समर्थ गुरु रामदास

राजा भगवान् का नौकर होता है

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समर्थ गुरु के विषय में दो- एक चमत्कार जैसी घटनाएँ प्रसिद्ध हैं, वे चाहे पूर्ण सत्य न भी ही तो भी बहुत शिक्षाजनक हैं। शिवाजी महाराज जब सामानगढ़ का किला बनवा रहे थे तो एक दिन वहाँ के निर्माण कार्य का निरीक्षण करते हुए उनके मन में यह भावना उत्पन्न हुई कि मेरे द्वारा इन सैकड़ों मजदूरों और कारीगरों का निर्वाह हो रहा है। संयोगवश उसी समय समर्थ गुरु वहाँ आ गए, वे अपने अनुभव द्वारा शिवाजी के मनोभाव को समझ गए। अपने शिष्य में इस प्रकार के अहंकार की उत्पत्ति को हानिकारक समझकर वे कहने लगे- 'शिवा? तो यह बड़ा भारी काम कर रखा है, जिससे न जाने कितने '' का उदर- पालन होता है। '' शिवाजी ने उनके आंतरिक आशय को न समझा और कह दिया- 'महाराज यह सब आपकी ही कृपा का फल है। ''

इस प्रकार बातचीत करते हुए समर्थ गुरु की निगाह पास में पड़े हुए एक बड़े पत्थर की तरफ गई। उन्होंने शिवाजी से कहा कि 'एक बेलदार बुलाकर इस पत्थर को तुड़वाओ जब पत्थर के ऊपर भारी हथौड़े की कई चोटें लगी तो उसके दो टुकड़े हो गए। सब लोगों ने देखा कि भीतर से उसका कुछ भाग पोला था, जिसमें थोड़ा- सा पानी भरा था और उसमें एक छोटा- सा जीवित मेंढक भी था। यह देखकर सब कोई आश्चर्य करने लगे, पर समर्थ गुरु ने कहा- 'शिवा! तुम्हारा प्रभाव तो बहुत बढ़ा- चढ़ा है, जो इस पत्थर के भीतर भी एक जीव का पालन कर रहे हो। '' शिवाजी ने उत्तर दिया- 'इसमें मेरा क्या है? '' समर्थ गुरु ने किंचित व्यंग के साथ कहा- 'क्यों नहीं? जिस प्रकार तुम इतने मजदूरों का पालन कर रहे हो, उसी प्रकार इस मेंढक के पालनकर्ता भी तुम्हीं हो। '' शिवाजी अपने अहंकार की भूल को समझ गए और अत्यंत विनीत भाव से कहने लगे- 'महाराज! मेरे अपराध को क्षमा करें, मुझ तुच्छ से कुछ नहीं हो सकता। '' समर्थ गुरु ने कहा- क्षमा तो पहले हो चुका, पर तुमको सदा यह याद रखना चाहिए कि तुम उस बड़े सरकार (राम) के बड़े नौकर हो। तुम्हारे हाथ से वही दूसरों को दिलाता है। इसके लिए किसी प्रकार का अभिमान करना उचित नहीं। '' शिवाजी पर इस घटना का बड़ा प्रभाव पड़ा और फिर उनमें कभी ऐसी अहंकार- भावना नहीं आई।

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