मरे तो सही, पर बुद्धिमत्ता के साथ

​​​अर्धमृत न रहें, पूर्ण जीवित बनें

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अध्यात्म क्षेत्र में यह असमंजस बहुत पहले से ही छाया हुआ था कि मृतक किसे कहा जाय और जीवित किसे? जिसकी आशा मर गई, जिसका लक्ष्य छूट गया, जिसका प्रकाश बुझ गया वह मृतक है, भले ही वह सांस ले रहा हो—यह प्रतिपादन दर्शन क्षेत्र में सदा ही किया जाता रहा है भले ही वह अलंकारिक रही हो पर कहा यही गया है कि आदर्शविहीन—निरुद्देश्य, भारभूत जिन्दगी से वे मृतक अच्छे हैं जिनने धरती का अन्न-जल नहीं बिगाड़ा और मल-मूत्र से वायुमंडल को गन्दा करना बन्द कर दिया। यह अलंकारिक प्रतिपादन अब नये ढंग से वैज्ञानिक असमंजस के रूप में सामने आ खड़ा हुआ है। जिन्हें मृतक समझ कर गाढ़ा या जलाया या बहाया जाता रहा है वे जीवित थे या मृत? उसकी अंत्येष्टि जीवित अवस्था में ही कर दी गई थी या मरने के बाद? इस प्रश्न पर नये सिरे से विचार किया जा रहा है। आमतौर से जिन्हें मृतक मान लिया जाता है क्या वे सचमुच ही मर चुके होते हैं? अथवा अधमरे होते ही उनके मूर्छित शरीर से पिण्ड छुड़ाने की तैयारी करली जाती है। मृत्यु की व्याख्या क्या होनी चाहिए? जीवित और मृतक का अन्तर किस आधार पर किया जाना चाहिए, यह एक विचित्र किन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न शरीर विज्ञानियों के सामने उभर कर आया है।

मृत्यु की जो व्याख्याएं अब तक की जाती रही हैं वे सभी अपूर्ण हैं। कौन मर चुका, कौन मर रहा है—कौन मरने जा रहा है इसका गम्भीर पर्यवेक्षण होना चाहिए अन्यथा जीवितों के साथ मृतकों जैसा व्यवहार करने की भयंकर भूल चलती ही रहेगी। इस सन्दर्भ में फ्रांस के प्रसिद्ध क्लीनीशियन प्रो. मोलोरेट ने राष्ट्र संघ के स्वास्थ्य संगठन को एक गम्भीर चेतावनी दी है कि मृत्यु की व्याख्या के आधार पर नये सिरे से विचार किया जाना चाहिए और मृत्यु को, परम्परागत ढर्रे के आधार पर नहीं, वरन् तथ्य के आधार पर घोषित किया जाना चाहिए। एक का हृदय दूसरे के लगाते समय यह धर्म संकट उत्पन्न होता है कि जिस व्यक्ति को मृत घोषित करके उसका हृदय निकाला गया था क्या वह वस्तुतः, मर ही गया था अथवा जीवित रहते हुए भी मृतक मानकर उसका वह महत्वपूर्ण अंग काट लिया गया था। यदि वह मृतक नहीं था तो उसकी या उसके घर वालों की, वसीयत के विरुद्ध निश्चय ही यह विश्वासघात का अथवा हत्या कर डालने का मामला बन जाता है। भले ही वह हत्या डाक्टरों द्वारा—सदुद्देश्य के लिए ही क्यों न की गई हो।।

अब मृत्यु की सुनिश्चित घोषणा सम्बन्धी व्याख्या का प्रश्न पहले की अपेक्षा कहीं अधिक जटिल और विवादास्पद हो गया है। शास्त्रीय मृत्यु—‘क्लिनिकल डेथ’ पहले होती है और जीवन का अन्त—‘बायोलॉजिकल डेथ’ की स्थिति उसके बाद में आती है दोनों के बीच कितने समय का अन्तर रहता है इसका कोई निश्चित नियम नहीं है। वह अन्तर छोटा भी हो सकता है और बड़ा भी।।

