मनुष्य चलता फिरता पेड़ नही है

अपने को जानें भव-बन्धनों से छूटें

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संसार में जानने को बहुत कुछ है। पर सबसे महत्वपूर्ण जानकारी अपने आप के सम्बन्ध की है। उसे जान लेने पर बाकी जानकारियां प्राप्त करना सरल हो जाता है। ज्ञान का आरम्भ आत्म ज्ञान से होता है, जो अपने को नहीं जानता वह दूसरों को क्या जानेगा?

आत्मज्ञान जहां कठिन है वहां सरल भी बहुत है। दूसरी वस्तुएं दूर भी हैं और उनका सीधा सम्बन्ध भी अपने से नहीं है। किसी के द्वारा ही संसार में बिखरा हुआ ज्ञान पाया और जाना जा सकता है। पर अपना आपा सबसे निकट है, हम उसके अधिपति हैं—आदि से अन्त तक उसमें समाये हुए हैं, इस दृष्टि से आत्मज्ञान सबसे सरल भी है। शोध करने योग्य एक ही तथ्य है—आविष्कृत किये जाने योग्य एक ही चमत्कार है—वह है अपना—आपा। जिसे पाने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता। बाहर की चीजों को ढूंढ़ने में मन इसलिए लगा रहता है कि अपने को ढूंढ़ने के झंझट से बचा जा सके। क्योंकि जिस स्थिति में आज हम हैं उसमें अंधेरा दीखता है और अकेलापन। यह डरावनी स्थिति है। सुनसान को कौन पसन्द करता है। खालीपन किसे भाता है। अपने को इस विपन्न स्थिति से परक है, स्वयं ही अपने को डरावना बना लिया है और उससे भयभीत होकर स्वयं ही भागते हैं। अपने को देखने खोजने और समझने की इच्छा इसी से नहीं होती और मन बहलाने के लिए बाहर की चीजों को ढूंढ़ते फिरते हैं कैसी है यह विडम्बना।

क्या वस्तुतः भीतर अंधेरा है? क्या वस्तुतः हम अकेले और सूने हैं? नहीं प्रकाश का ज्योति-पुंज अपने भीतर विद्यमान है और एक पूरा संसार ही अपने भीतर विराजमान है। उसे पाने और देखने के लिए आवश्यक है कि मुंह अपनी ओर हो। पीठ फेर लेने से तो सूर्य भी दिखाई नहीं पड़ता और हिमालय तथा समुद्र भी दीखना बन्द हो जाता है। फिर अपनी ओर पीठ करके खड़े हो जायें तो शून्य के अतिरिक्त और दीखेगा भी क्या?

बाहर केवल जड़ जगत है। पंच भूतों का बना हुआ निर्जीव। बहिरंग दृष्टि लेकर तो हम मात्र जड़ता ही देख सकेंगे। अपना जो स्वरूप आंखों से दीखता है कानों से सुनाई पड़ता है जड़ है। ईश्वर को भी यदि बाहर देखा जायगा तो उसके रूप में जड़ता या माया ही दृष्टिगोचर होगी। अन्दर जो है वही सत् है। इसे अन्तर्मुखी होकर देखना पड़ता है। आत्मा और उसके साथ जुड़े हुए परमात्मा को देखने के लिए अन्तःदृष्टि की आवश्यकता है। इस प्रयास में अन्तर्मुखी हुए बिना काम नहीं चलता।

स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, शान्ति आदि विभूतियों की खोज में कहीं अन्यत्र जाने की जरूरत नहीं है। बाहर भरी हुई जड़ता में चेतना कैसे पाई जा सकेगी। जिसे ढूंढ़ने की प्यास और पानी की चाह है वह तो भीतर ही भरा पड़ा है। जिसे कुछ मिला है यहीं से मिला है। कस्तूरी वाला हिरन तब तक उद्विग्न और अतृप्त ही फिरता रहेगा जब तक कि अपने ही नाभि केन्द्र में कस्तूरी की सुगन्ध सन्निहित होने पर विश्वास न करेगा, बाहर जो कुछ भी चमक रहा है सब अपनी आंखों का प्रकाश प्रतिबिम्ब मात्र है। श्रुति कहती है—अपने आपको जानो अपने को प्राप्त करो और अमृतत्व में लीन हो जाओ। उसी को ऋषियों ने दुहराया और तत्वज्ञानियों ने उसे ही सारी उपलब्धियों का सार कहा है। क्योंकि जो बाहर दीख रहा है वह भीतरी तत्व का ही विस्तार है। अपना आपा जिस स्तर का होता है संसार का स्वरूप भी वैसा ही दीखता है। बाहर हमें जैसा देखना पसन्द हो उसे भीतर से खोज निकालें। यही अन्वेषण की चरम सीमा है।

