मनुष्य चलता फिरता पेड़ नही है

स्थूल से प्यार—सूक्ष्म का तिरष्कार क्यों?

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शरीर केवल वह एक ही नहीं है जिसे हम धारण किये हुए हैं और जो दीखता अनुभव होता है, उसके भीतर दो और शरीर हैं जिन्हें सूक्ष्म और कारण शरीर कहते हैं। इनमें सूक्ष्म शरीर अधिक सक्रिय और प्रभावशाली है। मरण के उपरान्त उसी का अस्तित्व रह जाता है और उसी के सहारे नया जन्म होने तक की समस्त गतिविधियां चलती रहती हैं। मरने के उपरान्त इन्द्रियां, मन, संस्कार तथा पाप पुण्य साथ जाते हैं। मरण से पूर्व वाले जन्म का स्मरण भी इसी शरीर में बना रहता है इसलिए अपनी परिवार वालों को पहचानता और याद भी करता है। अगले जन्म में इस पिछले जन्म के संस्कारों को ढोकर जाने में भी सूक्ष्म शरीर ही काम करता है। वस्तुतः मरण के पश्चात् एक विश्राम जैसी स्थिति आती है उसमें लम्बे जीवन में जो दिन रात काम करना पड़ता है उसकी थकान दूर होती है। जैसे रात को सो लेने के पश्चात सवेरे ताजगी आती है उसी तरह नये जन्म के लिए इस मध्य काल के विश्राम से फिर कार्य क्षमता प्राप्त हो जाती है। जिनका मृत्यु के उपरान्त तुरन्त पुनर्जन्म हो जाता है उन्हें पूरा विश्राम न मिल पाने से थकान बनी रहती है और शरीर तथा मन में अस्वस्थता देखी जाती है।

सूक्ष्म शरीर इस जन्म में भी स्थूल शरीर के साथ ही सक्रिय रहता है। रात्रि को सो जाने के उपरान्त जो स्वप्न दीखते हैं वह अनुभूतियां सूक्ष्म शरीर की ही हैं। दिव्य दृष्टि, दूरश्रवण, दूरदर्शन, विचार संचालन, भविष्य ज्ञान, देव दर्शन आदि उपलब्धियां भी सूक्ष्म शरीर के माध्यम से ही होती हैं। प्रत्याहार, धारण ध्यान और समाधि की उच्च स्तरीय योग साधना द्वारा इसी शरीर को समर्थ बनाया जाता है। ऋद्धियों और सिद्धियों का स्रोत इस सूक्ष्म शरीर को माना जाता है।

भारतीय योग शास्त्रों में सूक्ष्म शरीर को भी स्थूल शरीर की तरह ही प्रत्यक्ष और प्रमाणित माना गया है और उसका स्वरूप तथा कार्य क्षेत्र विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। वह दुर्बल कैसे हो जाता है और उसे सशक्त कैसे बनाया जा सकता है इसका विस्तृत विवेचन किया गया है सूक्ष्म शरीर में विकार उत्पन्न हो जाने से स्थूल शरीर भी अस्वस्थ और खिन्न रहने लगता है। इसलिये समग्र समर्थता के लिये स्थूल शरीर की ही तरह सूक्ष्म शरीर का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।

यदि आत्मा को अमर माना जाय, मरणोत्तर जीवन को मान्यता दी जाय तो सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व भी मानना पड़ेगा। स्थूल शरीर तो मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है। नया शरीर तुरन्त ही नहीं मिलता, उसमें देर लग जाती है। इस मरण और जन्म के बीच की अवधि में प्राणी को सूक्ष्म शरीर का सहारा लेकर ही रहना पड़ता है। शरीर धारण कर लेने के बाद भी उसके अन्तर्गत सूक्ष्म शरीर और कारण शरीरों का अस्तित्व बना रहता है। अतीन्द्रिय ज्ञान उन्हीं के द्वारा होता है और उपासना साधना द्वारा इन्हीं दो अप्रत्यक्ष शरीरों को परिपुष्ट बनाया जाता है। यह अन्तर शरीर यदि बलवान हो तो बाह्य शरीर में तेज, शौर्य, प्रकाश, बल और ज्ञान की आभा सहज ही प्रस्फुटित दीखती है। उत्साह और उल्लास भी सूक्ष्म शरीर की निरोगता का ही परिणाम है।

स्वर्ग और नरक का जैसा कि वर्णन है उसका उपभोग सूक्ष्म शरीर द्वारा ही सम्भव है। पिछले जन्म के ज्ञान, संस्कार, गुण, रुचि आदि का अगले जन्म में उपलब्ध होने का आधार भी यह सूक्ष्म शरीर है। भूत प्रेतों का अस्तित्व इसी परोक्ष शरीर पर निर्भर है और दिव्य अनुभूतियां, योग की सिद्धियां, स्वप्नों पर परिलक्षित सच्चाइयां आदि प्रक्रियाएं सूक्ष्म शरीर से ही सम्भव हो सकती हैं। यदि स्थूल शरीर मात्र का अस्तित्व माना जाय तो फिर नास्तिकों का वही मत प्रतिपादित होगा जिसमें कहा गया है कि—मृत्यु के बाद फिर आना कहां होगा, जब तक जीना है सुख से जियो और ऋण लेकर मद्य पियो।

इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि महर्षि हर्ष के शिष्य व्याडी ने एक बार मगध के सम्राट मह पद्मनन्द ने मृत शरीर में परकाया प्रवेश किया था। पद्मनन्द के मन्त्री शकटार उस समय सिकन्दर के आक्रमण से चिन्तित थे तभी मृत पद्मनन्द के जीवित हो उठने पर आश्चर्य हुआ वे वस्तुस्थिति को समझ गये अतएव राजा को जीवित ही रखने की इच्छा से उनने व्याडी की लाश को जलवा दिया इस पर नन्द के शरीर में प्रविष्ट व्याडी का तब तक उसी शरीर में रहना पड़ा जब तक चन्द्रगुप्त ने उसकी हत्या नहीं की। रामकृष्ण परमहंस ने महा प्रयाण के उपरान्त भी विवेकानन्द को कई बार दर्शन तथा परामर्श दिये थे। पुराणों में तो पग-पग पर ऐसे कथानकों का उल्लेख है। पियोसोफिल सोसाइटी की—जन्मदात्री मैडम ब्लावटस्की के बारे में कहा जाता है कि वे अपने को कमरे में बन्द करने के उपरान्त भी जनता को सूक्ष्म शरीर से दर्शन और उपदेश देती थीं। कर्नल टाउन शेड के बारे में जनता को सूक्ष्म शरीर से दर्शन और उपदेश देती थीं। कर्नल टाउन शेड के बारे में भी ऐसे ही प्रसंग कहे जाते हैं। पाश्चात्य योग साधकों में से हैर्वटमान, लिण्डार्स, एन्ड्र जैक्शन, डा. माल्थ, जेल्ट, कारिंगटन, डुरावेल मुलडोन, आलिवर लाज, पावस डा. मेस्मर, ऐलेक्जेन्ड्रा, डेविडनीत, ब्रण्टन आदि के अनुभवों और प्रयोगों में सूक्ष्म शरीर की प्रामाणिकता सिद्ध करने वाले अनेक प्रमाण उपस्थित किये गये हैं। जे. मुलडोन अपने स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर को पृथक करने के कितने प्रदर्शन कर चुके थे। इनमें इस सबकी चर्चा अपनी पुस्तक ‘दी प्रोजेक्शन आफ आस्टल कॉडी’ में विस्तार पूर्वक की है।

मान्य किया जाय या न किया जाय इससे क्या होता है? सचाई तो सचाई है और जब वह सामने आती है तो भौतिक दृष्टि से सोचने वाले हक्के-बक्के रह जाते हैं और आत्मा के अस्तित्व को, चेतना की शक्ति को न समझने के कारण हतप्रभ हो उठते हैं। घटना 7 नवम्बर 1918 की है। तब पहला विश्व युद्ध चल रहा था। एक फ्रान्सीसी लड़का टैड जिसका पिता फ्रान्स के मोर्चे पर लड़ रहा था, खेलते-खेलते एक दम चिल्लाया—मेरे पिता का दम घुट रहा है। वे एक तंग कोठरी में बन्द हो गये हैं और उन्हें कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा है। घर के लोग कुछ भी नहीं समझ पाये। टैड इतना कहकर बेहोश हो गया था। कुछ देर बेहोश रहने के बाद उसे होश आया और वह बोला—अब वे ठीक हो जायेंगे। घर के लोगों ने टैड के बेहोश होने से पूर्व कहे गये शब्दों और बाद में होश आने पर कहे शब्दों से इतना ही अन्दाज लगाया कि टैड ने अपने पिता के सम्बन्ध में कोई दुःस्वप्न देखा होगा। बात जहां की तहां समाप्त हो गई।

प्रथम विश्वयुद्ध जब समाप्त हुआ और टैड के पिता घर लौटे तो स्वजनों को उस दिन की घटना याद आ गयी, जब टैड के पिता ने बताया कि 7 नवम्बर को मैं मरते-मरते बचा। पूछा गया कि क्या बात हुई थी तो उन्होंने बताया कि मैं उस दिन एक ग्रैस चैम्बर में फंस गया था, जिसमें मेरा दम घुटने लगा था। मुझे दिखाई देना भी बन्द हो गया था। तभी मैंने देखा कि टैड जैसा एक लड़का उस युद्ध की विभिषिका में न जाने कहां से आ पहुंचा और उसने चैम्बर को मुंह खोलकर, मुझे हाथ पकड़ कर बाहर खींचा। तभी मेरी यूनिट के सैनिकों की दृष्टि मुझ पर पड़ी और उन्होंने मुझे अस्पताल पहुंचाया। यह विवरण सुनकर ही घर वालों को उस दिन टैड के चीखने, बेहोश होने तथा होश में आने पर आश्वस्त ढंग से बात करने की घटना याद आयी।

