महिलाओं की साँस्कृतिक शिक्षा

February 1957

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(श्री भगवती देवी शर्मा- धर्मपत्नी आचार्य जी- मथुरा)

तपोनिष्ठ वेदमूर्ति श्री आचार्य जी के सान्निध्य में निरंतर रहने के कारण, उनकी मनोदिशा और कार्यों की गतिविधि की मुझे स्वभावतः आवश्यक जानकारी रहती ही है। सवा वर्ष के पिछले विशद गायत्री महायज्ञ रूपी मंगलाचरण और इस वर्ष को ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान रूपी शिलान्यास करने के साथ वे देशव्यापी साँस्कृतिक पुनरुत्थान का महान कार्य करने के लिए पूरी शक्ति के साथ तत्पर हो रहे हैं। उनका व्रत घर-घर में भारतीय संस्कृति का अलख जगाने और प्रत्येक भारतीय को उच्च दृष्टिकोण के आधार पर अपने विचारों और कार्यों का निर्माण करने की प्रेरणा देने का है। गायत्री परिवार का संगठन वे इसी दृष्टि से कर रहे हैं।

आचार्य जी जो प्रेरणा एवं शिक्षा देने का कार्य करेंगे वह कम से कम किशोर आयु के व्यक्तियों से आरम्भ होगा क्योंकि छोटी आयु के बालक उनके गम्भीर दार्शनिक विचारों को समझ नहीं सकते। इस प्रकार उनके विचारों से महिलाएं भी समुचित प्रेरणा प्राप्त न कर सकेंगी। क्योंकि वे स्वयं यह मानते हैं कि स्त्रियों और पुरुषों के कार्य क्षेत्र भिन्न-भिन्न है। इसलिए वे महिलाओं में कार्य करने से स्वयं भी बचते रहते हैं।

स्कूली शिक्षा पाँच वर्ष से प्रारम्भ होती है, पर संस्कृति का अधिकाँश शिक्षण तब तक पूर्ण हो चुका होता है। बालक की हड्डियाँ पिता के अंश से और माँस, रक्त, नस, नाड़ी, दिल, दिमाग सब कुछ माता के रक्त से बनता है। बालक के शरीर में कठोर हड्डियों के अतिरिक्त और जो कुछ कोमल है वह प्रायः माता के शरीर से ही कटकर बना हुआ एक हिस्सा है। माता के गुण, कर्म, स्वभाव जैसे होते हैं बालक प्रायः वैसी ही चेतनाओं एवं शक्तियों से भरा रहता है। जन्म होने के बाद वैज्ञानिकों के मतानुसार बालक जितना कुछ प्रभाव एवं शिक्षण माता द्वारा अपने मनःक्षेत्र में पाँच वर्ष की आयु तक भर लेता है फिर जीवन भर उतना ग्रहण नहीं कर पाता। स्कूलों में पढ़ाई होती है, शिक्षा दी जाती है पर संस्कारों का कार्य तो बालक के गर्भ धारण से लेकर पाँच वर्ष की आयु तक पचहत्तर प्रतिशत पूर्ण हो चुकता है।

आचार्य जी घर-घर में भारतीय संस्कृति का अलख जगाने और घर-घर में सुसंस्कृत नररत्न एवं महापुरुष पैदा करने की महान प्रक्रिया में संलग्न हो रहे हैं। उनके तपोबल और असाधारण पुरुषार्थ को देखते हुए किसी भी कार्य में असफलता की बात तो मैं नहीं सोचती- पर एक संदेह मन में निरन्तर बना रहता है कि जब तक नारी जाति पिछड़ी रहेगी, उसे सुसंस्कृत बनाने का प्रयत्न नहीं किया जायेगा तब तक उसके रक्त माँस से बने हुए बालकों में कैसे उन्नत संस्कार आवेंगे? और कैसे वह असंस्कृत नारी अपनी संतान पर पाँच वर्ष की आयु तक आशाजनक संस्कार डाल सकेगी? यदि पचहत्तर फीसदी मानसिक निर्माण अव्यवस्थित परिस्थितियों में, अयोग्य शिक्षक माता द्वारा पूरा हो गया, तो फिर शेष पच्चीस फीसदी मानसिक निर्माण यदि गुरुजनों द्वारा पूरा कर भी लिया गया तो उसका परिणाम आशाजनक किस प्रकार हो सकेगा?