प्रख्यात मृत्यु संशोधनकर्ता प्रो. नेगोस्की ने मृत्यु को चार चरणों में विभाजित किया है। पहला चरण वह है जिसमें श्वांस की गति और हृदय की धड़कन मंद होती जाती है और अन्ततः बन्द हो जाती है फिर भी मस्तिष्कीय चेतना किसी रूप में जीवित रहती है। इलेक्ट्रो एन्सेफलोग्राप (ई.ई.जी.) यन्त्र से पता लगाया जा सकता है कि मस्तिष्क पूर्णतया मरा नहीं है वह मंद गति से कई देह-घटकों को संदेश भेज रहा है।।

मृत्यु का दूसरा चरण वह है जिसे ‘सेरिब्रल डेथ’ कहते हैं। इसमें मस्तिष्क शरीरगत अवयवों को अपने संदेश देना बन्द कर देता है। इसलिए शरीर की हलचलें रुक जाती हैं, फिर भी चेतना का पूर्ण अन्त नहीं होता। मस्तिष्क अपनी सत्ता में केन्द्रित रहता है और शरीर के जीवाणु मस्तिष्क के साथ सम्बन्ध विच्छेद हो जाने पर भी अत्यन्त मंदगति से अपनी हरकतें करते रहते हैं। शरीर का कोई अंग कट जाने पर वह कुछ समय तक उछलता रहता है। यह स्थानीय जीवाणुओं की वैसी ही हरकत है जैसे धक्का मार देने पर पहिया कुछ समय तक अपने आप लुढ़कता चला जाता है। सेरिब्रल डेथ हो जाने के उपरान्त भी शरीर में कई घण्टों तक जीवन के चिह्न पाये गये हैं। तीसरा चरण है—क्लिनिकल डेथ—शास्त्रीय मृत्यु। इसमें नाड़ी की गति, हृदय की धड़कन, श्वांस क्रिया रुक जाती है और मस्तिष्क गहरी अचेतना में डूब जाता है। इस स्थिति में भी शरीर विश्लेषण करने पर पता चलता है कि किन्हीं अवयवों में मंदगति से स्थानीय हलचलें चल रही हैं। इस स्थिति में उच्चस्तरीय उपचार से पुनः जीवन को लौटाया जाना सम्भव हो सकता है।।

चौथा चरण वह है जिसमें जीवन की समस्त संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं। पूर्ण मृत्यु का साम्राज्य छा जाता है और जीवाणुओं का सड़ना, विगठित होना आरम्भ हो जाता है।।

मूर्छा शास्त्र (अनेस्थेटिक्स) का नवीनतम शोध मान्यताओं के अनुसार केन्द्रीय मज्जा—तन्तु-व्यवस्था (सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम) से कार्यान्वित होने वाले सभी जीवन सिद्ध करने वाली क्रियाएं बन्द हो जाने पर भी पूर्ण मृत्यु घोषित नहीं की जा सकती। इन अन्वेषणों के अनुसार हृदय की धड़कन का रुकना, रक्त-संचार बन्द होना, श्वांस रुकना, नाड़ी चलना बन्द होना, चमड़ी सफेद पड़ जाना, पुतली पथरा जाना, जैसे मृत्यु के प्रख्यात लक्षण वस्तुतः जीवाणुओं की पारस्परिक संघटना का क्षय मात्र है। उसे क्षय चिकित्सा के आधार पर तत्काल रोका जा सकता है। मृतकों को पुनर्जीवित करने में मिली सफलताओं का कीर्तिमान यह है कि मस्तिष्क की क्रियाशक्ति समाप्त हो जाने के तीन दिन उपरान्त तक श्वसन क्रिया बन्द होने के चौबीस घण्टे बाद तक रोगियों में जीवन के चिन्ह पाये गये और उन्हें फिर सजीव किया जा सका। जर्मनी के जिन दो वैज्ञानिकों ने ऐसे मृतकों को पुनर्जीवित करने में ख्याति प्राप्त की है उनके नाम हैं—डा. बुशर्ट और डा. रिट्मेअर। इनने यह घोषणा की है कि—सेरिब्रल डेथ—मस्तिष्कीय मृत्यु हो जाने पर भी केन्द्रीय मज्जा-तन्तु संस्थान बहुत समय तक अपना काम करता पाया गया है।।

