मनुष्य चलता फिरता पेड़ नही है

जगत मात्र जड़ तत्वों का उपादान नहीं

Read Scan Version
<<   |   <  | |   >   |   >>
पिछली दशाब्दियों में विज्ञान वेत्ता समस्त जड़ चेतन जगत को पदार्थ विनिर्मित मानते रहे हैं और चेतना तो तत्वगत एवं रासायनिक सम्मिश्रण का परिणाम बताते रहे हैं। उनकी दृष्टि में आत्मा नाम की स्वतन्त्र सत्ता का कोई अस्तित्व नहीं। वृक्ष वनस्पतियों की तरह ही मनुष्य या पशु पक्षी कीट पतंग भी हैं। छोटे स्तर के अविकसित प्राणियों में तथा मनुष्यों में जो विचार शक्ति पाई जाती है वह उनसे मस्तिष्क अवयव में होने वाली एक विशेष प्रकार की हल-चल भर है। किन्तु यह मान्यता समय के साथ साथ धुंधली पड़ती चली आई है और अब इतने अधिक प्रमाण इकट्ठे हो गये हैं कि आत्मिक चेतना का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार किया जा सके।

‘अकस्मात्’ वादी नास्तिक वाद का कथन है कि यह संसार अकस्मात पैदा हुआ है और बिना किसी नियन्त्रण के स्वसंचालित रूप से समस्त गति-विधियां अनायास ही चल पड़ी हैं और चल रही हैं।

कहा जाता है कि जिस प्रकार सराय में पहुंचने पर अकस्मात ही कोई मित्र मिल जाता है और उसके मिलते ही नमस्कार, मुस्कान कुशल प्रश्न, उपहार आदान प्रदान का क्रम चल पड़ता है। ठीक इसी तरह इस संसार का आविर्भाव तथा क्रम निर्धारण स्वयमेव निरुद्देश्य चल पड़ा है।

किन्तु यह ‘अकस्मात’ वाद कहने में जितना सरल है उतना आसानी से सिद्ध नहीं किया जा सकता। सृष्टि का हर जीवाणु परमाणु एक सुव्यवस्थित क्रिया प्रक्रिया के अनुसार चल रहा है। इतना ही नहीं उसके पीछे भावी परिणामों की सूझबूझ भी है और परिस्थिति को देखते हुए अपनी गति विधियों में हेर फेर कर लेने की दूरदर्शिता भी है। इन तथ्यों पर विचार करने पर जड़ समझी जाने वाली प्रकृति में चेतना का बहुमुखी आधार विद्यमान सिद्ध होता है। स्पेन का दार्शनिक इब्न बाजा कहता था—जगत की रचना परिछिन्न गति युक्त पिण्ड परमाणुओं से हुई है। वे कण न तो निःचेष्ट हैं न मृतक। उनमें क्रिया भी विद्यमान है और चेतना भी। वह स्थिति अस्त-व्यस्त भी नहीं वरन् पूर्णतया क्रम बद्ध भी है। इस क्रम निर्धारण और नियामक सत्ता को कोई भी अपने समीपतम क्षेत्र में प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है। इस प्रमाण को प्रमाणित करने की किसे क्या आवश्यकता पड़ेगी?

शरीर से प्रथम आत्मा की अपनी स्वतंत्र सत्ता होने के सम्बन्ध में वैज्ञानिक क्षेत्रों में कितने ही अन्वेषण कार्य हुए हैं। इन्हीं प्रयोगों में एक प्रयास मनोविज्ञान अनुसन्धान समिति का है। उस संस्था ने अपने शोध-परिणाम ‘‘दी ह्यूमन पर्सनेलिटी एण्ड इट्स सरवाइवल आफ बॉडीली डेथ’’ नामक पुस्तक में प्रकाशित किये हैं। इस पुस्तक में कितने उदाहरण ऐसे प्रस्तुत किये हैं जिनमें शरीर से भिन्न आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होता है। कुछ उदाहरण विशेष घटनाओं के पश्चात् व्यक्तियों की जीवन भर की संचित स्मृति पूर्णतया नष्ट होकर एक अजनबी व्यक्तित्व उस शरीर में काम करने लगने के हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि शरीर पर आधिपत्य रखने वाली आत्मा को धकेल कर उस स्थान पर कोई दूसरी आत्मा कब्जा कर सकती है और जब तक चाहे वहां रह सकती हैं। इन घटनाओं में कुछ ऐसी भी हैं जिनमें आधिपत्य जमाने वाली आत्मा ने अपना कब्जा छोड़कर पुरानी आत्मा को उस शरीर में वापस लौट आने का अवसर दिया।

उपरोक्त पुस्तक में ऐसे छोटे बच्चों के उद्धरण भी दिये हैं जो गणित, संगीत, ज्यामिति, चित्रकला आदि में इतना पारंगत थे जितने उस विषय के प्राध्यापक भी नहीं होते। बिना शिक्षा व्यवस्था के पांच छह वर्ष जितनी छोटी आयु में ही इस प्रकार का असाधारण ज्ञान होना इसी एक आधार पर सम्भव होता है कि किसी आत्मा को अपने पूर्व जन्म की संचित ज्ञान सामग्री उपलब्ध हो पूर्व जन्म की सिद्धि आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

