अंश पाया जाता है।

कुछ दिन पहले तक किसी से कोई वास्ता न रखने वाले, अपनी मुक्ति साधना में लगे हुये साधु-महात्माओं की लोग इस विचार से सेवा करते थे कि उन्होंने जो तप, बल, इकट्ठा कर रखा है उसमें से वे हमारी सहायता के लिये कुछ हिस्सा दे देंगे। पर अब किसी एकान्त सेवी की महानता में भी संदेह किया जाता है। क्योंकि जिस प्रकार कोई सेठ अपने स्वार्थ के लिये दिन-रात धन संग्रह में जुटा रहता है और अपने आस-पास वालों के सुख-दुख की कुछ परवाह नहीं करता, उसी प्रकार वे साधु-संत भी आध्यात्मिक क्षेत्र के स्वार्थी सेठ हैं। उनको जनता के दुःखों, संकटों की कोई परवाह नहीं होती, वे केवल अपनी मुक्ति के लिये प्रयत्न करते रहते हैं। ऐसे संकीर्ण और स्वार्थी विचार वालों से न तो भगवान प्रसन्न हो सकता है और न कोई असाधारण सिद्धि उनको दे सकता है। यह मान्यता अब लोक-समाज में दिन पर दिन जोर पकड़ती जाती है और जनता कोरे ‘भजनानन्दी’ लोगों की अपेक्षा उन लोकसेवी व्यक्तियों को अधिक महत्व देने लगी है जो अपने निजी लाभ की अपेक्षा करके जन-हित के कार्यों में निःस्वार्थ भाव से लगे हुये हैं।

जन-समुदाय की मनोवृत्तियों के विकास के साथ-साथ सत्य का मूल्य सही दृष्टिकोण से आँका जाने लगा है। विवेकशील आत्माएं वास्तविक तथ्य का दिग्दर्शन करने लगी हैं। जिनके अन्तर में महान बनने की आकाँक्षा है वे अब ऋद्धि-सिद्धियों का जादू ढूँढ़ने पहाड़ों में नहीं जाना चाहते, क्योंकि वैज्ञानिक उन्नति ने अनेकों ऋद्धि-सिद्धियों को व्यर्थ बना दिया है। आकाश में उड़ने की सिद्धि को हवाई जहाज ने, जल पर चलने की सिद्धि का अग्नि बोटों ने, दूर-श्रवण की सिद्धि को रेडियो ने, दूर-दर्शन की सिद्धि को टेलीविजन ने, अन्तर दृष्टि को एक्सरे ने अनावश्यक बना दिया है। और भी जो तथा-कथित सिद्धियाँ शेष हैं वे अन्य लोकों में भ्रमण करने की सुविधा की भाँति विज्ञान की उन्नति के द्वारा कुछ समय में सर्वसाधारण के लिये सुलभ हो जायेंगी। जो चीज गुप्त नहीं है- अनोखी नहीं है उसमें क्या सिद्धि मानी जाय? सुधरा हुआ जनमानस अब महानता का अनुभव किसी धन, बल, मान अथवा तप में नहीं करता, वरन् उसकी उदारता, सेवा, दूसरों को सुखी बनाने के लिये किये हुये आत्म त्याग में ही करता है।

जब जो वस्तु कम होती है या नहीं होती, तब वही वस्तु चमत्कार जैसी लगती है। आज व्यक्तित्ववाद का बोलबाला है, हर आदमी खुदगर्जी में डूबा है। बिना मतलब के कोई किसी की रत्ती भर मदद करना नहीं चाहता। ऐसे स्वार्थवादी युग में ‘परमार्थवाद’ के दुर्लभ आदर्शों का कहीं दर्शन होना सचमुच एक चमत्कार ही है। आज “परहित के लिये स्वार्थ त्याग“ बड़ा कठिन कार्य है। यह आदर्श किसी जमाने से अधिकाँश भारतवासियों का रहा था, यह ठीक है, पर आज तो नवीन सभ्यता ने उसे जड़मूल से उखाड़ फेंका है। इसलिये अब उसका दर्शन होना चमत्कार से कम नहीं है, और वास्तव में मनुष्य की महानता की, उसके अन्तःकरण में स्थित सतोगुण, ज्ञान, परमात्मा की प्रतिष्ठ की कसौटी भी यही है। इसलिये इस परमार्थवादी मनोवृत्ति को चमत्कार कहा जाना चाहिये, और जिन सत्पुरुषों में यह प्रवृत्ति समुचित मात्रा में विकसित हुई है, उन्हें चमत्कारी कहा जा सकता है।