निष्कर्ष यह निकला है कि हृदय प्रभृति महत्वपूर्ण अंगों का निष्क्रिय हो जाना—श्वांस-प्रश्वांस, आकुंचन-प्रकुंचन, रक्ताभिषरण क्रियाओं का बन्द हो जाना पूर्ण मृत्यु नहीं है। असल में शरीर पर पूरा कब्जा मस्तिष्क का है। यदि यहां के किन्हीं कोशों में तनिक भी जीवन चिन्ह मौजूद हैं तो उसे जीवित ही कहा जा सकता है और यह आशा की जा सकती है कि चेतना का पुनः प्रस्फुरण करके निष्क्रिय हुए अंग अवयवों को तब तक पुनर्जीवित होने की आशा की जा सकती है, जब तक कि वे सड़ने नहीं लगे हों। जीवन का अन्त चेतना के अन्त के साथ होता है। सोचने-विचारने या अनुभव करने की चेतना को क्लोरोफार्म जैसी औषधियों से ही उत्पन्न की जा सकती है। उस स्थिति को मृत्यु तो नहीं का जाता। ठीक इसी प्रकार मृत्यु समय में गहरी मूर्छा होने के कारण यदि अवयवों ने काम करना बंद कर दिया है तो इसे कारखानों की तालाबंदी के समय मजदूरों की छुट्टी भर कहा जायगा-मृत्यु नहीं। मृत्यु की परख तो चेतना के सभी लक्षण समाप्त हो जाने से ही की जा सकती है क्योंकि जीवन और चेतन वस्तुतः एक ही बात है।।

रूस के एक मूर्धन्य वैज्ञानिक थे प्रो. लेब्हलैडो। अणु विघटन के शोध कार्य पर उन्हें 1962 में नोबुल पुरस्कार मिला था। उसी वर्ष वे मोटर दुर्घटना में बुरी तरह घायल हुए शरीर का प्रायः हर अवयव क्षत-विक्षत हो गया। उन्हें बचाने के लिए संसार भर के चिकित्सा शास्त्रियों ने प्राण-प्रण से प्रयत्न किये। तीन महीने वे बेहोश रहे। इस अवधि में चार बार उनके हृदय की गति बन्द रही और कई-कई घण्टों बन्द रही। चारों बार शास्त्रीय मृत्यु घोषित करदी गई। इतने पर भी यह अनुभव किया जाता रहा कि जीवन को फिर वापिस लौटाया जा सकता है।।

दिमाग में खून की गांठ बन गई है इसलिए यह बेहोशी रहती है इस निष्कर्ष के उपरान्त कनाडा के न्यूरो सर्जन पेनफील्ड ने दिमाग के आपरेशन की तैयारी की। अन्तिम दर्शन की इच्छा से उनकी पत्नी भेंट के लिए पहुंची। उसने सिर पर हाथ फिराते हुए कहा—‘‘प्रियतम—क्या तुम मुझे पहचानते नहीं हो? तुम सुन तो सकते हो पर इस अवस्था में बोल नहीं पा रहे हो। यदि तुम सुन सकते हो तो चार बार पलक पीट दो मैं समझ लूंगी तुम मुझे पहचानते हो और होश में हो।’’ मूर्छित पड़े हुए रोगी ने चार बार पलक पीटे। डाक्टरों की टीम ने एक स्वर से माना कि वे होश में हैं और आपरेशन की व्यवस्था रद्द कर दी गई। उनके अन्य उपचार उत्साहपूर्वक किये जाते रहे। वे अच्छे हो गये और छह वर्ष तक भली प्रकार जीवित रहे।।

एडिनवरी के एक होस्टल में एक लड़की बीमार होकर मरी। डाक्टरों ने उसे मृतक घोषित कर दिया, पर होस्टल का वार्डन उसकी आकृति देखकर जीवित ही कहता रहा और उसने लाश को तब तक दफन नहीं होने दिया जब कि कि उसमें सड़न उत्पन्न न हो जाय। आमतौर से तीसरे दिन लाशें सड़ने लगती हैं, पर उस लड़की का शरीर तेरह दिन तक वैसा ही रखा रहा। चौदहवें दिन लड़की ने करवट बदली और सांस ली। इसके बाद धीरे-धीरे अच्छी हो गई।।