दुःख, दारिद्र्य, शोक, सन्ताप और अभाव, उद्वेग का निवारण करने के लिए इन अनात्म तत्वों की अन्तरंग में जमी हुई जड़ों को खोदना पड़ेगा। भीतर का दीपक जलने पर ही बाहर फैले हुए अन्धकार का समाधान होगा। जो कुछ हमारे लिए अभीष्ट और आवश्यक है उसकी समस्त सम्भावनायें अपने भीतर सुरक्षित रखी हुई हैं। आवश्यकता उन्हें प्रयोग करने की है। अपने आपे का प्रयोग करना यदि हमें आया होता तो हम दूसरे ईश्वर बन सकने में समर्थ होते। अपने को खोकर हमने खोया ही खोया है। बाहर ढूंढ़ने में जीवन गंवा डाला, पर मिला कुछ नहीं, मिलता तब जब बाहर कुछ होता।

अनात्म तत्वों की जो गन्दगी भीतर भर गई है उसे निकाल दें तो शेष वही रह जाता है जो हमारा स्वरूप है। कुछ पाने के लिए कुछ खोने के लिए तप साधन किये जाते हैं। आत्मा तो स्वयं उपलब्ध ही है। उसे पाने के लिए कुछ करना नहीं है। करने की बात इतनी ही है कि जो अनुपयुक्त और अवांछनीय अपने भीतर भर लिया है उसे निकाल कर फेंक दें। यह परिशोधन ही उपलब्धि का निमित्त बन जाता है।

किसी तत्ववेत्ता से जिज्ञासु ने पूछा—गुरुदेव, तप साधना से आपने क्या पाया? उन्होंने उत्तर दिया—खोया बहुत पाया कुछ नहीं। जिज्ञासु ने आश्चर्य से पूछा—ऐसा क्यों? ज्ञानी ने कहा—जो पाने लायक था वह तो पहले से ही प्राप्त था। जो खोने लायक विषय, विकार और अज्ञान, अन्धकार के अनात्म तत्व भीतर घुस पड़े थे, उन्हें साधना ने निकाला भर है। इस तरह साधक—साधना में खोता ही खोता है पाता कुछ नहीं हम स्वप्न खोते हैं तब सत्य पाते हैं।

रोबर गोडल ने अपनी पुस्तक ‘दी कन्टेन्योटेरी साइन्सेज एण्ड दी लिबरेटिव एक्सपीरियेन्स आफ योग’ में लिखा है—‘मनुष्य के यह जानने से पहले कि वह वास्तव में क्या है, अब तक के जाने हुए को भूलना होगा। वर्तमान नकारात्मक मान्यताओं के कारण मानव अपने भीतर स्थूल अहंवाद के साथ जुड़ी हुई मिथ्या मान्यताओं से ही परिचित हो पाया है। आत्मिक प्रगति के लिए हमें आत्म-बोध का प्रशिक्षण आरम्भ से ही करना होगा। क्योंकि उन तथ्यों को जिन पर आत्मोन्नति निर्भर है एक प्रकार से हमने भुला ही दिया है।’

कालीदास ने कहा है—अपने को जानने का प्रयत्न करो। अपने स्वरूप को समझो और जिस लिये जन्मे हो उस पर विचार करो। तुम्हें दिशा मिलेगी और सही दिशा में कदम उठ गये तो वह प्राप्त करके रहोगे जिसके पाये बिना अपूर्णता और अतृप्ति घेरे ही रहेगी।