स्वीडन देश के स्टाकहोम नगर में एक भविष्य सूचना का विवरण डेजन्स नेहटर पत्र में कुछ समय पूर्व प्रकाशित हुआ था जो अक्षरशः सत्य सिद्ध हुआ बात यह थी कि हेन्स क्रेजर नामक एक व्यक्ति ने अपने कमरे में बैठे एक दिवास्वप्न देखा कि चौथी मंजिल पर एक अधेड़ व्यक्ति ने एक नव युवती की चाकू मार कर हत्या करदी। हेन्स को वह घटना इतनी सत्य प्रतीत हुई कि वह अपने को रोक न सका और सीधा पुलिस दफ्तर में रिपोर्ट करने पहुंचा। पुलिस के बताये गये कक्ष में पहुंची तो पाया कि वह कमरा मुद्दतों से बन्द था और उसमें थोड़ा-सा फर्नीचर मात्र ही रखा था। झूठी रिपोर्ट करने के अभियोग में हेन्स को पागल खाने भेजा गया। जांच पूरी भी न हो पाई थी कि एक सप्ताह के भीतर ही वह रिपोर्ट अक्षरशः सत्य हो गई। किसी व्यक्ति ने उस मकान को किराये पर लिया और साथ वाली औरत की चाकू से हत्या करदी। चीख पुकार के बीच हत्यारा पकड़ा गया। मृत युवती और आक्रमणकारी अधेड़ की हुलिया बिलकुल वैसी ही थी जैसा कि रिपोर्ट में उल्लेख किया गया था। इस घटना पर टिप्पणी करते हुए उपरोक्त अखबार ने टिप्पणी कि इस संसार में बहुत कुछ पूर्व व्यवस्थित क्रम से हो रहा है और उनकी जानकारी आत्मा की प्रखर चेतना समय से पूर्व भी जान सकती है। पेनसिलवेनिया विश्व विद्यालय (अमेरिका) के प्राचार्य लेम्बरटन एक वैज्ञानिक गुत्थी को सुलझाने में वर्षों से लगे थे। एक रात को उन्होंने स्वप्न देखा कि सामने की बड़ी दीवार पर उनके प्रश्न का उत्तर दमकदार अक्षरों में लिखा है। जागने पर उन्हें अत्यधिक आश्चर्य हुआ कि इतना सही उत्तर किस प्रकार उन्हें स्वप्न में प्राप्त हो गया। रायल सोसाइटी के अध्यक्ष सर आलिवर लाज तथा सर विलियम क्रुक्स सर आर्थर कानन डायल, डा. मेयर्स आदि वैज्ञानिक विद्वानों ने अपने अनुसन्धानों द्वारा निकले हुए ऐसे निष्कर्षों को सामयिक पत्र पत्रिकाओं में छपाया था जिनसे मृत्यु के उपरान्त पुनर्जन्म के प्रमाण मिलते हैं साथ ही यह भी सिद्ध होता है मरण और नवीन जन्म के बीच कतिपय मनुष्यों को सूक्ष्म शरीर धारण करके प्रेत रूप में भी रहना पड़ता है।

सर आलीवर लाज की मरणोत्तर जीवन पर प्रकाश डालने वाली केमण्ड मेन्थून, विज्ञान और मानव विकास तथा मैं आत्मा के अमरत्व में क्यों विश्वास करता हूं, नामक तीन पुस्तकों में विस्तृत प्रकाश डाला है। इसी प्रकार उच्च कोटि के कितने ही विज्ञान वेत्ताओं ने इसी प्रकार की पुष्टि की है ऐसे विद्वानों में एलफ्रेड सरल, वलेस सर विलयम क्रुक्स, सर एडवर्ड मार्शल के नाम अधिक प्रख्यात हैं।

मनोविज्ञान जे.डबल्यू. ड्रेवर ने अपनी पुस्तक ‘दी कनफ्लिक्ट विटवीन रिलीजन एण्ड साइन्स’ पुस्तक में प्राचीन यूनान की मान्यताओं का उल्लेख करते हुए लिखा है कि—‘‘रोम निवासियों की यह मान्यता रही है कि आत्मा का सूक्ष्म आकार स्थूल शरीर जैसा होता है और शरीर की स्थिति के साथ-साथ आत्मा की स्थिति में भी अन्तर आता है।’’ यह प्रतिपादन भारतीय अध्यात्म के साथ मेल नहीं खाता तो भी इतना तो स्पष्ट है कि शरीर से भिन्न आत्मा की सत्ता को न केवल भारतीय तत्वज्ञान ही माना है वरन् संसार के अन्य भागों में उस सिद्धान्त को मान्यता प्राप्त रही है।

भविष्य वाणियों के इतिहास पर दृष्टिपात करते हुए यह तथ्य स्पष्ट हो चला है कि किन्हीं व्यक्तियों में पूर्वाभास की क्षमता आश्चर्यजनक रूप से पाई जाती है। उनकी भविष्य वाणियां असंदिग्ध रूप से समय पर सत्य सिद्ध होती हैं। इसका कारण क्या है और इस शक्ति को प्राप्त कर सकना हर किसी के लिए संभव है या नहीं? है तो किस प्रकार आदि प्रश्नों के उत्तर आज उपलब्ध नहीं हैं फिर भी इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि संसार में असंदिग्ध भविष्य वाणियां कर सकने वाले लोग भी हुए हैं। यह तथ्य भी जड़ जगत में किसी अलौकिक सत्ता का अस्तित्व सिद्ध करने का कम महत्वपूर्ण आधार नहीं है।

महायुद्ध छिड़ने से पहले की बात है लन्दन के स्पेन दूतावास में एक भोज दिया जिसमें ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश मन्त्री लार्ड हैली फैक्स सम्मिलित थे। आमन्त्रित अतिथियों में भविष्य वक्ता डी. व्होल भी थे। वे संयोग से विदेश मन्त्री महोदय की बगल में ही बैठे थे। उन्होंने चुपके से भावी महायुद्ध और उसके सम्बन्ध में हिटलर की पूर्व योजनाओं की जानकारी बताने का अनुरोध किया। उसके उत्तर में व्होल ने कई ऐसी बातें बताई जो अप्रत्याशित थीं। हैली फैक्स ने वायदा किया कि यदि उनकी भविष्य वाणी सच निकली तो उन्हें सम्मानित सरकारी पद दिया जायगा। भविष्यवाणी सच निकली। तदनुसार उन्हें फौज में कैप्टिन का पद दिया।

हिटलर के सलाहकारों में पांच दिव्यदर्शी भी थे उनका नेतृत्व विलियम क्राफ्ट करते थे। उनकी सलाह को हिटलर बहुत महत्व देता था। इस मण्डली के एक सदस्य किसी समय व्होल भी रह चुके थे। हिटलर के ज्योतिषी उसे क्या सलाह दे रहे होंगे। उस जानकारी को वह इंग्लैण्ड के अधिकारियों को बता देता इन जानकारियों से ब्रिटेन बहुत लाभान्वित हुआ और उसने अपनी रणनीति में काफी हेर फेर किये। फौज के महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व कुछ फौजी अफसरों को सौंपे जाने थे। उनमें से किसका भविष्य उज्ज्वल है इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने एक आदमी से जनरल वरनार्ड माण्ट गोरी की ओर इशारा किया। उन्हें ही वह पद दिया गया और अन्ततः उन्होंने आश्चर्य जनक सफलता प्राप्त करके दिखाई। जापान के जहाजी बेड़े को बुरी तरह नष्ट करने की जो सफल योजना बनाई गई थी उसमें से भी व्होल से गम्भीर परामर्श किया गया था। महायुद्ध समाप्त होने तक ही उन्होंने ब्रिटिश सरकार को भविष्य वाणियों का लाभ दिया। पीछे उन्होंने वह कार्य पूरी तरह छोड़ दिया और अपने पुराने धार्मिक लेखन कार्य में लग गये। अपने का अज्ञान

ऐसी अनेक घटनाएं जिन्हें अप्रामाणिक नहीं कहा जा सकता और जिन्होंने प्रबुद्ध व्यक्तियों तथा वैज्ञानिकों के सम्मुख प्रश्नवाची चिन्ह लगाये हैं आये दिन घटती और विचारों का मंथन करने को विवश करती रहती हैं कि सचमुच मनुष्य केवल इतना ही नहीं है। जितना वह दृश्य है या उससे भी कुछ आगे है। मनुष्य कोई चलता फिरता पेड़ नहीं है। अपितु एक ऐसी महान सत्ता है जो अणु मात्र होकर भी विभु और सर्व शक्तिमान बन सकता है?

