मनुष्य चलता फिरता पेड़ नही है

आत्मा की अमरता को जानें और प्राप्त करें

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बहिर्मुखी दर्शन और भौतिक सुखों की तृष्णा में मनुष्य जीवन कुछ इस तरह विश्रृंखलित होता है कि उसका गौण स्वरूप और उसकी आवश्यकताएं तो प्रतिक्षण समुख बनी रहती हैं और यथार्थ सत्ता का स्मरण तक नहीं आता। जब भी अवसर मिलता है अन्तरात्मा अपनी अपूर्णता पर छटपटाती रहती है किन्तु उसे कोई रास्ता नहीं मिलता। प्रारम्भ अनभिज्ञता से होता है और अन्त एक ऐसे भटकाव में होता है जहां से पांव मारने पर भी निस्तार नहीं हो पाता। यह पूर्णता यह अखण्डता यह लक्ष्य, दिशा और गन्तव्य क्या है। इस प्रश्न का सुलझा लेना ही सबसे बड़ा चातुर्य है।

कबीर दास से किसी ने पूर्णता की परिभाषा पूछी कबीर बोले—

‘‘लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल । लाली देखन में गई, मैं भी हो गई लाल ।।’’ संत कवि तुलसीदास ने भी सियाराममय सारे संसार को कहा है। हम स्वयं ब्रह्म के एक अंश हैं और पूर्ण हैं।

अग्नि का स्वरूप प्रकाश है। उसके ऊपर राख की परत जम जाने पर, उसका असली स्वरूप दिखलाई नहीं पड़ता। वह मात्र राख की ढेरी मालूम पड़ता है। लेकिन जैसे ही ऊपर का आवरण हटता है, वैसे ही प्रकाश पुंज दिखाई पड़ने लगता है।

मनुष्य के ऊपर भी अहंकार, काम, क्रोध, मद, मत्सर का आवरण चढ़ा हुआ है। इस आवरण के कारण उसका असली स्वरूप प्रकट नहीं हो पाता। मनुष्य देवस्वरूप है, आनन्द-स्वरूप है अजर और अमर है। गीता में भी भगवान ने आत्मा को अविनाशी कहा है।

पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर अपनी शक्तियों का अनन्त स्रोत हमेशा बहाते रहते हैं। अपूर्णता को स्थिति में पड़े हुए मानवों के लिये उनका वरदान और प्यार सदैव मिलता रहता है। पूर्णब्रह्म अपने पूर्ण मानव का सेचन करते रहते हैं।

सेचन-क्रिया द्वारा मनुष्य अपने पूर्ण पिता से अनुदान प्राप्त कर पूर्णता की ओर बढ़ता जाता है। उसकी परिणति पूर्ण में लीन हो जाने में है।

मनुष्य पूर्ण है और पूर्ण से उत्पन्न हुआ है। सारा ब्रह्माण्ड अणु के रूप में घूम रहा है। ब्रह्म का छोटा स्वरूप अणु सर्वत्र नजर आ रहा है। अणुओं के सम्मेलन से पदार्थ का स्वरूप बनता है। मानव शरीर भी अणुओं से निर्मित है। ब्रह्म अणुरूप में हैं और हमारा शरीर अणुओं का समूह है, इसलिये हम स्वयं प्रभुमय हो गये।

अध्यात्म हमें उसी महानता की ओर चलने का संकेत करता है। जब हमारे रोम-रोम में, नस नस में, आंख-कान, मन और मस्तिष्क में तथा विचारों में ब्रह्म-सत्ता दिखाई देने लगे, तभी हम अध्यात्मवादी बन सकते हैं। निरहंकार होकर अपने कर्त्तव्यों का पालन करने में हममें अपार शक्तियां प्रकट हो जायेंगी।

पूर्णता की प्राप्ति अपने सहज-धर्म के पालन करने में है। मनुष्य जन्म धारण करने के पहले ही स्व-धर्म की स्थापना हो गई रहती है। जन्म से पूर्व माता-पिता तथा समाज हमारे लिये तैयार रहता है। अतः माता-पिता और समाज के प्रति हमारा स्वधर्म पहले से तैयार है। इसके प्रति किया गया कर्त्तव्य हमें ब्रह्म के निकट पहुंचा देता है। अनन्त ब्रह्म से निकले हुए मानव ने अपने को सीमाबद्ध कर लिया है, इसी से उस अनन्त सुख को प्राप्त नहीं करता। नदी का जल जब तक समुद्र में मिल जाने के लिये उतावला रहता है, तब तक उसमें गति और तेज रहता है लेकिन जब वह झील या तालाब का रूप धारण कर लेता है तो उसकी गति रुक जाती है और उसमें सड़न पैदा हो जाती है।