“अखण्ड-ज्योति” का गायत्री परिवार सच्चे सत्पुरुषों से भरा एक रत्न भंडार ही है। इसके बहुसंख्यक सदस्य गृहस्थी में रहते और साधारण कपड़े पहनते हैं। वे लाल-पीले कपड़े नहीं पहिने हैं और न सिर पर जटाजूट बढ़ाये हैं। फिर भी उनमें से अनेकों का आत्म-संयम, स्वार्थ-त्याग और सेवा-भाव ऐसा है, जिस पर हजारों लाल-पीले कपड़े वालों को निछावर किया जा सकता है। इस परिवार के कितने ही सदस्य मानवता की, धर्म और संस्कृति की सेवा के निमित्त जो प्रयत्न कर रहे हैं उसकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की जा सकती है। युग-निर्माण की इस महत्व पूर्ण बेला में ऐसे ही लोगों के चरित्र और कार्य, जनता में प्रकाश उत्पन्न कर सकते हैं। अंधकार को चीर कर उदय होता हुआ प्रातःकाल का सूर्य एक चमत्कार है और सभी लोग इस चमत्कार को नमस्कार करते हैं। व्यक्तिगत स्वार्थपरता में, वासना और तृष्णा में, मानव देह को जलाने वाले अज्ञानियों के बीच सचमुच ही वे लोग अन्धकार को दूर करने वाले प्रातःकालीन सूर्य की तरह एक चमत्कार है, जो अपनी व्यक्तिगत हानि उठाकर-धर्म और संस्कृति की सेवा में आश्चर्यजनक श्रद्धा के साथ सच्चे हृदय से संलग्न है।

गायत्री-परिवार के ऐसे चमत्कारी सत्पुरुषों का सचित्र-परिचय इसी अंक से आरम्भ किया जा रहा है। पाठक देखेंगे कि यह संस्था बलिदान, आत्मदान और जन-सेवा के आदर्शों को क्रियान्वित करने वाले कितने ही नररत्नों से जगमगा रही है। इस युग में यह एक चमत्कार ही है। चमत्कार को नमस्कार करने की परिपाटी के अनुसार विश्व-मानव की अन्तरात्मा इसे नमस्कार ही कहेगी।

तपोभूमि के आश्रमवासी

गायत्री के प्रत्यक्ष चमत्कार पुस्तक में गायत्री उपासना द्वारा अनेकों व्यक्तियों को प्राप्त हुए अनेक प्रकार के लोगों का वर्णन है। जब सामान्य उपासना से साधारण लोगों को इतना चमत्कार दिखाई दे सकता है तो जहाँ माता स्वयं निवास करती है वहाँ कोई विशेषता न होगी? अवश्य ही वहाँ भी सद्बुद्धि प्रेरित चमत्कारी आत्माओं का रहना स्वाभाविक है। इन दिनों यों लगभग 20 व्यक्ति तपोभूमि में रहते हैं, वे सभी सज्जनता और सत्पात्रता की ओर दिन-दिन तेजी से बढ़ते जा रहे हैं। उनमें से कुछ वरिष्ठ-तपस्वियों का परिचय यहाँ लिखा जा रहा है। कुछ का अगले अंकों में छपेगा। तपोभूमि से बाहर भी गायत्री परिवार के व्यापक क्षेत्र में जो उपासनापरायण, आदर्शचरित्र एवं जनहित के लिए त्याग करने वाले सज्जन हैं उनके चित्र एवं परिचय हर महीने छापे जाते रहेंगे। अखण्ड-ज्योति प्रेमी सज्जन अपने क्षेत्र के सभी आदर्श आत्माओं के चित्र और परिचय भिजवाते रहने की कृपा करते रहेंगे ऐसी आशा है।