स्वामी विवेकानन्द ने एक कथा सुनाई—एक तत्व ज्ञानी अपनी पत्नी से कह रहे थे, सन्ध्या आने वाली है, काम समेट लो। एक सिंह कुटी के पीछे यह सुन रहा था उसने समझा सन्ध्या कोई बड़ी शक्ति है जिससे डर कर यह निर्भय रहने वाले ज्ञानी भी अपना सामान समेटने को विवश हुए हैं। सिंह चिन्ता में डूब गया और उसे सन्ध्या का डर सताने लगा।

पास के घाट का धोबी दिन छिपने पर अपने कपड़े समेट कर गधे पर लादने की तैयारी करने लगा। देखा तो गधा गायब। उसे ढूंढ़ने में देर हो गई। रात घिर आई और पानी बरसने लगा। धोबी को एक झाड़ी में खड़खड़ाहट सुनाई दी समझा गधा है। सो लाठी से उसे पीटने लगा—धूर्त यहां छिपकर बैठा है। सिंह की पीठ पर लाठियां पड़ीं तो उसने समझा यही सन्ध्या है सो डर से थर-थर कांपने लगा। धोबी उसे घसीट लाया और कपड़े लाद कर घर चल दिया। रास्ते में एक दूसरा सिंह मिला उसने अपने साथी की दुर्गति देखी तो पूछा—यह क्या हुआ? तुम इस प्रकार लदे क्यों फिर रहे हो। सिंह ने कहा—सन्ध्या के चंगुल में फंस गये हैं वह बुरी तरह पीटती है और इतना वजन लादती है।’’ सिंह को कष्ट देने वाली संध्या नहीं उसकी भ्रांति थी जिसके कारण धोबी को कोई बड़ा देव दानव समझ लिया गया और उसका भार एवं प्रहार बिना शिर हिलाये स्वीकार कर लिया गया। हमारी यही स्थिति है अपने वास्तविक स्वरूप को न समझने और संसार के साथ—जड़ पदार्थों के साथ अपने सम्बन्धों का ठीक तरह ताल-मेल न मिला सकने की गड़बड़ी ने ही हमें उन विपन्न परिस्थितियों में धकेल दिया है जिनमें अंधकार के अतिरिक्त और कुछ दीखता ही नहीं। इस भ्रान्ति को ही माया कहा गया है। माया को ही बन्ध न कहा गया है और दुःखों का कारण बताया गया है। यह माया और कुछ नहीं वास्तविकता से अपरिचित रखने वाला अज्ञान ही है।

गीता में माया की व्याख्या और प्रतिक्रिया समझाते हुए भगवान ने कहा है। अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः । ज्ञान अज्ञान के द्वारा ढक दिया गया है, इस कारण सब प्राणी मोह को प्राप्त होते हैं।

नाह प्रकाशः सर्वस्य योगमाया समावृतः । अपनी योग माया से ढके हुए होने के कारण मैं सबके लिए दृश्य नहीं हूं।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यय । तीन गुणों से युक्त इस मेरी माया को पार करना बड़ा कठिन है।

शरीर को आत्मा समझ बैठने—शरीर के सुख-दुःख, हानि-लाभ और संयोग-वियोग को आत्मा पर घटित हुई मान लेने से मनुष्य दुःखी होता है, उपलब्धियों की उपेक्षा यदि अपना ध्यान आत्मा के निर्मल निर्विकार स्वरूप में बना रहे और जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए कर्तव्य कर्मों को करते रहने एवं दिव्य विचारों में रमण करने की प्रवृत्ति अपना ली जाय तो न दुःख की गुंजाइश रहे न शोक की। अपने को आत्मा बना इस संसार की परमेश्वर का स्वरूप मानकर परमात्मा के लिए आत्मा द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले अनुदानों—कर्त्तव्य कर्मों को अपनाते हुए जीवन यात्रा पूरी करने लगे तो सारे दुःख दूर हो जायं जिन्हें अज्ञता के कारण मायाबद्ध जीव पग-पग पर भुगतता रहता है।

