मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्युटर

​​​अपने आप का तिरस्कार न कीजिए

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किसी दूसरे के साथ इस तरह का व्यवहार किया जाय कि गया-गुजरा, अशक्त, अयोग्य और पिछड़े हुए स्तर का हो तो वह निश्चय ही नाराज होगा और ऐसी अभिव्यक्ति को अपना अपमान समझेगा। यह उचित भी है। असत्य सम्मान मानवी अन्तःकरण की एक स्वाभाविक वृत्ति है। अपना गौरव और वर्चस्व सिद्ध करने और सम्मान पाने की इच्छा से ही लोग बहुत से सही गलत काम करते हैं पेट भरने में तो थोड़ा सा समय श्रम ही पर्याप्त होता है। अधिकतर समय और चिन्तन तो बड़प्पन पाने के साधन संग्रह करने और इस तरह का ठाट-बाट रोपने में ही खर्च होता रहता है। पेट की भूख और यौन लिप्सा के बाद सबसे प्रबल आकांक्षा बड़प्पन पाने की है कई बार तो वह इतनी उग्र होती है कि आदमी उसके लिए भयंकर खतरे उठाने को भी तैयार हो जाता है।

इतने पर भी कितने ही व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो अपने आप अपना तिरस्कार स्वयं करते रहते हैं और उसके अभ्यस्त बन जाते हैं। दब्बूपन उनका स्वभाव बन जाता है। सही, खरी, उचित और सामान्य बात भी किसी के सामने नहीं कह पाते। मुंह खोलने में उन्हें बहुत डर लगता है और यह भय बसा रहता है कि वह न जाने क्या समझ बैठे, रुष्ट न हो जाय, झिड़क न दें। वस्तुतः यदि वैसा भी हो जाय तो भी उससे कोई बड़ी हानि नहीं हो सकती किन्तु दब्बू आदमी अपनी बड़ी से बड़ी हानि करके भी इतना साहस नहीं जुटा पाता कि सीधी सी बात को सरल स्वाभाविक रीति से दूसरे के सामने रखकर अपना मत व्यक्त करदें और गलत फहमी के जो कारण-अकारण, मति भ्रम, घुटन अथवा खाई उत्पन्न कर रहे हैं, उनका निराकरण करदे। साहस की कमी ऐसे व्यक्तियों को दयनीय स्थिति में डाले रहती है।

बचपन में प्रेम और सम्मान का न मिलना, उपेक्षा उपहास तथा अभावग्रस्त स्थिति में समय गुजारते रहने वाले बच्चे बड़े होने पर प्रायः आत्महीनता के शिकार बन जाते हैं। बीमार, अपंग, मन्दबुद्धि बच्चे भी बार-बार डांट-डपट सुनते रहते हैं। फलतः उनका मन यह मान बैठता है कि उनकी स्थिति दूसरों की अपेक्षा है ही गई गुजरी। उनका भाग्य कुछ ऐसा ही बना है। पिछड़ी समझी जाने वाली जातियों के लोग तथा महिलाएं आरम्भ में ही घटिया समझी जाने की—उपेक्षित स्थिति में रहने के कारण अपने आप को हेय स्थिति का स्वयं भी मान बैठती हैं और उसी स्तर का अपने को समझते हुए सोचने का ढंग ऐसा बना लेते हैं, मानो वे बने ही घटिया मिट्टी से हैं। इस मान्यता के कारण दब्बूपन उनकी प्रत्येक क्रिया से टपकता रहता है। दूसरों के सामने वे अपने आपको ठीक तरह व्यक्त नहीं कर सकते, यहां तक कि खुले मन से हंस बोल भी नहीं सकते।

कुछ लोग किसी बाहरी दबाव या अभाव से नहीं अपनी दब्बू प्रकृति के कारण ही अपने को हेय स्थिति में डाल लेते हैं। वे दूसरों के बड़प्पन अपने हेय होने की बात को अकारण ही बढ़ा-चढ़ा कर मान बैठते हैं और एक बहुत ऊंची-नीची, खाई खोद लेते हैं।