मनुष्य ने अपने को सीमित बन्धनों में बांध लिया है। जाति, देश, सम्प्रदाय के घेरे में घिरा मनुष्य पूर्ण ब्रह्म को पा नहीं सका। इन हीन-विचारों के कारण उसे अनेक प्रकार के कष्ट उठाने पड़ते हैं।

शरीर को प्रधानता न देकर इसमें बैठी हुई आत्मा को पहचानना आवश्यक है। आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं। परमात्मा का अंश होने से आत्मा भी उसी तरह शक्तिवान, तेजवान और सत्यवान है जैसा परमात्मा है। इसलिये आत्मा की अमरता को हम सहज जान सकते हैं। माया-मोह—अज्ञान कारण हम अपने को पहचान नहीं पाते। अतः पूर्णता की प्राप्ति से पूर्व आत्मबोध एवं आत्म तत्त्व की अखण्डता को समझना आवश्यक है।

भारतीय धर्म और दर्शन का सारा कार्य-कलेवर इसी एक ज्वलंत प्रश्न के इर्द गिर्द चक्कर काटता है वह अनेक तरह से यह समझाने का प्रयास करता है कि मनुष्य केवल भौतिक सुखों की वितृष्णा में भटककर शाश्वत चेतना की उपेक्षा में कर बैठे इस लिये वह अनेक प्रकार से इस प्रश्न की आग को कुरेदता और जिज्ञासा जागृत करने का प्रयास करता रहता है। कठोपनिषद् में एक ऐसी ही आख्यायिका आती है आत्म जिज्ञासु नचिकेता यमाचार्य से आग्रह करता है—

येयं प्रते विचिकित्सा मनुष्य, अस्तीत्येके नायमस्तोति चैके । एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाह, वराणामेष वर स्तृतीयः ।। —कठोपनिषद् 1। 20

भगवन्! कुछ लोग कहते हैं आत्मा है, कुछ कहते हैं यह शरीर ही आत्मा है। मृत्यु के पश्चात् आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। सही तत्व क्या है सो आप मुझे बतायें यह मेरा तीसरा वर है।

नचिकेता की तरह संसार का प्रायः हर व्यक्ति जिसने गहन तप साधना, योगाभ्यास, स्वाध्याय और दीर्घकालीन मनन चिन्तन के बाद आत्मतत्व की स्पष्ट अनुभूति नहीं करली इस विषय में द्विविधा पूर्ण स्थिति में रहता आया है आत्मा का कोई अस्तित्व है भी अथवा नहीं। यह एक ऐसा महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसे सुलझा न पाने वाले जीवन भर उलटी और अन्धकार पूर्ण दिशाओं में भटकते रहते हैं पर जो इस स्थिति के बारे में निश्चित होकर आत्मानुभूति कर लेते हैं वे अपना जीवन धन्य मानते हैं।

इस सम्बन्ध में हिन्दू दर्शन की मान्यतायें बिलकुल स्पष्ट हैं। महर्षि चरक और इसी तरह के थोड़े ही विचारक हुये हैं जिन्होंने आत्मा को शरीर या द्रव्य की चेतना के अतिरिक्त कुछ नहीं माना जबकि अधिकांश तत्ववेत्ता उसे शरीर से भिन्न एक शाश्वत और स्वतन्त्र तत्व मानते रहे हैं। योगाभ्यास की ऐसी जटिल विधियां खोज निकाली गई हैं जो जीवित अवस्था में ही आत्म-चेतना को शरीर से बाहर कर लेने और स्वेच्छा से किसी भी शरीर में प्रविष्ट होने के प्रमाण प्रस्तुत कर चुकी हैं। इस कथन की पुष्टि में (1) जगद्गुरु शंकराचार्य ने मण्डन मिश्र की धर्मपत्नी भगवती भारती से शास्त्रार्थ करने के लिये काम-शास्त्र का अध्ययन आवश्यक होने पर महिष्मती नगर के राजा के शरीर में ‘परकाया प्रवेश’ किया था। वे प्रतिदिन अपनी आत्म-चेतना को शरीर से निकाल लेते थे। शव जंगल में पड़ा रहता था और उनकी आत्मचेतना राजा के शरीर में बनी रहती थी। रात्रि के समय वे अपने निजी शरीर में आ जाते थे तब राजा का शरीर शव हो जाता था। एक ही आत्मा द्वारा दो शरीरों के उपयोग के इस उदाहरण से आत्मा का पृथक अस्तित्व प्रतिपादित होता है।