आत्म-साधना के तीन चरण

मानवीय अस्तित्व को तीन भागों में बांट सकते हैं (1) स्थूल (2) सूक्ष्म (3) कारण। अध्यात्म शास्त्र में इन्हें ही मनुष्य के तीन शरीर कहा गया है। केले के तने की तरह अथवा प्याज की तरह परत-दर-परत उधेड़ते जाने पर हमें रक्तमांस निर्मित स्थूल शरीर के भीतर सूक्ष्म शरीर और उसके भी भीतर कारण शरीर का बोध होता है। मानो शरीर के ऊपर क्रमशः बनियान, कुर्ता, जाकेट, पहन रखी गई हों।

स्थूल शरीर मां के पेट से प्रारम्भ होकर श्मशान घाट में समाप्त हो जाता है। इहलौकिक क्रिया-कलापों का यही माध्यम है। खाने, सोने, चलने, रोटी कमाने, शुभ-अशुभ कर्म करने, इन्द्रिय-सुख भागने आदि के प्रयोजन इसी शरीर से पूरे होते हैं।

सूक्ष्म शरीर चिन्तन-मनन, आकांक्षा, अभिरुचि आदि मानसिक गतिविधियों का केन्द्र व माध्यम है। इसका प्रधान कार्यस्थल मस्तिष्क ही है, यद्यपि सामान्यतः यह पूरे स्थूल शरीर में उसी तरह व्याप्त हैं, जैसे दूध में घी।

तीसरा कारण शरीर आत्मा के अति समीप है तथा उच्चस्तरीय दिव्य भावनाओं का आधार है। दया, प्रेम कर्त्तव्यनिष्ठा, संयम, करुणा, सेवा धर्म, कोमल संवेदनादिक उच्चभाव इसी में उठते रहते हैं। जो लोग क्रूरता और दुष्टता में ही परिपक्व हो जाते हैं, उनका कारण शरीर भी क्रूर चेष्टाओं हेतु सहमत हो जाता है।

साधना का अर्थ है इन तीनों ही शरीरों की समुचित साज-सम्हाल और उत्कर्ष की व्यवस्था। साधना की दिशा में प्राथमिक पग है—उपासना। भजन-पूजन, जप-ध्यान व्रत-उपवास आदि उपासना-अभ्यास मन की प्रवृत्ति को पदार्थपरकता से चेतना की ओर मोड़ते हैं। विश्वव्यापी चेतना के स्मरण और सान्ध्नि की अनुभूति की आकांक्षा जागृत हो जाने पर मनोवृत्तियों का वासना और तृष्णा की दिशा में भटकाव, समय शक्ति और पुरुषार्थ का भयानक दुरुपयोग प्रतीत होने लगता है। तब मनःशक्ति को संयमित कर परमार्थ में नियोजित करने की प्रवृत्ति दृढ़ होती जाती है। यही साधना है। उपासना दिन के एक छोटे से अंश में, निश्चित समय तक की जाती है, साधना एक अविच्छिन्न प्रक्रिया है। वह पूरे जीवन का ही नाम है। साधनामय जीवन आन्तरिक पवित्रता को निखरता जाता है और ईश्वरीय प्रकाश का दिव्य दर्शन कराता है। मानवीय व्यक्तित्व में देवत्व के अवतरण की यही प्रक्रिया है।

साधना के दो वर्ग हैं—(1) विशिष्ट लोगों की—विशिष्ट प्रयोजन हेतु विनिर्मित विशिष्ट प्रक्रिया। (2) सर्वसाधारण के लिए सहज सुगम सौम्य पद्धति।

विशिष्ट प्रक्रियाएं असाधारण मनोबल-सम्पन्न, कठोर तपश्चर्या के लिए समुद्यत, सांसारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त लोगों—योगी यती एकान्तवासी लोगों के लिए हैं। हठयोग, षट्चक्र वेधन, कुण्डलिनी जागरण लययोग, ऋजुयोग, प्राणयोग आदि की साधनाएं इसी वर्ग की हैं। पर यह मार्ग अत्यन्त कठिन है। भूल होने पर इस राह में खतरे ही खतरे हैं। निश्चय ही इसमें ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त होती है। पर उन उपलब्धियों से चमत्कार-प्रदर्शन द्वारा लोगों को विस्मित-चकित कर देने की बात-आकांक्षा मात्र अहंकार ही बढ़ाती हैं। सिद्धियों द्वारा किसी का तात्कालिक कष्ट निवारण भी सम्भव है और उसमें थोड़ा बहुत आत्मसन्तोष भी प्राप्त हो जाता है। लेकिन यह मार्ग है जोखिम भरा ही।