हीनता ग्रस्त व्यक्ति को सहज ही पहचाना जा सकता है वह आलसी, असन्तुष्ट, दब्बू, चापलूस तथा बात-बात पर रूठने वाला होगा। जरूरत से ज्यादा नम्रता प्रदर्शित करता है। उससे कोई भी बेगार ले सकता है, उधार मांग सकता है, ठग सकता है। मन में वैसा न करने की बात रहते हुए भी इतनी इनकार करने की हिम्मत नहीं तो सामने वाले का आग्रह टालते नहीं बनता। ऐसे व्यक्ति किसी मिलन गोष्ठी में एक कोने में डरे सहमे सकुचे बैठे होंगे ताकि कोई उनसे कुछ पूछ न बैठे कुशल प्रश्नों का उत्तर देना तक उन्हें भारी पड़ता है। ऐसे लोग आये दिन ठगे जाते हैं, उनसे कोई भी बेगार लेता है और काठ का उल्लू समझता है। लाभ उठाने वाले कुछ अहसान भी नहीं मानते क्योंकि वे समझते हैं जो पाया कमाया है वह दब्बू आदमी की दुर्बलता का चतुरता पूर्वक लाभ उठा लेना भर था, इसमें ठगे जाने वाले की कोई उदारता थोड़े ही थी।

कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय द्वारा नियुक्त 22 मनोविज्ञानवेत्ताओं के एक आयोग को चिन्ता के कारणों का पता लगाने का काम सौंपा था। उस दल ने इस मर्ज के हजारों मरीजों की कुरेद बीन करने पर यह पाया कि ऐसे लोग वस्तुतः पहले सिरे के डरपोक होते हैं। भूत और सांप का न सही भविष्य की आशंकाओं का डर उन्हें निरन्तर सताता रहता है। इसके अतिरिक्त वे अपनी वर्तमान स्थिति अपर्याप्त असन्तोष जनक समझते रहते हैं। यों निर्वाह में कठिनाई उत्पन्न करने वाला अभाव इनमें से किसी विरले को ही होता है, आयोग ने यह भी बताया है कि भय एक संक्रामक रोग है वह छूत की बीमारी की तरह साथ रहने वाले पर भी असर करता है। छोटा बालक जो अभी संसार की परिस्थितियों के बारे में कुछ भी नहीं समझता, माता को डरी हुई देख कर स्वयं भी रोने लगता है। उसे डरे हुए की दयनीय स्थिति को देख कर स्वयं डर लगता है।

कन्धा झुकाये हुए, जमीन में आंखें गाड़े हुए, कुछ लोग डरे सहमे लोगों की आंखों से अपने को बचाते हुये सड़क पर चलते दिखाई पड़ेंगे उनके पैर डगमगाने से लगेंगे। सीधी लाइन चलना उनसे बन नहीं पड़ेगा। सांप की तरह टेढ़े तिरछे चलेंगे, पैर एक दूसरे में लिपटते से दिखाई पड़ेंगे। इसके विपरीत कुछ लोग सीना ताने फौजियों जैसे कदम मिलाकर चलते हुए सीधी लाइन चल रहे होंगे। चेहरे पर विश्वास भरी मुस्कान दीख रही होगी और आंखों से चमक निकलती दिखाई पड़ेगी। यह अन्तर शरीर स्थिति से नहीं मानसिक स्तर से सम्बन्ध रखता है। जिन पर आत्महीनता सवार है वे न केवल सड़क पर चलते हुए वरन् हर कार्य में अपनी दयनीय दुर्बलता व्यक्त कर रहे होंगे। जबकि आत्म विश्वासी व्यक्ति की तेजस्विता उनके हर क्रिया कलाप से हर भाव भंगिमा से टपक रही होगी।