(2) सन् 1939 में पश्चिमी कमान के सैनिक कमाण्डेन्ट श्री एल.पी. फैरेल ने आसाम-बर्मा सीमा पर एक योगी को अपनी आंखों अपने वृद्ध शरीर से निकलकर एक स्वस्थ युवक के शव में प्रविष्ट होकर जीवित देखा था। यह घटना अखण्ड-ज्योति मई 1970 के अंक पेज 2—30 में छपी है।

(3) सामान्यतः शरीर का जीवन श्वांस क्रिया पर आधारित माना जाता है पर सन्त हरदास ने महाराज रणजीतसिंह तत्कालीन अंग्रेज जनरल बेन्टुरा और अनेक अनेक अंग्रेज पदाधिकारियों की उपस्थिति में एक माह की समाधि लगाकर दिखा दिया कि आत्मा का शरीर से उतना ही सम्बन्ध है जितना किसी मशीन से विद्युत शक्ति का। आत्मा के न रहने पर शरीर मृत हो जाता है।

यह सैकड़ों में एकाध उदाहरण है जब कि भारतीय धर्म शास्त्र और तत्व दर्शन के पन्ने-पन्ने ऐसी घटनाओं से भरे पड़े हैं। भारतीय आचार्य इस सम्बन्ध में पूर्णतया आश्वस्त हैं और बताते हैं—

व्यतिरेकस्तद् भावाभावित्वान्न तूपलब्धिवत् । वेदान्त 3। 3। 54 अर्थात्—शरीर और आत्मा एक नहीं है शरीर में रहते हुये भी आत्मा का अभाव हो जाने से शरीर को किसी बात का ज्ञान नहीं हो सकता।

आत्मा की सत्ता और स्वतंत्रता के सम्बन्ध में करोड़ों वर्ष पूर्व स्थापित ऋषियों की मान्यतायें अब विज्ञान की कसौटी पर भी सत्य सिद्ध होती जा रही हैं। इस सम्बन्ध में शरीर का निर्माण करने वाले जीव-कोषों को बड़ा महत्व दिया जा रहा है। जीवित शरीर और मृत शरीर में क्या अन्तर है इस सम्बन्ध में अमरीका की राकफेलर संस्था के डा. बेकाफ और डा. स्टेनली ने बहुत परिश्रम और खोजें की हैं। यद्यपि उन्होंने अपना अन्तिम मत प्रतिपादित नहीं किया पर यदि भारतीय तत्वदर्शन को सामने रखकर उन खोजों पर विचार किया जाये तो इस वैज्ञानिक उपलब्धियों से भी वही तथ्य प्रतिध्वनित होंगे जो भारतीय दर्शन से ध्वनित होते हैं।

इन वैज्ञानिकों का कथन है कि जीवित अणु रासायनिक प्रक्रिया के प्रभाव से स्वयं ही उत्पन्न होते हैं अर्थात् आत्मा शरीर की रासायनिक चेतना है पर वे अणु तभी तक उत्पन्न होते हैं जब तक कि वे जीवित पदार्थ (प्रोटोप्लाज्मा जिससे कि शरीर का निर्माण होता है) से सम्बन्धित रहते हैं। अर्थात् चेतना का सम्बन्ध चेतना से ही है इस कथन के अनुसार आत्मा शरीर से भिन्न है।

यह एक स्वयं सिद्ध सत्य है कि मृत्यु के अनन्तर शरीर की सारी तन्मात्रायें समाप्त हो जाती हैं जो प्राणी अभी तक चलता, फिरता, खाता, पीता, सूंघता, मल-उत्सर्जन करता, खांसता—छींकता, जम्हाई लेता, सोचता, बोलता, परामर्श करता, प्रेम, दया, करुणा या घृणा द्वेष और क्रोध व्यक्त कर रहा था मृत्यु होने के बाद शरीर ज्यों का त्यों होने पर भी अब वैसी क्रियायें क्यों नहीं करता।