चमत्कारों के लोभ से इस राह पर चल पड़ने वाले अधिकांश साधक साधना-पथ की कठिनाइयों और लम्बाई से निराश होकर या तो विरत हो जाते हैं या फिर अपनी असफलता की झेंप मिटाने के लिए धूर्तता के द्वारा लोगों को चमत्कृत करने का निकृष्ट व्यवसाय अपनाकर स्वयं भी पतित होते और दूसरों को भी गड्ढ़े में धकेलते हैं। मात्र असामान्य साहसी व्यक्ति ही इस मार्ग में बढ़ सकते हैं, सो भी विशिष्ट परिस्थितियां बन पड़ें तभी।

सौम्य साधना पद्धति का राजमार्ग सर्वसाधारण के लिए सुगम है। आजीविका-उपार्जन तथा सामान्य गृहस्थ जीवन-यापन करते हुए इस साधना क्रम को अपनाया जा सकता है। इस पथ पर सहज ही गतिशील रहा जा सकता है। इस पथ पर सहज ही गतिशील रहा जा सकता है। इसीलिए शास्त्रकारों और ऋषियों ने सर्वसाधारण को इसी पथ के अवलम्बन हेतु प्रोत्साहित किया है। इस मार्ग द्वारा जादूगरी जैसे चमत्कार भले न प्राप्त हो, पर नर को नारायण की स्थिति तक पहुंचा देने का वास्तविक चमत्कार निश्चित ही सम्भव है।

इस सौम्य साधना पद्धति द्वारा स्थूल, सूक्ष्म, कारण तीनों शरीरों का संस्कार-परिष्कार, परिमार्जन और परिवर्धन किया जाता है। इसके तीन प्रयोग हैं—(1) कर्मयोग (2) ज्ञानयोग (3) भक्तियोग। तीनों की सुसंतुलित क्रियापद्धति का अवलम्बन ही श्रेयस्कर है। श्रीमद्भगवद् गीता में इसी का प्रक्रिया विवेचन है। धर्मशास्त्रों का विशालकाय कलेवर भी इसी त्रिविधि तत्वज्ञान की विवेचना में ही खड़ा किया गया है। अपनी विचारपद्धति, कार्यपद्धति और भावस्थिति में यदि इन आस्थाओं का समुचित समावेश कर लिया जाय, तो हम अपनी असह्य यन्त्रणा की वर्तमान मनोभूमि से मुक्त होकर इसी शरीर से अपने जीवन में देवत्व के अभ्युदय की अनुभूति कर सकते हैं। देश, काल, पात्र की स्थिति के अनुरूप साधनाओं को मूल उद्देश्य सुरक्षित हुए कार्यपद्धति में सामयिक हेर-फेर किये जाते रहे हैं और किए जाने ही चाहिए। सृष्टि के आरम्भ से आज तक समय समय पर ऋषियों ने इसी त्रिविध साधना का—विभिन्न विधि-विधानों के रूप में, अपने समय के साधकों की मनोभूमि तथा सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए मार्ग-निर्देश किया है। इस क्रिया-विधान में कर्मयोग, भक्तियोग एवं ज्ञान-योग तीनों का इस ढंग से समावेश किया गया है कि व्यक्ति के तीनों शरीर परिपुष्ट होते चलें और समाज में विकास के पुण्य-प्रयोजन का कार्य होता चले।

कर्मयोग की आधार-शिला है प्रातःकाल आंख खुलते ही चारपाई पर पड़े-पड़े ‘हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत’ की विचारणा—प्रक्रिया को अपनाना तथा प्रस्तुत दिन के सर्वोत्तम सदुपयोग की तैयारी कर निश्चित कार्यक्रमों-गतिविधियों एवं विचार-प्रक्रिया का निर्धारण। सम्पूर्ण दिन मन में किस स्तर की भावनाएं किस काम के साथ संयोजित की जाएगी, यह भी निश्चित कर लेना अनिवार्य है। दिनभर इसी निर्धारण का दृढ़ता से पालन सामान्य जीवन क्रम को ही कर्म-योग की साधना का फल प्रदान करेगा।

