धर्म ‘नकद’ है, उधार नहीं

February 1957

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(स्वामी रामतीर्थ)

धार्मिक वाद-विवाद और झगड़े जो होते हैं, वे नकद धर्म पर नहीं होते। नकद धर्म वह है, जो मरने के बाद नहीं, किन्तु वर्तमान जीवन से सम्बन्ध रखता है। उधार धर्म अंधविश्वास पर निर्भर होता है। उधार धर्म कहने के लिए और नकद धर्म करने के लिए। धर्म के उस भाग पर जो नकद धर्म सहमत है— “सत्य बोलना, विद्याध्ययन करना और उसे आचरण में लाना, स्वार्थ से रहित होना, दूसरे के धन आदि को देखकर अपना चित्त न बिगाड़ना, संसार के लालच और धमकियों के जादू में आकर अपने वास्तविक स्वरूप को न भूलना, दृढ़ चित्त और स्थिर स्वभाव का होना, इत्यादि-इत्यादि।” इस नकद धर्म पर कभी दो मत नहीं हो सकते। उधार के दावे वाद-विवाद करने में प्रीति रखने वाले लोगों को सौंप कर स्वयं वर्त्तमान कर्त्तव्य-नकद धर्म पर चलने वाले ही उन्नति करते और वैभव पाते हैं।

भारतवर्ष और अमेरिका में क्या भेद है? वहाँ दिन है तो यहाँ रात, भारतवासी बाजार में बांई ओर चलते हैं वहाँ दांई ओर, पूजा सत्कार के समय यहाँ जूता उतारते हैं, वहाँ टोपी। यहाँ परिवार में पुरुषों का राज्य है, वहाँ नारियों का, यहाँ यह शिकायत है कि विधवा ही विधवा है, उस देश में कुमारी ही कुमारी अधिक हैं, इस देश में जो पुस्तक लिखी जाती है, वह पहले के विद्वानों के प्रमाणों से भरी न हो तो उसका कुछ सम्मान नहीं होता, उस देश में पुस्तक की सारी बातें नवीन न हों तो उसकी कोई कद्र नहीं। यहाँ किसी को कोई लाभदायक बातें मालूम हो जाएं तो उसे छिपा कर रखते हैं, वहाँ उसे छापेखानों द्वारा प्रकाशित कर देते हैं। यहाँ रूढ़ियों की उपासना अधिक है, वहाँ नकद धर्म बहुत है।

जब राम जापान को जा रहा था तो जहाज पर अमेरिका का एक वृद्ध प्रोफेसर मित्र बन गया। वह रूसी भाषा पढ़ रहा था। पूछने पर मालूम हुआ वह ग्यारह भाषाएं पहले से भी जानता है। उससे पूछा गया- इस उम्र में नवीन भाषा क्यों सीखते हो? उसने उत्तर दिया- मैं भूगर्भ शास्त्र का प्रोफेसर हूँ। रूसी भाषा में भूगर्भ शास्त्र की एक अनोखी पुस्तक लिखी गई है। यदि मैं उसका अनुवाद कर सकूँगा तो मेरे देशवासियों को अत्यन्त लाभ पहुँचेगा, इसलिए रूसी भाषा पढ़ता हूँ। राम ने कहा- अब तुम मौत के निकट हो। अब क्या पढ़ते हो? ईश्वर सेवा करो। अनुवाद करने में क्या धरा है? उसने उत्तर दिया- ‘लोक सेवा ही ईश्वर सेवा है। इसके साथ यदि यह भी मान लिया जाय कि इस काम को करते-करते मुझे नरक में भी जाना पड़े तो मैं जाऊँगा। इसकी कुछ परवाह नहीं। अगर मुझे घोर नरक में दुःख मिलते हैं, तो हजार जान से भी कबूल है, यदि हमारे भाइयों को इससे और लाभ मिल जाय? इस जीवन में सेवा के आनन्द का अधिकार, मैं मौत के उस पार के डर से नहीं छोड़ सकता।

यही नकद धर्म है। भगवद् गीता में बड़ी सुन्दरता से आज्ञा दी है- कर्म तो करते ही जाओ, परन्तु फल पर दृष्टि मत रखो।

एक मनुष्य बाग लगाता था। किसी ने पूछा बूढ़े मियाँ! क्या करते हो? तुम क्या इसके फल खाओगे? एक पाँव तो तुम्हारा पहले ही कब्र में है।

माली ने उत्तर दिया- औरों ने बोया था हमने खाया। हम बोयेंगे, दूसरे खायेंगे।

इसी प्रकार संसार का काम चलता है। जितने महापुरुष हो गये हैं- राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, ईसा, मुहम्मद इत्यादि क्या इन महापुरुषों ने उन वृक्षों का फल स्वयं खाया था, जिसे वे बो गये थे? कदापि नहीं। इन महापुरुषों ने तो केवल अपने शरीरों को मानो खाद बना दिया, फल कहाँ खाये? जिन वृक्षों का फल शताब्दियों के बाद लोग आज खा रहे हैं, वे उन ऋषियों की खाक से उत्पन्न हुए हैं। यह सिद्धान्त ही धर्म का वास्तविक प्राण है।


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