हमारा सच्चा सम्बन्धी कौन?

February 1957

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(श्री लक्ष्मी नारायण जी बृहस्पति)

कर्म संयोग से पुरुष एक नारी को और नारी एक पुरुष को जो कि भिन्न-2 जीवात्माएँ हैं, अपना मानकर परस्पर बन्धन में बँधते हैं तथा इस माने हुए बन्धन के ही कारण संयोग-वियोग में सुखी-दुःखी होते रहते हैं।

स्त्री, पुरुष के पारस्परिक संयोग ऋणानुबन्ध से सम्बद्ध कोई जीवात्मा जब शरीर धारण करता है, तब पुरुष और स्त्री उसे अपना पुत्र मानते हुए गर्वित होते हैं।

यदि पुरुष से पूछा जाय कि तुमने पुत्र के शरीर को किस प्रकार बनाया? तब वह मौन हो जायगा लेकिन नारी इस बात को लेकर बोल उठेगी कि मैंने नौ मास गर्भ में रक्खा, अमुक-अमुक कष्ट उठाये, इतने दिन दूध पिलाया, पाल-पोसकर मैंने ही तो इसे इतना बड़ा किया है।

उस माता से यदि पूछा जाय कि अच्छा बताओ, तुमने अपने उदर में किस क्रम से पुत्र शरीर की रचना की है? भोजन करते हुए किन यन्त्रों के द्वारा, किस प्रकार के अन्न से तुमने बालकों के लिए दूध बनाया है?

तब माता का गर्व करने वाली नारी भी चुप हो जायगी। विवेक दृष्टि से कोई भी स्पष्ट देख सकता है कि वास्तव में स्त्री के उदर में जीवात्मा के शरीर को बनाने वाली स्वयं वह स्त्री नहीं वरन् कोई अदृश्य शक्ति है। वही सब के शरीरों की सच्ची जननी है और परमात्मा ही जीवात्मा के सच्चे पिता हैं।

यहाँ के माने हुए पिता जीवात्मा को नहीं बनाते, न यहाँ की भाव द्वारा मानी हुई माता शरीर को बनाती है।

यह भौतिक जगत लीलामय की लीला पूर्ति के लिये मायात्मक भाव की मानी हुई नीति-रीति है!

जिस समझ से आप माता, पिता, बन्धु भगिनी अथवा स्त्री इत्यादि को अपना मानते हैं, वह आपके हृदय से उत्पन्न माना हुआ भाव-मात्र है। बाल्यकाल से ही इस मान्यता का प्रारम्भ होता है फिर यही मान्यता का भाव दृढ़ हो जाता है और यथार्थ ज्ञान हुए बिना नहीं छूटता।

दूसरों के सुख-दुःख से अपने को जो सुख-दुःख प्रतीत होता है, वह केवल उन्हें अपना मानने से ही होता है।

थोड़ा विचार कीजिए! आप जिन निकटवर्ती व्यक्तियों को अपना मानकर उनके अभिमानी बनते हैं, वे सभी आप ही की तरह अपनी वासनाओं के अनुसार प्रारब्ध कर्म से परतंत्र होकर भोग करने के लिए अपने कर्मों का हिसाब किसी को देने या किसी से लेने के लिये शरीर धारण करने वाले जीवात्मा हैं।

जिस जीवात्मा के प्रति एवं जिस पदार्थ के प्रति जितना ही अपनत्व का भाव होता है उतना ही उसमें रागासक्ति का बन्धन होता है।

जिन पर अपना स्वतंत्र अधिकार नहीं है, उन्हें अपना मान लेना और अपने आप को भूले रहना यही समस्त दोषों का मूल है।

आप कितने ही प्रकार के जप, तप और व्रतादि साधनों का आश्रय लें किन्तु, जब तक आप में अज्ञान जनित सम्बन्ध सक्ति एवं पदार्थाभिमान रूपी दोष रहेंगे तब तक आप दुःख से मुक्त नहीं हो सकते।

इसलिए ऐसा कुछ प्रयत्न कीजिये कि आपको अपने वास्तविक सम्बन्धी का ज्ञान सुलभ हो सके। उसी के बल से आप कहीं भी माने हुए सुखों में, व्यक्तियों में, पदार्थों में आसक्त न रहकर सभी ओर से पूर्ण हो विरक्त हो जायेंगे और तभी अनायास ही सारे दुःखों का अन्त हो जायेगा।

यदि आपको साँसारिक पदार्थों और सम्बन्धियों को अपना मानते हुए ही सुख प्रतीत होता है तो परमानन्द स्वरूप परात्पर परमेश्वर को ही अपना मानो, क्योंकि यथार्थ विवेक न होने के कारण अपने संतोष सुख के लिए आपको मानने वालों के संग से ही मानने की आदत पड़ गई है।

आपका मन अपनी आदत के अनुसार स्थूल जगत के विषयों में सुख मानकर ही सुखद पदार्थों के प्रति मोहासक्त हो रहा है। ऐसी दशा में तो यही ठीक है कि परम शान्ति स्वरूप परमात्मा को अपना माना जाय, जिससे साँसारिक पदार्थों के प्रति ममता का बन्धन टूट सके। यहाँ पर आपको स्मरण रखना होगा कि जिस प्रकार संसार के माने हुए सुख और सुखद सम्बन्ध स्थिर नहीं है उसी प्रकार माने हुए परमेश्वर से मिलने वाली, मानी हुई शान्ति भी वास्तविक परम-शाँति नहीं है।

वह परम-शाँति तो परमात्म स्वरूप के और अपने सम्बन्ध को तत्वतः जान लेने पर ही प्राप्त होती है।

अतः आपका सम्बन्धी केवल आपको और परमात्मा के सम्बन्ध को प्रकाशित कर देने वाला अद्वितीय तत्व-ज्ञान है। जिसको जानकर आप सार्वभौम-सेवा-पथ के पथिक बनकर, उन्नति की चरम सीमा पर प्रतिष्ठित होकर, परम-शान्ति स्वरूप सच्चिदानंद-धन परमेश्वर को अपने वास्तविक सम्बन्धी को प्राप्त करने के अधिकारी बनकर कृतकृत्य हो सकते हैं।


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