जीवन का सर्वस्व-शील

February 1957

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(श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती)

प्राचीन काल की बात है प्रह्लाद दैत्य ने अपने सुन्दर तेज के द्वारा इन्द्र से उसका राज्य छीन लिया था। तीनों लोक का राज्य उसके हाथ में आ गया था। इन्द्र ने बृहस्पति जी को पकड़ा और कहा- हे महानुभाव कृपया करके बताइये कि किस वस्तु के द्वारा आनन्द प्राप्त हो सकता है। बृहस्पति जी ने उत्तर दिया कि- ज्ञान सबसे बड़ा आनन्द का द्वार है। परन्तु इन्द्र को इससे सन्तोष न हुआ। वह तो प्रह्लाद से अपना त्रिलोकों का राज्य चाहता था। फिर उसने पूछा कि क्या इससे बढ़कर कोई वस्तु है। बृहस्पति ने उत्तर दिया- पुत्र इससे भी बढ़ कर है, परन्तु वह तुम्हें भगवान् जो शुक्राचार्य हैं और जो असुरों के पुरोहित है बतायेंगे। इसलिए हे अमरावती के राजा! तुम उनके पास जाओ।

इन्द्र उनके पास गया और उनसे भी वही प्रश्न पूछा। शुक्राचार्य ने भी ब्रह्मज्ञान को सर्वश्रेष्ठ बताया। परन्तु इससे भी इन्द्र संतुष्ट न हुए। वह तो धन और ऐश्वर्य को चाहता था। इन्द्र ने कहा- क्या इससे भी बड़ी कोई चीज है। शुक्राचार्य ने कहा कि हाँ है। इसका पता तुम्हें प्रह्लाद, असुरों के राजा से लगेगा।

इन्द्र एक ब्राह्मण के भेष में प्रह्लाद के पास गया और वही प्रश्न पूछा जो कि उसने बृहस्पति और शुक्राचार्य से पूछा था। प्रह्लाद ने कहा कि समय नहीं है क्योंकि सारा समय तीनों लोकों के राज्य करने में व्यतीत हो जाता है। इसलिए मैं तुम्हें कुछ शिक्षा नहीं दे सकता। ब्राह्मण ने कहा कि वह उनके खाली समय की प्रतीक्षा करेगा और जब वह कहेंगे तभी उनसे शिक्षा लेगा। उसने प्रह्लाद के महल बहुत समय तक एक आज्ञाकारी शिष्य की तरह उनकी प्रतीक्षा की और जो कुछ प्रह्लाद कहते थे वह बड़ी सावधानी से करता था।

एक दिन फिर ब्राह्मण ने पूछा कि महाराज किस प्रकार या किस गुण के कारण आप को तीनों लोकों का राज्य मिला।

प्रह्लाद ने उत्तर दिया हे द्विज! मुझे अपने राज्य का कण मात्र भी अभिमान नहीं है। परन्तु मैं जो शुक्राचार्य ने कहा है, उसका पालन करता हूँ और उनके अनुसार चलता हूँ। उन्हें मेरे ऊपर विश्वास है क्योंकि मैंने क्रोध पर विजय प्राप्त कर ली है। मैं माता-पिता, बड़ों की सेवा करता हूँ। मेरे पास कोई बुराई नहीं है। मैंने अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त कर ली। सब इन्द्रियाँ मेरे वश में हैं। द्विज मुझे परामर्श देते हैं। मैं उनके द्वारा अमृत पान करता हूँ। वह शिक्षा जो कि उनके मुखारविन्द से निकलती है मनुष्य को अमर कर देती है। यही वह बुद्धि है जो कि मनुष्य को बड़ा बनाती है।

ब्राह्मण ने बड़े प्रेम तथा भक्ति से सब कुछ सुना।

प्रह्लाद उसकी भक्ति से बड़े प्रसन्न हुए और उससे वर माँगने के लिए कहा।

ब्राह्मण ने कहा महाराज मुझे दान में अपना “शील” दे दो। प्रह्लाद को ब्राह्मण की इस प्रार्थना पर बड़ा आश्चर्य हुआ। परन्तु अपने प्रण के अनुसार उन्होंने अपना शील उसे दे दिया।

अब प्रह्लाद द्विविधा में पड़ गये। एक तेज की मूर्ति उनके शरीर से निकली। प्रह्लाद ने पूछा कि तुम कौन हो। उसने कहा कि मैं तुम्हारा शील हूँ। तुमने मुझे छोड़ दिया है। अब मैं ब्राह्मण के शरीर में निवास करूंगा। इतना कहते ही वह आकृति विलीन हो गई।

उस आकृति के अन्तर्ध्यान होते ही दूसरी तेजमई मूर्ति उनके सामने आई प्रह्लाद ने पूछा- तुम कौन हो। उसने उत्तर दिया- मैं धर्म हूँ।

मैं शील के साथ ही निवास करता हूँ। इसलिए मुझे उनका अनुसरण करना है।

तीसरी आकृति उनके सामने आई। प्रह्लाद ने फिर पूछा कि- तुम कौन हो। उसने कहा- मैं सत्य हूँ, मैं धर्म का अनुगामी हूँ। जहाँ धर्म है वही मैं हूँ। उसने भी प्रह्लाद के शरीर का त्याग कर दिया और ब्राह्मण के शरीर में प्रवेश किया। फिर वृत्ति उनके शरीर से प्रकट हुई उसने कहा- जहाँ सत्य है वहीं मैं हूँ। फिर एक घोर आवाज के साथ नई आकृति निकली, उसने कहा- मैं बल हूँ। जहाँ वृत्ति है वहीं मेरा वास है।

फिर एक तेजमई देवी प्रगट हुई उसने कहा मैं श्री हूँ जहाँ यह सब शक्तियाँ रहती हैं वहीं पर मैं भी वास करती हूँ।

प्रह्लाद ने देवी से पूछा- “ हे! सफलता की देवी’ यह ब्राह्मण कौन है। श्री ने उत्तर दिया- यह ब्राह्मण नहीं था, यह ब्राह्मण इन्द्र था। उसने धूर्तता से तुम्हारे से तीनों लोकों का ऐश्वर्य लूट लिया है। जब आपने अपना शील छोड़ दिया तो इसका अर्थ यह है कि आपने अपना धर्म, सत्य, वृत्ति, बल सभी कुछ दे दिया क्योंकि हम सब का जड़ शील है। इसलिए ‘शील’ की वृद्धि करनी चाहिए।


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