एक घटना आस्ट्रिया की इससे भी विचित्र है। अपने मृत मालिक की ताबूत में रखी हुई लाश की पहरेदारी उसके पालतु कुत्ते ने आरम्भ कर दी। किसी को वह पास नहीं फटकने देता था और जो समीप जाने का प्रयत्न करता उसे काटने को दौड़ता। तीसरे दिन जब ताबूत कब्रिस्तान ले जाया जा रहा था तो कुत्ते ने कन्धा देने वालों के पैर काट लिये। इस पर ताबूत गिरकर टूट गया। देखा गया कि मृतक की सांसें चल रही हैं। उसे वापिस घर लाया गया। तब लोगों ने समझा कि कुत्ता अपनी अतीन्द्रिय से यह जान रहा था कि मालिक मृतक नहीं बना है।।

न्यूयार्क की वह घटना डाक्टरों की दुनिया में बहुचर्चित है जिसमें एक मृतक का पोस्टमार्टम करते समय मुर्दा उठकर बैठ गया था और उसने डॉक्टर का गला पकड़ लिया। डॉक्टर भयभीत होकर गिर पड़ा और दिल की धड़कन बन्द होने से मर गया किन्तु वह मुर्दा छुरी के घाव को भी सहन करके धीरे-धीरे अच्छा हो गया।।

घटना कलकत्ता की है। उन दिनों सन् 1896 में अंग्रेजी राज्य था। कई अंग्रेज अधिकारी एक दिन गपशप कर रहे थे कि उनमें से एक फ्रेंकलेसली का सिर मेज पर झुकता चला आया और देखते-देखते दम तोड़ गया। उसके कुटुम्बी तथा पूर्वज भी दिल से ही मरे थे। फ्रेंकलेसली का भी यही हश्र हुआ। मृत शरीर के प्रचलित रस्म पूरे करने के बाद उसे कुनूर के कब्रिस्तान में दफना दिया गया। उसका परिवार उटकमण्ड में रहता था कई अन्य कुटुम्बी भी वहीं दफनाये गये थे। इसलिए परिवारी यही चाहते थे कि इस लाश को परिवार की अन्य लाशों के समीप ही दफन किया जाय। लाश को स्थानान्तरण करने की तथा लाश के लिए स्थान प्राप्त करने की दौड़-धूप में कई महीने लग गये। लाश को स्थानान्तरण करने की क्रिया जब कभी होती है तो यह आवश्यक होता है कि ताबूत खोलकर मृतक को वस्त्र आदि के सहारे पहचाना जाय। लेसली का ताबूत भी खोला गया तो देखने वाले चकित रह गये। लाश चित्त लिटाई गई थी उसके हाथ क्रूस की आकृति बना कर छाती पर रखे गये थे। पर अब तो वह औंधे मुंह लेटा था। कमीज चिथड़े-चिथड़े फटी हुई थी। नया पहनाया हुआ पेन्ट भी घुटनों पर से फटा हुआ था। आंख पर कई जगह खरोंचें थीं तथा मुंह से निकला हुआ खून जमकर सूख गया था। इन चिह्नों से यही अनुमान लगाया गया कि मृतक का प्राण ताबूत में फिर से लौटा होगा। उसने निकल भागने के प्रयत्न किये होंगे किन्तु वैसा सम्भव न हो सकने के कारण दम घुटकर वह मर गया होगा।।

इटली में मान्टुआ नगर के समीप मजोला ग्राम में भी ऐसी ही एक घटना घटी। लावरीनिया मेर्ली नामक एक गर्भवती महिला की मृत्यु मृगी का विकट दौरा आने के कारण हो गई। लाश को ताबूत में बन्द कर दिया गया। उसके कुटुम्बियों के आने के इन्तजार में दो दिन लाश बिना दफनाये रखी रहने दी गई। जब वे आये और अन्तिम दर्शन के लिए ताबूत खोला तो देखा गया कि मृतक ने बाहर निकलने के लिए भारी प्रयत्न किया है इससे उसका शव क्षत-विक्षत हुआ है। इतना ही नहीं उसने सात महीने के गर्भ को जन्म भी दिया है। जच्चा-बच्चा दोनों ही दम घुटने से मरे। हालांकि मृत्यु की घोषणा कुशल डॉक्टर की परीक्षा के बाद की गई थी तो भी इस घटना में मृत्यु के बाद फिर से जीवन लौट आने की बात सिद्ध हुई। यह घटना 3 जुलाई सन् 1890 की है।।

