समर्थ गुरु रामदास

विवाह से विरक्ति और गृह-योग

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एक तरफ बालक रामदास (जिसका नाम उस समय नारायण था) के हृदय में स्वधर्म और स्वजाति की सेवा का यह अंकुर उत्पन्न हो रहा था और दूसरी तरफ उनकी माता राणूबाई उनके विवाह का विचार कर रही थी। उस समय मुसलमानों के अत्याचारों से बचने के लिए बाल-विवाह की रीति विशेष रूप से प्रचलित हो गई थी। यद्यपि पति और पत्नी का समागम प्राय: बड़ी आयु में होता था। पर मुसलमानों की वक्रदृष्टि कुमारी कन्याओं पर रहने के कारण सामान्य श्रेणी के व्यक्ति विवाह-विधि छोटी आयु में ही संपन्न कर देते थे। पर रामदास विवाह की चर्चा चलने पर नाराज होते और विरक्ति का भाव प्रकट करते। एक बार इस संबंध में ज्यादा कहने-सुनने पर वे जंगल में भाग गए। तब उनके बड़े भाई गंगाधर जी उसको बहुत समझा-बुझाकर घर वापस लाए। बड़े भाई को निश्चय हो गया था कि रामदास कभी विवाह न करेंगे, पर उसकी माता को संतोष नहीं होता था। वे जब कभी अवसर पातीं, उन्हें विवाह के लिए समझाती ही रहती थीं।

एक बार इसी तरह आग्रह करते-करते उन्होंने रामदास से विवाह के लिए जबर्दस्ती 'हाँ' कहलवा लिया। इस पर माता ने एक ब्राह्मण-कन्या से उनका संबंध पक्का कर दिया। नियत तिथि पर घर वाले बरात के साथ कन्या के घर पहुँचे और विवाह की क्रिया होने लगी। जब अतरपट पकड़ने के पश्चात् भाँवरों का समय आया, तो सब ब्राह्मणों ने एक साथ 'सावधान ' शब्द का उच्चारण किया। रामदास के मन में विचार आया कि यह लोग इतने जोर से 'सावधान' क्यों कह रहे हैं? क्या इसका यह आशय है कि, अब मैं एक ऐसे बंधन में पड़ने जा रहा हूँ, जिससे आजन्म छुटकारा नहीं मिलेगा? ऐसा विचार आने से उनकी मनोवृत्ति एकदम बदल गई और वे विवाह-मंडप से उठकर बड़े जोर से बाहर की तरफ भागे। कुछ लोग उनको पकड़ने के लिए दौड़े, पर उस 'हनुमान-भक्त' को कौन पा सकता था ? इस समाचार को पाकर उनकी माता जब दुःखी होने लगी तो बड़े भाई ने समझाया कि-'रामदास जहाँ रहेगा आनंद से ही रहेगा, तुम उसकी ज्यादा चिंता न करो। उसने धर्म-साधन का दृढ़ निश्चय कर लिया है, इसलिए विवाह के लिए उसके पीछे पड़ना ठीक न होगा।"

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