समाज के पुनर्निर्माण का आधार

May 1957

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(श्री चन्द्रशेखर शास्त्री)

मानवीय सभ्यता का आरम्भ धन या सम्पत्ति के संग्रह से हुआ है। सभ्यता की रानी-सम्पत्ति की अटारी में रहती है और धन की गाड़ी पर चलती है। भय उसका सहचर है। धनी निर्भय हो ही नहीं सकता। इस संबंध में गुरु नानक की एक कथा सुनिये-

एक बार गुरु नानक अपने शिष्य मर्दाना के साथ भ्रमण करते एक वन में आये। वहाँ से नगर एक कोस की दूरी पर था। गुरु ने शिष्य से कहा-यह स्थान बड़ा रमणीय है। आज हम लोग यहीं रहें।

शिष्य ने कहा- भला जंगल में भी कोई रहता है। रात में जंगली जानवर निकलते हैं, वे कुछ हानि पहुँचायें तो?

गुरु जी ने बहुत समझाया, पर शिष्य राजी न हुआ। तब गुरु जी ने कहा- अच्छा संध्या का कृत्य इसी तालाब में कर लो, तब नगर में चलेंगे।

यही सलाह पक्की ठहरी। गुरु जी स्नान और भजन पूजन करके ऊपर चले आये। तब तक शिष्य जल के किनारे सीढ़ी पर बैठा हुआ भजन ही कर रहा था। गुरु जी ने ऊपर आकर शिष्य की झोली खोली। उसमें दो पोटलियाँ निकलीं। एक पोटली, जो कुछ सख्त जान पड़ी, गुरु जी ने खोल डाली। उसमें दो अशर्फियां निकलीं। गुरु जी ने अशर्फियां निकाल लीं और जब शिष्य ऊपर आया, तब वे उसे दिखाकर गहरे पानी में फेंक दीं। शिष्य बेचारा ताकता ही रह गया। करता भी क्या।

थोड़ी देर बाद गुरु जी ने कहा- अच्छा, अब भजन पूजन हो चुका, चलो अब गाँव में चलें।

चेला जला-भुना बैठा ही था। वह झुँझलाकर बोला- अब क्या है, अब यहीं रहें। जिसके लिये मैं गाँव में चलना चाहता था उसे तो आपने तालाब के हवाले कर दिया। अब आप चाहे जहाँ रहें।

कथा इतनी ही है। धन के कारण मनुष्य निर्भय नहीं रह सकता। धनी मनुष्य को रक्षक की आवश्यकता होती है। जब मनुष्यों का साँसारिक पदार्थों से परिचय हुआ, उन वस्तुओं के उपयोग की रीति उन्हें मालूम हुई, उन वस्तुओं से होने वाली इन्द्रिय तृप्ति का जब उन्हें अनुभव हुआ, तब सुख की लालसा उनके हृदयों में बद्धमूल हो गई। वे सुख की सामग्रियाँ इकट्ठी करने लगे। अब परिव्राजक का जीवन उन्हें दुखकर मालूम होने लगा। अब उन्होंने एक साथ समूह बनाकर रहना आवश्यक समझा। उस समय तक जो लोग निर्भय थे, जिनके बच्चे-बच्चे सिंही के साथ खेलते थे, जिनके जंगली आश्रमों में जंगली वस्तुओं का बेरोक-टोक प्रवेश था, अब उन्हें आत्म-रक्षा की चिंता ने आ घेरा। अब आत्म-रक्षा के लिये उन्हें कई आदमियों का मिलकर उपयोग जान पड़ा और फलस्वरूप टोले बाँधे गये, पुरवा बसाये गये जो धीरे-धीरे गाँव, कस्बा और नगरों के रूप में बदले।

इस प्रकार सामूहिक रूप में रहने पर मनुष्यों की कुप्रवृत्तियाँ और सुप्रवृत्तियाँ बलवती हुई। वे कार्य करने के योग्य हुईं। नई-नई इच्छाएं उत्पन्न हुईं और मनुष्य उनको पूरा करने को उत्सुक हुये। इस प्रकार समय के सीधे-साधे और अज्ञान प्राणी दूसरे ही रूप में प्रकट हुए। उन्हें तरह-तरह की आवश्यकताओं का अनुभव होने लगा, और जब वे पूरी न हो सकीं तो वह अपने को दुखी समझने लगे। संभवतः उसी समय मनुष्य जाति को दुख-सुख, क्रोध, साहस, उत्साह आदि अपने गुणों या अवगुणों का ज्ञान हुआ। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वे इन वृत्तियों का ढंग से उपयोग न कर सके और थोड़े ही समय में लोगों में छीना-झपटी शुरू हो गई एक दूसरे को लूटने और सताने लगे। अपनी आवश्यकता पूरी होनी चाहिए, इसके लिए खून भी करना पड़े, तो कोई बात नहीं। कल्पना कीजिये उस समय इस जाति की क्या अवस्था हुई होगी। उस समय लोगों का जीवन कैसा भयानक तथा आतंकपूर्ण हो गया होगा, यह समझना कुछ कठिन नहीं है।

