चरित्र-उत्थान के बिना राष्ट्रोन्नति असम्भव

February 1957

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य)

यह एक गम्भीर बात है कि आजकल हम ईश्वर को भूलते जा रहे हैं। यही विचार कार्यालय ने उस समय व्यक्त किये थे जब विज्ञान की आशातीत उन्नति और नये-नये उपनिवेशी साम्राज्य के फैलाव ने पश्चिम के साम्राज्यवादी देशों को मदाँध कर दिया था। पश्चिम राष्ट्र उस समय ईश्वर को भूलते जा रहे थे और भौतिकवाद के अनन्य भक्त बन गये। उपनिवेशी साम्राज्य अब लगभग समाप्त ही हो गया है और विज्ञान भी अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच चुका है और इससे पश्चिमी राष्ट्रों की आँखें खुल गई हैं और ईश्वर के प्रति भक्ति की एक नई लहर पुनः पैदा हो गई है। कार्यालय का उक्त कथन आज भारत पर लागू हो रहा है। ईश्वर की शक्ति को भुलाकर मानव के उत्कर्ष के लिए उठाया गया कोई कदम सफल नहीं हो सकता।

किसी भी राष्ट्र की उन्नति चरित्र पर भी उतनी ही निर्भर करती है जितनी कि दिमाग और शारीरिक शक्ति पर। पर मैं चाहता हूँ कि विचारशील व्यक्ति इस तथ्य पर मनन करें, इसकी सत्यता स्वयं ही स्पष्ट हो जायगी। मेरे विचार में तो राष्ट्रोन्नति में दिमाग और शारीरिक शक्ति की अपेक्षा चरित्र का स्थान कहीं ज्यादा ऊँचा है। शारीरिक शक्ति एवं दिमाग शासन चलाने एवं बाहरी आक्रमणों से देश की रक्षा के लिए निस्संदेह ही आवश्यक है, लेकिन चरित्र तो पहली चीज है, जो व्यक्तियों के प्रतिदिन एक दूसरे से व्यवहार करने में प्रयोग आता है और जिसके बिना किसी भी प्रकार की उन्नति एवं उत्थान संभव ही नहीं है। चरित्र तो भूमि है जिस पर दूसरी चीजें पैदा होती हैं और यदि चरित्र ही दोषपूर्ण है तो किसी उन्नति की आशा करना ही व्यर्थ है। व्यक्तियों को ईमानदार, वचन का पक्का, एक दूसरे के प्रति उदार हृदय होना चाहिए। उन्हें अपने कर्त्तव्यों के प्रति सदैव जागरुक रहना चाहिए और व्यक्तिगत स्वार्थों की अपेक्षा सामाजिक की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए। इन आदर्शों के बिना सामाजिक प्रगति कतई संभव नहीं है। सिर्फ शिक्षा प्राप्त कर लेने से ही चरित्र निर्माण नहीं हो जाता। आजकल के वातावरण को देखते हुए भारत का भविष्य अन्धकारमय ही दिखाई देता है। शिक्षा के क्षेत्र से निकलते ही आजकल के नवयुवक धन कमाने के पीछे बुरी तरह पड़ जाते हैं। यहाँ तक कि अपने आदर्शों को भी भुला देते हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी के नेतृत्व में अहिंसात्मक तरीके से स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भारत की प्राचीन संस्कृति व अपनी परम्पराओं को भुलाते हुए ये जीवन के प्रति इतना गलत दृष्टिकोण भी अपना सकते हैं। इस तथ्य से कोई भी विचारशील व्यक्ति इंकार नहीं कर सकता कि आजकल शिक्षित नवयुवकों में कर्त्तव्य के प्रति जागरुकता की भावना की अत्यन्त ही कमी है और उनमें कर्त्तव्य के प्रति लगन पैदा करने की आज परम आवश्यकता है। भौतिकवाद की ओर उनके झुकाव को आध्यात्मवाद की और मोड़ना अत्यन्त ही आवश्यक है। और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शिक्षा सम्बन्धी नीति में परिवर्तन और सुधार निताँत आवश्यक है।

यदि हम सभ्य देशों के प्राचीन इतिहास को देखें तो हमें ज्ञात हो जायगा कि उनकी उन्नति एवं विकास में धर्म के माध्यम से ही चरित्र निर्माण संभव है, जिस पर राष्ट्रोन्नति निर्भर करती है।

सभी विचारशील व्यक्ति इस तथ्य की सत्यता को महसूस करते हैं लेकिन यह अत्यन्त ही खेद का विषय है कि इस दिशा में कोई सक्रिय कदम नहीं उठाये जा रहे हैं। नवयुवकों में धार्मिक एवं सामाजिक प्रवृत्तियों को पनपाने के लिए हमारे द्वारा कोई प्रयत्न नहीं किया जा रहा है और जब इनके अभाव में अनुशासन हीनता की भावना नवयुवकों के अपरिपक्व दिमाग में विकसित होने लगती है तो हम सारा दोष नवयुवकों पर ही मढ़ कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। क्या इसमें हमारी कोई भी जिम्मेदारी नहीं है? हमारे ही नहीं वरन् सारे सभ्य राष्ट्रों के प्राचीन पुरुष हमेशा यह समझते थे कि इस सृष्टि का संचालन सर्वसाधन सम्पन्न एवं अमर शक्ति ‘चाहे उसे परमात्मा कहिये या और कुछ’ द्वारा किया जाता है और उस अमर शक्ति के मनन से ही उनमें इतनी क्षमता आ जाती थी वे दूसरों का मार्ग दर्शन कर सकें। लेकिन आजकल वातावरण बिल्कुल ही बदल गया है और उसके लिये हम ही दोषी हैं। यह वातावरण, जिसमें धर्म के लिये कोई स्थान नहीं है, चरित्र निर्माण में अत्यन्त ही बाधक है।

