विश्व व्यापी अशाँति और उसका प्रतिकार

May 1957

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री सत्य भक्त, पूर्व सम्पादक ‘सतयुग‘)

मनुष्य यद्यपि एक मामूली, दुर्बल, परिवर्तनशील देह और सीमित इन्द्रिय शक्ति को लेकर ही इस दुनिया में आता है, पर उसके अन्दर कर्मशक्ति की एक ऐसी प्रेरणा रहती है, जिससे वह संसार के प्रत्येक कार्य को करने का साहस रखता है। वह समस्त प्रकृति पर अधिकार जमाने की चेष्टा करता है और चाहता है कि भूमि, जल, पवन, अग्नि सब मेरे वशीभूत रहें। इस उद्देश्य में इस समय मनुष्य ने बहुत कुछ सफलता प्राप्त कर भी ली है, पर उसकी भूख कभी शाँत होने वाली नहीं है। जल, थल, और आकाश में भी अपना अधिकार जमा कर अब वह चंद्रमा, मंगल तथा अन्य ग्रहों में पहुंचने का स्वप्न देख रहा है।

यद्यपि मनुष्य ने नई-नई खोजें करके और एक से एक अद्भुत यंत्र बना कर अपनी शक्ति को बहुत बढ़ा लिया है, पर अभी तक वह उस वस्तु को प्राप्त नहीं कर सका है जिससे वह पूर्ण तृप्ति का अनुभव कर सके, और अपने को हर तरह से सफल मनोरथ समझ सके। इसके विपरीत इस प्रकार की भौतिक उन्नति में संलग्न सभी व्यक्ति महत्वाकाँक्षा के वशीभूत होकर आपस में घोर प्रतिद्वन्द्विता का भाव रखते हैं जिससे संसार में और भी अशाँति तथा असंतोष का भाव बढ़ता है इस प्रकार वह उन्नति अनेक अवसरों पर जन समूह का कल्याण करने के बजाय दुःखदायी और नाशकारी सिद्ध होने लगती है। इसलिये विचारकों के सामने स्वभावतः ही यह समस्या उपस्थित होती है कि मनुष्य की कर्मशक्ति का विकास किस मार्ग से हो कि वह दूसरे के प्रतिकूल सहायक सिद्ध हो। प्रत्येक मनुष्य दूसरे को घटाने का प्रयत्न करने के बजाय अपने ही भीतर “स्वराज्य” या “विश्वराज्य” का अनुभव करे। इस समय संसार के अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में जो घोर प्रतिद्वन्द्विता छिड़ी है और जिसे मिटाकर विश्व शक्ति का प्रयास बड़े-बड़े मनीषी और विशेषकर हमारे भारतीय नेता कर रहे हैं, वह उपरोक्त समस्या का ही स्पष्ट रूप है।

प्रत्येक जीव में भोग की कामना प्राकृतिक रूप से ही पाई जाती है। पर जिस प्रकार अन्य सब प्राणियों की शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने पर उनकी तृप्ति हो जाती है, वैसी बात मनुष्य में नहीं पाई जाती। उसके मस्तिष्क का जो विकास हुआ है वह इस प्रकार का है कि उसके मन में सदा नई-नई भोग वासनायें उत्पन्न होती रहती हैं। किसी मनुष्य को चाहे संसार भर का ऐश्वर्य मिल जाय तो भी उसकी लालसा और भी बढ़ती जाती है। इस संबंध में एक छोटी सी कहानी नीचे दी जाती है-