अभिलेखों में ऐसी ही एक घटना पादरी श्वार्त्स की है। भारत के एक देहाती मिशन में काम करते हुए उसकी मृत्यु हुई। कुटुम्बियों के इकट्ठे होने तक लाश को रखा रहने दिया गया और तीसरे दिन अन्त्येष्टि की व्यवस्था बनी। जब परिवार के लोग रस्म के अनुसार प्रार्थना के भजन गा रहे थे तो देखा गया कि मृतक के भी होठ हिलने लगे और वह भी मन्द स्वर से उस भजन को गाने में साथ देने लगा। यह जीवन चिह्न देर तक नहीं रहे उसकी फिर मृत्यु हो गई, पर इसमें सन्देह नहीं रहा कि एक बार मृत्यु के सुख से फिर वापस लौट आया था।।

हिम प्रदेशों में ठण्ड के दिनों में रीछ बर्फ में दबकर जम जाते हैं। तब उनमें जीवन के बहुत कम चिह्न शेष रह जाते हैं। यहां तक कि श्वांस क्रिया और दिल की धड़कन भी अनुभव में नहीं आती। इस स्थिति में पड़े रहने के बाद गर्मी आते ही वे सजीव होने लगते हैं और साधारण रीति से काम करने लगते हैं। छिपकली, रीछ, सांप, मेढ़क, केंचुए आदि कितने ही प्राणी सर्दियों के दिनों में बहुत समय तक समाधिस्थ हो जाते हैं। उन दिनों उनके शरीर की जांच-पड़ताल करने पर अर्धमृतक जैसी स्थिति पाई जाती है। कई बार मृत्यु घोषित कर देने पर भी पूर्ण मृत्यु नहीं होती। जीव कोषों में जब तक जीवन रस मौजूद है—भले ही वह न्यून मात्रा हो—जीवन वापिस लौट आने की सम्भावना बनी रहेगी। कई बार तो वे मौत के 120 घण्टे बाद तक जीवित पाये गये हैं। मरे हुए मनुष्यों के कुछ घण्टे बाद जीवित हो उठने के समाचार यदाकदा मिलते हैं, इनमें यही कारण होता है कि जीवन रस की मात्रा पूरी तरह समाप्त नहीं हुई होती और उसके सजग हो उठने पर कोश भी काम करने लगते हैं और मृत्यु का स्थान जीवन ले लेता है। यह पुनर्जीवन क्षणिक हो या स्थायी यह भी कोशों की स्थिति और उनमें भरे जीवन रस की स्थिति पर ही निर्भर करता है।।

यदि जीव कोषों की—उनमें भरे जीवन रस की विकृति रोकी जा सके। उन्हें पुनः पोषण दिया जा सके तो मनुष्य अति दीर्घजीवी हो सकता है। यह कार्य सिद्धान्ततः न तो कठिन है न असम्भव। क्योंकि जीव कोश और जीवन रस को तत्वतः अमर माना गया है। वे अमुक शरीर में ही मरते हैं—उस ढांचे के ही अनुपयुक्त होते हैं। वस्तुतः उनका विनाश नहीं होता। शरीर के मर जाने पर भी वे अपना मूल अस्तित्व बनाये रहते हैं और किसी अन्य रूप में परिवर्तित होकर अपनी नवीन कार्य पद्धति का पुनः आरम्भ करते हैं। आत्मा की तरह यह जीव कोश भी अमर ही कहे जा सकते हैं।।

इन्हें जीर्ण या विकृत होने से जितनी अधिक देर तक रोका जा सकेगा, उतनी ही लम्बी जिन्दगी सम्भव हो जाएगी। मृत्यु के बाद जिस तरह वे नया जन्म धारण कर नयी जिन्दगी आरम्भ करते हैं, वैसी ही प्रक्रिया यदि पुराने शरीर में आरम्भ कराई जा सके तो उसी काया के रहते पुनर्जीवन आरम्भ हो सकता है। इसे अध्यात्म की भाषा में कायाकल्प कहते हैं। कभी इस प्रयोजन की पूर्ति में योग एवं आयुर्वेद की सम्मिलित प्रक्रिया सफल भी रही है। च्यवन ऋषि का वृद्ध शरीर अश्विनी कुमार की चिकित्सा से नवयौवन सम्पन्न हुआ था। राजा ययाति ने भी वृद्धावस्था से लौटकर पुनः यौवन प्राप्त किया था। इसका अर्थ है कि अर्धमृत की सी स्थिति से भी पुनः प्रखर जीवन्तता की ओर लौटा जा सकता है।।