ब्रिटेन में, जो वैज्ञानिक खोज की प्रगति में किसी अन्य राष्ट्र से पीछे नहीं, अथवा जो धर्मान्धता के विरुद्ध संघर्ष में किसी से पीछे नहीं, वहाँ पर भी स्कूलों में चाहे उन्हें सरकारी सहायता मिलती हो या नहीं, बालकों को धार्मिक शिक्षा दी जाती है। जब तक कि बालक के पिता की ओर से कोई आपत्ति न की जाय तब तक स्कूलों में आयोजित नित्य की धार्मिक पूजा व प्रवचन में बालकों को भाग लेना पड़ता है। निजी स्कूलों में भी धार्मिक शिक्षा की सुविधाएं हैं, लेकिन देहात के स्कूलों में तो ईसाई धर्म की विधिवत शिक्षा दी जाती है। इंग्लैण्ड व वेल्स में एक तिहाई स्कूल प्राइवेट हैं। स्कूलों के गिर्जों में भाग लेना व धार्मिक शिक्षा ग्रहण करना स्कूली जीवन का एक आवश्यक अंग है। मैंने स्कूलों का यह सब विवरण सरकारी प्रकाशन के आधार पर ही दिया है।

भारत में हम धर्म के नाम से एक प्रकार से डरते से हैं। हमने निष्पक्षता का उच्च आदर्श बनाया तो है लेकिन हम उस पर जब अमल करने को बैठते हैं तो उसका नकारात्मक स्वरूप सामने रख लेते हैं। यह रवैया शायद हमारे पुराने हिन्दू मुस्लिम विवाह के संघर्ष तथा समानता में हमारी अटूट निष्ठ का परिणाम है। लेकिन यह समय है कि हम इस व्यर्थ के भय को दूर कर दें और विश्वास की सक्रिय नीति को अपनायें।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी ने हमें बताया था कि सारे धर्म हमारी श्रद्धा के पात्र हैं और उनके आदर्श एक से ही हैं। प्रत्येक धर्म के विकसित होने से विभिन्न सम्प्रदायों के समर्थकों के बीच एक दूसरे को समझने की भावना जागृत होगी। शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य नवयुवकों में कर्त्तव्य के प्रति जागरुकता की भावना पैदा करना है और विभिन्न धर्मों के विकास से इस उद्देश्य की प्राप्ति में काफी सहायता मिलेगी।

राष्ट्र के विकास कार्यों की सफलता हमारे चरित्र पर निर्भर करती है। विकास कार्यों के प्रति हमें अपने कर्त्तव्य को पूर्णतया निभाना है, व्यक्तिगत स्वार्थों के बजाय राष्ट्र के हित को दृष्टि में रखना है और कार्य को पूरी जिम्मेदारी से निभाना है। स्कूलों में धार्मिक शिक्षा को बन्द करके क्या ये अच्छाइयाँ नवयुवकों में पैदा की जा सकती हैं? धर्म के बिना चरित्र निर्माण संभव नहीं है। धर्म से आत्मा को प्रेरणा मिलती है। यदि बुद्ध को यह मान लिया जाय कि वे एक साधारण व्यक्ति थे तो बौद्ध धर्म में कुछ नहीं रह जायगा। पैगम्बर, गौतमबुद्ध, जीसस क्राइस्ट आदि महान आत्मा थे और उन्हें ईश्वर से प्रेरणा प्राप्त थी। यदि धार्मिक उपदेशों को ईश्वरीय प्रेरणा से अलग समझा जाय तो उनमें कुछ तथ्य नहीं रह जाता है। इसी प्रेरणा से चरित्र निर्माण हो सकता है।

यदि हम यह नहीं चाहते कि हमारा राष्ट्रीय चरित्र तेजी से गिरता चला जाय, तो यह नितान्त आवश्यक है कि धार्मिक मान्यताओं के वातावरण में नवयुवकों को शिक्षा दी जाय। जिससे उनका आध्यात्मवाद की ओर ज्यादा झुकाव हो और वे सारे गुण एवं विशेषताएं पूर्ण हो सकें, जो राष्ट्र के निर्माण के लिए जरूरी हैं।

विज्ञान जो कुछ समय पहले धर्म का प्रतिद्वन्द्वी प्रतीत होता था, अब धर्म का सबसे बड़ा सहायक सिद्ध हो रहा है। उच्चस्तरीय विज्ञान उतना ही आध्यात्मिक है, जितने कि हमारे उपनिषद् आदि। अतः विज्ञान की प्रगति भी धार्मिक वृत्तियों के विकास में योग ही देगी।

ईश्वर को भुलाकर मानव का विकास संभव नहीं है। अतएव धार्मिक मान्यताओं की शिक्षा को स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा का एक अभिन्न अंग बना दिया जाना चाहिए और तभी हमारे शिक्षित नवयुवक एवं नवयुवतियों का चरित्र इतना सुदृढ़ हो सकेगा कि एक सुखद एवं समृद्ध राष्ट्र का निर्माण किया जा सके।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118