मरे तो सही, पर बुद्धिमत्ता के साथ

​​​मरण सृजन का अभिनव पर्व—उल्लासप्रद उत्सव

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
कारखानेदार पुरानी मशीनें हटाते, पुरानी मोटरें बेचते रहते हैं और उनके स्थान पर नई मशीन नई मोटर लगाते हैं। इससे कुछ असुविधा नहीं होती, सुविधा ही बढ़ती है। पुरानी मशीन आये दिन गड़बड़ी फैलाती थी, पुरानी मोटर धीमे-धीमे और रुक-रुक कर चलती थी नई लग जाने से वह पुरानी अड़चनें दूर हो गईं नई के द्वारा बढ़िया काम होने लगा। जीर्णता के साथ कुरूपता बढ़ती है और नवीनता में सौन्दर्य रहता है। पुराने पत्ते रूखे शुष्क और कठोर हो जाते हैं जब कि नई कोपलें कोमल और सुन्दर लगती हैं। पुराने पत्ते झड़ने पर, पुरानी मशीन उखड़ने पर—पुरानी मोटर बिकने पर कोई इसलिये रंज नहीं मानता कि अगले ही दिन नवीन की स्थापना सुनिश्चित है।

आत्मा अनादि और अनन्त है। वह, ईश्वर जितना ही पुरातन है और कभी नष्ट न होने वाला सनातन है। उसकी मृत्यु सम्भव नहीं। शरीर का परिवर्तन स्वाभाविक ही नहीं, आवश्यक भी है। हर पदार्थ का एक क्रम है जन्मना—बढ़ना और नष्ट होना। नष्ट होना एक स्वरूप का दूसरे स्वरूप में बदलना भर है। यदि यह परिवर्तन रुक जाय तो मरण तो बन्द हो सकता है जन्म की भी फिर कोई सम्भावना न रहेगी। यदि जन्म का उल्लास मनाने की उत्कण्ठा है तो मरण का वियोग भी सहना ही होगा। वधू अपने मां-बाप से बिछड़ कर सास श्वसुर पाती है, सहेलियों को छोड़कर पति को सहचर बनाती है। यदि मैका छोड़ने की इच्छा ही न हो तो फिर ससुराल की नवीनता कैसे मिलेगी? पीतल के पुराने बर्तन टूट जाते हैं तब उस धातु की भट्टी में गला कर नया बर्तन ढाल देते हैं। वह सुन्दर भी लगता है सुदृढ़ भी होता है। पुराने टूटे, चूते-रिसते, छेद, गड्ढे और दरारों वाले शरीर बर्तन को चिता की भट्टी में गलाया जाना तो हमें दीखता है पर उसकी ढलाई की फैक्टरी कुछ दूर होने से दीख नहीं पड़ती है। सोचते हैं पुराना बर्तन चला गया। खोज करने से विदित हो जायगा कि वह गया कहीं भी नहीं—जहां का तहां है सिर्फ शकल बदली है।

पुराने मकान टूट फूट जाते हैं उन्हें गिरा कर नया बनाना सुरक्षा और सुविधा की दृष्टि से आवश्यक है। नया बनाने के लिए जब पुराना गिराया जा रहा होता है तो कोई रोता कलपता नहीं। शरीर के मरने पर फिर दुःखी होने का क्या कारण है?

बहुत दिन साथ रहने पर बिछड़ने का कष्ट उन्हें होता है जिनकी ममता छोटी है। कुछ ही चीजें जिन्हें अपनी लगती हैं—कुछ ही व्यक्ति जिन्हें अपने लगते हैं वे प्रिय जनों के विछोह की बात सोचकर अपनी संकीर्णता का ही रोना रोते हैं। वस्तुतः कोई किसी से कभी बिछड़ने वाला नहीं है, समुद्र में उठने वाली लहरें जन्मती और मरती भर दीखती हैं पर यथार्थ में समुद्र जहां का तहां है। कोई लहर कहीं जाती नहीं—सागर का समग्र जहां का तहां परिपूर्ण रहता है। कुछ समय के लिये बादल बन कर उड़ भी जाय तो नदियों के माध्यम से फिर अगले क्षण उसी महा जलाशय में आकर कल्लोल करता है। मरने के बाद भी कोई किसी से नहीं बिछुड़ता। सूर्य की किरणों की तरह हम सब एक ही केन्द्र में बंधे हुए हैं। कुछेक प्राणी ही हमारे हैं अन्य सब बिराने हैं इस सीमा बद्धता से ही हमें शोक होता है।

मृत्यु का अर्थ है कुरूपता का सौन्दर्य में परिवर्तन। अनुपयोगिता के स्थान पर उपयोगिता का आरोपण। इससे डरने का न कोई कारण है और न रुदन करने का। वह तो उल्लासप्रद उत्सव है।