पूर्ण मृत्यु तब होती है, जब मस्तिष्क के कोषों (सेल्स) को इतना आघात पहुंच जाये कि वे सदैव के लिये काम करना बन्द कर दें। हृदय और सांस की क्रियायें बन्द हो जाती हैं, तब भी मस्तिष्क काम करता रहता है। इससे निर्विवाद साबित होता है कि चेतना का प्रत्यक्ष सम्बन्ध शरीर से नहीं, मानसिक शक्तियों से है। मस्तिष्क एक ऐसी जटिल प्रणाली है, जिसके बारे में वैज्ञानिक भी हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं, अभी तक बाह्य मस्तिष्क की अधिक से अधिक 1 प्रतिशत जानकारी उपलब्ध की जा सकी है। मध्य-मस्तिष्क (मिडिल ब्रेन) की तो कुल 3 प्रतिशत ही जानकारी हो सकी। इसलिये वैज्ञानिकों के लिए मृत्यु अब भी रहस्य बनी हुई है।।

हृदय-गति रुकने से मस्तिष्क को शुद्ध रक्त मिलना बन्द हो जाता है। इससे वह शकर-प्रज्वलित कर सकने में असमर्थ होता है। इसी क्रिया के द्वारा मस्तिष्क को शक्ति मिलती है। देखा गया है कि रक्त न मिलने पर भी वह 6 मिनट तक आपातकालीन उपायों के सहारे जीवित बना रह सकता है। वैज्ञानिक इन आपातकालीन सहायताओं का अध्ययन करके मस्तिष्क का सीधा सम्बन्ध आर्गनिक पदार्थों के संश्लेषण से जोड़ने के प्रयत्न में हैं। यदि ऐसा कोई उपाय निकल आया तो योगीजनों की समाधि के समान वैज्ञानिक भी मनुष्य को अर्द्ध-जीवित (सुषुप्ति) अवस्था में सैकड़ों वर्ष तक बनाये रख सकते हैं।।

विज्ञान के लिये जो सम्भावना है, योगियों के लिये वही इच्छा मृत्यु। चेतना की अमरता की परिपूर्ण जानकारी भारतीय तत्ववेत्ताओं ने मानसिक एकाग्रता, ध्यान और समाधि के द्वारा प्राप्त करके ही यह बताया कि—।

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तर प्राप्तिर्धीस्तत्र न मुह्यति ।। —गीता 2।13।

अर्थात्—जैसे जीवात्मा की इस देह में कुमार, युवा और वृद्ध अवस्था होती है, वैसे ही वह अन्य शरीरों की भी प्राप्ति करता है। धीर पुरुष शरीर में मोहित नहीं होते। न जायते म्रियते वा कदाचि— स्नायं भूत्वा भविता वा न भूपः । अजो नित्थः शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।। —गीता 2।20।

हे अर्जुन! यह आत्मा न किसी काल में जन्म लेती है और न मरती है और न यह आत्मा हो करके फिर होने वाली है, यह अजन्मा, नित्य शाश्वत (अमर) और पुरातन है, शरीर के नाश हो जाने पर भी यह नाश नहीं होती।।

शरीर के कोषों को सुरक्षित रखकर लम्बे समय तक चेतना को अमर बनाये रखा जा सकता है पर यह केवल तभी सम्भव है, जब मस्तिष्क की आधी चेतना बनी रहे। ऐसा भी हुआ है कि जब मस्तिष्क के एक दो ‘सेल’ मात्र ही जीवित बने रहे हों और उनसे मृत शरीर को कई महीनों बाद भी पुनर्जीवन जाग गया हो। प्लूटो आदि की लम्बी यात्राओं में भी अन्तरिक्ष यात्री को ऐसे उपकरणों में घेरकर लिटाया जायेगा जो अचेतावस्था (एनेबायोसिस) निद्रा का नियन्त्रण और रक्षा करते रहेंगे क्योंकि वैज्ञानिक जान गये हैं कि चेतना को बांधा नहीं जा सकता, अधिक से अधिक अवस्था परिवर्तन किया जा सकता है, क्योंकि मृत्यु स्वयं भी एक अवस्था परिवर्तन है, अर्थात् चेतना शरीर से लुप्त होकर भी मानसिक जगत् में उसी तरह बनी रह सकती है, जिस तरह स्वप्न या सुषुप्ति की अवस्था में अनुभूतियां होती हैं पर बाह्य इन्द्रियों का सहयोग न मिलने से स्थूल जानकारियां नहीं मिल पातीं। आत्मा तब अपने ही प्रकाश में काम करती है।।

