अब हमें ऐसे नेता चाहिये।

February 1957

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(श्री परिपूर्णानन्द जी वर्मा)

बिना नेता के समाज नहीं होता और नेता के लिए समाज का होना आवश्यक है। जब से सभ्यता पनपी, मानव समाज से लेकर पशु तथा कीट पतंग समाज में भी नेता की रचना हुई, जन समूह को या पशु-पक्षी समूह को पेट तथा गृहस्थी की झंझट में इतना अवकाश नहीं रहता कि वह अपना ठीक से नियंत्रण कर सके तथा अपने सामाजिक जीवन का संचालन कर सके- यह कार्य समूचे समाज की ओर से उसका एक अग्रणी या नेता करता है। अपने स्वभावसिद्ध गुणों से तथा अपने में उपयोगिता के कारण पूजनीय होता है। वास्तव में वह ‘गणपति’ होता है, पर गणपति बनने के लिए, ‘गणानाँ त्वा गणपतिः’ होने के लिए उसमें कई गुणों का समुच्चय होना चाहिए। गणपति वही हो सकता है, जो हाथी के ऐसे बड़े-बड़े कान रखता हो, जिससे संसार का सब कुछ उसके कानों को सुनायी दे जाय। उसके नेत्र इतने छोटे हों कि संसार का ऐब बहुत कम देखे, पेट इतना बड़ा हो कि सब कुछ सुन-समझकर पेट में रख ले। चूहे की चाल चले यानी बहुत सावधानी से चारों तरफ की थाह लेकर तब बड़ी शीघ्रता से चले, फिर रुक जाय, इतनी सावधानी से जीवन बिताने वाले के दोनों हाथों में, लड्डू होता है। सूँड़ से फूँक-फूँक कर वह कदम रखता है- यह है गणपति का गुण। सब कार्यों का आरम्भ करने में गणपति का पूजन करने से सभी विघ्नों का नाश होता है और उस गणपति की कृपा से सब काम सिद्ध होते हैं उसका आदर्श मानकर चलने से हर एक मनुष्य का कल्याण होता है।

इस प्राचीन गणपति को हमारे शास्त्रों ने ‘नेता’ कहा है। नेता बड़ा पुराना शब्द है, आज का नहीं है। किन्तु जिस समय शब्द बना था, उस समय प्रायः राजा तथा पुरोहित ही नेता होता था। अब तो जिस गली-कूचे में, जिस कंकड़-पत्थर को उठा लीजिये, वही नेता होगा। वर्षा में मेंढक की बाढ़ आती है, प्रजातंत्र में नेता की बाढ़ आ गयी है, हमारे देश में स्वराज्य हो गया, पर हम स्वराज्य का सुख नहीं भोग पाते हैं। इसका कारण है कि हमारा नेता हमको चैन से बैठने नहीं देता। जहाँ समस्या नहीं है, वहाँ पर वह कोई न कोई समस्या उत्पन्न कर देगा। यदि हम लेशमात्र भी सुख की साँस लेना चाहेंगे तो वह नयी-नयी उलझनें पैदा कर देगा।

एक बात और भी है- देश का तथा समाज का उत्थान नेता पर निर्भर करता है। नेता यदि पथभ्रष्ट हुआ तो देश भी पतन की ओर अग्रसर हो जाता है, इसलिए और किसी विचार से नहीं तो अपनी रक्षा के विचार से ही, हमको बहुत छानबीन कर अपना नेता चुनना होगा। आज की हमारी बहुत सी परेशानियों की जड़ हमारा गलत नेता भी हो सकता है।

पर, साधारण जन समूह के पास न तो अवकाश है और न इतनी बुद्धि है कि वह भले-बुरे की पहचान कर सके। मामूली कहावत है-