गायत्री तपोभूमि की परम्परा बड़ी ही पुनीत है। प्राचीन काल के धर्म संस्थाओं एवं ऋषि आदर्शों की परम्परा को पुनः जीवित करने की दृष्टि से ही इस आश्रम के निर्माण का संकल्प किया था। 24 दिन केवल गंगाजल पीकर जीवन को संकट में डालने वाले कठोर उपवास के साथ-2 आचार्य जी ने इस आश्रम की नींव रखते हुए यही भावना रखी कि यह आश्रम उन लोगों से भरा पूरा रहे जिन्हें आदर्शवादी कहा जा सके, जो अपने तप और त्याग से श्रम और साधना से जनता को प्रकाश देते रह सकें। प्रसन्नता की बात है कि आचार्य जी का वह संकल्प निष्फल नहीं जा रहा है। आदर्शों को अपने जीवन में प्रयत्न करने वाले ही व्यक्ति यहाँ ठहर पाते हैं। कभी कोई व्यक्ति दुर्बुद्धि से यहाँ घुस आता है तो थोड़े ही दिनों में उसे भाग खड़ा होने को विवश होना पड़ता है। इन दिनों जो तपस्वी तपोभूमि में निवास कर रहे हैं उनमें से कुछ का परिचय इस प्रकार है-

(1) श्री अशर्फीलाल जी

बिजनौर के सुप्रसिद्ध वकील बा. अशर्फीलाल जी उन सभी बौद्धिक योग्यताओं से सुसज्जित हैं जो वकीलों में होनी चाहिए। किसी बात की तह तक बड़ी बारीकी से पहुँच जाना और वास्तविकता को समझ लेना उनके लिए बहुत ही सरल है। अन्तरात्मा में अनेक वर्षों से धार्मिक जीवन व्यतीत करने और नर-तन को सफल बनाने की उनकी तीव्र आकाँक्षा बहुत समय से थी। अखण्ड-ज्योति से उनका संपर्क हुआ तो इस दिशा में उनकी प्रकृति दिन-दिन बढ़ती ही गई। कई बार उनका मथुरा आना और ठहरना हुआ। जितनी ही बारीकी से इस संस्था के कार्यों पर उन्होंने दृष्टि डाली। उतना ही संतोष होता गया और निश्चय किया कि इस असाधारण उच्चकोटि के कार्यक्रम को असफल होने से बचाने के लिए मुक्त सक्रिय सहयोग देना चाहिए।

कार्य की महानता स्पष्ट थी। सुयोग्य सहकर्मियों के अभाव से संस्था के संचालन के भार से आचार्य की गरदन टूटी जा रही थी यदि यही स्थिति रहती तो या तो संस्था की महान गतिविधि बन्द हो जाती या आचार्य जी का रहा-बचा स्वास्थ्य भी समाप्त हो जाता। इन दोनों ही विपन्न परिस्थितियों को बचाने के लिए उन्होंने अपना रक्त संस्था की नसों में प्रवेश करना उचित समझा और अपने परिवार की अनेक जिम्मेदारियों की, चलती हुई वकालत की, अपने आवश्यकता की, तपस्वी जीवन में उपस्थित होने वाले अगणित असुविधाओं की, परवा न करके जीवन में उपलब्ध सभी आकर्षणों को लात मार कर तपोभूमि में आ गये। गत नरमेध यज्ञ में आपने गायत्री माता को आत्मदान किया था। सच्चे दानी अपनी प्रतिज्ञा से मुकरते नहीं। जिस शरीर को दान कर चुके अब अपने किस काम का? माता चरणों पर अर्पित की हुई देही को सब प्रकार के बंधन काट कर माता के चरणों पर रख दिया है वकील के जीवन में उपलब्ध रहने वाली अनेक सुख सुविधाओं का त्याग कर अब तपस्या का कष्ट साध्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं। धर्मोपदेशक तैयारी करने वाले तपोभूमि में संस्कृति विद्यालय के प्रिंसिपल एवं संचालक का गुरुतर भार आपके कंधों पर डाल दिया गया है।