इटली के एक पादरी अलफोन्सेस लिगाडरी के साथ 21 सितम्बर 1974 को ऐसी ही घटना घटी। उस दिन वे ऐसी गहरी नींद में सोये कि जगाने की बहुत कोशिशें करने के बाद भी न जगाये जा सके। यह भ्रम हुआ कि कहीं वे मर तो नहीं गये हैं। इस भ्रम की परीक्षा के लिए उनकी जांच की गयी तो पता चला कि वे पूरी तरह जीवित हैं। कई घण्टों तक वे इसी स्थिति में रहे। उन्हें जब होश आया तो देखा कि आस-पास लगभग सभी साथी सहयोगी खड़े हुए हैं। उन्होंने अपने साथियों से कहा—‘‘मैं आपको एक बहुत ही दुःखद समाचार सुना रहा हूं कि हमारे पूजनीय पोप का अभी-अभी देहान्त हो गया है।’’ साथियों ने कहा—‘‘आप तो कई घण्टों से अचेत हैं, आपको कैसे यह मालूम हुआ।’’ लिगाडरी ने कहा—मैं इस देह को छोड़कर रोम गया हुआ था और अभी-अभी वहां से ही लौटा हूं। उनके साथियों ने समझा कि वे कोई सपना देखकर उठे हैं और सपने में ही उन्होंने पोप की मृत्यु देखी होगी। चार दिन बाद ही यह खबर लगी कि पोप का देहान्त हो गया है और वह उसी समय हुआ जब कि लिगाडरी अचेत थे तो उनके मित्र साथी चकित रह गये।

एक स्थान पर रहते हुए भी मनुष्य अपनी आत्मा की शक्ति द्वारा दूरवर्ती क्षेत्रों में सन्देश पहुंचा सकता है। उपरोक्त घटनाओं में जाने अनजाने सूक्ष्म शरीर ही सक्रिय रहा है। यदि सूक्ष्म शरीर की शक्ति को जागृत कर लिया जाय तो उससे जब चाहें तब मन चाहे करतब किये जा सकते हैं। 1929 में अल्जीरिया में कैप्टन दुबो के साथ ऐसी ही घटना घटी, जिससे सूक्ष्म शरीर के अस्तित्व और उसकी शक्तिमत्ता का प्रमाण मिलता है। कैप्टन दुबो जब अल्जीरिया के एक छोटे से गांव से कुछ रोगियों को देख कर लौट रहे थे, गांव का मुखिया अब्दुल उन्हें धन्यवाद देने के लिये उनके साथ-साथ आया, बातों ही बातों में अब्दुल ने कैप्टन से सूक्ष्म शरीर के अनेक चमत्कारों का उल्लेख कर दिया। दुबा ने अब्दुल की बातों में कोई रुचि नहीं दिखाई और उल्टे इसे गप्पबाजी कहा। इस पर अब्दुल ने कहा कि मैं इसे प्रमाणित कर सकता हूं। कैप्टन ने जब उसकी यह बात सुनकर भी अविश्वास से सिर हिलाया तो अब्दुल कुछ देर के लिए ध्यानस्थ हुआ और फिर आंखें, खोलकर बोला—आप अपने पीछे मुड़कर देखिये। जैसे ही उन्होंने पीछे मुड़कर देखा तो उन्होंने दीवार पर एक ऐसी कलाकृति टंगी पायी जो उन्हें बहुत प्रिय थी और इस समय वहां से हजारों मील दूर पेरिस में उनके घर पर थी।

उसी दिन कैप्टन दुबो के पिता हियरे ने पेरिस की पुलिस में रिपोर्ट लिखाई कि उनके घर से 10 लाख रुपये मूल्य की एक अद्वितीय कलाकृति चोरी चली गयी। पुलिस कमिश्नर पियरे के अच्छे मित्र थे, उन्होंने शिकायत मिलते ही अपने सर्वश्रेष्ठ गुप्तचर कलाकृति की खोज में लगा दिये। कई दिन तक लगातार खोज चली, पर कलाकृति की खोज न की जा सकी। जिस कमरे में कलाकृति टंगी थी, उसमें किसी के जबरन प्रवेश करने या उंगलियों के निशान नहीं मिले थे। पियरे ने इस कलाकृति की चोरी की खबर अपने पुत्र को भी दी। तब सारी बात जानकर कैप्टन दुबो, पुलिस कमिश्नर ओर अन्य अधिकारियों को बड़ा आश्चर्य हुआ।

इन घटनाओं के कारण जो अनेक देशों एवं अनेक लोगों के साथ घटी हैं, वैज्ञानिकों का ध्यान भी इस ओर जाने लगा है। विज्ञान भी यह सोचने के लिए विवश हुआ है कि क्या स्थूल शरीर से परे भी मनुष्य का कोई अस्तित्व है, जो उसके सन्देशों को सुदूर क्षेत्रों में पहुंचाता है। तथा ऐसे-ऐसे काम कर डालता है जो शरीर द्वारा ही किये जा सकते हैं। बिना किसी स्थूल माध्यम के एक मनुष्य के विचारों और सन्देशों को पहुंचाने की इस प्रक्रिया का नाम है, परामानसिक संचार (टैलीपेथी)। रूस के लेनिनग्राड विश्वविद्यालय में फिजियोलौजी विभाग के अध्यक्ष प्रो. लियोनिद विासलयेव ने अभी कुछ समय पूर्व एक अनूठा प्रयोग किया है। स्मरणीय रूस का शासनतन्त्र धर्म, ईश्वर और आत्मतत्व की मान्यता को न केवल अनावश्यक मानता है वरन् उसे अफीम भी बताता है। फिर भी इस तरह की घटनाओं के कारण वास्तविकता की ओर उनका ध्यान गये बिना नहीं रहा। प्रो. वासिलयेव ने टेलीपैथी द्वारा कई मील दूर स्थित एक प्रयोगशाला में कार्यरत अनुसन्धानकर्ताओं को सम्मोहित कर दिया और वे लोग जो प्रयोग कर रहे थे, उनसे वह प्रयोग छुड़वाकर किसी दूसरे प्रयोग में लगा दिया। अनुसन्धान कर्त्ता वैज्ञानिक अनजाने ही परवश से होकर वासिलयेव के सन्देशों का पालन करने लगे और उन्हें यह भान तक नहीं हुआ कि वे क्या कर रहे हैं? इस प्रयोग के द्वारा प्रो. वासिलयेव इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को केवल अपने संकल्पों के द्वारा ही प्रभावित कर सकता है और उसे अपना आज्ञानुवर्ती होती है तथा न ही किसी ओर साधन की। यहां तक कि स्थान की दूरी भी इस प्रक्रिया में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं करती।