कुछ दिन पहले की ही घटना है कि जिसकी अभी तक कोई व्याख्या नहीं की जा सकी है। अमेरिका के अनेक प्रतिष्ठित समाचार पत्रों ने इस घटना को छापा था। यह खबर संसार के कई पत्रों ने भी प्रकाशित की थी कि हैनरोट बीसरूज नामक एक विधवा के शरीर में विश्व-विख्यात चित्रकार गोया की आत्मा ने एक अद्भुत कलाकृति का सृजन किया था। जबकि बीसरुस को कभी ठीक से तूलिका पकड़ना भी नहीं आया था। आश्चर्य की बात तो यह कि इस कलाकृति की नायिका तथा गोया की प्रख्यात कलाकृति ग्वालन में चित्रित नायिका में अद्भुत समानता थी जबकि वीसरुस ने उस कलाकृति को स्वप्न में भी नहीं देखा था।

परामनोविज्ञान के शोधकर्त्ताओं ने इस घटना का विवेचन करते हुए बताया कि यह कि यह काम मरने के बाद भी जीवित गोया के सूक्ष्म शरीर ने बीसरुस के माध्यम से कराया था। इस तरह की अनेकानेक घटनाओं का उल्लेख ‘जर्नीज आउट आफ द बाडी’ (शरीर के बाहर यात्रा) ‘द अदर वर्ल्ड’ (दूसरा संसार) तथा स्प्रिचुअल हीलिंन में मिलती है। मरने के बाद अथवा जीवित अवस्था में ही सूक्ष्म शरीर के माध्यम से दूसरों के शरीर में प्रवेश कर जाना योगी यतियों के लिए सामान्य-सी बात रही है। आद्य शंकराचार्य के सम्बन्ध में विख्यात है कि उन्होंने शास्त्रार्थ में विजय पाने के लिए राजा सुधन्वा की मृत-देह में प्रवेश किया था।

भारत में ही कुछ वर्षों पूर्व इस तरह की एक असाधारण घटना घटी जिसे राष्ट्रीय स्तर के कई समाचार पत्रों ने प्रकाशित किया।

उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरपुर जिले में एक गांव है रसूलपूर जाटान। सन् 1958 में उस गांव के एक लड़के जसवीर की चेचक से मृत्यु हो गयी। उस समय लड़के की आयु कोई चार वर्ष रही होगी। मृत्यु रात के समय हुई थी अतः घर के लोगों ने विचार किया कि उसकी अन्त्येष्टि अगले दिन की जाय। शव को एक कमरे में लिटाकर बाकी के सब लोग रात बीतने की प्रतीक्षा करते रहे।

कुछ लोग जसवीर के शव के पास भी बैठे थे। उन्होंने देखा कि जसवीर की देह में धीरे-धीरे हल-चल हो रही है। थोड़ी देर बाद जसवीर उठ बैठा। आस-पास बैठे लोगों को हर्ष मिश्रित आश्चर्य हुआ कुछ भयभीत भी हुए। परन्तु कुछ समझदार लोगों के समझाने-बुझाने पर सभी ने यह मान लिया कि जसवीर पुनर्जीवित हो गया है। पूरी तरह स्वस्थ हो जाने पर घर के लोगों ने जसवीर के व्यवहार में आश्चर्यजनक परिवर्तन देखा। वह प्रायः कहता—‘‘मैं ब्राह्मण हूं। तुम लोगों के हाथ का बना खाना नहीं खाऊंगा। मुझे मेरी पत्नी के पास ले चलो।’’

करीब सप्ताह भर तक घर के लोगों ने काफी उपचार किया। वे समझ रहे थे कि बीमारी के कारण जसबीर का दिमाग पगला गया है। परन्तु किसी प्रकार फायदा न होते और जसबीर द्वारा समझदार लोगों की तरह व्यवहार करते देख उसके कथानुसार पास के गांव में ले जाया गया, जहां कि उसने अपना घर बताया था।

तलाश करने पर पता चला कि उसी गांव में शोभाराम त्यागी नामक एक ब्राह्मण युवक की मृत्यु एक दुर्घटना में हो गयी थी। जसवीर अपने को वह शोभाराम ही बताता था। उसने शोभाराम की पत्नी, मां और भाई को पहचाना तथा उन्हें स्वयं की पत्नी, मां तथा भाई बताया। जसवीर अपने साथ आये लोगों को उस स्थान पर भी ले गया जहां दुर्घटना घटी थी। उस दुर्घटना में जो अन्य लोग और आहत हुए थे तथा जीवित बच गये थे, उन्होंने जसवीर के कथन की पुष्टि की।

मृत्यु के समय केवल शरीर ही नष्ट होता है। मनुष्य की इच्छायें, वासनायें, आकांक्षायें और भावनायें ज्यों की त्यों बनी रहती हैं और सूक्ष्म शरीर के साथ पुनः नये शरीर की तलाश करने लगती हैं।

यदि अपनी चेतना को नियन्त्रित किया जा सके तो जीते जी भी सूक्ष्म शरीर को स्थूल देह से अलग कर इच्छानुसार विचरण भ्रमण किया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने इस दिशा में भी सफल प्रयोग किये हैं और पाया है कि स्थूल शरीर के अतिरिक्त मनुष्य का एक और सूक्ष्म शरीर जिस भाव शरीर कहा जाता है—भी है और इसका प्रकाश मानवी काया के इर्द-गिर्द चमकता रहता है। परामनोवैज्ञानिकों ने सूक्ष्म शरीर को न केवल आंखों से देखने वरन् उनका चित्र लेने तक में सफलता प्राप्त कर ली है।

रूस से एक वैज्ञानिक दम्पत्ति इलेक्ट्रान विशेषज्ञ सेमयोन किलियान तथा उनकी पत्नी वेलैण्टीना ने मिल कर एक ऐसे कैमरे का निर्माण किया है जिससे कि मनुष्य और अन्यान्य जीव जन्तुओं के सूक्ष्म शरीर का चित्र खींचा जा सके।