(2) श्री सत्यभक्त जी

हिन्दी साहित्य के महारथी, उच्च कोटि के दर्जनों ग्रंथों के प्रणेता, प्रणवीर, चाँद, भविष्य, सतयुग मजदूर समाचार, ज्ञान आदि अनेकों साप्ताहिक मासिक दैनिक पत्रों के भूतपूर्व सम्पादक, सतयुग प्रेस के मालिक, उद्भट विचारक श्री सयभक्त के नाम से समस्त हिंदी जगत भली-भाँति परिचित है। अखंड-ज्योति के पाठक भी उनके लेखों का रसास्वादन समय-समय पर करते रहे हैं। श्री सत्यभक्त जी तर्क, विवेक और बुद्धिवाद की मूर्तिमान प्रतिमा हैं। आपका उज्ज्वल चरित्र और असाधारण कर्मनिष्ठ सादा जीवन एवं उच्च विचार का परिपूर्ण समन्वय देखते ही बनता है।

लगभग 16 वर्षों से श्री सत्यभक्त जी का अखंड-ज्योति तथा उसके संचालकों से घनिष्ठ संबंध है। यहाँ की कार्यपद्धति, निस्पृहता एवं सत्यनिष्ठ से वे आरम्भ के दिन जितने प्रभावित हुए संपर्क बढ़ते जाने पर वे उससे दिन-दिन अधिक ही प्रभावित होते गये और अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि अलग काम करते रहने की अपेक्षा अखंड-ज्योति के महान मिशन से घुल जाना और अपनी शक्तियों को इस संस्था के लिए समर्पित करके अधिक लोकहित संपादन किया जा सकता है। नाम अनुरूप उनकी सत्यनिष्ठ-आत्मा ने यही निश्चय किया कि संसार में सत्य सिद्धाँतों की अभिवृद्धि के लिए गायत्री तपोभूमि के मिशन की सेवा करनी चाहिए। इस निश्चय को उन्होंने चरितार्थ कर ही डाला। अपना विशाल पुस्तक व्यवसाय, साहित्य रचना से होने वाली भारी आजीविका, सुव्यवस्थित निज का सतयुग, प्रेस सभी को छिन्न-भिन्न करके अपग्रिही वानप्रस्थ साधु की भाँति गायत्री तपोभूमि में अपनी धर्मपत्नी समेत आ गये हैं। अपनी विचारकता और साहित्य सृजन शक्ति द्वारा इस संस्था की सेवा में दिन रात जुटे रहते हैं।

(3) श्री जी. श्री. कण्ठम्

दक्षिण भारत मैसूर राज्य के 24 वर्षीय तेजस्वी ब्राह्मण कुमार श्री जी श्री कण्ठम् स्ववेदपाठी परिवार के सुपुत्र हैं। आपके पूर्वज तथा वर्तमान कुटुम्बी वेदों के प्रकाण्ड पंडित हैं। श्री जी. श्री कंठम् को बचपन से ही संस्कृत धर्मशास्त्र एवं वेद की शिक्षा मिली। सम्पूर्ण सामवेद उन्हें सस्वर कंठाग्र है। बिना पुस्तक खोले वे पूरा सामवेद सुना सकते हैं। इनका परिवार सब प्रकार सुसम्पन्न एवं उस प्रदेश में सर्वत्र सुविख्यात है।

दो वर्ष पूर्व कुछ समय के लिए वे गायत्री तपोभूमि में कुछ समय निवास करने तथा साँस्कृतिक विषयों की शिक्षा प्राप्त करने आये थे। उन्हें थोड़े ही दिन इधर ठहरना था, पर यहाँ के वातावरण से उन्हें जो प्रकाश दिखाई पड़ा, उससे उनकी आत्मा आनंड़ा-विभोर हो गई और अपना जीवन इस संस्था में ही घुला डालने की बात मन ही मन सोचने लगे। जैसे-जैसे यहाँ की विचारधारा, कार्यशैली एवं वास्तविकता को गहराई से समझते गये वैसे ही वैसे इन विचारों में अधिक परिपक्वता आती गई। अब के तपोभूमि को ही अपना घर मान कर यहाँ रहने लगे हैं। और यहाँ की व्यवस्था संभालते हैं। आगे अधिक योग्यता एवं शिक्षा का संपादन करके भारतीय संस्कृति की ठोस सेवा करने का इनका विचार है ।