अत्यधिक हीनता ग्रस्त व्यक्ति उसके भार से दब जाता है, हिम्मत खो बैठता है और उज्ज्वल भविष्य की आशा छोड़कर हताश रहने लगता है अपनी क्षमता पर अविश्वास करने वाला एक प्रकार से हाथ पांव रहते हुए अपंग और बुद्धि रहते हुए भी संशय ग्रस्त रहता है। वह करने की तो बहुत कुछ सोचता है। पर साहस के अभाव में कुछ कर नहीं पाता। करता है तो फल पकने तक किसी वृक्ष को सींचते रहने के लिए जितने धैर्य की आवश्यकता पड़ती है, उतनी जुटा नहीं पाता। अस्तु अधिकांश कार्यों में असफल रहता है और हर असफलता उसे और भी अधिक निरुत्साहित करती चली जाती है।

दब्बूपन के अतिरिक्त विकृत आत्महीनता उद्धत बनकर उभरती है। वह ऐसे कृत्य करने को उकसाती है, जिससे लोग उसे भी असाधारण समझें। विधिवत असाधारण बनने के लिए तो मनुष्य को व्यक्ति का समग्र निर्माण करना पड़ता है और आदर्शवादी गतिविधियां अपनाने का उदात्त साहस जुटाना पड़ता है। पर उद्धत काम करने के लिये उच्छृंखलता अपनाने और आतंकवादी रास्ते पकड़ने से काम चल जाता है। यों आरम्भ में होता तो यह भी कठिन है पर उसी स्तर के आवारा लोगों का साथ ढूंढ़ लेने में वह अभ्यास जल्दी ही हो जाता है और गुण्डागर्दी से दूसरों को आतंकित करने की सफलता पाकर आत्मगौरव की भूख बुझा ली जाती है। साथ ही आर्थिक तथा दूसरे लाभ भी कमा लिये जाते हैं। सस्ती तरकीब से दुहरा लाभ पाने से उत्साहित होकर वे इस प्रकार की गतिविधियां एक पेशे के रूप में अपना लेते हैं। अपराधों में संलग्न उच्छृंखल गुण्डागर्दी अपनाने वाले व्यक्ति बहुत करके आत्महीनता की ग्रन्थि से ग्रसित ही होते हैं। निजी जीवन में थोड़ी सी भी विपत्ति आने पर उन्हें बेतरह रोते कलपते पाया जाता है।

अधिक बन ठनकर रहने वाले और साज श्रृंगार करने वाले नर-नारियों में अधिकांश ऐसे होते हैं, जो अपने आपको तिरस्कृत, उपेक्षित एवं हेय स्तर का मानते हैं। वे श्रृंगार साधनों को अपना कर तड़क भड़क के कपड़े और चमचम करते जेवर पहन कर दूसरों के साथ अधिक आकर्षक बनने का प्रयत्न करते हैं ताकि लोग उन्हें असाधारण समझें। अमीरी का ढोंग रचते हुए पैसे का अपव्यय करते हुए कई व्यक्ति अपने परिचितों पर यह छाप छोड़ना चाहते हैं कि वे बड़े आदमी हैं और बड़े आदमियों की तरह चाहे जितना पैसा फूंक सकने में समर्थ हैं। ऐसे आदमी कम कीमत की मजबूत चीजें खरीदने की अपेक्षा महंगी और कमजोर चीजें खरीदते हैं, इस खरीद में उनमें प्रयोजन दूसरों पर अपना सुरुचि एवं कलाकारिता की छाप छोड़कर बड़प्पन का आतंक जमा भर होता है। ऐसे लोग सदा ऋणी बने रहते हैं और आर्थिक तंगी भुगतते हैं। लाभ इतना ही होता है कि उनकी आत्महीनता को कुछ समय के लिए राहत मिल जाती है।

अमेरिका में 10 हजार पीछे एक व्यक्ति हर साल आत्म-हत्या करके मरता है। किसी-किसी वर्ष तो यह अनुपात बहुत अधिक बढ़ जाता है। एक साल तो यह संख्या 15400 पहुंच गई थी। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां अधिक संख्या में आत्म-हत्या करती हैं।