इसका विचार वैज्ञानिक दम्पत्ति को कैसे आया, यह भी एक रोचक घटना है। डा. किलियान अपने एक शोध छात्र के साथ एक अनुसंधान केन्द्र में काम कर रहे थे। एक प्रयोग के दौरान उन्होंने देखा कि इलेक्ट्रोथेरेपी की हाई फ्रेक्वेंसी वाली मशीन तथा रोगी की त्वचा के बीच एक हल्का-सा प्रकाश चमक रहा है। उन्होंने इस प्रकाश का चित्र लेने के लिए मशीन के कोच के स्थान पर धातु का इलैक्ट्रोड लगा कर सीधे अपना हाथ रख दिया, फिर हाथ और इलैक्ट्रोड के बीच में फोटोप्लेट रख दिया। यन्त्र का बटन दबाते ही किलियान का हाथ जलने लगा था। डार्क रूप में ले जाकर फोटोप्लेट धोई गयी तो उस पर उंगलियों के नौंक के आकार की चमकती हुई छवि देख कर वैज्ञानिक दम्पत्ति चकित रह गये। इसी घटना से प्रेरित होकर डा. किलियान ने अपनी पत्नी बेलेण्टीनी के सहयोग से ऐसे कैमरे का आविष्कार किया जिससे सूक्ष्म शरीर का चित्र लिया जा सके। इस कैमरे से लिये गये चित्रों में मनुष्याकृति एक छाया के समान आती है जिसमें कई तारे चमकते दिखाई देते हैं। किलियान ने इस कैमरे के द्वारा वृक्ष की पत्तियों के भी चित्र लिए हैं और उनके चित्र भी मनुष्य अंगों की चमकीली छाया के समान आये हैं।

लिंगदेह—सूक्ष्म शरीर के सम्बन्ध में हुई सधुनातन खोजों के आधार पर अब यह भी प्रतिपादित किया गया है कि सूक्ष्म शरीर निद्रा अचेतन अवस्था या रुग्णावस्था में स्थूल शरीर से अलग होकर कहीं भी विचरण कर सकता है जो स्थूल शरीर के लिए सम्भव नहीं है।

अमेरिका के मनो चिकित्सक डा. एण्डरीना पुटार्रथ ने पअनी पुस्तक ‘बयॉण्ड टैलीपैथी’ में एक घटना का उल्लेख किया है—श्रीमती हायेस प्रातः लगभग साढ़े पांच बजे सोते से यकायक जाग उठी। उठने का कारण यह था कि उन्होंने एक भयंकर स्वप्न देखा था। स्वप्न में उन्होंने देखा था कि उनका पुत्र जॉन कार में घूमने जा रहा है, तभी एक दुर्घटना हो जाती है और उनके पुत्र का शरीर बुरी तरह घायल हो गया है। इसके पश्चात् उनको दिखाई दिया कि उनके पुत्र का शरीर कपड़े से ढका हुआ है और वह लेटा हुआ है उन्होंने फौरन उस होस्टल में फोन किया जहां जॉन पढ़ता था।

वहां के अधिकारियों को किसी प्रकार की दुर्घटना की जानकारी नहीं थी उन्हें तो यह भी नहीं मालुम था कि इस समय जॉन कहां है। केवल इतना ही बता सके कि जॉन इस समय होस्टल में नहीं है। बारह घण्टे बाद श्रीमती हायेथ को टेलीफोन द्वारा सूचना मिली कि एक कार दुर्घटना में जॉन घायल हो गया है। वह कल रात अपने मित्रों के साथ सैर करने गया था। जब वह एक पहाड़ी पर तेजी से कार को दौड़ा रहा था तो 75 फीट की ऊंचाई से उसकी कार एक गड्ढे में गिर गयी। सौभाग्य से कार इस प्रकार गिरी कि उसको बहुत अधिक चोट नहीं आई। जॉन के कथनानुसार उस समय लगभग साढ़े पांच बजे थे।

इस घटना के पीछे सूक्ष्म शरीर का प्रक्षेपण सिद्धान्त ही कारण रूप में प्रतिपादित किया गया है। मृत्यु के समय सूक्ष्म शरीर अपनी भौतिक काया का परित्याग कर उससे अलग हो जाता है क्योंकि वह काया मनुष्य की इच्छा, वासना, भावनाओं को पूरी करने में समर्थ नहीं रहतीं। मृत्यु के समय सूक्ष्म शरीर द्वारा देह त्याग की घटना को भी विज्ञान की कसौटी पर कसा जा चुका है।

मनुष्य ही नहीं जीव जन्तु भी

ऐसी बात नहीं है कि केवल मनुष्य ही सूक्ष्म शरीर का स्वामी है, अन्य और कोई प्राणी सूक्ष्म देह धारण करने में असमर्थ हो। बल्कि हर जीवित प्राणी यहां तक कि पेड़-पौधों के भी सूक्ष्म शरीर होते हैं। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक श्रीमती एलीन गैरटा ने अपनी पुस्तक ‘अर्बचरनस’ में लिखा है—‘‘गौर से सूक्ष्म यन्त्रों द्वारा देखा है जिसे प्रभा मण्डल कहते हैं। यह कुहासा कई स्तरों का होता है किन्हीं व्यक्तियों में बहुत हल्का होता है तो किन्हीं में दीप्तिमत। इसकी दीप्ति मनुष्य की मनःस्थिति के अनुसार घटती बढ़ती रहती है।

जीव-जन्तुओं की अतींद्रिय चेतना

वह कारण जो कि हमें इस तरह की बात सोचने को विवश करते हैं वह हैं जीव-जन्तुओं का पूर्वाभास और उनमें विलक्षण मानवीय गुणों का उभार। सन् 1965 की बात है, छिन्दवाड़ा मध्य प्रदेश के जिला प्रकाशन अधिकारी श्री दयाकृष्ण विजय वर्गीय प्लेटो क्लब में थे तब उन्होंने कुछ कौवों को एक विशेष ध्वनि करते हुए गोलाकार उड़ते देखा। कौवे क्लब के पास सरकारी बंगले के ऊपर मंडरा रहे थे। कौओं का इस प्रकार उड़ना मृत्यु सूचक माना जाता है। श्री विजय वर्गीय जी ने इस घटना को ‘धर्म युग’ में छपाते हुए लिखा है—कौओं की इस तरह की उड़ान से मेरे मन में भय उत्पन्न हुआ। कुछ ही दिनों पश्चात् उस सरकारी बंगले में रहने वाले डिप्टी कलेक्टर श्री सावन्त की पत्नी का देहान्त हो गया। इस घटना के दो माह बाद मैंने कौवों को फिर उसी प्रकार अपने मकान के पास उड़ते देखा। इससे फिर मुझे भय उत्पन्न हुआ। इस घटना के दो-तीन दिन पीछे ही पड़ोस में रहने वाले आयकर कार्यालय के चौकीदार की मृत्यु हो गई। यह घटनायें मुझे यह सोचने के लिए विवश करती हैं कि क्या सचमुच कौवों को मनुष्य की मृत्यु का पूर्वाभास हो जाता है यदि हां तो क्यों?’’