(4) ब्रह्मचारी योगेन्द्र जी

फतेहपुर जिले के एक ग्राम में खाते-पीते, भरे-पूरे जमींदार परिवार में पैदा हुए। घर में किसी बात की कभी न थी। हाई स्कूल की पढ़ाई को अधूरी छोड़कर वे सत्य की खोज एवं आत्म कल्याण का मार्ग ढूँढ़ने के लिए निकल पड़े। अनेक संत महात्माओं का सत्संग करने एवं योग साधना के लिए अनेक स्थानों में भ्रमण करते रहे। चित्रकूट में रह कर तप किया। अन्त में उनकी आत्मा यही पुकारी कि सच्ची साधुता एकान्त भजन में नहीं वरन् आत्म-शुद्धि के साथ-साथ लोक सेवा करने में ही है। साधु बाबाजियों में इस लक्ष्य का अभाव देखकर वे उधर से बड़े निराश हुए और अन्त में ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उन्हें अपनी अन्तरात्मा के अनुरूप गायत्री तपोभूमि मिल गई। अब वे लगभग दो वर्ष से तपोभूमि में निवास करते हैं। और अपनी साधना के साथ यहाँ के मिशन को देश भर में फैलाने के लिए संगीत प्रवचन आदि की योग्यता बढ़ाने में संलग्न हैं।

(5) श्री रामलाल जी

विन्दकी-फतेहपुर निवासी श्री रामलाल जी अपने व्यापारी परिवार के प्रमुख हैं। घर का काम काज व्यापार धन्धा भाई भतीजों पर छोड़कर इस दुर्लभ मानव शरीर को धन्य बनाने के लिए, आत्म कल्याण और लोक सेवा की साधना के लिए तपोभूमि में आये हैं आयुर्वेद तथा होम्योपैथी के आप अच्छे विद्वान हैं छात्रों को चिकित्सा शास्त्र का शिक्षण देने तथा चिकित्सालय चलाने की जिम्मेदारी आपने अपने ऊपर उठाई है।

(6) ब्रह्मचारी कृपा शंकर जी त्रिपाठी

हँसवर (फैजाबाद) निवासी यह ब्रह्मचारी जी गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारी, परेशानी और आपत्तियों से आरम्भ से ही सजग हैं। विद्याध्ययन करने के साथ ही उनके मन में परमार्थ के बीजाँकुर उपजे और अपने खेत-द्वार कुटुम्बियों को सौंप कर आत्म कल्याण की खोज में निकल पड़े। अनेक स्थानों पर विद्याध्ययन, सत्संग साधना, समाज, सेवा आदि का कार्य करते रहे। बाराबंकी में एक संस्कृत पाठशाला स्थापित की अलाबलपुर में एक स्कूल स्थापित किया। अब अपनी अभिरुचि के अनुरूप गायत्री तपोभूमि का कार्यक्रम देखकर यहीं निवास कर रहे हैं। साधना के अतिरिक्त ज्ञान संग्रह और ज्ञान में आपकी प्रधान रुचि है।

(7)ब्रह्मचारी लक्ष्मी नारायण जी

साठ वर्षीय जटाजूट धारी वयोवृद्ध पं. लक्ष्मी नारायण जी ब्रह्मचारी परमनैष्ठिक गायत्री उपासक हैं। रात को दो बजे उठकर नित्य कर्म से निवृत्त होकर गायत्री माता के मन्दिर की सफाई, शोभा, पूजा, आरती आदि में लगे रहना, दर्शनार्थियों को चरणामृत देना, उपासना का महत्व बताना उनका नित्य कर्म है। शिक्षा उनकी अधिक नहीं पर सज्जनता और कर्त्तव्य परायणता में वे सुशिक्षितों को मीलों पीछे छोड़ चुके हैं। पुजारी लोग आमतौर से पूजा के पैसे तथा भोग प्रसाद की चीजें हड़प जाने में प्रसिद्ध होते हैं। ब्रह्मचारी लक्ष्मी नारायण जी उनके लिए एक आदर्श हैं। वे न तो वेतन लेते है और न चढ़ौती के पैसों में गड़बड़ी करते हैं। एक-एक पाई खजाने में जमा करते हैं। कोई भक्त भोग प्रसाद चढ़ाये तो उसे तुरन्त सब आश्रम वासियों को बाँट देते हैं। उनकी इस उदारता एवं निस्वार्थता से सभी लोग उनके प्रशंसक हैं।