लोग क्यों आत्मघात करते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में दरिद्रता, बेकारी, शारीरिक कष्ट, पारिवारिक कलह, असफल प्रेम, अपमान, निराशा, विपत्ति की आशंका आदि कई कारण गिनाये जा सकते हैं। पर सबसे बड़ा कारण होता है मानसिक असंतुलन, जिसके कारण लोग छोटी-छोटी कठिनाइयों या असफलताओं को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर मान लेते हैं और उस भयंकरता से बचाव का कोई उपाय न सूझने पर किंकर्तव्य विमूढ़ हुआ व्यक्ति अपने ऊपर ही आक्रमण कर बैठता है और दूसरों को मार डालने का साहस न जुटा सकने पर अपने आप का ही वध कर डालता है।

आत्महत्या की बढ़ती हुई घटनाओं का कारण मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में अपने आपके प्रति अविश्वास, दुर्बलता और हीनता की भावनाओं की जड़ें जम जाना है। यह स्थिति किसी भी व्यक्ति को हानि और हेय बना सकते हैं।

हीन हेय दननीय न बनें

अपने आपको दूसरों से हेय या हीन मानने की मानसिक ग्रन्थि किसी सुयोग्य व्यक्ति को भी दयनीय पिछड़ेपन में जकड़े रहती है। वह अपनी योग्यता पर विश्वास नहीं करता। दूसरों को अपने से किस न किसी बात में अधिक समर्थ देखता है और उसकी तुलना में अपने को गया—गुजरा समझ लेता है। झेंप इसी का नाम है। अनेकों दब्बू, झेंपू, संकोची कहलाने वाले व्यक्ति कभी-कभी अपनी दुर्बलता को नम्रता, विनयशीलता, सज्जनता आदि के लवा दे से ढक कर छिपाने का उपहासास्पद प्रयत्न भी करते देखे गये हैं। पर बात छिपती नहीं है। नम्र या सज्जन को दूसरों के सम्मान की रक्षा करते हुए अपने मन की बात मधुर शब्दों में रखते हुए तनिक भी कठिनाई अनुभव नहीं होती जबकि आत्म हीनता से, ग्रसित व्यक्ति से कुछ कहते ही नहीं बनता—उससे उचित के प्रति प्रतिपादन और अनुचित से असहमत होने की बात कहते ही नहीं बनती। भीतर ही भीतर घुटता रहता है। बहुत साहस करने पर भी आधी अधूरी लंगड़ी लड़खड़ाती बातें ही मुंह से निकलती हैं। उसमें अस्पष्टता रहने के कारण दूसरे लोग उसका असली मन्तव्य तक नहीं समझ पाते और कुछ का कुछ अर्थ लगाकर उसी कथन को उल्टे प्रहार का हथियार बनाते हैं। ऐसी दशा में वह डरकर इस नतीजे पर पहुंचता है कि कहने की अपेक्षा न कहना अधिक उपयुक्त है।

आत्महीनता मनुष्य की सारी बुद्धिमता, योग्यता एवं प्रतिभा पर पानी फेर देती है। अपने को व्यक्त न कर सकने के कारण वह दूसरों की दृष्टि में असमर्थ एवं मूर्ख सिद्ध होता है। जब उसकी क्षमता पर किसी को विश्वास ही नहीं तो फिर उसे कुछ उत्तरदायित्व सौंपने का बढ़ावा देने के लिए कोई क्यों तैयार होगा? उपेक्षा और अवमानना ही उसे मिलती है। इस व्यवहार से उसकी हीनता ग्रन्थि और भी अधिक कसती जकड़ती चली जाती है अन्ततः वह आत्म मान्यता की परिपक्वता से सचमुच ही बुद्धू एवं अयोग्य बन जाता है जब कि वस्तुतः उसमें किसी से कम प्रतिभा थी नहीं।