वैज्ञानिक के समक्ष प्रश्न यह था कि प्रत्येक अस्तित्व का भार होना चाहिए। यदि प्रकाश-कणों के इलेक्ट्रान अत्यधिक तीव्र गति से गतिशील न रहे होते और इस कारण उन्होंने अपने आपको गुरुत्वाकर्षण से मुक्त न कर लिया होता तो प्रकाश—की मात्रा को भी तौलना सम्भव हो जाता। शक्तियों—चाहे वह विद्युत हो, प्रकाश, ध्वनि, ताप या चुम्बक ही की परिभाषा यह है उनमें भार नहीं होता, वे वस्तुयें प्रभाव से ही जानी जा सकती हैं। केवल प्रभाव से ही किसी वस्तु के विश्लेषण को मानने के लिये वैज्ञानिक तैयार नहीं होते इसी कारण विज्ञान और मनोविज्ञान दोनों में मेल नहीं हो पाता और एक सनातन प्रश्न इस बौद्धिक—प्रखरता के युग में भी अधूरे का अधूरा छूट जाता है।

प्रकाश कणों या दिव्य-ज्योति के रूप में प्रवाहमान आत्मा के बारे में भारतीय तत्वदर्शियों के यह कथन कि आत्मा (1) सनातन है आत्मा सर्वव्यापी है (3) आत्मा स्वाधीन है। पर कर्म बन्धनों में बंधा होने के कारण वह शरीरों में आया जाया करता है अब विज्ञान के भी प्रतिपाद्य विषय बन गये हैं। अमरीका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक डा. जेम्स वाट्सन और इंग्लैण्ड की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के डा. फ्रान्सिस क्रिक ने जीवित-कोश (सेल—अर्थात् जीवित द्रव्य का छोटे से छोटा टुकड़ा जिससे शरीर बनता है) के नाभिक (न्यूक्लियस) में ही ज्ञान व संस्कार—गुणसूत्र (क्रोमोसोम) पाये जाते हैं यह पैड़ोदार और बीच-बीच डोरी में लगी गांठों की तरह होते हैं। इन गांठों को जीन्स (संस्कार सूत्र) कहते हैं। नाभिक प्रकाश तत्व है और उसी में जीवन तत्व होना उसका प्रकाश पुंज होना प्रमाणित करता है यही निकल जाने से शरीर निष्प्राण हो जाता है। इससे सिद्ध है कि वह पदार्थ से पृथक अस्तित्व वाला है।

मनुष्य शरीर में 600 खरब जीवित कोश पाये जाते हैं न कोशों में जितने जीन्स होते हैं उनकी लम्बाई एक ‘‘कोश’’ में 5 फुट तक हो सकती है। 600 खरब कोशों में जीन्स की—लम्बाई 3000 खरब फुट होगी यह एक अनुमानित लम्बाई है वास्तविकता तो अनन्त है यदि अपना ज्ञान इस चेतना के सूक्ष्म में स्थिर कर दिया जाये तो मनुष्य अपने आपको विश्व-व्यापी चेतना के रूप में ही—पायेगा इसी का नाम आत्मानुभूति या आत्म-साक्षात्कार है, यह स्थिति कठिन अभ्यास से ही बन पाती है जब तक मनुष्य अपने इस विराट् स्वरूप को नहीं पहचानता और भौतिक पदार्थों के सुख की इच्छा किया करता है तब तक वह जीव है, बन्धन में पड़ा हुआ मानवेत्तर योनियों में भ्रमण करता रहता है आत्मा में स्थिर हो जाने का कदाचित अवसर मिल जाता है तो यही जीव युग-युगान्तरों के कल्मष-काषाय धोकर इसी शरीर से स्वर्ग और मुक्ति का रसास्वादन करता हुआ अपना पारमार्थिक लक्ष्य पूरा करता है।

जीव-विज्ञान के अनुसन्धानों में भी कोशिका (सेल्स) को सबसे अधिक आश्चर्यजनक रूप में देखा गया है। उसे वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड का छोटा-सा नक्शा मानते हैं। उसके अन्दर सूक्ष्म रूप में वह सब कुछ है जो इन स्थूल आंखों से दिखाई देता है। ‘‘रोम-रोम प्रति लागे कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड’’ वाली तुलसीदास की उक्ति को विज्ञान ने कोशिका के रूप में सत्य मान लिया है।

किन्तु हम जो कुछ देखते हैं, उससे भी अधिक आश्चर्यजनक, रहस्यपूर्ण, कौतूहल-वर्द्धक और महत्वपूर्ण वह है, जिसकी दूरी और सीमायें इतनी व्यापक और विशाल हैं कि हमारी आंखें उसे देखने में समर्थ नहीं हुईं। हमारे शास्त्रों में उस व्यापकता और अनन्तता का परमात्मा कहा है और बताया है कि उसे सूक्ष्म होकर ही जाना जा सकता है—