फिर रात्रि में शयन पूर्व बिस्तर पर पहुंचते ही दिन की गतिविधियों का लेखा-जोखा कर सफलताओं के लिए ईश्वर को धन्यवाद देना तथा भूलों के लिए सच्चे पश्चात्ताप के साथ क्षमा प्रार्थना कर, पूर्ण निश्चिन्तता के साथ, शान्तिपूर्वक माता निद्रादेवी की गोद में सो जाना।

कर्मयोग की इस साधना के साथ ही ज्ञानयोग की साधना भी जुड़ी है। उस हेतु मन में उत्कृष्ट विचारों का अनवरत समावेश आवश्यक है। प्रेरक स्वाध्याय ही इसका मार्ग है। रूढ़िवादी रीति से किन्हीं पुरानी, किस्से कहानी जैसी किताबों का वासी रहना घोटना स्वाध्याय नहीं। व्यावहारिक जीवन में आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता की दिशा दिखलाने वाला स्वाध्याय ही आवश्यक है और उसे दैनिक जीवन का एक नित्य कर्म मानकर किया ही जाना चाहिए। व्यक्ति एवं समाज के नव-निर्माण हेतु उपयोगी उत्कृष्ट साहित्य के दैनन्दिन स्वाध्याय के लिए समय अनिवार्यतः निकालना ही चाहिए।

यह हुई ज्ञान-योग की निजी साधना। इसे ज्ञान-यज्ञ का रूप देना चाहिए। समाज में सद्विचारों का सर्वाधिक अभाव है। विश्व-व्यापी शोक-सन्ताप का यही कारण है। जन-मानस का स्तर परिवर्तित करने पर ही दुःख दारिद्रय की प्रचण्ड आग बुझेगी। विचारक्रान्ति आज की सर्वोपरि आवश्यकता है। ज्ञान-यज्ञ इसी आवश्यकता की पूर्ति करने वाला महान अभियान है। एक घण्टा समय और दस पैसा नित्य खर्च करना देखने में तो एक छोटा ही काम है, पर उसका सम्मिश्रित परिणाम अत्यधिक है, युग-परिवर्तन का वह एक सशक्त माध्यम है। साधक का आत्म-कल्याण एवं विश्व-कल्याण दोनों ही ज्ञान-यज्ञ द्वारा सहज सम्भव हैं।

भक्तियोग का अर्थ है अन्तरात्मा में दिव्य भावनाओं का अनवरत प्रवाह। परम ब्रह्म से अपने अनन्य प्रेम का स्मरण, तादात्म्य की प्रचण्ड अनुभूति और जघन्य उभयपक्षीय प्रभु-हिलोर की प्रखर अनुभूति का स्मरण-अभ्यास अवरुद्ध आन्तरिक रसस्रोता को पुनः मुक्त करता है। इन गहरे प्रेम स्रोतों का प्रांजल प्रवाह सम्पूर्ण परिवेश में सरसता, सामनस्य तथा प्रफुल्लता की वृद्धि करता है। सच्चा प्रेमी—सच्चा भक्त मात्र ईश्वरीय ध्यान-छवि को प्यार नहीं करता अपितु—ब्रह्माण्ड में संव्याप्त ईश्वरीय से—प्राणिमात्र से—अनन्य आत्मीयता भरा प्रेम सम्बन्ध प्रस्थापित कर लेता है। यह तादात्म्य—भावना पग-पग पर करुणा, उदारता, सद्भाव, सहृदयता, सहानुभूति, सेवा, सज्जनता के रूप में कार्यरूप में प्रकट परिणत होती रहती है। ईश्वर भक्त परिग्रही या स्वार्थी कैसे हो सकता है? उसके लिए तो एक ही मार्ग है—अपनी समस्त उपलब्धियों को विश्व मानव के चरणों में व्यवहारतः समर्पित कर देना। इससे कम में कभी भी ईश्वरीय अनुकम्पा प्राप्त भी नहीं हो सकती। लोकमंगल में अपना सर्वस्व समर्पण करने वाला परमार्थ—परायण व्यक्ति ही सच्चा ईश्वर भक्त कहा जा सकता है। अपने परिवार का पालन भी वह इसी भावभूमि के आधार पर ही करता है सभी लोगों के साथ उसके व्यवहार का भी यही आधार होता है। वासना-तृष्णा से सर्वथा रहित, निर्मल-निश्चिन्त अन्तःकरण वाला व्यक्ति ही, भक्ति योग का अधिकारी है। शबरी, मीरा, सूर, तुलसी आदि भक्तों ने तथा सभी ऋषि मुनियों ने इसी भावभूमि पर पहुंच कर ईश्वर दर्शन—आत्म साक्षात्कार का परमानन्द प्राप्त किया था और सभी दूसरों के लिए भी वही राजमार्ग खुला है।