भारतीय शास्त्रकार आत्मा को आकाश से भी सूक्ष्म तत्व मानते हैं। तत्व की समीक्षा हो सकती है सम्भवतः इसी कारण वैशेशिक दर्शन में आत्मा को द्रव्य माना गया है। द्रव्य में होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों को देखा जाना, अनुभव किया जाना आत्मा के वश की ही बात हो सकती है इस दृष्टि से कौवे भी ठीक वैसी ही आत्मा है जैसी मनुष्य। उन्हें कौवा मानकर घृणा करना आत्म चेतना का ही अपमान और एक आश्चर्यजनक सत्य से आंखें मूंद लेना है इससे मनुष्य जाति का अहित होता है वह जीवनगत संकीर्णता के कारण विश्वव्यापी आत्मचेतना की अनुभूति नहीं कर पाता।

अमरीका के पश्चिमी द्वीप समूह की राजधानी के पास एक ज्वालामुखी पर्वत है नाम है मौंट पीरी। सन् 1904 की घटना है इस पर्वतीय क्षेत्र के जीव-जन्तु बहुत घबराये हुए से थे। कुत्ते दिन भर भूंकते रात में सियार चिल्लाते। कुछ दिन पीछे तो कुत्ते, सियार, अजगर ही नहीं अन्य पशु-पक्षी भी उस क्षेत्र को छोड़कर चले गये सारा क्षेत्र वीरान नजर आने लगा। उस क्षेत्र के निवासी हैरान थे आखिर इन जीव-जन्तुओं को हो क्या गया है जो इस तरह पलायन कर रहे हैं और एक रात ज्वालामुखी फूट पड़ा अपनी भयंकर ध्वनि और गति के साथ। लगातार कई दिन तक अग्नि वर्षा होती रही और उसने करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति के साथ लगभग 30 हजार मनुष्यों को भूनकर रख दिया। जबलपुर में हुए साम्प्रदायिक दंगे के समय भी कुत्तों ने ऐसी ही चेतावनी हूक-हूक कर दी थी जिसे वहां के लोग अब तक भी याद करते हैं।

मनुष्य बड़ा बुद्धिमान जीव है फिर भी वह नहीं समझ पाता क्योंकि उसने अपने जीवन से प्रकृति को हटाकर कृत्रिमता को प्रवेश दे दिया है, उसने बैरोमीटर बनाये, गुब्बारे उड़ाये, टेलस्टार उड़ाये तो भी भविष्य में होने वाली घटनाओं का व्यक्तिशः इतना अच्छा पूर्वाभास नहीं कर पाता जितना कि साधारण और तुच्छ समझे जाने वाले सियार कुत्तों ने कीट-पतिंगों ने जान लिया। आत्मा कर्मवश वासना और पापवश इन क्षुद्र योनियों में जाती है तो क्या हुआ वह अपना द्रव्य-गुण थोड़े ही त्याग सकती है उसकी अपनी विशेषतायें मनुष्य जीवन में न सही—जीव-जन्तुओं में ही सही प्रकट हुए बिना रहती नहीं, मनुष्य के लिये तो यह अलभ्य अवसर होता है कि वह सर्वांगपूर्ण शरीर यन्त्र का उपयोग आत्म-विकास में करे पर उसने तो अपना जीवन इतना भौतिक और बाह्यमुखी बना लिया है कि अन्तःकरण की बात जो उसका यथार्थ सत्य है जीवन है उसकी बात कभी सोच ही नहीं पाता।

पशु-पक्षियों के विलक्षण स्वभाव प्राकृतिक प्रेरणायें हो सकती हैं उन उनको पूर्वाभास का, बौद्धिक क्षमता का अस्तित्व प्राकृतिक प्रेरणा न होकर आत्मा के गुणों का ही प्रकटीकरण हो सकता है। उस आत्मा को ही जानने के लिये शास्त्रकार जोर देते हैं वही सर्वव्यापी सर्वज्ञ है उसी को पाने में पूर्णता है। प्रो. कर्वी, डा. वेलियन्ट तथा डा. डी. स्वैस आदि वैज्ञानिकों ने ऐसे अनेक विलक्षण प्रमाण और जानकारियां इकट्ठी की हैं, जो जीव-जन्तुओं की असाधारण क्षमताओं का प्रतिपादन करती हैं। इन्होंने भी स्वीकार किया है कि जीव-जन्तुओं में मनुष्य के समान ही कोई आश्चर्यजनक सत्य है जिसे हम नहीं जानते। उन्होंने पशु-पक्षियों के पूर्वाभास की अनेक घटनायें दी हैं और उन्हें ग्रह-उपग्रहों की यात्रा में महत्वपूर्ण योगदान का माध्यम माना है।

वैदिक, पौराणिक और लोक साहित्य में जीव-जन्तुओं की विलक्षणताओं के वर्णन से एक ओर आत्मा की सर्वव्यापकता का प्रतिपादन मिलता है तो दूसरी ओर उनकी इन असाधारण क्षमताओं का उपयोग भी हुआ है। पक्षियों की प्रज्ञा के उपयोग के प्रमाण—

खाटा मोर महातुरो, खाटी होय जु छाछ । मेहमदी पर परन को जाने काछै काछ ।।

अर्थात् मोर आतुरतापूर्वक बोलता है तब शीघ्र वर्षा आती है।

ढोकी बोले जाय अकास । अब नाहीं बरखा कै आस ।।

अर्थात् ढोकी बोलकर आकाश में उड़ जावे तो मानना चाहिए कि अब वर्षा नहीं होगी। प्राचीनकाल में किसान, वणिक इन जानकारियों से बड़ा लाभ लिया करते थे। तब पशु-पक्षियों से प्रेम मनुष्य जाति के समान ही किया जाता था फिर यदि जटायु ने अपनी कृतज्ञता जान देकर दर्शायी हो तो आश्चर्य क्या?