धार्मिक शिक्षा की जनता को निश्चय ही आवश्यकता है, भारतीय संस्कृति के आधार पर उसे नैतिक दृष्टिकोण, आदर्श एवं विचार व्यवहार रखने के लिए जन साधारण को प्रेरित करना एक सराहनीय प्रयत्न है। पर अज्ञानान्धकार में डूबी हुई माताओं मनोभूमि, में जब कुछ सुधार न हो तब उनकी संतान भी मानसिक एवं आत्मिक दृष्टि से पिछड़ी हुई ही रहेगी, चाहे स्कूली शिक्षा द्वारा उसे पढ़ा-लिखा कर कितना ही तथाकथित डिग्री धारी विद्वान क्यों न बना दिया जाय। धार्मिक शिक्षा सुनने, समझने, ग्रहण करने और उसे हृदयंगम करने के लिए भी व्यक्ति में कुछ जन्मजात संस्कार होने चाहिए, अन्यथा कितने ही उच्च कोटि के प्रवचन दिये जायं, वे जन्मजात संस्कारों से विहीन व्यक्ति- उनकी उपेक्षा ही करेंगे। इस कान से सुनकर उस कान निकाल देंगे।

इस कठिनाई को मैंने परम पूज्य आचार्य जी के सामने कई बार रखा, वे गंभीरतापूर्वक इस तथ्य को स्वीकार करते हैं, पर स्त्री जाति को सच्ची शिक्षा देने की आवश्यकता को पूरा करने में अपनी विवशता बताते हैं। कहते हैं- स्त्रियों में कार्य करने का उत्तरदायित्व इतना पवित्र एवं गुरुतर है कि उसको पुरुष नहीं, देवियाँ ही अपने कन्धे पर उठा सकती हैं। पुरुषों के इस क्षेत्र में प्रवेश करने से लाभ की अपेक्षा हानि की अधिक संभावना है। आचार्य जी पुरुष हैं वे मूलतः पुरुषों की दृष्टि से पुरुषों में जागृति करके उनके द्वारा अपने-अपने घरों में नारियों के उत्थान की बात सोचते हैं। मेरा विचार है कि यह मार्ग बहुत लम्बा है। यदि हमें वस्तुतः भारत भूमि को सुसंस्कृत देव भूमि बनाना है, तो नारी जाति को सुसंस्कृत बनाने के लिए पुरुषों से भी पहले स्थान देने की आवश्यकता है। बहुत दिनों के विचार विनिमय के बाद अब देव तुल्य आचार्य जी की अनुमति एवं आशीर्वाद लेकर इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए कुछ कार्य करने के लिए मैंने कदम उठाया है। अपनी अयोग्यता को देखते हुए निःसंदेह यह मेरा एक दुस्साहस ही है, पर उद्देश्य की पवित्रता कार्य की महानता तथा सत्कार्यों में प्राप्त होने वाले माता के अनुग्रह, का विश्वास एक उत्साह प्रदान करता है, इसी बल बूते पर यह कदम उठा रही हूँ।