वालाग्रशत साहस्रं तस्य सागस्य भागिनः । तस्त भागस्य भागार्ध तत्क्षये तुनिरंजनम् ।। पुण्य मध्ये तथा गन्धः पयोमध्ये तथा घृतम् । तिमध्ये यथा तैलं पाषाणेष्विव कांचनम् ।। एवं सर्वाणि भूतानि मणौ सूत इवात्मनि । स्थिर बुद्धि रसमूढ़ो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ।। —ध्यान विन्दूपनिषत् 4-6

-अर्थात्—बाल के सबसे छोटे टुकड़े का भी सौवा भाग, उसका भी हजारहवां भाग और उसका भी आधे का आधा भाग (सूक्ष्मातिसूक्ष्म क्षय हो जाने पर निरजन होता है, जिस प्रकार फूलों में गन्ध, दूध में घृत, तिल में तेल, पाषाण में स्वर्ण और माला के दाने सूत में पिरोये रहते हैं, उसी प्रकार सब भूत निरंजन में व्याप्त हैं, स्थिर बुद्धि वाला ज्ञानी मोह रहित होकर ऐसे ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करके उसमें स्थिर रहता है।

आर्ष वैज्ञानिकों के इस कथन की सत्यता का सर्वप्रथम किंग्स कालेज लन्दन के डा. विल्किंस ने अध्ययन किया। उन्होंने बताया कोशिका अपने आप में उतनी आश्चर्यजनक नहीं है, जितनी उसके अन्दर के दूसरे कण और क्रियायें महत्त्वपूर्ण हैं, इनमें से नाभिक या केन्द्रक (न्यूक्लियस) और उसमें लिपटे हुये क्रोमोसोम, स्पूतनिक की तरह कोशिका के आकाश में स्थित ‘सेन्टोसोम’ जो कोशों के विकास में सहायक होता है, पारदर्शी गुब्बारे जैसा वह भाग जो भोजन को शक्ति में बदलता है, वह भी एक से एक बढ़कर आश्चर्यजनक हैं। न्यूक्लियस कोशिका का वह गुम्बदाकार भाग है, जहां से पूरे शरीर का सूत्र संचालन होता है। गुण सूत्र क्रोमोसोम की जटिलता और भी अधिक है, क्योंकि उन पर व्यक्ति के गुण, शारीरिक विकास और अनुवांशिकता आधारित है, इसलिये इनकी खोज में वैज्ञानिक तीव्रता से जुट गये।

‘जीन्स’ जिन्हें आज का वैज्ञानिक जीवन की इकाई मानता है, इन्हीं गुण-सूत्रों का ही एक अत्यन्त सूक्ष्म अवयव है। जिस प्रकार एक डोरे में थोड़ी-थोड़ी दूर पर गांठें लगा देते हैं। इन गुण सूत्रों में भी गांठें लगी हुई हैं, इन गांठों को ही ‘जीन्स’ कहते हैं। एक कोशिका के जीन्स जो कुण्डली मारे बैठे रहते हैं, उन्हें यदि खींचकर सीधा कर दिया जाय तो 5 फीट तक लम्बे पहुंच सकते हैं। हमारा शरीर चूंकि कोशिकाओं की ईंटों से बना हुआ होता है और एक युवक के शरीर में यह कोशिकायें 60 खरब तक होती है, इसलिए यदि सम्पूर्ण शरीर के ‘जीन्स’ को खींचकर रस्सी बनाई जाये तो वह इतनी बड़ी होगी, जिससे सारे ब्रह्माण्ड को नाप लिया जाना सम्भव हो जायेगा।

आत्मा सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त है। सम्भवतः यह जीन्स उस भारतीय मत की पुष्टि करें पर जीन्स को ही आत्मा नहीं मान लेना चाहिए। यह चेतन आत्मा का एक अणु हो सकता है पर आत्मा नहीं। सूर्य एक आत्मा है, उसकी एक किरण वहां से चलती है और किसी स्थान पर वहां की ऊर्जा पहुंचाती रहती है, बहुत सम्भव है उसी तरह उस किरण जाल से सूर्य भी स्थान-स्थान की खोज-खबर लेता रहता हो। यह किरणें भी प्रकाश के छोटे-छोटे अणु (एटम) से बने हैं और प्रत्येक अणु में सूर्य जैसी क्षमतायें विद्यमान होती हैं, उतनी ही ऊर्जा (एनर्जी) उतनी ही चमक और वैसी ही आकृति, पर वह सूर्य नहीं हो सकता, वह तो सूर्य का एक अणु मात्र है। अणु को पकड़ा, तोड़ा और मरोड़ा जा सकता है पर सूर्य को तोड़ डालने की शक्ति विज्ञान ने कहां पाई है। सूर्य अपने आप में एक स्वतन्त्र सत्ता है।