वसन्तराज शाकुनं, घाघ और भड्डरी की कहावतों में पशु-पक्षियों की विलक्षण योग्यताओं और पूर्वाभास का वर्णन मिलता है। प्रस्थान काल में गाय बछड़े को दूध पिलाती देखकर, नेवले का रास्ता काटना शुभ माना गया है। सारस का दाहिने बोलना, शुक का बायें बोलना शुभ लक्षण है। किसी की मृत्यु की सूचना गिद्ध दाहिने बोलकर देता है। रात में घर उल्लू का बोलना मृत्यु का या चोरी आदि अनिष्ट का सूचक होता है। कौवा घर की मुंडेर पर बैठता है तो स्त्रियां उसकी ध्वनि पहचानने का प्रयत्न करती हैं ‘‘बसन्तराज शाकुनं’’ में बताया है कि यदि कौवा कर-कर बोलता है तो गृह-कलह, शरीर फुलाकर कंपाकर कर्कश शब्द करता है तो किसी की मृत्यु का ‘‘कुलकुल’’ ध्वनि अतिथि के आने की सूचना तथा ‘‘कूं कूं’’ धन लाभ की सूचक होती हैं। विस्मय ध्वनियों का नहीं वरन् इस बात का है कि जिस बात को मनुष्य जैसा बुद्धिशील प्राणी नहीं जान पाता उसे यह पक्षी कैसे जान लेते हैं। भविष्य का ज्ञान रखने वाले इन जीव-जन्तुओं को तब क्या तुच्छ मानना शोभा है। क्या उनसे आत्मा की सर्वव्यापकता का शिक्षण और ज्ञान नहीं प्राप्त किया जा सकता।

पशु-पक्षियों की अतींद्रिय शक्ति

सन् 1904 में अमरीका के पश्चिमी द्वीप समूह का 5000 फुट ऊंचा माउन्ट पीरो नामक पर्वत ज्वाला मुखी बनकर फूटा था और उसके टुकड़े-टुकड़े उड़ गये थे। कोई तीस हजार व्यक्ति मरे थे और करोड़ों की सम्पत्ति नष्ट हुई थी।

इस दुर्घटना की आशंका मनुष्यों में से किसी को न थी किन्तु वहां के पशु पक्षी महीनों पहले घबराते हुए लगते थे। रात को एक स्वर में रोते थे और धीरे-धीरे अन्यत्र खिसकते जाते थे। विस्फोट के मुख्य केन्द्र से सर्प, कुत्ते, सियार कहीं अन्यत्र चले गये थे और उनके दर्शन दुर्लभ बन गये थे। पक्षियों ने तो वह पूरा ही द्वीप खाली कर दिया था। प्राणिविद्या विशारद विलियम जे. लांग ने पशुओं की इन्द्रियातीत शक्ति के बारे में अपनी पुस्तकें ‘हाड एनिमल्स टाक’ में विस्तृत प्रकाश डालते हुए बताया है कि भले ही बुद्धि-कौशल में मनुष्य की तुलना में पशु पिछड़े हुए हों पर उनमें इन्द्रियातीत कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी होती हैं, उसी के आधार पर वे अपनी जीवन चर्या का सुविधा पूर्वक संचालन करते हैं। कुत्ते और भेड़ियों की नाक मीलों दूर की गन्ध लेती है। हिरन के कान कोसों दूर की आहट लेते हैं। आकाश में मीलों ऊंचे उड़ते हुए चील और गिद्ध धरती पर पड़े मांस को देख लेते हैं। देखने, सुनने और सूंघने की यह क्रिया मात्र दृश्य, ध्वनि या गन्ध का ही अनुभव नहीं करती वरन् उन्हें ऐसी महत्वपूर्ण जानकारियां भी देती हैं, जिसके आधार पर वे आत्म-रक्षा से लेकर सुविधा सामग्री प्राप्त करने में सरलता पूर्वक सफल हो सकें।

लोग महोदय न अपनी पुस्तक में ऐसे अनेकों प्रसंग भी लिखे हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि जीव-जन्तुओं को, निकट भविष्य में घटित होने वाले घटनाक्रम का भी सही पूर्वाभास मिल जाता है। यदि उनकी वाणी होती तो वे कहीं अधिक सही भविष्य कथन कर सकते।

पुस्तक के कुछ संस्मरण इस प्रकार हैं—एक मैदान में हिरनों का झुण्ड ऐसी अस्वाभाविक तेजी से घास चर रहा था मानों उन्हें कहीं जाने की आतुरता हो। उस समय कुछ कारण समझ में नहीं आ रहा था पर कुछ घण्टे बाद ही बर्फानी तूफान आ गया और कई दिन तक घास मिलने की संभावना नहीं रही। स्थिति का पूर्वाभास प्राप्त करके हिरन अत्यन्त तीव्रता से इतनी घास चरने में लगे थे कि कई दिन तक उनसे गुजारा हो सके।

जब बर्फ पड़ने को होती है तब रीछ अपनी गुफा में चले जाते हैं और उसमें पहले कई दिन का आहार जमा कर लेते हैं।

उत्तरी कनाडा में झील की मछलियां बर्फ की मोटी सतह झील पर जमने से पहले ही गर्म जगह में पलायन कर जाती हैं।

बियना में एक कुत्ता माल उठाने उतारने की क्रेन के समीप ही पड़ा सुस्ता रहा था। अचानक वह चौंका उछला और बहुत दूर जाकर बैठा। इसके कुछ देर बाद क्रेन की रस्सी टूटी और भारी लौह खण्ड उसी स्थान पर गिरा जहां कुत्ता बैठा था। कुत्ते के चौंककर भागने का कारण उसका पूर्वाभास ही था।

मनुष्य ने अपनी सुरक्षा के लिए जिस प्रकार अनेक ऐसे यन्त्रों का निर्माण किया है, जिससे वह वर्षा, भूकम्प युद्ध आदि की पूर्व जानकारी प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार प्रकृति ने प्राणियों की रक्षा के लिए भी उन्हें अद्भुत ज्ञान और चेतना दी है। चमगादड़ में इस तरह के ज्ञान की विचित्र क्षमता पाई जाती है। एक बार स्पेलनजानी नामक एक इटेलियन ने चमगादड़ की उड़ान का परीक्षण किया। उसने एक कमरे की छत से बहुत से धागे लटकाये और उनमें घंटियां बांध दी कि जिससे धागों से टकराने पर वे घंटियां बजे। उसके बाद उसमें एक चमगादड़ को दौड़ाया। चमगादड़ बड़ी देर तक बन्द कमरे में दौड़ता रहा पर एक भी घन्टी न बजी। चमगादड़ की दृष्टि बहुत कमजोर होती है, उसने किस तरह अपने आपको उन धागों से बचाया यह बड़ा आश्चर्य है। कहते हैं, चमगादड़ प्रति सेकिण्ड 30 बार ध्वनि तरंगें भेजता है और जितने समय में उसे उनकी प्रतिध्वनि आती है, वह सामने वाली बाधाओं का पता लगा लेता है और उनसे बचकर निकल जाता है।