इस तथ्य से अपरिचित लोग मृत्यु का विचार आते ही अजीब तरह से हताश तथा उदास हो जाते हैं। मृत्यु का नाम हृदय पर एक ऐसा धक्का मारता है, जिससे, जब तक उसका प्रभाव दूर नहीं हो जाता, हृदय एक भयपूर्ण विरक्ति से भरा रहता है। मृत्यु का भय उन्हें यहां तक कायर तथा मिथ्यापूर्ण बना देता है कि नित्यप्रति अनेक लोगों को मरते देखकर भी अपने मरने की कल्पना में संदिग्धता का समावेश कर लिया करते हैं। भय के कारण वे अपने हृदय में इस सत्य को पूरी तरह स्थान नहीं दें पाते कि एक दिन उन्हें इस संसार को छोड़ ही देना है।

इसमें सन्देह नहीं कि जो मनीषी व्यक्ति मृत्यु के अनिवार्य सत्य को साहस के साथ हृदयंगम कर लेते हैं। वे न केवल उसके भय से ही मुक्त रहते हैं, प्रत्युत जीवन का पूरा-पूरा लाभ उठाते हैं। जिन्हें यह विश्वास रहता है कि न जाने मृत्यु किस समय अपनी गोद में उठाले, वे जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग कर लेने में बड़ी तत्परता तथा सतर्कता से लगे रहते हैं। वे बहुत कुछ, मृत्यु की बेला से पूर्व, कर डालने के लिए प्रयत्नों में कमी नहीं रखते। मृत्यु का वास्तविक विश्वास उन्हें अधिकाधिक सक्रिय बना देता है।

इसके विपरीत जो मिथ्या विश्वासी मृत्यु से डर-डर कर जीवन में रेंगते हैं वे बेचारे कुछ दूर भी ठीक से नहीं चल पाते और मृत्यु आकर उन्हें पकड़ ले जाती है। मृत्यु अब अटल है, अनिवार्य है, तब उससे डरना क्या? मृत्यु से न डरने वाले ही उसे वरण करके चिरंजीवी बनते हैं।

मृत्यु से अभय रहने वाला व्यक्ति उसे एक चुनौती मानकर साहस तथा उत्साहपूर्वक जीता हुआ यह कोशिश करता है कि वह जीवन के राजकुमार की मृत्यु का मेहमान बने। जीवन की तरह मृत्यु भी उसे पाकर कृतार्थ हो जाये।

मनुष्य की स्वाभाविक वृत्तियों में भय की गणना भी की गई है। किन्तु वह भय कायरता का नहीं सतर्कता का लक्षण है। यों तो कोई भी मरना नहीं चाहता। मृत्यु से बचने का हर सम्भव उपाय किया करता है। सड़क पर चलते मोटर से बचना, नदी में नहाते समय डूबने से सावधान रहना, मृत्यु भय नहीं है। हिंस्र जन्तुओं, रोगों तथा शत्रुओं से जीवन रक्षा करने में यथासम्भव उपायों का करना स्वाभाविक है। निरर्थक एवं निरुद्देश्य मर जाना कोई वीरता नहीं मूर्खता है। ‘हाय मैं मर जाऊंगा’ की भावना ही मृत्यु का वह भय है जो कायरता की कोटि में आता है। मनुष्य को ‘‘हाय मर जाऊंगा’’ की हीन भावना के वशीभूत होकर कायरता का परिचय नहीं देना चाहिये।

‘हाय मर जाऊंगा’ की भावना में रो तड़प कर मृत्यु से बचा तो जा ही नहीं सकता। उल्टे यह भावना जीवन को बोझिल एवं भयावह बना देती है, मृत्यु से निरपेक्ष रह कर जीवन रक्षा का हर संभव उपाय करते हुये, आ जाने पर साहसपूर्वक उसका सहर्ष आलिंगन करने में ही पुरुषार्थ की शोभा है। महान् मृत्यु के अवसर पर जीवन का मोह एक अश्रेयष्कर दुर्बलता है।