गुरु कीजै जानकर। पानी पीजै छानकर।

पर नेता कैसे किया या बनाया जाता है? इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन है। पश्चिम की विचारधारा में इसकी अनेक व्याख्याएँ की गयी हैं, पर वे प्रायः सभी बहुत ही भौतिक तथा साँसारिक हैं। नेताओं की भौतिकता तथा साँसारिकता ही विश्व के वर्तमान संकट का एक प्रधान कारण है। यदि मानव कुछ अधिक आध्यात्मिक तथा असाँसारिक हो सकता तो वह संसार के ऊहापोह के मायाजाल में गला फँसाकर सिसक-सिसक कर मरता नहीं। नश्वर चीजें मनुष्य के दिल को खा जाती हैं और अन्तरात्मा को अन्धा कर देती हैं। जीवन का सुख चिंताओं में समझा जाता है। दिल या हृदय की आवश्यकता पार्थिव कसक या विनाशकारी प्रेम तक सीमित है-

राम गया, रौनके हयात गयी। दिल गया, सारी कायनात गयी॥

पर, जीवन इसके ऊपर उठकर है। जीवन उसका है जो यह समझता है कि-

तुम जिसे दिल खयाल करते हो। वह शबिस्ता-सा खिलौना था॥

मनुष्य के साँसारिक जीवन का उद्देश्य है सुख। सुख की प्राप्ति सम्पत्ति से होती। सम्पत्ति का हेतु क्या है? कारण क्या है?

प्रभावः शुचिता मैत्री त्यागः सत्यं कृतज्ञता। श्रुतिः शीलं दमश्चेति गुणाः सम्पत्तिहेतवः ॥

अर्थात् प्रभाव, पवित्रता, मित्रता, त्याग, सत्य दूसरे का उपकार मानकर उसको स्मरण रखना, शास्त्र तथा शील सम्पन्न होना और बाहर-भीतर की इन्द्रियों को जीत लेना- ये गुण सम्पत्ति के कारण हैं-हेतु हैं।

इसलिए नेता वही है, जो हमें इन गुणों को सिखलावे, जो हमारे मन-वचन में ऐसी भावना भर दे कि हम इन गुणों का प्रतिपादन-सम्पादन करें। पर ऐसी शिक्षा देना भी साधारण बात नहीं है कौन ऐसी शिक्षा दे सकता है? नेता। प्रश्न फिर आता कि ‘नेता कौन है या किसे मानना चाहिए।’

इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए हमको आज से दो हजार साल पीछे लौट चलना होगा उस समय की भारतीय संस्कृति ने बहुत सोच-समझकर नेता की व्याख्या की थी। नेता का अर्थ निश्चित किया था नेता शब्द का निर्माण किया था जो व्यक्ति नीति का पालन करे तथा चलावे, वह नेता होगा। नयन करने वाली चीज का नाम नीति है यानी सम्यक् रूप से सुमार्ग में चलाने वाली वस्तु का नाम नीति है “कामन्दकीय नीतिसारः” के दूसरे सर्ग के सोलहवें श्लोक में लिखा है- ‘नयनान्नीतिरु च्यते’।

नीति को जानने वाला नेता होता है दण्ड भी देता है और जो लोग पथभ्रष्ट होते हैं, उनको सजा देना भी उसका कर्त्तव्य है। नीति का पालन कराने के लिए कठोर अनुशासन की आवश्यकता होती है। जिस राजनीतिक दल में से अनुशासन उठ गया तथा अवज्ञा करने वालों के लिए दण्ड का विधान बहुत है, उस राजनीतिक दल का भविष्य उज्ज्वल नहीं कहा जा सकता। जो अपनी नीति को अनुशासन पूर्वक नहीं मनवा सकता, वह नेता नहीं बन सकता। इसलिए कौटिल्य के अर्थशास्त्र के बारे में लिखा हुआ ग्रन्थ ‘कामन्दकीय नीतिसारः’ जो कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र का सार है, नेता का गुण बतलाता है-

दण्डनीतिर्यदा सम्यं नेतारमधितिष्ठति। तथा विद्याविदः शेषा विद्याः सम्यगुपासते॥

(सर्ग 2, श्लोक 9)

अर्थात् जब दण्डनीति भली प्रकार से नेता में स्थिर रहती है, तब वह विद्या को जानने वाला सम्पूर्ण शेष विद्याओं को प्राप्त होता है।