यों स्त्री शिक्षा के लिए आज अनेक स्कूल मौजूद हैं, पर उनमें लड़कों की भाँति लड़कियों को भी वही शिक्षा दी जाती है जो नौकरी मिलने के अतिरिक्त जीवन की और कोई समस्या हल नहीं करती। लड़के इस शिक्षा को पाकर बेकारी के निराशाजनक गर्त में गिरते और लड़कियाँ फैशन परस्ती, शान शौकत, श्रम करने को हठी समझना, उच्छृंखलता, आदि बुराइयाँ सीखकर पारिवारिक जीवन में बहुधा असफल रहती देखी गयी हैं। जिस प्रकार पुरुषों के लिए जीवन की समस्याओं को हल करने वाली शिक्षा की जरूरत है उसी प्रकार नारी को भी वह शिक्षा चाहिए जिसे प्राप्त कर वह अपना, अपने परिवार का, बच्चों का जीवन प्रसन्नता, सद्भावना, सम्पन्नता, निरोगता एवं सुख शान्ति से परिपूर्ण बना सके। नौकरी क्लर्की के लिए ही जो बातें उपयुक्त हो सकतीं है उन्हें पढ़कर व्यर्थ समय बर्बाद करने और मस्तिष्क पर अनावश्यक वजन डालने के स्थान पर वे चुने हुए विषय पढ़ाये जायें जो नारी जीवन में नित्य प्रति उपस्थित होते रहने वाली समस्याओं का हल खोजने में सहायक हो सकें। ऐसी साँस्कृतिक सुशिक्षा से संपन्न नारियाँ ही अपने पतियों की सच्ची सहधर्मिणी- सास ससुर की आज्ञाकारिणी, कुल वधू- ननद, देवरानी, जिठानियों के लिए- देवर, जेठों के लिए- गृह लक्ष्मी, और संतान के लिए- सच्ची माताएं सिद्ध हो सकती हैं। पति कुल और पिता कुल दोनों के लिए वे उज्ज्वल तारिकाएं ही राष्ट्रनिर्माण की आधार शिलाएं होंगी, इन्हीं के द्वारा यदि देश को आगे बढ़ना होगा तो बढ़ेगा। सच्चरित्रता, महानता, नैतिकता, वीरता, पुरुषार्थ की लहर जब भी उत्पन्न होनी होगी, नारी जाति के अन्तःकरण से ही उसका स्त्रोत फूटेगा।

वह सच्ची स्त्री शिक्षा जिसके द्वारा नारी की अन्तरात्मा जागृत हो -उसके गुण, कर्म स्वभाव में नारी के महान आदर्श झिलमिला उठें, आज कहीं दिखाई नहीं पड़ती। उसका आरम्भ किया जाना चाहिए। यह शुभ कार्य गायत्री परिवार से ही क्यों न आरंभ हो? यह सोच कर एक ऐसा विद्यालय चलाने की बात सोची गई है जिसमें-

1- कन्याओं के लिए नारी जीवन की विभिन्न समस्याओं को हल करने वाला- सरकारी पाठ्यक्रमों से सर्वथा भिन्न- ऐसा शिक्षण क्रम रहे, जिसे उत्तीर्ण करके जाने वाली कन्याएं अपने गृहस्थ जीवन में आनन्द, उल्लास, संतोष, व्यवस्था, प्रेम, सहयोग, किफायत, सादगी, धार्मिकता की सरिता बहाती हुई एक सफल गृहणी के रूप में प्रवेश करें। घरेलू अर्थशास्त्र, गृह-व्यवस्था, परस्पर सद्-व्यवहार, स्वास्थ्य-रक्षा, चिकित्सा, वस्त्रों की सिलाई, धुलाई, रंगाई, घर को सर्वांगीण सुन्दर बनाना, सादगी का सौंदर्य, ऐतिहासिक कथा, कहानियाँ कहना, गृहस्थ कर्त्तव्य, संतान का निर्माण आदि विषयों का समावेश हो।

2- वयस्क स्त्रियों के लिए समय-समय पर थोड़े-थोड़े समय की शिक्षा के लिए उपरोक्त विषयों पर शिक्षण शिविर होते रहें, जिनमें नियमित पाठ्यक्रम से तो नहीं, पर परस्पर विचार-विनिमय के रूप में वे सभी बातें समझाई जायं, जिन्हें एक आदर्श नारी के लिए जानना जरूरी है। इन शिविरों में आई हुई शिक्षार्थियों के जीवन में वर्तमान काल में उपस्थिति विभिन्न समस्याओं को हल करने के लिए उन्हें अलग-अलग शिक्षण दिया जाय। उनकी अस्वस्थता आदि में चिकित्सा द्वारा प्रत्यक्ष सहायता भी करने की व्यवस्था जैसी आवश्यक बातें भी सम्मिलित रहें।

इन दोनों वर्गों की शिक्षा का नियमित विस्तृत और व्यवस्थित कार्यक्रम पीछे बनेगा, अभी तो उस की रूपरेखा तैयार की गई है। इस शिक्षण क्रम को पहले गायत्री परिवार के सदस्यों की नारियों-कन्याओं के लिए प्रारंभ किया जायेगा। पर एक मोटी बात यह है कि जिस प्रकार कोई माता अपनी छाती के समीप रखकर उन्हें आवश्यक शिक्षण केवल वाणी से ही नहीं व्यवहार और क्रिया द्वारा भी देती है वैसी ही पद्धति यहाँ भी अपनाई जायगी।