एक बड़ा गरीब मछुआ था। एक दिन नदी में जाल डालने पर उसे एक ऐसी सुन्दर मछली मिल गई जैसी उसने जन्म भर नहीं देखी थी। मछुआ अब उसे मारने को उद्यत हुआ तो वह बोली कि मैं मछलियों की रानी हूँ, तुम मुझे छोड़ दो और बदले में जो चाहे सो तीन वर माँग लो। मछुआ को उसकी बात पर विश्वास हो गया और उसने बहुत सा रुपया माँग कर उसे जल में छोड़ दिया। मछुये ने सोचा था कि इतने रुपये से मैं और मेरे घर वाले समस्त जीवन सुख से निर्वाह कर सकेंगे। पर जब घर आकर उसने सब हाल अपनी स्त्री को बतलाया तो वह बड़ी नाराज हुई और कहने लगी कि तुम बड़े मूर्ख हो जो ऐसा सुयोग पाकर भी दस-पाँच हजार रुपये से संतुष्ट हो गये। जाओ उस मछली से कहो कि मेरी स्त्री रानी बनना चाहती है, इसलिए उसके लिये महल, फौज, पलटन, खजाना आदि बना दो। मछुआ नदी पर गया और मछली को पुकार कर अपनी स्त्री का संदेश सुना दिया। मछली रानी ने उसे स्वीकार कर लिया और मछुआ के घर पर एक राज्य की पूरी सामग्री तैयार हो गई। पर मछुआ की स्त्री ने देखा कि हमारा राज्य तो मामूली-सा है और संसार में हमसे बड़े-बड़े बहुत से राजा मौजूद हैं, तो वह फिर मछुये को तंग करने लगी कि जाओ और मछली से कहो कि वह मुझे संसार की सबसे बड़ी रानी बना दे। विवश होकर मछुआ फिर नदी पर गया और मछली रानी से स्त्री की बात कही। मछली ने उसे भी स्वीकार कर लिया और उस समय उसका राज्य पृथ्वी भर में सबसे बड़ा और शक्तिशाली हो गया। पर मछुआ की स्त्री को चैन न पड़ा और वह सोचने लगी कि ऐसे राजा, रानी तो पृथ्वी पर बहुत हो चुके हैं, मुझ में कोई सबसे बढ़कर विशेषता होनी चाहिये। उसने मछुआ से कहा कि मछली से कहो कि वह मुझे चंद्रमा और तारों की रानी बना दे। मछुआ झल्लाकर फिर मछली के पास गया और उसे स्त्री की आकाँक्षा की बात बतलाई। मछली ने कहा कि तुम्हारी स्त्री किसी चीज के लायक नहीं है और वह फिर जैसी की तैसी हो जायेगी। उसी समय सारा राज पाट गायब हो गया और वही टूटी-फूटी झोंपड़ी और फटे पुराने कपड़े फिर दिखलाई पड़ने लगे।

बाल मनोरंजन की एक पुस्तक में वर्णित इस कहानी में बहुत बड़ी शिक्षा निहित है। मनुष्य एक के बाद दूसरी सफलता प्राप्त करता जाता है, पर उसकी लालसा तृप्त नहीं होती। इतना ही नहीं मनुष्यों में प्रतिस्पर्धा का भाव भीषण रूप धारण करता जाता है और एक चंद्रमा तक जाने का मंसूबा बाँधता जाता है तो दूसरा मंगल लोक तक की दौड़ लगाने का दावा करता है। इसका परिणाम एक दिन स्वभावतः यह होगा कि वह फिर उसी अर्धनग्न अवस्था में पहुँच जायगा। हिन्दू शास्त्रकारों का यह कथन है कि लोभ से लोभ नहीं मिटना, लालसा से लालसा का अन्त नहीं किया जा सकता, वर्तमान परिस्थिति को देख कर सर्वथा सत्य प्रतीत हो रहा है।

इस अवस्था के सुधार का, इस भयंकर नाश के भँवरजाल में से मनुष्य के उद्धार का एक ही मार्ग है, और वह यह है कि निरी भौतिकता में संलग्न न हो कर आध्यात्मिकता की तरफ भी ध्यान देना। भौतिकता जहाँ मनुष्य को एक दूसरे का प्रतिस्पर्धी-विरोधी बनाती है, वहाँ आध्यात्मिकता के प्रभाव से एकात्मता या अद्वैत भावना का उदय होता है। वह यह अनुभव करने लगता है कि संसार में एक ही आत्मतत्व व्याप्त है और उसकी दृष्टि से एक मनुष्य दूसरे का विरोधी या शत्रु कदापि नहीं हो सकता। अगर एक मनुष्य ऐसा आचरण करता है तो हमको यही समझना होगा कि उसके ऊपर अज्ञान का आवरण पड़ा है जिससे वह मूर्खतापूर्ण कार्य कर रहा है। जब एक मनुष्य मूर्खता का कार्य करता है तो दूसरा भी वैसा ही करे तो यह कोई प्रशंसा की बात नहीं है। जो बात व्यक्तियों की है वही राष्ट्रों के लिये भी है। अगर कोई राष्ट्र सम्पत्ति के लालच से पागल होकर संसार भर को नाश करने की तैयारी कर रहा है-समस्त मनुष्य जाति का संहार करने के लिये एटम और हाइड्रोजन बम बना के रखता जाता है-तो इस अवस्था का प्रतिकार इससे नहीं हो सकता कि दूसरे सभी देश भी वैसे ही प्रलयकारी शस्त्र बनाकर उसी प्रकार की आत्मघाती नीति का अवलंबन करते जायें। किन्तु इसके प्रतिकार का सच्चा उपाय वही है जो गौतम-बुद्ध और महावीर से लेकर महात्मा गाँधी तक ने हम लोगों को सिखाया है। प्राचीन काल में भी क्षत्रिय-बल से ब्रह्मबल प्रबल सिद्ध हो चुका है और आज भी हिंसा को अहिंसा द्वारा पराभूत करके दिखाया जा चुका है। यह भौतिक या पाशविक शक्ति पर आत्मिक शक्ति की विजय थी और अब भी अगर संसार का उद्धार किसी प्रकार हो सकता है तो उसका एक-मात्र यही मार्ग है ।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118