‘जीन्स’ भी ऐसे ही हैं यद्यपि मनुष्य का कुछ छोटा या बड़ा होना, उसके बाल काले, भूरे या घुंघराले होना, नाक चौड़ी, लम्बी या पतली होना, आंखें नीली, काली या भूरी होना यह सारी बनावट जीन्स की बनावट पर निर्भर है, यदि विस्तृत खोज की जाय तो गर्भस्थ शिशु का एक दिन इच्छानुवर्ती निर्माण सम्भव हो जायेगा। अनुवांशिक (हेरेडेटरी) रोगों का इलाज भी तब सम्भव है, जीनधारी के पृथ्वी पर आने से पहले ही कर दिया जा सके बहुत सम्भव है आदम, ईसा या कर्ण जैसा अमैथुनी मनुष्य भी बनाया जा सके पर यह सब मनुष्य की इच्छा पर नहीं किसी पर्दे में काम करने वाली शक्ति की इच्छा पर ही होगा। मनुष्य जीवों का विकसित रूप नहीं वरन् वह अमैथुनी क्रिया द्वारा ही पैदा हुआ है, यह भारतीय दर्शन की मान्यता है, जो आज की वैज्ञानिक दृष्टि में सत्य सिद्ध हो रहा है पर वह मनुष्य के लिये नितान्त सम्भव नहीं।

यह बात हम नहीं वह वैज्ञानिक भी जिन्होंने जीन्स का भी रासायनिक विश्लेषण कर लिया है, मानने लगे हैं। डा. विल्किंस ने बताया कि जीन्स सर्पिल आकार के अणुओं से बने होते हैं, यह अणु ‘डी आक्सी राइबो न्यूक्टिइक एसिड’ - संक्षेप में डी.एन.ए.) के नाम से जाने जाते हैं। इन्हें केवल एक लाख गुना बढ़कर दिखाने वाली (मैग्नीफाइंग पावर) खुर्दबीन (माइक्रोस्कोप) से ही देखा जाना सम्भव है। इस दिशा में हारवर्ड यूनिवर्सिटी अमेरिका के डा. जेम्स वाट्सन और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की कैकेंडिश लैबोरेटरी के डा. फ्रांसिस क्रिक ने विस्तृत अनुसन्धान किये। उन्होंने चार प्रमुख नाइट्रोजन यौगिकों 1. एडीनाइन, 2. साइटो साइन, 3. गुएनाइन और थाईमाइन और फास्फेट व एक प्रकार की शर्करा के रासायनिक संयोग से प्रयोगशाला में ही डी.एन.ए. अणु (मालेक्यूल) का माडल बनाकर सारे संसार को आश्चर्य-चकित कर दिया। यह जीवन-जगत् में हलचल पैदा करने वाली खोज थी। उसके आधार पर अमैथुनी कृत्रिम गर्भाधान ही सम्भव न हुआ वरन् चिकित्सा और शरीर विकास की अनेक अद्भुत सफलताओं का स्रोत खुल गया। डी.एन.ए. की सफलता एक दिन ऐसे शरीर बना सकेगी जो बाजारों में साधारण मनुष्यों की तरह ही घुमा-फिरा करेंगे, फिर भी कोई समझ न पायेगा कि क्या ये कृत्रिम मानव है।

इतनी सफलता पा जाने के बाद क्या वैज्ञानिक सन्तुष्ट हो गये या उन्होंने यह विश्वास कर लिया कि उन्होंने आत्मा पर अधिकार कर लिया है। नहीं, नहीं, नहीं। 1962 में इन तीन वैज्ञानिकों को जब इस सम्बन्ध में नोबुल पुरस्कार दिया गया तो उन्होंने ही कहा—‘‘सूत्र हाथ में आ गया है सूत्रधार नहीं, सम्भव है, एक दिन वह भी हाथ लग जायेगा और तब आज जो मनुष्य प्रकृति के इशारे पर नाचता है, तब प्रकृति उसके इगित पर चलने लगे। पर अभी तो स्थिति यह है कि मनुष्य जीवन की सारी गतिविधियां जिनका आदेश जीन्स के द्वारा मिलता है, वह किसी और की है। जीन्स तो उसके आदेश कोशिका तक पहुंचाते रहते हैं। एक कोशिका से दूसरी कोशिका तक सारे शरीर का कार्य संचालन जीन्स के द्वारा दिये गये आदेशों पर चलता है। यह आदेश भी किसी भाषा में नहीं होते वरन् उसकी भी एक रासायनिक पद्धति है।