मृत्यु का भय उत्पन्न करने में परलोक की चिन्ता का बहुत बड़ा हाथ है। लोगों का यह सोचते रहना कि मर जाने के बाद न जाने हमारा क्या होगा, हम कहां किस लोक अथवा योनि में भ्रमण करेंगे, न जाने हमारी सद्गति होगी अथवा अगति, मृत्यु भय को एक बड़ी सीमा तक बढ़ा देता है? परलोक की चिन्ता ठीक है। वह करनी भी चाहिये। किन्तु इस शुभ चिन्ता से मृत्यु के अशुभ भय का पैदा होना बड़ी ही असंगत तथा अस्वाभाविक बात है। फिर भी परलोक कि चिन्ता से लोगों में मृत्यु का भय उत्पन्न होता है। इसका एक मात्र कारण लोक को बिगाड़ कर चलना है। परलोक का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। परलोक इस लोक की ही परिणिति है। जिस प्रकार का हमारा लोक होगा हमारे लिये उसी प्रकार के परलोक की रचना होगी। यदि हमने अपने आलस्य, अकर्म, अकर्तव्य अथवा अनीति अत्याचार से अपने लोक को दग्ध कर लिया है और ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, काम, क्रोध, मोह आदि विकारों तथा वासनाओं से विषैला बना लिया है तो निश्चय ही उसी के अनुसार हमें चलते हुए लोकों को साकार करने पर विवश होना ही होगा। यदि हम जानते हुये भी अपने कर्मों से पतित परलोकों की रचना के लिये लोक में नींव रख रहे हैं तो मृत्यु का भय हमें सतायेगा ही। क्योंकि हम जानते हैं कि जो कुछ हम कर रहे हैं मृत्यु के उपरान्त उसका दण्ड भोगना ही है और इसलिये मृत्यु की कल्पना आते ही भय से सिहर उठते हैं।

इसके विपरीत यदि हम लोक को परलोक का आधार मानकर उसे सजाने, संवारने और सुन्दर बनाने के शुभ प्रयत्नों को ईमानदारी से करते रहें तो मृत्यु कल्पना हमें विभोर करती रहे। क्योंकि हम जानते हैं हम जो कुछ शिव तथा सुन्दर कर रहे हैं वह हमारे लिये मंगलमय परलोक की रचना कर रहा है जिनको हम मृत्यु के उपरान्त पुरस्कार के रूप में पायेंगे।

मनुष्य का विचार सान्निध्य भी मृत्यु के विषय में भय अभय का कारण होता है। जिसकी चिन्तन-धारा जितनी अधिक जीवन के समीप रहेगी वह उतना ही कम मृत्यु से डरेगा और जिसके विचार जितना अधिक मृत्यु का चिन्तन करेंगे वह उतना ही उससे भयभीत रहेगा। मृत्यु का चिन्तन क्या करना। वह अपने समय पर आयेगी, आती रहेगी। उसका विचार छोड़कर मनुष्य को जीवन की आराधना में लगा रहना चाहिये। चिन्तन का विषय जीवन है मृत्यु नहीं। मृत्यु का चिन्तन करने से जो जीवनी-शक्ति का ह्रास होता है जिससे मृत्यु का भय स्थायी रूप से सूक्ष्म में बस जाया करता है। ऐसी भय पूर्ण स्थिति में कर्तव्यों का पालन यथाविधि नहीं हो पाता जो स्वयं एक बड़ा दुःख प्रसंग होता है। मनुष्य जब ठीक प्रकार से अपने कर्तव्यों में लगा रहता है मृत्यु का भय उसके पास नहीं फटकने पाता। कर्तव्यों की आपूर्ति इस विचार के साथ मृत्यु का भय लाती है कि यह नहीं कर पाया वह करने को रह गया है। सारा जीवन बेकार जा रहा है। यों ही दिन गुजर जायेंगे और एक दिन मृत्यु के मुख में चला जाना होगा। मनुष्य अपनी स्थिति के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन तत्परता से करता रहे तो भी मृत्यु का भय उसे नहीं सताने पाये। फिर वह कर्तव्य छोटी हों अथवा बड़े, साधारण हों अथवा असाधारण, कर्तव्यहीन, अकर्मण्यता तो साक्षात मृत्यु ही कही गई है।

बहुत से लोग अपने बाद की स्थिति पर विचार करते-करते मृत्यु से भयभीत होने लगते हैं। मेरे बाद न जाने क्या होगा मेरे मर जाने पर बीवी बच्चे क्या करेंगे? कहां किसका आश्रय लेंगे। पता नहीं उन्हें क्या-क्या कष्ट उठाने पड़ेंगे। इस प्रकार की कल्पनायें निरर्थक कल्पनायें ही हैं। ऐसे लोग अपने को ही बीवी बच्चों का विधाता समझते हैं। वे समझते हैं कि जब तक वे जिन्दा हैं बीवी बच्चों के लिए स्वर्ग संचय कर रहे हैं उनके न रहने के बाद वे यातना पूर्ण नरक में गिर जायेंगे। मानों उन सबकी जीवन गाड़ी उनकी जिन्दगी से चल रही है जिसके खत्म होते ही सबका खेल खत्म हो जायेगा दूसरों के लिये अपने को सब कुछ समझना दम्भ है। जब हम नहीं थे संसार का सारा काम चल रहा था और जब नहीं रहेंगे तब भी सब काम चलता रहेगा। संसार का कोई काम किसी के न रहने से रुकता नहीं। यह बात सही है कि हमारा जीवन आश्रितों के लिए आवश्यक है। किन्तु इस आवश्यकता का यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम अपने न रहने की कल्पना के साथ उनका जीवन जोड़कर कायरों की तरह मृत्यु भय से रोते कलपते रहें। अपने बाद की कल्पना के भयावह चित्र बनाने के बदले हमारी बुद्धिमानी इसी में है कि हम मरने से पूर्व ईमानदारी के साथ अपने आश्रितों की बहबूदी के लिए जो कुछ कर सकें करें। ऐसा करने से ही अपने बाद की चिन्ता की सार्थकता है केवल कल्पना करते रहना मूर्खता ही होगी। मृत्यु को भय का कारण बनाने की अपेक्षा उसे अपने कर्मों का सजग प्रहरी बनाकर चलने वाले सदाशयी व्यक्ति यशस्वी जीवन के अधिकारी बनते हैं।