(8) महात्मा ब्रह्मस्वरूप जी महाराज

महात्मा श्री ब्रह्मस्वरूप जी महाराज, का त्याग और वैराग्य जहाँ आदर्श है वहाँ उनकी धर्म-प्रचार संबंधी लगन भी भूरि-भूरि प्रशंसा के योग्य है। उन्हें दिन रात गायत्री प्रचार की धुन रहती है। अलीगढ़, बुलन्दशहर और मुरादाबाद जिलों में उन्होंने अनेकों गायत्री परिवार स्थापित किये हैं और यज्ञ कराये हैं। आज कल अधिकाँश साधु-बाबाजी अपना पेट पालने और ‘सीताराम बच्चा’ करने तक सीमित रहते हैं, वहाँ महात्मा ब्रह्मस्वरूप जी धर्म प्रचार और लोक शिक्षण की प्राचीन ऋषि परम्परा को पुनर्जीवित कर रहे हैं। यदि इन महात्मा जी का अनुकरण करने वाले सौ पचास साधु सन्त भी निकल आवें तो देश की काया ही पलट सकती है। इन महात्मा जी के उपदेश से हजारों व्यक्ति गायत्री उपासना में लगे हैं और आशा की जाती है कि भविष्य में सहस्रों नर नारियों के अन्तःकरणों में धर्म के बीज बोने में सफल होगी। आज भी ब्रह्मस्वरूप जी जैसे कर्मयोगी महात्माओं की देश को भारी आवश्यकता है। गायत्री तपोभूमि पर महात्मा जी का अत्यन्त स्नेह है और समय-समय पर यहाँ पधारने और निवास करने की कृपा करते रहते हैं।

(9) तपस्विनी विद्यावती

यह 42 वर्षीय तप और संयम की साक्षात् मूर्ति पूर्व जन्मों के संचित ऋषि संस्कार लेकर इस पृथ्वी पर अवतीर्ण हुई हैं। प्रारंभ से ही इनके रोम-रोम में धर्म की हिलोरें उठतीं। घर वालों से विवाह न करने लिए दो टूक इनकार कर दिया और अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत को बड़ी शान के साथ निबाह लाई। जीवन के प्रारंभिक दिनों में वेदान्त सिद्धान्तों का इन पर बड़ा प्रभाव पड़ा। स्वयं वेदान्त विचारों में मग्न रहना और दूसरों को उसी की शिक्षा देना इनका प्रधान मार्ग था। पर तब आचार्य जी से संपर्क हुआ तो उनने समझा कि भजन के साथ-साथ लोक सेवा भी आत्म कल्याण का अत्यन्त आवश्यक कर्तव्य है। तब से वे बड़ी लगन और धुनि के साथ जनसाधारण को विशेषतया महिला समाज को सन्मार्ग पर लगाने में जी जान से जुटी हुई हैं। घर-घर जाकर महिलाओं को समझाना और उनकी अनेकों बुराइयों को छुड़वाना तथा कुछ सद्गुणों की प्रतिज्ञा देना उनका नित्यकर्म रहता है। बहुत दिन तक यह व्रत रहा कि रोज इस नये गायत्री उपासक बना लेने पर ही अन्न जल ग्रहण करना। बिजनौर में इनके प्रयत्न से दर्जनों बड़े गायत्री यज्ञ हुए हैं। पक्की यज्ञशाला बनी है। 600 नैष्ठिक उपासक हैं। लुधियाना, पठानकोट रोहतक, दिल्ली, देवबंद, मुहम्मदपुर आदि अनेकों जगह गायत्री परिवारों की स्थापना की है। नरमेध में आत्मदान करके यह वीरव्रती तपस्विनी अपने दुर्बल स्वास्थ्य की परवा न करते हुए अब शेष जीवन में अगणित गायत्री उपासक उपासिकाएं बनाने में बड़े उत्साह और साहसपूर्वक कटिबद्ध हो रही है। ऐसी वीरव्रती देवियों को सच्चे अर्थों में भारत की विभूति कहा जा सकता है।