जीन्स से कोई तत्त्व कोशिका में गया तो वह भाग खाली होते ही ऊपर से कोई और तत्त्व की पहुंचाने की आवश्यकता प्यास रूप में प्रकट हुई। किसी ने कहा नहीं पर हम उठे और पानी पिया पानी पीने की प्रेरणा जीन्स ने कोशिकाओं को दी, हाथ ने उठा कर पी लिया पर जीन्स को वह आदेश किसने दिया। क्या जीन्स ही की इच्छा थी वह। यदि ऐसा होता तो प्रयोगशाला में बनने वाला डी.एन.ए. भी अपनी इच्छा से विकसित होने लगता।

अभी इस जीन्स से भी कोई अति सूक्ष्म और सर्वव्यापी सत्ता है, इसका प्रमाण उसी की संरचना से मिल जाता है। उदाहरणार्थ डी.एन.ए. पर ही लगभग एक अरब अमीनो एसिड क्रम से लगे रहते हैं, उन्हें वह अक्षर कह सकते हैं जो मिलकर जीन्स की आकांक्षा को व्यक्त करते हैं। जैसे भूख-प्यास, बोलना, उठना-बैठना, मिलना-जुलना, सोना, स्वप्न देखना आदि। इनका ही क्रम मनुष्य के गुणों का निर्धारण करता है। मरोड़ी हुई सीढ़ी की शक्ल में यह अणु एक जीन्स की शक्ल में दिखाई देते हैं। उन सब की अनुभूतियां अलग-अलग हैं, इससे यह पता चलता है कि जीन्स जहां कोशिका की आत्मा है, वहां वह शरीरगत सम्पूर्ण चेतना का एक अंग भर है और उससे अधिक कुछ नहीं। शरीर की सामाजिकता के आधीन रहना पड़ता है, ऐसा न होता, प्रत्येक जीन्स एक स्वतन्त्र अस्तित्व होता तो वह शरीर के प्रत्येक अंग से मनुष्य पैदा करना आरंभ कर देता। ऐसा वह नहीं कर सकता, मनुष्य भी परमात्मा का एक अंश है, वह अपने दायरे में निर्माण, पालन और संहार के कार्य किया करता है पर वह विश्व-इच्छा के आधीन है। उसकी अपनी सत्ता उस सामाजिकता से अलग रही होती तो वह अपनी इच्छा से जन्म और मृत्यु का स्वामी हो जाता। ब्राह्मी स्थिति में भले ही वह वैसा हो जाता है पर मनुष्य जब तक मनुष्य है, तब तक उसे उस इच्छा ही के आधीन रहना पड़ता है, यही स्थिति जीन्स की भी है। वह आत्मा का अणु हो सकते हैं, आत्मा नहीं। आत्मा की खोज के लिये अभी लम्बे प्रयोग की आवश्यकता है।

कोशिका के ऊपरी आवरण को, जिसे प्रोटीन कहते हैं, अब वैज्ञानिक पद्धति से बनाना सम्भव हो गया है। दूध के प्रोटीन से ऊन बना लेने के बाद वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रोटीन बना लेना कोई कठिन बात नहीं है। सन् 1969 डा. खुराना को तो इसी विषय में नोबुल पुरस्कार भी मिला है। एक ओर प्रोटीन पर दूसरी ओर डी.एन.ए. पर, विस्तृत गवेषणाएं चल रही हैं। जितनी सफलतायें मिलती जा रही हैं, उतनी ही आत्मा के किसी अति सूक्ष्म तत्त्व और सर्वव्यापी होने की पुष्टि बढ़ती ही जा रही है। अभी यह नहीं मान लेना चाहिये कि डी.एन.ए. का निर्माण करके वैज्ञानिकों ने आत्मा को जान लिया। भले ही उन्हें वैसी कोई इकाई मिल गई हो।