शरीर की बनावट और जीवन का उससे सम्बन्ध इतना जानना ही जीवन की यथार्थ जानकारी नहीं दें सकता क्योंकि वह अवस्था भी है, और मनोविज्ञान भी। वैज्ञानिकों में से अनेक ऐसे हैं जो अब यह स्वीकार करने लगे हैं कि चेतना का कभी नाश नहीं होता। अवस्था मात्र का परिवर्तन होता है और वह भी नियम-बद्ध होता है। हमें देखना होगा कि क्या हमारी मानसिक क्रियायें आत्मा को प्रभावित करती हैं। एक शरीर से दूसरे शरीर में आने-जाने में मनोमय जगत् का क्या हाथ है? यदि हम इन बातों को समझ पायें तो आध्यात्मिक स्तर पर जीवन को शुद्ध सात्विक बनाने और आत्मा की प्राप्ति अमरत्व या मुक्ति की आवश्यकता भी अनुभव करने लगेंगे।।

वैज्ञानिकों ने जो प्रयोग किये हैं, वह चेतना के शारीरिक सम्बन्ध तक ही सीमित हैं, उसके आगे की लक्ष्य-पूर्ति आध्यात्मिक उपादानों द्वारा ही सम्भव होगी। हमारे लिये यह सबसे बड़े सौभाग्य की बात होगी, यदि हम जीवन की इस अनिवार्य आवश्यकता को समझ जायें और लक्ष्य प्राप्ति के प्रयत्नों में जुट जायें। वास्तविक जीवन वही है अन्यथा जीते हुए भी मनुष्य आध्यात्मिक दृष्टि से अर्धमृत ही है।।

वैज्ञानिक तथ्य हमें इस निर्णय पर भी पहुंचाते हैं कि किसी की दीर्घसूत्रता, अकर्मण्यता और मनस्विता कितनी ही शिथिल क्यों न हो गई हो उसके पुनर्जागरण की आशा की जा सकती है। परिस्थितियों की प्रखरता के सम्पर्क में आकर, तेजस्वी साधनों को अपनाकर निष्क्रिय लोगों को सक्रिय और तथाकथित मृतकों को जीवित किया जा सकता है। जब एक छोटी सी चिनगारी दावानल के रूप में प्रचण्ड हो सकती है तो कोई कारण नहीं कि मन्द चेतना को समग्र जागरूकता के रूप में विकसित परिणत न किया जा सके।।

मृत्यु को भारी थकान और गहरी मूर्छा का परिणाम माना जाता है। शरीर की थकान स्थिर नहीं, निद्रा के उपरान्त उसकी क्षति पूर्ति हो जाती है। आत्म-चिन्तन और प्रखर प्रोत्साहन से अन्तःचेतना पर चढ़ी हुई मन्दता का भी निराकरण निवारण हो सकता है।।

मृतक कौन? जीवित कौन? किस स्तर तक मूर्छित हुए व्यक्ति के पुनर्जीवन की आशा की जा सकती है यह प्रश्न शरीर विज्ञानियों के सामने एक गुत्थी के रूप में प्रस्तुत है। पर अध्यात्म विज्ञान का दृष्टिकोण बिलकुल साफ है जो स्वयं जीवन प्राप्त करने के लिए आतुर है और जिसने प्राणप्रद प्रेरणाओं के साथ सम्पर्क बना लिया उसे मन्दता की मूर्छना से उबारने का अवसर निश्चित रूप से मिलेगा वह अर्ध मृतक की स्थिति त्यागकर, अवश्य ही पूर्ण जीवितों की पंक्ति में खड़ा होगा।
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