मृत्यु उतनी कष्टप्रद नहीं है जितनी कि समझी जाती है। बीमारी आदि के कारण मरने से पूर्व कितना ही कष्ट क्यों न रहा हो। मरने का ठीक समय आने से पूर्व बेहोशी आने लगती है और पीड़ा के समस्त लक्षण विदा हो जाते हैं। मरने पर मनुष्य अनन्त शून्य में विलीन हो जाता है। जहां उसके सुखद स्वागत की तैयारी पहले से ही रहती है। आमतौर से बूढ़े लोग शान्ति और सन्तोष पूर्वक मरते हैं और जवानी में अधिक बेचैनी होती है वह उद्विग्नता उनकी महत्वाकांक्षाओं की अतृप्ति के कारण होती है। जिनके सपने अधूरे रहते हैं वे मरते समय उतने ही बेचैन पाये जाते हैं। मौत का डर भी कई बार मरने वालों को व्यथित करता है।

यदि मरते समय मरते हुये व्यक्ति को कांच के बक्स में मजबूती से बन्द कर दिया जाय तो कुछ समय में सन्दूक कहीं न कहीं से टूट जायगा और उसमें दरार पड़ जायगी। इसे आत्मा का अन्तरिक्ष में पलायन माना जाता है। पर विज्ञानी इसका कारण शरीर में होने वाले रासायनिक तथा गैसीय परिवर्तनों को मानते हैं। उनके कारण सन्दूक के अन्दर की वायु पर दबाव पड़ता है जिसे कांच सह नहीं पाता और टूट जाता है। मरने के उपरान्त किसी का चेहरा विकृत और किसी का शान्त दिखाई पड़ता है। इसका कारण यह समझा जाता है कि मृतक की आत्मा शान्ति या उद्विग्न स्थिति में विदा हुई। पर वैज्ञानिकों की दृष्टि में ऐसा सोचना निरर्थक है। वे कहते हैं यह मांसपेशियों के ढीलेपन के कारण दिखाई पड़ता है। जीवित अवस्था में मस्तिष्क का, मनोभावों का दबाव चेहरे की मांसपेशियों पर रहता है और वह भाव भंगिमा से प्रकट होता रहता है किन्तु वह दबाव जब हट जाता है तो मांसपेशियां शिथिल पड़ जाती हैं यह शिथिलता ही चेहरे की विकृति के रूप में दीखती है। वे कहते हैं गहरी निद्रा में सोये हुये मनुष्य का चेहरा भी विकृत ही दिखाई पड़ता है इसका कारण मांसपेशियों की शिथिलता है। मृतक की चेतना का अन्त ही मांसपेशियों को उनकी बनावट के आधार पर शिथिल कर देता है और ये किधर भी लुढ़क पड़ती हैं देखने वाले इस दृश्य को अपने-अपने ढंग से सोचते हैं और जीवित स्थिति में जो हर्ष, विषाद, सन्तोष, उद्वेग के जो लक्षण चेहरे पर होते हैं उसी आधार पर मृतक की स्थिति का अनुमान लगाते हैं। वस्तुतः मृतक की मुखाकृति का उसके मरण काल में दुःखी या सन्तुष्ट होने का अनुमान लगाना निराधार है। शिथिलता के कारण चेहरे की मांसपेशियां किधर लुढ़क पड़ीं वही मृतक के चेहरे को देख कर अनुमान लगाया जाना चाहिए।