यह चमत्कार वस्तुतः जीवों के नहीं आत्म-चेतना के चमत्कार हैं। जीवात्मा की गतिविधियां विस्तीर्ण न होकर किसी एक दिशा में संकीर्ण होती रहती हैं और वह उस प्रकार की योनि में चला जाता है। हमारे धर्म-शास्त्रों में चौरासी लाख योनियां हैं और प्राणी उन चौरासी लाख योनियों में भटक चुकने के बाद मनुष्य शरीर में आता है। इस तरह उसमें उन जीवों की विशेषतायें भी सकती हैं, संस्कार भी। कुछ विशेषतायें मन्द होती हैं, कुछ तीव्र, कुछ संस्कार दबे रहते है कुछ प्रखर होते हैं। जो मनुष्य अपनी बुद्धि-विवेक से बुरे संस्कारों का काट डालता है, उसमें मनुष्येत्तर प्राणियों की तरह अनेक प्राकृतिक चमत्कारों, शक्तियों, योग्यताओं और सामर्थ्यों का विकास होने लगता है।

यदि भौतिक विज्ञान जीवधारी की जड़ प्रकृति को ही एक स्थूल उत्पादन मानता रहेगा तो उसे अतीन्द्रिय चेतना का कभी कोई आधार एवं कारण न मिलेगा। जब प्राणी एक चलता फिरता वृक्ष ही ठहरा तो उसकी शारीरिक एवं मानसिक हलचलें भी शरीर ज्ञान से बाहर कैसे जा सकती हैं। पर वे जाती हैं। ऐसी दशा में भौतिक विज्ञान को—प्राणी की जड़ जगत की ही एक हलचल मानने तक सीमित नहीं रहना होगा वरन् आत्मा की अलौकिक सत्ता को स्वीकार करना होगा। अतीन्द्रिय चेतना का समाधान तभी मिल सकता है।

जार्जिया (रूस) निवासियों में काकेशियाई कुत्ते त्साब्ला की कथा घर-घर प्रचलित है। वह इतना स्वामि भक्त और कर्त्तव्य परायण था कि उसकी तुलना करके लोग अपने कर्मचारियों का उद्बोधन करते रहते थे। तिव्लिसी क्षेत्र में यह कुत्ता अपने मालिक के जानवरों को प्रायः अकेला ही ले जाया करता था। जानवरों को कहां चरना है, कहां बैठना है, कहां पानी पाना है, कब लौटना है यह सब बातें उसके ध्यान में थीं। कोई जानवर झुण्ड से बाहर निकल कर इधर-उधर खिसक न जाय इसका वह पूरा ध्यान रखता था और भेड़िये, तेन्दुए जो उस क्षेत्र में भेड़ बकरियों की घात लगाते रहते थे उनसे जूझने के लिए सदा मुस्तैद रहता था। उसने ऐसी कई लड़ाइयां जीती भी थीं। घायल होकर भी उसने अनेक शिकारियों को भगाया और अपने झुण्ड के किसी जानवर का बाल बांका न होने दिया। मालिक के छोटे लड़के सान्द्री से वह इतना हिला-मिला था कि दोनों पास-पास बैठकर खाते और फुरसत के समय भरपूर खेलते।

इस कुत्ते की एक दूर के पशु फार्म पर जरूरत पड़ी। मालिक ने उसे देना मंजूर कर लिया। त्साब्ला की आंखें बन्द करके ट्रक में पटक कर उसे सैकड़ों मील दूर उस नये फार्म में ले जाया गया। वहां उसे बांधकर रखा गया। कुत्ते का बुरा हाल था न उसने कुछ खाया न पिया, रोता रहा। एक दिन उसका दाव लग गया तो रस्सी तुड़ा कर भाग निकला। आंखें बन्द करके ट्रक में डालकर लाया गया था फिर भी उसने अन्तः प्रेरणा के आधार पर दौड़ लगाई और नदी नाले पार करता हुआ भूखा, प्यासा, रास्ते के शत्रुओं से जूझता, क्षत-विक्षत शरीर लेकर अपने पुराने स्थान पर लौट आया और अपने प्यारे साथी सान्दो से लिपट लिपट कर रोया।

इस घटना को लेकर जार्जिया विज्ञान एकेडेमी के शरीर शास्त्री आई.एस. वेकेताश्विली ने शोध कार्य आरंभ किया कि क्या पशुओं में अतिरिक्त अतीन्द्रिय चेतना होती है? और क्यों वे उसके आधार पर बिना इन्द्रियों का प्रत्यक्ष सहारा लिये वह काम कर सकते हैं जो आंख कान आदि से ही सम्भव है।

उन्होंने यह परीक्षण कई जानवरों पर किये कि क्या उनमें इतनी अतीन्द्रिय चेतना होती है जिसके सहारे वे प्रधान ज्ञानेन्द्रिय आंख का काम कर सके। इसके लिए उन्होंने एक बिल्ली पाली। नाम रखा—ल्योवा। उसकी आंखों पर ऐसी पट्टी बांधी गई जिससे वह कुछ भी देख न सके। उस साधारणतया बांधकर रखा जाता, पर जब खाने का वक्त होता तो उसे खोला जाता। और खाने की तश्तरी कमरे के एक कौने पर दूर रखदी जाती। शुरू में तो उसे अपना भोजन तलाश करने में कठिनाई हुई पर पीछे वह इतनी अभ्यस्त हो गयी कि कमरे के किसी भी स्थान पर खाना रखा जाय वह वहीं पहुंच जाती।

नाक की गन्ध से सूंघ कर उसके आधार पर वह ऐसा कर सकती है यह बात वैज्ञानिक जानते थे इसलिये उन्होंने इसके साथ ही अतीन्द्रिय ज्ञान की एक कठिन परीक्षा यह रखी कि तस्तरी में ही पत्थर के टुकड़े भी रख दिये जाते। गन्ध तो सारे प्लेट में से उठती थी इसलिये उसमें रखी हुई चीज को वह मुंह में डाल सकती थी पर देखा गया कि बहुत ही निश्चित रीति से उसने अपना खाना ही खाया और पत्थर के टुकड़ों को चाटा तक नहीं। इसी प्रकार कुछ दिन में वह रास्ते में रखी हुई कुर्सी, सन्दूक आदि को बचाकर इस तरह अपना रास्ता निकालने लगी जिससे किसी चीज के गिरने की दुर्घटना भी न हो और चलना भी कम पड़े।

इसी प्रयोग के लिये एक छोटा काला कुत्ता पाला गया। लाम रखा—जिल्डा। इसकी आंखों पर भी पट्टी बांध दी गई प्रयोगशाला में क्या चीज कहां रहती है इसका उसे पता तक न था। वह कुछ दिन में ही सब कुछ भांप गया और बिना किसी से टकराये बुलाई हुई आवाज पर पहुंचने लगा।

