समर्थ गुरु रामदास

माता से भेंट

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समर्थ गुरु रामदास अपनी माता की अभिलाषा को भंग करके विवाह मंडप से भाग आए थे। इससे वह बड़ी दुःखी हुई और पुत्र वियोग में रोते-रोते अंधी हो गई। समर्थ गुरु को भी उसका ध्यान था, पर कर्तव्यपालन के विचार से वे अपने घर नहीं जाते थे। जब बारह वर्ष तपस्या और बारह वर्ष यात्रा करके अपने निवास स्थान में लौट आए तो एक बार पैठण की यात्रा को जाते हुए अपने गाँव 'आंब' में पहुँच गए और अपने घर के दरवाजे के सामने जाकर 'जय-जय रघुवीर समर्थ' की आवाज लगाई। घर के भीतर उनकी माता ने बहू को आज्ञा दी कि-"वैरागी को भिक्षा दे आओ, पर समर्थ गुरु ने आगे बढ़कर कहा कि -"अन्य वैरागियों की तरह भिक्षा लेकर लौट जाने वाला आज का वैरागी नहीं है।" इस बार माता ने अपने पुत्र की आवाज पहिचान ली और कहने लगी-"क्या नारायण आया है ?" रामदास जी माता के चरणों में गिर गए और माता भी उनको उठाकर प्रेम से मस्तक और मुख पर हाथ फेरने लगीं। उन्होंने रामदास जी के जटाजूट और दाढ़ी को स्पर्श करके कहा-"अरे नारायण! तू कितना बड़ा हो गया? हाय! मुझे तो आँखों से कुछ दिखाई ही नहीं देता कि अपने बेटे को अच्छी तरह देख सकूँ।" श्री समर्थ ने यह सुनकर माता के चरणों में प्रणाम किया और उनके सिर पर हाथ फेरा, जिससे उनको देखने की शक्ति प्राप्त हो गई। माता को बड़ा आश्चर्य हुआ और वह कहने लगी-"बेटा! यह तो तूने किसी अच्छे भूत को सिद्ध कर लिया है।" समर्थ गुरु ने कहा-"माताजी! मैंने वही भूत सिद्ध किया है, जो अयोध्या में आनंद मंगल करता था और जिसने गोकुल-वृंदावन में अनेक आश्चर्यजनक लीलाएँ की हैं। इसी 'भूत' ने रावण और कंस का वध किया था और देवताओं को बंधन से छुड़ाया था। मैंने समस्त 'भूतों के प्राण भूत' को वश में किया है।" इसके पश्चात् वे कई दिन तक यहाँ ठहरे और अपने बड़े भाई 'श्रेष्ठ' से आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा करते रहे। जब फिर भ्रमण के लिए घर से चलने लगे तो माता को बड़ा शोक हुआ। इस पर समर्थ ने उनको भागवत में वर्णित वही आत्मज्ञान सुनाया, जो कपिल मुनि ने अपनी माता के सम्मुख कहा था। इससे माता ने उनके जीवन-कार्य के महत्त्व को समझ लिया और उन्हें शांति प्राप्त हो गई।
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