हिटलर हो या मुसोलिनी, स्टालिन हो या ट्रमन, हमारे देश के नेता वर्ग भी, जिसमें अनुशासन करने की क्षमता नहीं, वह और किसी गुण से सम्पन्न न होगा। अतएव वह नेता नहीं बन सकता। शासन की विभक्ति का ही नाम अनुशासन है। कौटिल्य अर्थशास्त्र के अट्ठाइसवें प्रकरण के दसवें अध्याय में लिखा है। ‘शासने शासनमित्याचक्षते।’

यानी किसी भी तरह की राजा की लिखित आज्ञा या प्रतिज्ञा शासन कहलाता है। अतएव नेता का आदेश शासन हुआ। जो इस आदेश को नहीं मान सकता या मना सकता, वह न तो नेता हो सकता है और न अनुयायी।

नीति को चलाने वाला तथा अनुशासन करने वाला, ऐसा नेता कौन हो सकता है? इसकी बड़ी सुन्दर व्याख्या कामन्दकीय नीतिसार में ही देखिए-

बाग्मी प्रगल्भः स्मृतिमानुदग्रा बलवान् वशी। नेता दण्डस्य निपुणः कृतशिल्पः सुविग्रहः ॥

(सर्ग 4, श्लोक 15)

यानी उदार, शास्त्र सम्मत बोलने वाला वाग्मी, स्मृतिमान, बड़ा बलवान, जितेन्द्रिय, शिक्षक, दण्ड योग करने वाला, चतुर, शिल्पविद्या में निपुण तथा अच्छे शरीर वाला नेता होता है।

इन्हीं गुणों का राजा होना चाहिए। इन्हीं गुणों का नेता होना चाहिए। पर आज यदि हम आँख उठाकर देखें तो हमको विरले ही ऐसे राजा, शासक व नेता नजर आयेंगे। ऐसे गुण वाले का हमारी दृष्टि से ओझल हो जाना ही हमारे अकल्याण का कारण है।

ईसा से 479 वर्ष पूर्व, प्रसिद्ध चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस की 63 वें वर्ष की उम्र में मृत्यु हुई थी। अपने सचेत जीवन का प्रत्येक क्षण इस महापुरुष ने सबको सत्पिता, सन्माता, सुपुत्र, सुपुत्री तथा सन्मित्र बनने की शिक्षा देने में बिताया था। ऐसा महापुरुष समाज के नेता का जिक्र कैसे भूल सकता था। अतएव उन्होंने अपनी पुस्तक या लेखों में नेता का गुण बतलाया है। वे लिखते हैं-

‘जो दूरदर्शी नहीं है, वह निकट की पहेलियों में भी कष्ट उठायेगा। वही आदर्श पुरुष है, जो काम की कठिनाइयों को दूर करने का पहले ख्याल करता है, उसकी सफलता की बात पीछे सोचता है। प्राचीन काल में आदमी आत्मोन्नति के लिए शिक्षा प्राप्त करते थे। आज के लोग दूसरों से प्रशंसा प्राप्त करने के लिए शिक्षा प्राप्त करते हैं। जो आदमी सच्चा है, ठोस है, सीधे रास्ते चलता है तथा दूसरों की बातें सुनकर मन में उसकी समीक्षा करता है, वही व्यक्ति देश में समाज में तथा परिवार में उच्च स्थान प्राप्त कर सकता है तथा अगुआ बन सकता है।’

कन्फ्यूशियस ने आज के 2300 वर्ष पहले जो बात कही थी, उसे कोई कैसे काट सकता है? कौन कह सकता है कि मानव के लिए ऊपर लिखी व्याख्या के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार का नेता चाहिए। कठिनाई यही है कि हम शास्त्र द्वारा प्रमाणित नेता को खोजते नहीं, तलाश नहीं करते या यदि हमें मिलता भी है तो उसकी कद्र नहीं करते। जैसा समाज होता है वैसा ही नेता भी पैदा होता है। जिसे सच्चे नेता की आवश्यकता हो उसे अपना स्तर भी ऊँचा करना होगा। अपना दूषण भी दूर करना होगा। तभी हमको असली सुख तथा शान्ति देने-दिलाने वाला नेता प्राप्त होगा या यदि प्राप्त है तो उससे सुख प्राप्त होगा।


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