वेरेताश्विली ने अपने परीक्षणों की श्रृंखला में मनुष्यों को भी जोड़ा है। उनने एक ऐसे जन्मांध छोटे लड़के की कथा लिखी है जो उन्हें एक व्यक्ति के पास तक रास्ता दिखाता हुआ—टेड़ी-मेड़ी गलियां पार करते हुए ईंट पत्थरों और गड्ढों को बचाता हुआ उछलता कूदता आगे आगे गया था।

इन परीक्षणों से उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि अतीन्द्रिय चेतना, हर प्राणी में विद्यमान रहती है। किसी में न्यून किसी में अधिक कुछ जन्म जात रूप से उसकी पर्याप्त मात्रा साथ लेकर आते हैं और कुछ प्रयत्न करके उसे जगा या बढ़ा सकते हैं। उनने अपने निष्कर्षों में यह भी कहा है कि अन्धों में यह अतीन्द्रिय ज्ञान का एक स्तर लिविरिंथ रेसेप्टर अपेक्षाकृत अधिक विकसित हो जाता है। यदि प्रयत्न किया जाय तो उनकी यह क्षमता अधिक विकसित हो सकती है और वे नेत्रों वाले मनुष्यों से भी अधिक उपयोगी जीवन जी सकते हैं।

प्राणियों में एक बड़ी विशेषता यह है कि वे परिस्थितियों के अनुरूप अपने को ढाल लेते हैं। प्रकृति के उतार चढ़ाव और परिस्थितियों के प्रवाह विकट तो जरूर होते हैं पर इतने नहीं कि मनुष्य की जिजीविषा को चुनौती दे सकें। प्राणी के शारीरिक एवं मानसिक क्षमता ढलती बदलती रहती है और यदि उसे विषम परिस्थितियों में रहना पड़े तो अपने में तदनुकूल सहनशीलता एवं परिवर्तन उत्पन्न कर लेती है। इसी प्रकार जिनके समीप रहना पड़ता है उनका प्रभाव ग्रहण करके प्राणी उसी रंग रूप और आकृति प्रकृति में भी ऐसा हेर-फेर कर लेता है जिससे वातावरण के साथ उसके सदृश ही प्रतीत होने लगे। समीपता का प्रभाव मानसिक ही नहीं, शारीरिक भी होता है। इसे प्रकारान्तर से अतीन्द्रिय चेतना ही कहना चाहिये। सर्दी में गल जाना, गर्मी में जल जाना ही सम्भव हो सकता है फिर शरीर अपने ढांचे और क्रम की ही परिस्थिति के अनुरूप ढलने और बदलने लगे तो इसे अतीन्द्रिय चेतना के अतिरिक्त और क्या कहा जायगा?

उत्तरी ध्रुवों पर सफेद भालू होता है वह बर्फ में इस प्रकार बैठा रहता है कि दूसरे को कुछ पता ही नहीं चलता कि वह भालू है या बर्फ की कोई चट्टान। वृक्षों की झाड़ियों में रहने वाले तेंदुए जिराफ हिरण, सर्प आदि के शरीरों पर ऐसे निशान बन जाते हैं कि उन्हें देखने पर वे भी वृक्षों की कोई शाखा जैसे ही दीखते हैं।

तितलियों की छटा भारतवासी दार्जलिंग में देख सकते हैं। जैसे रंग के फूल वैसे ही रंग की तितलियां। अलग से देखा जाय तो मात्र फूल भर मालूम पड़ता है उस पर कोई बैठा होगा उसका तनिक भी आभास नहीं होता पर जब उन फूलों के पास जाया जाय तो उन्हीं जैसे रंग की तितलियां उड़ने लगती हैं। इस प्रकार रंग-बिरंगे फूलों के साथ उन्हीं रंगों की तितलियां एक अपूर्व छटा दिखाती हैं। कई तितलियां तो पत्तों के रंग की ही नहीं उनके आकार की भी होती हैं- जब पतझड़ में पत्तों का रंग पीला पड़ता है तो वे भी अपना हरा चोला पीला कर लेती हैं।

बांस के पेड़ पर लटका रहने वाला सांप, बिलकुल बांस की टहनी जैसा लगता है उस पर गांठों जैसे निशान तक होते हैं।

जिन जीवों को शत्रुओं से खतरा होता है और आत्मरक्षा की अतिरिक्त आवश्यकता अनुभव करते हैं उनकी आकृति और प्रकृति में ऐसा विकास हो जाता है जिसमें वे आत्म-रक्षा सरलतापूर्वक कर सकें।

समुद्री घोड़ा अपने शरीर को घास पात से ढके रहता है ताकि खूंखार जल-जन्तु उसे पेड़ भर समझें और हमला न करें। कुछ घोंघे ऐसे भी होते हैं कि जब मछलियों के आक्रमण के शिकार होते हैं तो एक काला सा द्रव्य मुंह से उगल देते हैं, उस कालिमा की धुंध में मछलियां उन्हें ठीक तरह देख नहीं पातीं इतने में वे उनकी पकड़ से बाहर खिसक जाते हैं। नेडागास्कर में एक ऐसी छिपकली होती है जिसमें तेज दौड़ने की क्षमता नहीं होती। उसे मांसाहारी पक्षी आसानी से पकड़ सकते हैं। आत्म रक्षा के लिये उसमें एक अद्भुत विशेषता यह उत्पन्न हुई है कि पूंछ की जड़ बहुत कमजोर होती है। जब वह मुसीबत में फंसती है तो झिटक कर अपनी पूंछ तोड़ डालती है और वह टुकड़ा कटने के बाद फड़फड़ाने लगता है। आक्रमणकारी उसे ही शिकार समझ कर खाने लगता है और चुपचाप चिपकी हुई छिपकली इसी प्रकार अपने प्राण बचा लेती है। फलों में और शाक भाजियों में पड़े हुए कीड़े प्रायः उन्हीं के रंग के होते हैं। पक्षियों के अण्डों को खा जाने के घात में कितने ही जन्तु फिरते रहते हैं। इसलिए पक्षी इस तरह की टहनियों में या घास पात में उन्हें छिपाकर सेते हैं जहां वे घातकर्ताओं की दृष्ट से अपने अण्डों का बचाव कर सकें।

हमें यह मानकर चलना होगा कि प्राणी जड़ जगत का घास पता जैसा उत्पादन नहीं है और न चलता फिरता वृक्ष है—जैसा कि विज्ञान द्वारा माना जाता रहा है। जीवधारी की चेतना में आत्मा का प्रकाश है ओर उस प्रकाश में वह सामर्थ्य विद्यमान है इन्द्रिय सामर्थ्य की परिधि से आगे की बात सोच सके और ऐसे कदम उठा सके उसे जड़ पदार्थों के लिये उठा सकना सम्भव नहीं हो सकता।
<<   |   <  | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118