भारतवर्ष में स्वामी विशुद्धानन्द तथा स्वामी निगमानन्द जी भी अपनी ऐसी अनुभूतियों को प्रमाणित कर चुके हैं कहा जाता है कि तैलंग स्वामी को नंगे फिरने के अपराध में काशी के एक अंग्रेज अधिकारी ने जेल में बन्द करा दिया। दूसरे दिन वे जेल से बाहर टहलते हुए पाये गये। नाथ सम्प्रदाय के महीन्द्रनाथ, गोरखनाथ, जालन्धरनाथ, कणप्पा आदि के बारे में भी ऐसे ही वर्णनों का उल्लेख है।

आत्मा के अस्तित्व और शरीर न रहने पर भी उसका अस्तित्व बने रहने के बारे में पाश्चात्य दार्शनिकों और तत्व वेत्ताओं में से जिनने इस सम्बन्ध में अधिक स्पष्ट समर्थन किया है उनमें राल्फ वाल्डो ट्राइन मिडनी, फ्लोवर, एलाव्हीलर, बिलकाक्स, विलयमवाकर, एटकिंसन, जेम्स, केनी आदि का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। पुराने दार्शनिकों में से कार्लाइले इमर्सन, काण्ट, हेगल, धामस, हिलमीन डायसन आदि का मत भी इसी प्रकार का था।

जो कार्य हम स्थूल जीवन में करते हैं या मस्तिष्क में जैसे विचार भरे रहते हैं उनकी छाप सूक्ष्म शरीर पर पड़ती रहती है और वह छाप ही संस्कार बन जाती है। मनुष्य का चिन्तन और कर्म जिस दिशा में चलता रहता है कालान्तर में वही स्वभाव बन जाता है और बहुत समय तक जिस स्वभाव को अभ्यास में लाया जाता रहता है उसी तरह के संस्कार बन जाते हैं। यह संस्कार ही परिपक्व होकर शुभ अशुभ प्रारब्ध एवं कर्मफल का रूप धारण करते रहते हैं। इस प्रकार कर्मफल प्रदान करने की स्व-संचालित प्रक्रिया भी इसी सूक्ष्म शरीर से सम्पन्न होती रहती है।

जोहानीज वर्ग (अफ्रीका) का एक गड़ेरिया बकरियां चरा कर लौट रहा था। उसने एक झाड़ी के पास खों-खों कर बबून-बन्दरिया देखी लगता था वह बच्चा अपने मां-बाप से बिछुड़ गया है। गड़ेरिया उसे अपने साथ ले आया और जोहानीज वर्ग के एक औद्योगिक फार्म के मालिक को उपहार में दे दिया।

सामान्यतः सृष्टि का विज्ञान सम्मत नियम यह है कि कोई भी जीव अपने माता-पिता के गुणसूत्रों क्रोमोसोम्स से प्रभावित होता है। शरीर के आकार-प्रकार से लेकर आहार-विहार और रहन-सहन की सारी क्रियायें मनुष्य ही नहीं जीव-जन्तुओं में भी पैतृक होती है। इस नियम में थोड़ा बहुत अन्तर तो उपेक्षणीय हो सकता है पर असाधारण अपवाद उपेक्षणीय नहीं हो सकते जो संस्कार सैकड़ों पीढ़ी पूर्व में भी सम्भव न हों, ऐसे संस्कार और जीव-जन्तुओं के विलक्षण कारनामे भारतीय दर्शन के पुनर्जन्म और जीव द्वारा कर्मवश चौरासी लाख योनियों में भ्रमण के सिद्धान्त को ही पुष्ट करते हैं।

अफ्रीका की जिस बबून बंदरिया की घटना प्रस्तुत की जा रही है उसमें असाधारण मानवीय गुणों का उभार उस औद्योगिक फार्म में पहुंचते ही उसकी आयु के विकास के साथ प्रारम्भ हो गया। उसे किसी से कोई प्रशिक्षण नहीं मिला, फिर उसमें, उस विलक्षण प्रतिभा का जागरण कहां से हुआ जिसके कारण वह इस परिवार की अन्तरंग सदस्या बन गई? आज के विचारशील मनुष्य के सामने यह एक जटिल और सुलझाने के लिये बहुत आवश्यक प्रश्न है।