सामान्यतया मरण का क्रम इस प्रकार चलता है कि मनुष्य का तापमान गिरता है। 98.4 फारेनहाइट से गिरते-गिरते वह 1.5 डिग्री पर उतर आता है। त्वचा में खून जमने लगता है। स्नायु पहले तो ढीले पड़ते हैं, पर फिर अकड़ने शुरू हो जाते हैं। इसके बाद वे फिर ढीले होने लगते हैं। इन सब परिवर्तनों में प्रायः दो दिन लग जाते हैं। मृत्यु निकट आती चली जा रही है इसका आभास सामान्य स्थिति में, दो दिन पूर्व ही प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु विशेष घटनाओं में यह सब बहुत तेजी से भी होता है और कुछ ही घण्टों में सारी प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है।

मृत्यु का आक्रमण अकस्मात बिजली टूट पड़ने की तरह नहीं होता। उसकी प्रक्रिया धीरे-धीरे सम्पन्न होती है। वृद्धावस्था और रुग्णता वस्तुतः मृत्यु के मंदगति से प्राणी की ओर बढ़ते हुए चरण ही हैं। शस्त्र आघात, विषपान, हत्या-आत्महत्या दुर्घटना जैसे प्रसंगों में अपेक्षाकृत जल्दी मौत होती है तो भी वह अकस्मात नहीं होती है, उसमें भी क्रमिक गति ही काम करती है। भले ही वह तीव्रता अपना काम जल्दी ही पूरा कर लेती हो।

सुकरात को जहर का प्याला पीना पड़ा। मरते समय के अनुभव वे इस प्रकार बताते रहे कि पैरों और हाथों की ओर से उनकी जान निकल रही है और मृत्यु क्रमशः मस्तिष्क की ओर बढ़ती आ रही है। वे अपने शिष्यों के साथ तब तक वार्तालाप करते रहे जब तक कि अन्य अंग शिथिल होते-होते मस्तिष्क के शिथिल होने की बारी नहीं आ गई। अपनी मृत्यु की पूर्व घोषणा करने वालों की अनुभूतियां भी इसी प्रकार की होती हैं वे अनुभव करते हैं कि उनके अंग विलक्षण प्रकार से निर्जीव हो रहे हैं। उनकी स्वाभाविक और सम्मिलित शक्ति का विचित्र रीति से क्षरण हो रहा है। अन्तःचेतना इस मृत्यु सन्देश को यदि ठीक तरह अनुभव कर सके तो क्रमिक मृत्यु की स्थिति में आवेश रहित व्यक्ति सहज ही मृत्यु का पूर्वाभास पा सकता है और कई बार तो मृत्यु-समय की अवधि तक घोषित कर सकता है। ऐसी भविष्यवाणियां कइयों ने की भी हैं और वे सत्य भी निकली हैं। यह कोई जादू नहीं है, वरन् अपनी आंतरिक स्थिति का सही विश्लेषण या निदान मात्र है। ऐसा कर सकना आवेश रहित सन्तुलित व्यक्ति के लिए ही सम्भव होता है। हड़बड़ाने वालों को तो अनेक तरह के आवेश ही बुरी तरह आ घेरते हैं और वे डरने, घबराने, रोने, पीटने के अतिरिक्त और कुछ कर, समझ नहीं पाते। महाभारत के यक्ष प्रश्न प्रसंग में यह पूछा जाने पर कि—आश्चर्य क्या है? युधिष्ठिर उत्तर देते हैं—‘‘मृत्यु निश्चित है और रोज रोज कितने ही व्यक्तियों को मरते हुए देखकर लोग अपनी मृत्यु का विचार भी नहीं करते। जीवन से सम्बन्धित किसी भी घटना पर विचार उत्पन्न होना स्वाभाविक है और जो घटना समूचे वर्तमान से सम्बन्ध तोड़ देती है उसका विचार तो और भी ज्यादा आवश्यक व स्वाभाविक है। परन्तु लोग उसी घटना को भुलाने की कोशिश करते हैं जो उनके पूरे अस्तित्व को ही झकझोर देती है।

इस तथ्य को भूलने या भुला देने की कोशिश करते रहने का कारण मृत्यु के प्रति मन में समाया हुआ भय है। यह एक तथ्य है कि मनुष्य जिस चीज को पसन्द नहीं करता या जिससे दूर रहना चाहता है उसके बारे में सोचना भी नहीं चाहता। मृत्यु के बारे में न सोचने या इससे भयभीत होने का कारण जीवन के प्रति मोह ही हो सकता है। लेकिन यदि यह समझ में आ जाय कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है तो मृत्यु का भय कम हो सकता है। मृत्यु के बाद जीवन का अस्तित्व बना रहता है-यह बात अब तक केवल दर्शन शास्त्र का विषय थी। विज्ञान और भौतिक सत्ता, पदार्थ सत्ता में विश्वास करने वाले लोग मनुष्य को अभी तक यन्त्र मात्र समझते थे, जिसका संचालन केन्द्र हृदय और मस्तिष्क भर समझा गया। इन केन्द्रों के क्षीण होने, दुर्बल और अक्षम पड़ जाने पर ही मनुष्य का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, यह मान लिया गया।