जो दूसरों को सताते हैं, समय बदलने पर वे स्वयं भी सताये जाते हैं। आज जिस बलवान ने अपने से किसी दुर्बल को सताया, आगे चल कर वह भी अपने से अधिक बलवान के द्वारा सताया जाता है। इस प्रकार दलबन्दी बढ़ती जाती है और मनुष्यता की कसौटी वीरता ही मानी जाने लगती है। यही वह काल था जब कन्या को पाने का अधिकारी सबसे बड़ा वीर माना जाता था और इसके लिए तरह-तरह परीक्षायें रखी जाती थी, कहीं लक्ष्य वेध की, कहीं धनुष तोड़ने की ओर कहीं अन्य किसी प्रकार की।

पर इस तरह की चढ़ाऊपरी में कौन कब तक बलवान रहेगा इसका निश्चय कर सकना बड़ा कठिन था। आज का बलवान कल दुर्बल हो सकता था। आज के अत्याचार करने वाले को अत्याचार सहना पड़ता था। कुछ समय बाद लोग इस अवस्था से परेशान होने लगे। किसी के घर में आग लगी, पर उसने बहुतों पर अत्याचार किया था, इसलिये आस-पास के लोगों ने आग बुझाने में मदद न दी। लोगों ने सोचा, अच्छा है जलने दो, हमारा क्या जाता है। इसने कौन सी भलाई की है, जो हम इसकी रक्षा करने जायें। इस प्रकार विचार करके वे सब चुप बैठे रहे। पर जब अग्नि ने भयंकर रूप धारण कर लिया और एक-एक करके गाँव के सारे घरों को जला दिया तब लोगों को अपनी भूल मालूम हुई और पारस्परिक सहयोग के महत्व की बात समझ में आई। लोगों ने समझा कि दूसरों को दुख देने से खुद भी दुःख उठाना पड़ता है, इसलिये किसी को दुख देना अच्छा नहीं। इसी प्रकार की मनोवृत्ति के उत्पन्न होने से लोगों में समाज की स्थापना का विचार फैलने लगा। उनमें से जो लोग कुछ अधिक समझदार और सहनशील प्रकृति के थे उन्होंने पारस्परिक सहयोग के अनुसार पहले चलना आरम्भ किया। उसके बाद उनको सुखी व समृद्ध देखकर दूसरे दल वालों का भी ध्यान उतर गया। इस प्रकार सामाजिक संगठन बढ़ता गया, उसके लिए कुछ आवश्यक नियम भी बनाये गये, कर्तव्य अकर्तव्य का निर्देश किया गया, दण्ड और पुरस्कार की व्यवस्था हुई। इससे लोगों की बुरी वृत्तियाँ दबीं और अच्छी वृत्तियों का विकास हुआ। भय और अरक्षित अवस्था से निकल कर लोगों को अपेक्षाकृत सुरक्षा का अनुभव हुआ। लोगों को ज्ञान-विज्ञान का अनुशीलन करने का सुयोग मिला। लड़के पढ़ने में और बूढ़े आध्यात्मिक चर्चा में समय बिताने लगे। जवानों और प्रौढ़ों ने गृहस्थी के संचालन का भार अपने कन्धों पर रखा। सर्वत्र शाँति और सुख का प्रसार होने लगा तथा समाज सभ्यता तथा उन्नति की ओर वेग पूर्वक अग्रसर होने लगा।

उस समय समाज की स्थापना धर्म पर हुई थी। धर्म का अर्थ नियम या कानून भी है। अतएव प्रौढ़ होने पर भी समाज धार्मिक बना रहा। समाज ने व्यक्तियों को धार्मिक बनाया, उन्हें धर्म पालन की शिक्षा दी। धर्म में कलह नहीं होता, अशाँति नहीं होती। मत्सर, द्वेष आदि तो अधर्म के लक्षण हैं। इसलिये धर्म की छत्रछाया में समाज कल्याण-मार्ग पर अग्रसर हुआ।


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