(10) श्री. मगनी देवी शर्मा

उत्साह और कर्तव्य परायणता की प्रतिमा मगनी देवी बिजनौर के गर्ल्स स्कूल में अध्यापिका हैं। यों उनका सारा जीवन सेवा और सत्कार्यों में बीता है। पर जब मथुरा पूर्णाहुति में आई तो जीवन को सत्कर्म के लिए उत्सर्ग करने की प्रेरणा उन की अन्तरात्मा में से फूट पड़ी और नरमेध में आत्मदान करके अपना सर्वस्व राष्ट्र में सद्बुद्धि उत्पन्न करने की सेवा के लिए समर्पण कर दिया। गत एक वर्ष से वे बिजनौर क्षेत्र में बड़े उत्साहपूर्वक गायत्री प्रचार एवं संगठन का कार्य कर रही हैं। अब इसी 12 मई से पेंशन लेकर वे एक प्रकार का संन्यास धारणा करेंगी और शेष जीवन का एक भी चरण निजी कार्यों में न लगाकर निरन्तर गायत्री माता के उद्देश्यों का अलख घर-घर जगाने के लिए जुट जावेंगी।

(11)श्री. रतन कुमारी देवी

नेपाली परिवार की सम्भ्रान्त महिला श्रीमती रतन कुमारी देवी अपने भाई श्री बेनी प्रसाद एवं पुत्री चि. मोना के साथ साँस्कृतिक शिक्षा ग्रहण कर रही हैं। उस प्रान्त के पुरुषों में बहु-विवाह प्रथा होने के कारण उनके पति की एक और भी धर्मपत्नी है। इसलिए उनके ऊपर परिवार की विशेष जिम्मेदारी नहीं है। उनका लक्ष्य सदा से बहुत ऊँचा रहा है और साधारण नर-नारियों की भाँति पेट भरने में ही जीवन समाप्त नहीं करना चाहती। साधना और सेवा में उनकी अभिरुचि असाधारण है। सौभाग्य की ही बात है कि उनके पितृकुल और पतिकुल उनकी इस विचारधारा में बाधक नहीं वरन् सहायक हैं। आमतौर से संकुचित मनोवृत्ति के लोग अपने घर की स्त्रियों को घर से बाहर जाने में अपनी ‘नाक-कटना’ मानते हैं।

श्रीमती रतन कुमारी बहुत समय से अखंड-ज्योति पढ़ती हैं। वे उस प्रदेश के अनेक गायत्री उपासकों के साथ विशद् गायत्री महायज्ञ की पूर्णाहुति के समय आई थीं। यहाँ की अत्यन्त महान परम्पराओं से प्रभावित होकर वे अपना आत्मदान करना चाहती थीं बिना पतिकुल और पितृकुल की स्वीकृति के उन्हें वैसा नहीं करने दिया गया। फिर भी आत्मा के सच्चे संकल्प पर किसी का प्रतिबन्ध रह नहीं सका। उस समय उन्हें वापिस जाना पड़ा। अब अपने भाई और कन्या के साथ पुनः आई हैं और अध्ययन कर रही हैं। उनका विचार माता भगवती देवी के साथ नारी जाति की साँस्कृतिक सेवा के लिए अपना जीवन उत्सर्ग करने का है।

(12) श्री बेनी प्रसाद

रेनोक (सिक्किम) बंगाल के अध्यापक श्री बेनी प्रसाद अपना अध्यापन कार्य छोड़कर तपोभूमि की साँस्कृतिक शिक्षा ग्रहण करने अपनी बहन श्री रत्नेश कुमारी और भानजी चि. मीना के साथ तपोभूमि में आये हैं। बड़े उत्साह और मनोयोग के साथ अध्ययन चला रहे हैं। बंगाल, नेपाल, असम आदि भारत के पूर्वीय प्राँतों में इनके द्वारा गायत्री माता का संदेश पहुँचेगा ऐसी आशा है।

(13)श्री वृजनारायण द्विवेदी

उरई (जालौन) का यह मेधावी छात्र बड़ा उत्साही और भावुक है। यहाँ होने वाले प्रवचनों और का


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