परन्तु विज्ञान भी जीवन के गूढ़ रहस्यों को सुलझाने की ओर उन्मुख हुआ है तथा आधुनिक वैज्ञानिक वैज्ञानिकों द्वारा मृत्यु का विश्लेषण करने के लिये किये प्रयास तथा उनके निष्कर्ष भारतीय मनीषियों की इसी धारणा को पुष्ट करते हैं कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है। संयुक्त राज्य अमेरिका के डा. रेमण्ड ए. मूडी ने इस विषय पर वर्षों तक शोध की। अपनी शोध में उन्होंने तीन प्रकार के व्यक्तियों का अध्ययन किया। इन तीन प्रकार के व्यक्तियों में एक तो वह थे जो किसी रोग या दुर्घटना के कारण मृत्यु के एकदम समीप पहुंच गये। जिनके लिये कहा जा सकता है कि उन्हें नयी जिन्दगी मिली। दूसरे वे व्यक्तियों को बता रहे थे। तीसरे प्रकार के व्यक्तियों में वे थे, जो डाक्टरों द्वारा मृत घोषित कर दिये जाने के बाद किसी प्रकार जी उठे थे।

इस प्रकार के सैकड़ों व्यक्तियों से बातचीत, उनके कथनों का अध्ययन और अन्य व्यक्तियों के अनुभवों से संगति बिठाते हुये डा. रेमण्ड ए. मूडी ने कई ऐसे निष्कर्ष निकाले जो आधुनिक संसार के लिये तो वास्तव में ही चौंका देने वाले हैं। इन शोधों से प्राप्त निष्कर्षों को उन्होंने ‘लाइफ आफ्टर लाइफ’ नामक पुस्तक में संकलित किया है। निष्पक्ष ढंग से लिखी गयी इस पुस्तक में यही धारणा पुष्ट होती है कि मृत्यु के बाद भी जीवन का अस्तित्व है और यह कि मृत्यु एक दुःखद घटना होते हुए भी एक रोमांचकारी यात्रा है।

डा. मूडी ने उपरोक्त प्रकार के जितने भी व्यक्तियों के अनुभव एकत्र किये उनमें सबने एक बात स्पष्ट रूप से बतायी कि मृत्यु के समय यह भले ही लगता रह हो कि अब सत्र कुछ समाप्त हो जायेगा या हम कुछ भी देखने, सुनने, समझने में असमर्थ हो जायेंगे अथवा अब हम समाप्त ही हो जायेंगे, परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। सब कुछ ज्यों का त्यों रहा, परिवर्तन इतना भर हुआ कि अब अपने अस्तित्व की अनुभूति शरीर से पृथक् अस्तित्व के रूप में होने लगी।

मरने के बाद पुनः जीवित हो उठी एक महिला मिसेज मार्टिन का ने डा. मूडी को बताया—मैं अस्पताल में थी, पर डाक्टरों को मेरे रोग का कुछ पता ही नहीं लग रहा था। मेरे चिकित्सक डा. जेम्स ने मुझे छानबीन के लिये नीचे की मंजिल पर रेडियोलॉजिस्ट के पास भेजा। उसने एक खास दवा दी, परन्तु मैंने अनुभव किया कि मेरी सांस रुक गयी है। लेकिन इसके बावजूद मैं सब कुछ, देख सुन और समझ रही थी। डॉक्टर मुझे कृत्रिम उपायों से श्वांस दिलवाने की कोशिश कर रहे थे मेरे लिये कोई खास दवा लाने का आदेश दिया गया। वे मुझे छू रहे थे, मेरी बांहों में सुई भी चुभो रहे थे, मैं यह सब देख रही थी, परन्तु मुझे कुछ महसूस नहीं हो रहा था।’’

कार दुर्घटना का शिकार हुये एक नवयुवक को जिसे मृत घोषित कर दिया गया था, परन्तु वह पुनः जी उठा—अनुभव हुआ कि कोई महिला पूछ रही है—‘‘क्या इसका दम निकल गया?’’ दूसरे व्यक्ति ने उत्तर दिया था—हां, मर गया, पूरी तरह मर गया। इस नवयुवक ने बताया कि ऐसा सुनते समय वह उन बात-चीत करने वाले और आस-पास खड़े दूसरे व्यक्तियों को ही नहीं देख रहा था बल्कि अपने शरीर, चेहरे, सिर में लगे घाव, उनमें से रिसा हुआ खून और टूटी हुई हड्डियों के बारीक-बारीक टुकड़े भी देख रहा था जैसे किसी दूसरे व्यक्ति का शव देख रहा हो।’’