बंदरिया का नाम आहला रखा गया। फार्म—मालिक एस्टन को पशुओं से बड़ा लगाव है उनकी उपयोगिता समझने के कारण ही उन्होंने फार्म के भीतर ही एक पशुशाला भी स्थापित की है। उसमें गायें, बछड़े, बछड़ियां, कुत्ते, बकरियां आदि दूध देने वाले पशु भी पाले हैं, उनसे उनकी अच्छी आय भी होती है और बचे समय के उपयोग का साधन भी। पशुओं को चराने और उनकी देख-रेख के लिये एक नौकर रखा गया था। यह बंदरिया भी उसे ही देख-रेख के लिये दे दी गई।

नौकरी उसे साथ लेकर गौ चारण के लिए जाता था धीरे-धीरे उसको अभ्यास हो गया। एक दिन किसी कारण से अपने गांव चला गया उस दिन बिना किसी से कुछ कहे ठीक समय पर बंदरिया भेड़-बकरियों को बाड़े के बाहर निकाल ले गई और दोनों कुत्तों की सहायता से उन्हें दिन भर चराती रही। उसने चरवाहे का नहीं कुशल चरवाहे का काम किया। भटके हुये मेमनों को उनके माता-पिता तक बगल में दबाकर पहुंचाकर, जिनके पेट आधे भरे रह गये उन्हें हरी घास वाले भूभाग की ओर घेरकर पहुंचा कर उसने अपनी कुशलता का परिचय दिया। शाम को कुछ ऐसा हुआ कि एक बकरी का एक बच्चा तो जाकर स्तनों में लगकर दूध पीने लगा, दूसरा कहीं खेल रहा था। आहला ने देखा कि वह अकेला ही सारा दूध चट किये दे रहा है उसने उसे पकड़कर वहां से अलग किया। दूसरे बच्चे को भी लाई तब फिर दोनों को एक-एक स्तन से लगाकर दूध पिलाया। मालिक यह देखकर बड़ा खुश हुआ। उसने चरवाहे को दूसरा काम दे दिया, तब से आहला लगातार 16 वर्ष तक चरवाहे का काम करती आ रही है। इस अविधि में उसने पशुओं की सुरक्षा, स्वास्थ्य, रख-रखाव में ऐसे परिवर्तन और नये प्रबन्ध किये हैं जिन्हें देखकर लगता है मानो वह पूर्व जन्म में कोई गड़रिया रही हो और उसने भेड़-बकरियां चराने से लेकर उनकी व्यवस्था तक का सारा काम स्वयं किया हो।

वह शिकारी जन्तुओं से मेमनों की रक्षा करती है। शाम को हर एक पशु की गणना करती है। कोई पशु बिछड़ गया हो, कोई मेमना कहीं पीछे रह गया हो तो वह स्वयं जाकर उसे ढूंढ़कर लाती है। फुरसत के समय उनके शरीर के जुंयें मारने से लेकर छोटे-छोटे मेमनों के साथ क्रीड़ा करने की सारी देख-रेख आहला स्वयं करती है। उसे देखकर जोहानीज वर्ग के बड़े-बड़े वकील और डॉक्टर भी कहते हैं—इस बंदरिया के शरीर में यह कोई मनुष्य आत्मा है। कदाचित् उन्हें पता होता कि जीवनी शक्ति के रूप में आत्मा एक है दो नहीं, वह शक्ति इच्छा रूप में इधर-उधर विचरण करती और कभी मनुष्य तो कभी पशु−पक्षी और अन्य जीव के रूप में जन्म लेती रहती है। योग वसिष्ठ में इस तथ्य को बड़ी सरलता से प्रतिपादित किया गया है। लिखा है—

ऐहिकं प्राक्तनं वापि कम यद्चित स्फुरत् । पौरषोडसौ परो यत्नो न कदाचन निष्फलः ।। 3। 95 ।34

‘‘अर्थात् पूर्व जन्म और इस जन्म में किये कर्म, फल—रूप में अवश्य प्रकट होते हैं। मनुष्य का किया हुआ यत्न, फल लाये बिना नहीं रहता है।’’ कर्म की प्रेरणा मन की इच्छा और आवेगों से होती है इसलिये इच्छाओं को ही कर्मफल का रूप देते हुये शास्त्रकार ने आगे लिखा है— कर्म बीज मनः स्पन्दः कथ्यतेऽथानुभूयते । क्रियास्तु विविधास्तस्य शाखाश्चित्न फलास्तरोः ।। —योग वसिष्ठ 3। 96। 11

अर्थात् मन का स्पन्दन ही कर्मों का बीज है, कर्म और अनुभव में भी यही आता है। विविध क्रियायें ही तरह-तरह के फल लाती हैं। नये शरीर में आने के पश्चात् अपने पूर्व अनुभवों का विवरण लिखते हुये एक जागृत आत्मा की अनुभूति का वर्णन वेद में इस प्रकार आता है— पुनमनः पुनरायुर्म आगन्पुनः प्राणः पुनरात्मा म आगन् पुनश्चक्षुः पुनः श्रेोत्र म आगन् । वैष्वानरोऽदब्ध स्तनूपा अग्निर्नःपातुः दुरितादवधात् ।। —यजुर्वेद 4। 15