बनियान-कुर्ता-जाकेट पहने हुए कोई भी व्यक्ति अपना शरीर नहीं देख सकता। आत्मा भी इसी तरह तीन आवरणों में बन्द है इन आवरणों को खोलने के लिये जप, तप ध्यान, मुद्रा, आसन प्राणायाम प्रत्याहार आदि का इतना विशाल क्षेत्र खड़ा कर दिया है कि प्रत्येक स्थिति का व्यक्ति, हर परिस्थिति और वातावरण का निवासी उनमें से अपने अनुकूल साधना विधान चयन कर आत्मा प्रभूति के मार्ग में चल पड़ सकता है तो भी साधना का मार्ग अति दुष्कर है इसे समर अर्थात् मुंह की संज्ञा दी गई है युद्ध में लोग विजयी ही नहीं होते पराजित भी होते और मृत्यु के घाट भी उतर जाते हैं अतः योद्धा गण आत्म-सुरक्षा की ढाल लेकर ही मैदान में उतरते हैं। अपने अनुसार साधना उपासना का निर्धारण हर किसी से सम्भव नहीं होता अतएव योग्य मार्ग दर्शन की आवश्यकता पड़ती है जो समय समय पर उस मार्ग में आने वाली अड़चनों का समाधान करते रहें जिन्हें इस तरह का सुयोग मिल जाये उन्हें मनुष्य शरीर देने के बाद इसे परमात्मा का दूसरा अनुग्रह समझना चाहिये।

किन्तु सामान्यतः योग्य मार्ग दर्शन का मिलना कठिन कार्य है। इस युग में तो धर्म के नाम पर सिवाय जन श्रद्धा के दोहन और साधनाओं के नाम पर एक दो आसन प्राणायाम सिखाकर जिज्ञासु साधक का धन हड़प लेने की युक्ति ही योग साधना स्थलों में दिखाई देती है। इन दुमग्यों से बचाने के लिये ही ब्रह्मवर्चस की स्थापना की गई है समय समय पर यही आत्म बोध की साधनाओं का प्रशिक्षण चलता रहता है किन्तु वह हर व्यक्ति के लिये सुलभ हो यह आवश्यक नहीं इसी कारण इन पंक्तियों में नितान्त सरल और सुविधा जनक आत्म बोध साधना दी गई थी यह साधारण दीखने वाली आत्म बोध साधना वस्तुतः यदि सच्चे मन से कर ली जाये तो उतने से ही लोग अन्तरंग की अनुभूति कर सकते और मनुष्य जीवन की सार्थकता सिद्ध कर सकते हैं।

कर्म योग द्वारा स्थूल शरीर का परिष्कार ज्ञान योग द्वारा सूक्ष्म की अनुभूति करते हुये भक्ति श्रद्धा और निष्ठा विकसित कर हर कोई कारण शरीर आत्मा का अन्तःदर्शन कर सकता है। उस स्थिति में मिलने वाली शान्ति प्रसन्नता आत्म बल और आत्म विभूति की तुलना में संसार में बड़े से बड़े भौतिक सुख तुच्छ ही ठहरते हैं। हम शरीर नहीं आत्मा हैं शरीर का ही नहीं आत्मा को भूलें कहीं इसी में अपना समाज और समूची मानवता का कल्याण सन्निहित है।
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