डा. रेमण्ड ए. मूडी के अतिरिक्त प. जर्मनी के डा. श्मिट ने भी ऐसे व्यक्तियों से सम्पर्क किया जिन्हें डाक्टरों ने मृत घोषित कर दिया था। उन्होंने भी लगभग उसी प्रकार के अनुभव बताये। निष्कर्षतः उनमें रेमण्ड ए. मूडी से पूर्णतः साम्य है कि मृत्यु के बाद अपना अस्तित्व शरीर से अलग अनुभव होता है। इसका अर्थ है कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है। मनुष्य का जीवन अस्तित्व शरीर से सर्वथा भिन्न बात है, शास्त्रकारों ने इसी अस्तित्व को जीव कहा है।

जीवन को शरीर से सम्बद्ध मान लेने को देह भ्रांति कहते हुए ‘योग वाशिष्ठ के निर्वाण’ प्रकरण में महर्षि वशिष्ठ ने कहा है—‘‘यह जीव अस्थि, मांस और रक्त से बने स्थूल हाथ, पैर वाले शरीर को जो जन्म, कर्म और कामना का केन्द्र तथा परिणाम रूप में मरणशील है-ही अपना अस्तित्व मान लेता है और देह भ्रांति में पड़ जाता है। तब वह बाल्य, युवा, वृद्धावस्था, जरा-रोग और मरण, भ्रमण, व्यवहार आदि का ज्ञान भी कल्पित करता है।’’

अपने अस्तित्व को शरीर तक ही सीमित मानने अथवा महर्षि वशिष्ठ की भाषा में देह भ्रान्ति का शिकार होने के कारण ही सुख-दुःख, पीड़ा-व्यथा और कष्ट-वेदना का अनुभव होता है। मृत्यु के बाद जब देह से सम्पर्क टूट जाता है और किसी सीमा तक यह भ्रम दूर होता है कि जीवन शरीर तक ही सीमित नहीं था तो उन दैहिक कष्टों से भी मुक्ति मिल जाती है। ‘लाइफ इन द वर्ल्ड अनसीन’ में एन्थोनी वौगिंजा ने लिखा कि आकस्मिक दुर्घटना के शिकार व्यक्तियों को पीड़ा या व्यथा वेदना का अनुभव नहीं होता। भारतीय दर्शन की यह मान्यता है कि इस शरीर में स्थित जीवात्मा ही सब सुख-दुःख कष्ट सुविधा और लाभ-हानि का भोक्ता है। शरीर से जीवात्मा का सम्पर्क टूट जाने के बाद शरीर पर होने वाले प्रभावों की भी कोई संवेदना या अनुभूति प्रतिक्रिया नहीं होती। युद्ध में मारे गये एक सैनिक की अनुभूतियों का उल्लेख ‘फ्रण्टियर्स’ आफ द आफ्टर लाइफ’ उसी सैनिक के शब्दों में इस प्रकार किया गया है—गोली लग जाने के कारण मैं मूर्छित-सा हो गया था। कुछ समय बाद मैं मूर्च्छा से जगा तो उस समय मैंने देखा कि मैं अपने शरीर से अलग हूं और भौंचक्का-सा खड़ा हूं। मैंने देखा मेरे शरीर के आस-पास और भी कई शरीर पड़े हैं। मुझे लड़ाई की बात याद आ गयी परन्तु इस बात की मुझे कोई स्मृति नहीं है कि गोली लगने के बाद क्या हुआ था। हां, इतना अवश्य याद है कि उस समय मुझे भयंकर पीड़ा हो रही थी, परन्तु अब उस पीड़ा का लेशमात्र भी नहीं हो रहा था। ऐसा प्रतीत होता था कि शरीर से विलग होने के बाद मैं सारी पीड़ाओं से मुक्त हो गया हूं।

प्रायः लोग दुर्घटना के समय मूर्छित हो जाते हैं और उस स्थिति में ही उनकी मृत्यु हो जाती है। दुर्घटना में मृत घोषित कर दिये गये परन्तु बाद में जीवित हो उठे व्यक्तियों से सम्पर्क कर, उनके अनुभवों का अध्ययन करने के बाद एस. बेडफोर्ड ने अपनी पुस्तक ‘डेथ एण्ड आफ्टर डेथ’ में लिखा है-दुर्घटनाओं के कारण घटित होने वाली मृत्यु की घटना बड़ी तीव्र गति से घटती है और जीव को शरीर से विलग हो जाने का अहसास भी नहीं होता। ये आकस्मिक दुर्घटनायें बड़ी निर्मम, भीषण और दर्दनाक होती हैं परन्तु जो मर जाते हैं उनके लिये मृत्यु बड़ी विस्मयपूर्ण घटना होती है। दुर्घटना के तत्क्षण बाद मर जाने वाले व्यक्तियों को किसी पीड़ा का आभास इसलिये नहीं होता कि जीवात्मा की चेतना हमारे भौतिक शरीर की चेतना से बहुत आगे होती है और उसे यह पहले ही मालूम हो जाता है कि अगले क्षण आकस्मिक मृत्यु होनी है। क्योंकि इस दुर्घटना के कारण यह शरीर जीवात्मा के रहने योग्य नहीं रह जायगा। इसलिये जीवात्मा स्थूल शरीर के दुर्घटनाग्रस्त होने से पहले ही उसे छोड़ देता है। यही कारण है कि दुर्घटना-ग्रस्त व्यक्ति मृत्यु और दुर्घटना जनित पीड़ा का अनुभव नहीं करता।