अर्थात्—शरीर में जो प्राण शक्ति (आग्नेय-परमाणुओं के रूप में काम कर रही थी मैंने जाना नहीं कि मेरे संस्कार उसमें किस प्रकार अंकित होते रहे। मृत्यु के समय मेरी पूर्व जन्म की इच्छायें, सोने के समय मन आदि सब इन्द्रियों के विलीन हो जाने की तरह मेरे प्राण में विलीन हो गई थी वह मेरे प्राणों का (इस दूसरे शरीर में) पुनर्जागरण होने पर ऐसे जागृत हो गये हैं जैसे सोने के बाद जागने पर मनुष्य सोने के पहले के संकल्प विकल्प के आधार पर काम प्रारम्भ कर देता है। अब मैं पुनः आंख, कान-आदि इन्द्रियों को प्राप्त कर जागृत हुआ हूं और अपने पूर्वकृत कर्मों का फल भुगतने को बाध्य हुआ हूं।

इस कथन से आधुनिक विज्ञान का। ‘‘जीन्स-सिद्धान्त’’ पूरी तरह मेल खाता है। कोश के आग्नेय या प्रकाश भाग को ही प्राण कह सकते हैं पैतृक या पूर्व जन्मों के संस्कार इन्हीं में होते हैं यदि प्राणों की सत्ता को शरीर से अलग रखकर उसके अध्ययन की क्षमता विज्ञान ने प्राप्त करली तो पुनर्जन्म और विभिन्न योनियों में भ्रमण का रहस्य भी वैज्ञानिक आसानी से जान लेंगे।

तथापि तब तक यह उदाहरण भी इस परिकल्पना की पुष्टि में कम सहायक नहीं। आहला बंदरिया उसकी एक उदाहरण है बन्दरों में मनुष्य से मिलती-जुलती बौद्धिक क्षमता तो होती है पर यह कुशलता और सूक्ष्म विवेचन की क्षमता उनमें नहीं होती यह संस्कार पूर्व जन्मों के ही हो सकते हैं। आहला की यह घटना दैनिक हिन्दुस्तान और दुनिया के अन्य प्रमुख अखबारों में भी छप चुकी है। दिलचस्प बात तो यह है कि आहला एक बार कुछ दिन के लिये कहीं गायब हो गई। फिर अपने आप आ गई। इसके कुछ दिन पीछे उसके बच्चा हुआ। बच्चे के प्रति उसका मोह असाधारण मानवीय जैसा था। दैवयोग बच्चा मर गया पर आहला उसे तब तक छाती से लगाये रही जब तक वह सूख कर अपने आप ही टुकड़े-टुकड़े नहीं हो गया। कुछ दिनों पूर्व पुनः गर्भवती हुई और उसकी खोई हुई प्रसन्नता फिर से वापस लौट आई।

बंदरिया ही क्या अपने असाधारण कारनामों के लिए कैरेकस का एक तोता पिछले वर्ष ही विश्व विख्यात हो चुका है। इस तोते के बारे में लोगों का कहना है कि उसमें किसी कम्युनिस्ट नेता के गुण विद्यमान हैं। तोते को तोड़-फोड़ की कार्यवाही के सैन फ्रांसिस्को स्थान पर जल्दी बनाया गया।

यह तोता क्यूबा के ‘‘फिडल कास्ट्रो’’ विचार धारा के साम्यवादी गुरिल्लों को ‘‘हुर्रा’’ कहकर उत्साहित किया करता और उन्हें क्यूबाई भाषा से मिलते-जुलते उच्चारण और ध्वनि में मार्गदर्शन किया करता, गुरिल्ले उसके संकेत बहुत स्पष्ट समझने लगे थे उन्हें इस तोते से बड़ी मदद मिलती थी। उन्होंने इसका नाम ‘‘चुची’’ रखा था। अब इस तोते की जीभ साफ की जा रही है और उसे नई विचार धारा में ढालने का प्रयास किया जा रहा है, किन्तु उसके संस्कारों में साम्यवाद की जड़ें इतनी गहरी जम गई है मानो उसने साम्यवाद साहित्य का वर्षों अध्ययन और मनन किया हो। तोते की यह असाधारण क्षमता इस बात का संकेत है कि अच्छे या बुरे कोई भी कर्म अपने सूक्ष्म संस्कारों के रूप में जीव का कभी भी पीछा नहीं छोड़ते चाहे वह बन्दर हो या तोता।

यह दो उदाहरण व्यक्तिगत हैं, एक और उदाहरण ऐसा है जो यह बताता है कि व्यक्ति ही नहीं यदि—सामाजिक परम्परायें विकृत हो जायें और किसी समाज के अधिकांश लोग एक से विचार के अभ्यस्त हो जायें तो उन्हें उन कर्मों का फल सामूहिक रूप से भोगना पड़ता है। सन् 1910 के लगभग की बात है दक्षिण पश्चिमी अमरीका सामाजिक अपराधों का गढ़ हो चुका था। मांसाहारी होने के कारण वहां के लोग उग्र स्वभाव के तो होते ही हैं। हत्या, डकैतियों की संख्या दिनों दिन बढ़ रही थी। ऐसे कई कुख्यात अपराधी मर भी चुके थे। उन्हीं दिनों वहां पाई जाने वाली भेड़ियों की ‘लोबो’’ जाति में कई ऐसे खूंखार भेड़िये पैदा हुये जिनके आगे लोग हत्या और लूट-पाट करने वालों का भी भय भूल गये।