मैं नारी उत्थान के कार्य को करने के लिए अपने जीवन के शेष क्षणों को लगा देना चाहती हूँ। परम पूज्य आचार्य जी के मिशन के एक महत्वपूर्ण अंग की पूर्ति करने के लिए इन दिनों मेरी अन्तरात्मा में एक असाधारण उत्साह का काम कर रहा है। इधर कई दिनों से जागृत और स्वप्न में मुझे आगामी कार्यक्रम के यही दृश्य दीखते रहते हैं कि परिवार की सहस्रों नारियाँ समय-समय पर अपनी कठिनाइयों और कमियों को दूर करने के लिए यहाँ उसी प्रकार आया करेंगी जैसे लड़कियाँ ससुराल में कुछ दिनों के लिए अपने पिता-माता के घर-मोह मनाती हुई आती हैं। यहाँ से वापिस जाने पर वे यहाँ से कुछ विशेष महत्वपूर्ण वस्तु उसी प्रकार ले कर जाया करेंगी जैसे कन्याएं अपनी माता से विदा होते समय कुछ विदाई भी लेकर जाती हैं।

कोई बड़ा कालेज खोलने का अभी मेरा विचार नहीं है, कोई विशाल भवन भी बनाने की योजना नहीं है। अखण्ड-ज्योति प्रेस वाले घीया मंडी के घर में इतनी गुंजाइश है कि यहाँ 20-25 महिलाएं रह सकें और शिक्षण प्राप्त करने के लिए जो रहती और आती जाती रहें।

इस कार्य के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता है वह है -अध्यापिकाओं की। यों नौकरी के लिए हजारों नर-नारी मारे-मारे फिरते हैं। एक आवश्यकता छपाते ही सैकड़ों हजारों अर्जियाँ अध्यापिका की नौकरी प्राप्त करने की अभिलाषिनियों की आ जावेंगी, पर उनसे वह कार्य किसी भी प्रकार पूरा न हो सकेगा, जो करने का इस योजना का उद्देश्य है। दूसरों की आत्मा पर प्रभाव डालने के लिए उन्हें ऊँचा उठाने के लिए एक विशेष आत्मबल सम्पन्न आत्माएं चाहिए। इन्हीं की मुझे तलाश है। जिनके पीछे पारिवारिक उत्तरदायित्व न हों, परिवार के किन्हीं आश्रितों को कमा कर खिलाना न हो, स्वयं भी शौक-मौज के साथ मनमाना खर्च करने की इच्छा न हो, कुछ घण्टे नौकरी की बेगार टालने की मनोवृत्ति न होकर अपना आपा इस महान सेवायज्ञ में खपा देने की इच्छा हो, भावी जीवन में ब्रह्मचर्य व्रत लेकर रहना हो, वे ही अध्यापिकाएं मेरे कन्धे से कन्धा मिला कर काम कर सकेंगी। ऐसी आत्माएं सहयोगिनियाँ कहाँ से मिलें- आज मुझे इसी की सबसे बड़ी चिंता है।

यों समय-समय पर, आदर्श पर अड़ जाने वाली एवं विशेष परिस्थितियों के सामने आ जाने पर भारी कष्ट सहने वाली नारियों के अवाक् कर देने वाले वृत्तांत बहुधा सामने आते रहते हैं। कुछ ही दिन पूर्व स्नेहलता नामक लड़की ने दहेज के अभाव में दुखी पिता-माता को घोर चिंताओं से छुटाने और दहेज में सब कुछ चला जाने पर छोटे-भाई बहिनों के निर्वाह तथा शिक्षण में आने वाली अड़चन को दूर करने के लिए, अपने शरीर में आग लगाकर रोमाँचकारी आत्महत्या की थीं। ऐसी कई वीरव्रती लड़कियों के वृत्तांत भी मुझे मालूम हैं जिन्होंने दहेज के राक्षस से अपने परिवार को चबाये जाने से बचाने के लिए आजीवन अविवाहित रहने का व्रत लिया और अपना निश्चय बदलने के लिए सब के समझाने पर भी टस से मस न हुई। संतान न होने, काली कलूटी, अस्वस्थता या ऐसे ही किसी अपराध में पतियों द्वारा परित्यक्ताएं तथा विधवाएं भी अनेक प्रकार के उत्पीड़न त्रास और अपमान सहती हुई एक निस्पृह संत जैसा तपस्वी जीवन व्यतीत कर देती हैं।