डा. रेमण्ड ए. मूडी, जिनकी ‘लाइफ आफ्टर लाइफ’ पुस्तक का उल्लेख आरम्भ में ही किया जा चुका है-के निष्कर्ष भी उपरोक्त निष्कर्ष से ही मिलते-जुलते हैं। इन परामनोवैज्ञानिकों के अतिरिक्त दूसरे कई परामनोवैज्ञानिकों तथा शोध संस्थाओं ने ऐसे व्यक्तियों के अनुभव संकलित किये हैं जो मृत्यु के उस पार जा कर ‘लौट’ आये। इन विवरणों में भिन्नतायें मिली हैं, परन्तु कुछ समानतायें भी पायी गयी हैं। पहली समानता तो यही है कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है, उसके बाद भी जीवन का अस्तित्व रहता है। इसका अर्थ है जीवन का अस्तित्व शरीर जन्म और मृत्यु के बीच तक ही नहीं है, बल्कि जीवन उसके पूर्व भी है और बाद में भी है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में यही बात अर्जुन से हजारों वर्ष पूर्व कही है—

न त्वे वाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः । न चैव न भविष्यामः सर्वे दयामनः परम् ।।

अर्थात्—न तो ऐसा ही है मैं किसी काल में नहीं था अथवा तू नहीं था अथवा यह राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है, कि हम सब लोग इससे आगे नहीं रहेंगे।

अविनाशितु तद्विद्धि येन सर्वमिन्दततम् । विनाशम व्ययस्यास्य न कश्चित कर्तुमर्दति ।। अन्त बन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताशरीरिणः ।

अर्थात्—जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है उस (चेतन सत्ता) को तू नाश रहित जान। उस अविनाशी का नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है। इस नाश रहित जीवात्मा के यह सब शरीर ही नाशवान् कहे गये हैं जबकि यह आत्मा किसी काल में भी जन्म नहीं लेती है और न यह मरती ही है अथवा कभी होकर दुबारा होने वाली भी नहीं है। क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नाश होने पर भी उसका नाश नहीं होता।

प्राप्त विवरणों में शरीर और चेतना की भिन्नता के अतिरिक्त दूसरी समानता चेतना की प्रधानता सम्बन्धी है। शरीर इस चेतन शक्ति के कारण स्पर्श, ग्रहण, संवेदन, स्पन्दन और क्रियाशीलता ग्रहण करता है। अर्थात् शरीर अपनी सार्थकता के लिये आत्मतत्व पर निर्भर है जबकि आत्मचेतना शरीर की शक्ति सामर्थ्य या स्थिति पर रंच मात्र भी निर्भर नहीं है। फटे हुये वस्त्र को व्यर्थ और अनुपयोगी जानकर जिस प्रकार उतार दिया जाता है उसी प्रकार जीवात्मा भी जीर्ण-अशक्त शरीर को अपने रहने योग्य न समझ कर उसका परित्याग करता है। भारतीय मनीषियों के अनुसार यह प्रतीति जीवन को विभाजित और खण्ड में देखने की दुर्बल दृष्टि के कारण ही होती है। अन्यथा जीवन तो शाश्वत और सनातन है-एक अन्त हीन यात्रा है। मृत्यु उस यात्रा का एक पड़ाव भर है। इसलिये मृत्यु से भयभीत होने का कोई कारण नहीं है।

यक्ष प्रश्न प्रसंग में युधिष्ठिर ने हमेशा मृत्यु की घटनायें घटती देख कर भी उससे भयभीत होने और पलायन करने की प्रवृत्ति को संसार का आश्चर्य कहा है। जान लिया जाय कि मृत्यु कोई विचित्र, दुखद और भयावह घटना नहीं है तथा उसे समझने और स्वीकार करने की मनःस्थिति बनाली जाय तो जीवन में एक अद्भुत परिवर्तन की सम्भावना बन जाती है।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118