कोलोरेडो का एक भेड़िया इतना दुष्ट निकला कि उसने अपने थोड़े से ही जीवन काल में इतने पशु—मारे कि उनकी क्षति का यथार्थ अनुमान लगाने के लिए सरकारी सर्वेक्षण किया गया और यह पाया गया कि इस एक भेड़िये ने 1000000 डालर के मूल्य के पशुओं को केवल शौक-शौक में मार डाला। इसे लोग ‘‘कोलोरेडो का कसाई’’ कहते थे और उसके असाधारण बुद्धि कौशल को देखकर मानते थे ऐसी चतुरता तो मनुष्यों में ही हो सकती है। प्रश्न यह है कि कोई खूंखार मनुष्य ही था जिसने कर्मफल या पूर्व जन्मों के संस्कारों के कारण भेड़िये के रूप में जन्म लिया।

1915 में ऐसे भेड़ियों का आतंक छा गया और तब सरकार को उन्हें मरवाने के लिए काफी धन भी खर्च करना पड़ा। ‘‘जैक द रिपर’’ भेड़िये को सरकार ने इनाम देकर मरवाया। एक तीन टांग का भेड़िया, जिसने केवल अपना शौक अदा करने के लिए लगभग 1 हजार पशुओं का वध किया, वह भी ऐसे ही मारा गया। इसकी बुद्धि बताते हैं मनुष्यों से कम नहीं थी। धोखा देने संगठित रूप से आक्रमण करने, चकमा देने में वह आश्चर्य जनक चतुरता बरतता। एक बार टेडी रूजवेल्ट नामक एक व्यक्ति ने अपने नौ शिकारी कुत्तों के साथ इस कसाई का पीछा किया। भेड़िया भागता ही गया रुका नहीं, रात होने को आई कुत्ते रोक लिये गये। बस भेड़िया भी वहीं रुक गया। रात को कैम्प लगाकर टेडी रुक गया और उस कैम्प में घुसकर एक-एक करके भेड़िये ने नौवों कुत्तों को मार दिया और किसी को पता भी नहीं चल सका।

बंदरिया से लेकर तोते और भेड़िये तक के यह असाधारण संस्कार विश्व चिन्ह हैं और वे यह बात सोचने के लिये विवश करते हैं कि क्या सचमुच ही कर्मफल जैसी कोई ईश्वरीय व्यवस्था भी है जो इच्छा-शक्ति (जीव) को सैकड़ों योनियों में भ्रमण कराती है घूमती रहती है?

‘दि ह्यूमन परसनैलिटी एण्ड इट्स सरवाइबल आफ बाडीली डेथ’ के लेखक सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक श्री एफ. डब्लू. एच. मेयर्स ने एक ऐसी ही घटना दी है—यह घटना अमरीका के वर्जीनिया प्रान्त में प्रकाशित होने वाली मेडिको लीगल पत्रिका के जून 1896 अंक में छपी थी और श्री ड्यूरी उसके लेखक थे। घटना इस प्रकार है— ‘‘एक हृष्ट-पुष्ट व्यापारी जिसकी आयु लगभग 50 वर्ष रही होगी, व्यापार के लिये सामान लेने की दृष्टि से एक दूसरे शहर गया। उसे श्री के. कहते थे। बड़ी ही नेक ईमानदार सच्चरित्र और शान्ति प्रिय। काफी दिन शहर में रहकर उसने तिजारत की, मित्रों से मिला और सामान इकट्ठा किया। अन्त में सामान जहाज की एक कोठरी में बन्द कराया। टिकट भी बुक करा ली, किन्तु जब जहाज चलने लगा तो बहुत खोज-बीन करने पर भी उस व्यापारी का कोई पता न चला।’’

‘‘6 माह बाद वह घर आया तो अत्यन्त दुर्बल और अशान्त-सा हो गया था। वस्त्र वही पहले वाले थे। जेब में जहाज की कोठरी की चाभी भी पड़ी थी। जब उसे होश आया तो उसने अपने आपको एक फलों वाली गाड़ी हांकते हुए पाया। उसे यह जरा भी याद न था कि वह वहां कब, क्यों कैसे आया उसे जहाज के कमरे में प्रवेश तक का स्मरण था, उसके बाद 6 माह तक उसने क्या किया, कहां रहा, इसका उसे कुछ भी याद नहीं रहा।’’

इसी पुस्तक के पैरा 225 में मेयर्स ने एक घटना दी है—‘‘एल्या जेड नाम की कन्या बड़ी सुशील और बुद्धिमान् थी। काफी परिश्रम करने के कारण उसका स्वास्थ्य कुछ बिगड़ गया। इस अवस्था में 2 वर्ष रहने के बाद एकाएक बालिका का व्यक्तित्व बदल गया। उसने कहा—मेरा नाम ‘टुआई’ है वह अमरीका के आदिवासियों की भाषा बोलने लगी, जिसका पहले उसे जरा भी ज्ञान नहीं था। इस अवस्था में उसकी फुर्ती प्रसन्नता देखते बनती थी। वह अनोखी और मनोरंजक बातें करती थी। जब उस शरीर में फिर एल्या जेड आ जाती थी तो वही पहले की सी रुग्ण हो जाती थी।’’

यह दो उदाहरण लिखने के बाद मेयर्स ने लिखा है ‘‘भौतिक मस्तिष्क से एक ही परिस्थिति में दो भिन्न-भिन्न व्यक्ति कैसे उत्पन्न हो सकते हैं, शरीर की बनावट में कोई अन्तर आये बिना स्मृति का बदल जाना और कोई नया व्यक्तित्व व्यक्त होना आत्मा के अस्तित्व का ही प्रमाण है। यह अनुसन्धान बताते हैं कि मनुष्य में आत्मा है और यह आत्मा मृत्यु के पश्चात् भी जीवित रहती है। यह बात चाहे साइन्स पढ़े लिखे हों, चाहे साइन्स को मानने वाले हों, स्वीकार किये बिना कल्याण नहीं।