इस प्रकार की आत्माएं यदि नारी जाति की साँस्कृतिक सेवा के इस महान मिशन के लिए अपना जीवन लगाने को तत्पर हो जावें तो निस्संदेह वे अपने मानव जीवन को सब प्रकार धन्य बना सकती हैं। विवाहित जीवन में एक आकर्षण है- सही, पर परमार्थ के लिए आत्म-त्याग करने में और सेवा व्रत धारण करने में भी जो अलौकिक आनन्द है उसे भी मामूली नहीं समझना चाहिए। कई बार कई महिलाएं इस प्रकार का सेवा व्रत लेना चाहती हैं तो उनके घर वाले इसमें अपनी हेठी बदनामी जैसी बात सोचते हैं। यह अपडर मानसिक दुर्बलता मात्र है। मीरा के द्वारा जो धर्म सेवा हुई उसमें भले ही उसके पिताकुल या पतिकुल के लोगों को अपनी हेठी लगी हो पर सच्चाई यह है इससे दोनों कुलों को श्रेय ही मिला। शुभकार्य के लिए, सदुद्देश्य के लिए उठाया हुआ कोई कदम कभी भी बदनामी का कारण हो नहीं सकता।

उपरोक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिये अभी ऐसी महिलाओं की जरूरत है जो काम चलाऊ शिक्षा प्राप्त हों, परिश्रमी हों, भविष्य में ब्रह्मचर्य से रहें तथा नारी जाति की साँस्कृतिक सेवा का व्रत धारण करें। उन्हें निर्धारित अध्यापन की योग्यता प्राप्त करने के लिये विशेष रूप से शिक्षित करने का यहाँ प्रबंध किया जायेगा। जब कई महिलाएं शिक्षा देने के योग्य हो जाएंगी तभी विद्यालय आरम्भ कर दिया जायगा। इस कार्य के लिए वे ही महिलाएं ली जायेंगी जिनके ऊपर बच्चों की जिम्मेदारी न हो। उनके भोजन, वस्त्र, निवास, पुस्तक, शिक्षण आदि की सभी आवश्यक व्यवस्था की जायेगी, पर नौकरी जैसी कोई वस्तु देकर उनके त्याग और तप का मूल्य घटाया न जायेगा।

जिन गृहों में ऐसी सेवाव्रती, शीलवान शिक्षित देवियाँ हैं, जिनके परमार्थ में लगने पर भी गृह-व्यवस्था बिगड़ती नहीं, उन गृहस्वामियों से प्रार्थना है कि इच्छुक देवियों को इस पुनीत कार्य से वंचित न करें। मैं यह विश्वास दिलाती हूँ कि उनके शील का, सुरक्षा का, मान मर्यादा का, सुख-सुविधा का, उन्नति का, वैसा ही ध्यान रखूँगी जैसा कोई माता अपनी बच्चियों का रख सकती है।

विचारशील परिजनों से प्रार्थना है कि नारी जाति की साँस्कृतिक सेवा के इस महान मिशन को सफल बनाने के लिए सक्रिय सहयोग करें। शिक्षा क्षेत्र में जानकारी रखने वाले सज्जन- (अ) कन्याओं की पाँच वर्ष की, (ब) वयस्क स्त्रियों की तीन मास की, (स) सेवा व्रती अध्यापिकाओं की शिक्षा एवं विद्यालय की व्यवस्था सम्बन्धी अपने सुझाव भेजें। अपने घरों की नारियों तथा कन्याओं को शिक्षा के लिए मथुरा भेजने की सम्भावना पर विचार करें। अध्यापन कार्य के लिए सेवाव्रत ले सकने वाली महिलाएं खोजने, उन्हें प्रोत्साहित करने तथा उनके घर वालों को स्वीकृति देने के लिए तैयार करें। केन्द्रीय विद्यालय चल पड़ने पर देश भर में उसकी शाखाएं फैल सकती हैं और उनके द्वारा युग परिवर्तनकारी कार्य हो सकता है। इस पुनीत कार्य में सहयोग देने के लिए परिवार की सभी स्वजनों को मैं पुनःपुनः सादर आमंत्रित करती हूँ।


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