अभी कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनको सुलझाया जाना आवश्यक है उदाहरण के लिये इस बात की खोज कर लेने के बाद भी कि जीन्स (अर्थात् कोशिका का वह सूक्ष्म तरभगा जिसमें चेतना विद्यमान रहती है) एक अमर और अविनाशी तत्व है वैज्ञानिक अभी तक यह गुत्थी नहीं सुलझा पाये कि यदि वह अमर है तो मृत्यु के बाद जाता कहां है? इस सम्बन्ध में उनके प्रतिपादन किसी भी बुद्धिजीवी को संतुष्ट नहीं कर पाते उनका कथन है कि मृत्यु के बाद ‘‘जीन’’ अपनी विश्वयात्रा में पदार्थ के माध्यम से निकल पड़ते हैं उदाहरण के लिये हिन्दुओं में शव-दाह की प्रथा है। जला देने के बाद जीन—राख में चले गये। राख पानी में। पानी से कुछ जीने पीने वाले जीव जन्तुओं कुछ पौधों आदि में विभक्त हो गये। पुनर्जन्म की घटनाओं का विश्लेषण वैज्ञानिक लोग इसी आधार पर करते हैं कि मृतक ‘‘क’’ के जीन-गंगा से गंगा भी किसी नहर में, नहर से किसी सिंचित खेत, खेत से पौधे और पौधे से फल, फल खालिया किसी व्यक्ति ने उससे वह संस्कार सूत्र चले गये उसके पुन में इस तरह मृतक ‘‘क’’ की स्मृतियां ‘ग’ के पुत्र के मस्तिष्क में जा सकती हैं उसे जीवात्मा का पुनर्जन्म नहीं कह सकते? किन्तु यह प्रतिपादन इतना जटिल है कि स्वयं नब्बे प्रतिशत वैज्ञानिक ही। उसे नहीं मानते न मानने के निम्न कारण हैं।

(1) जीन—एक अविच्छिन्न श्रृंखला होते हैं यदि दूर-दूर ही छितर जाते हैं तो अनेक लोग एक ही पुनर्जन्म के दावेदान हो सकते हैं किन्तु अभी तक ऐसी कोई घटना प्रकाश में नहीं आई है।

(2) यह एक समय साध्य प्रक्रिया है जब कि पुनर्जन्म की घटनाओं में कई बार तो दो तीन वर्ष से भी अधिक का समय नहीं लगता।

(3) ऐसी घटनाओं में उपरोक्त प्रतिपादन की कोई श्रृंखला नहीं जुड़ पाती जिससे यह स्पष्ट हो कि अमुक व्यक्ति के जीन्स अमुक स्थान पर किस माध्यम से पहुंचे? इस सन्दर्भ में भारतीय दर्शन की मान्यतायें अधिक स्पष्ट हैं गीताकार ने कहा है कि—

न जायते प्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वान भयः । अजोः नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यतेहन्यमाने शरीरं ।

यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है अथवा न यह आत्मा हो कर के फिर होने वाला है क्योंकि यह अजन्मा नित्य शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी यह नाश नहीं होता।

मृत्यु की मीमांसा करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— वासांसि जीर्णानि तथा विहाय नवानि गृह्णति न रोड परणि । तथा शरीराभणि विहाव जीर्णान्य न्याति सयाति नवानि देही ।।

जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़ कर नये वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर नये शरीरों को प्राप्त होता है।

स्थूल शरीर सूक्ष्म शरीर के व्यापार का माध्यम है जिस प्रकार बढ़ई का वसूला। अर्थात्—इच्छाओं, वासनाओं को पूरा करने के लिए सूक्ष्म शरीर एक यन्त्र की भांति स्थूल शरीर का उपयोग करता है। ऐसी घटनायें जो स्थूल जगत् से परे की प्रतीत होती हैं स्थूल उपकरणों से प्रयोजन पूरा न होने के कारण दूसरे माध्यमों से सूक्ष्म शरीर की प्रयोजन पूर्ति मात्र रहती है। और जब यह यन्त्र बेकार कूड़ा-कबाड़ा हो जाता है तो सूक्ष्म देह इसे उसी प्रकार फेंक देता है जैसे फटा हुआ वस्त्र, अन्ततः यही कहना पड़ेगा जिसे हम अपना शरीर कहते हैं, जिसके लिए इतने मोहासक्त रहते हैं और कुछ नहीं, सूक्ष्मदेह की वासनाओं इच्छाओं को पूरा करने का माध्यम भर है।

मेटाफिजिक्स पैरासाइकोलॉजी आदि वैज्ञानिक आधारों का जितना विकास होता चलेगा विज्ञ जगत उसी अनुपात से आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करता चलेगा और पिछले दिनों हमें जिन अवस्थाओं में भटकना पड़ा है उनसे छुटकारा मिलता चलेगा।
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