स्वप्न में विचार, ज्ञान और स्मृति भी आत्मा के अस्तित्व को ही प्रमाणित करते हैं। फ्रायड लिखते हैं कि ‘‘स्वप्न ‘इच्छा पूरक’ होते हैं’’ और भूतकालीन समस्याओं के लिये नाटक की तरह है अर्थात् मनुष्य दिन में जो कुछ सोचता और करता है, उनमें से कई बातें ऐसी होती हैं, जिन्हें वह बहुत चाहता है पर कर नहीं पाता चूंकि वह उन पर विचार कर चुका होता है। इसलिये उस दमित विचार की फोटो अचेतन मस्तिष्क में जम जाती है और रात में जब मनुष्य सोता है, तब वही दृश्य उसे स्वप्न की तरह दिखाई देने लगते हैं।

आज स्वप्नों के बारे में लोगों की ऐसी ही या इसी से मिलती-जुलती मान्यतायें हैं पर आत्म-विज्ञान की दृष्टि में स्वप्न मनुष्य जीवन की महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। उसका सम्बन्ध भले ही अचेतन मन से हो पर वह होता सनातन अर्थात् जब से जीव का प्रादुर्भाव हुआ है तब से और आगे होने वाली घटनाओं से भी सम्बन्ध रखता है। इसलिये स्वप्न को भी आत्मा के अस्तित्व के प्रमाण के रूप में लिया जा सकता है। ऐसे स्वप्न जो उपरोक्त घटना की तरह काफी समय बाद होने वाली घटनाओं का भी पूर्वाभास करा देते हैं, उसके प्रमाण माने जा सकते हैं।

ब्वायल शिमला में अफसर थे। उन्होंने एक रात स्वप्न में देखा कि उनके श्वसुर की मृत्यु इंग्लैंड के ब्राइटन नगर में अमुक मकान में इस समय हुई। जबकि कुछ दिन पूर्व ही उनके स्वास्थ की कुशल-मंगल आई थी, इसलिये उन्हें इस तरह की कोई आशंका या चिन्ता भी नहीं थी, किन्तु बाद में उन्हें पत्र मिला जिसमें उनका स्वप्न बिल्कुल सत्य निकला।

भारतीय योगियों ने गहन योग साधनाओं के आधार पर इस विज्ञान के अनेक रहस्यों का ज्ञान प्राप्त किया है। यह योग साधनायें भले ही कठिन हों, सर्व सुलभ न हों पर यह एक प्रकार की नितान्त वैज्ञानिक प्रक्रिया है। साधना, विधानों को अपनाकर आत्म सत्ता की अनुभूति सामने खड़े हुए पुरुष को देखने की तरह ही अत्यन्त स्पष्ट रूप से की जा सकती है। इन अनुभूतियों के आधार पर हमारा उपनिषद्कार कहता है—

अंगुष्ठ मात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति । इशानो भूतभव्यस्य न ततो बिजुगुप्सते ।। एतद्वै तत् । अगुष्ठ मात्रः पुरुषो ज्योतिरिवाधूमकः । ईशानो भूतभव्यस्य स एवाद्य स उश्वः ।। एतद्वै तत् । —कठोपनिषद द्वितीय अध्याय प्रथम बल्ली, 12।13

अर्थात्—यह आत्मा ही वह परमेश्वर है, जिसे जान लेने पर मनुष्य किसी की निन्दा नहीं करता। वह परम पुरुष अंगुष्ठ मात्र देह गह्वर में स्थित होकर भूत, भविष्यवत् आदिकालों में सब पर शासन करता है। यही वह परमेश्वर है, जो आज भी है, कल भी रहेगा। वह अंगुष्ठ प्रमाण परिमाण वाला पुरुष निर्धूम ज्योति (अत्यन्त उज्ज्वल प्रकाश) के समान है एवं भूत, भविष्यत् सब कालों पर शासन करता है।

यदि ऐसी विराट् शक्ति देह में स्थित है तो उसका अनुभूति क्यों नहीं होती? उसका कारण इसी उपनिषद् के प्रथम अध्याय की तीसरी बल्ली में इस प्रकार बताया है— एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते ।

दृश्यते त्वग्रया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिनि ।। -तीसरी बल्ली, 12 यस्त्वविज्ञानवान् मवत्यमनस्कः सदाशुचः । न स तत्पदमाप्नोति ससारं वाधि गच्छति ।। -तीसरी बल्ली, 7

अर्थात्—परमात्मा सभी में आत्मा के रूप में देह-धारियों में निवास करता हुआ भी अपनी माया से आच्छादित रहने के कारण प्रकट नहीं होता। केवल सूक्ष्म-दर्शियों को ही सूक्ष्म बुद्धि द्वारा दर्शन देता है। अविवेकी बुद्धि और असंयत मन वाला अपवित्र हृदय मनुष्य जन्म-मृत्यु के चक्र में घूमता रहता है और परमपद को कभी प्राप्त नहीं कर सकता।
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