आत्महीनता की घुटन अपने लिये दूसरा रास्ता निकालती है दूसरों पर दुर्भावना आरोपण करने का। दूसरे उससे द्वेष रखते हैं—उसके साथ अन्याय पक्षपात करते हैं। यह मान्यता जड़ जमाती है और जिनसे भी उसका वास्ता पड़ता है, उस सबको अपने विद्वेषियों की श्रेणी में गिन लेता है। दूसरे विद्वेष क्यों करते हैं? इसका ढूंढ़ने में किसी की बुद्धि को कोई कठिनाई नहीं हो सकती। इसके लिए पिछले किसी भी सामान्य व्यवहार पर दुर्भावना पूर्ण आवरण चढ़ा कर इस तरह व्याख्या की जा सकती है मानो सामने वाले सचमुच ही विद्वेषी है। किसी भी निर्दोष व्यक्ति या सहज स्वाभाविक घटना को आशंका और सन्देहों के रंग-रंग कर अपने इच्छित स्तर का देखा जा सकता है। मित्र या शत्रु के रूप में किसी भी उदासीन व्यक्ति को हम देख सकते हैं और वह सचमुच वैसा ही प्रतीत होगा। उसमें सामान्य वार्तालाप एवं क्रिया-कलाप की दुर्भावनापूर्ण-व्याख्या करना अति सरल है। यों किसी के प्रति अन्धप्रेम हो तो उसे सर्वगुण सम्पन्न और अत्यन्त स्नेहसिक्त मान बैठना भी कठिन नहीं है पर ऐसा कम ही होता है। आत्महीनता की ग्रन्थि प्रायः द्वेष दुर्भावों का ही आरोपण अधिक लोगों पर करती है। कुचले हुए स्नेह सद्भावों को कभी किसी से थोड़ा आश्रय मिल जाय तो ऐसे व्यक्ति उस पर लट्टू भी हो जाते हैं और उस प्रेमावेश में अपना सब कुछ लुटा देने में भी नहीं चूकते। यह दोनों ही पक्ष हानिकारक हैं। इसमें अकारण शत्रुता-मित्रता का आरोपण होता है और सन्तुलित व्यवहार से परस्पर सहयोग का जो सही क्रम बन सकता था उसका स्वरूप ही नहीं बन पाता।

आत्महीनता का कभी-कभी उद्धत आचरण के रूप में विस्फोट होता है। उपेक्षा अवज्ञा सहते-सहते जब अन्तः चेतना ऊब जाती है तो ऐसे छद्मवेश बनाकर प्रकट होती है जिसके कारण का ध्यान आकर्षित हो, सहानुभूति मिले, अथवा वे आतंक ग्रस्त होकर उसके महत्व को समझें। तोड़-फोड़, आक्रोश करना, रोना, अनशन जैसे विचित्र व्यवहार नगण्य से कारणों के बहाने प्रस्तुत करते हैं। कभी अति परिश्रम करते या अत्यन्त सद्भावना प्रकट करते हुए भी उन्हें देखा जा सकता है। भूत-प्रेत ऐसे ही लोगों को आते हैं। तरह-तरह के सपने सुनाने और दिव्य अनुभूतियां सुनाने में भी यही वर्ग अग्रणी रहता है। श्रृंगार और फैशन बनाना अथवा अत्यन्त अस्त-व्यस्त रहना यह दोनों ही हीनता की निशानियां हैं। दोनों ही स्थितियों में दूसरों को चर्चा करने का अवसर मिलता है। बात भली कही या बुरी—प्रशंसा हुई या निंदा—मान बढ़ा या घटा—हानि उठानी पड़ी या लाभ—इन सबसे उतना वास्ता नहीं होता जितना कि अपनी चर्चा सुनकर अहं को थोड़ी राहत मिलने का सन्तोष होता है। दान-पुण्य, तीर्थ-यात्रा, व्रत-मौन जैसे धर्म कृत्य भी ऐसे ही लोग अधिक करते हैं। धर्मात्मा के रूप में आत्म विज्ञापन करके दूसरों से प्रशंसा अर्जित करने का भाव इन लोगों में अत्यधिक उग्र होता है। वास्तविक धर्मबुद्धि से विवेकपूर्वक सत्प्रयोजन के लिए सत्पात्रों को दान देते काई विरले ही देखे जाते हैं। अधिकतर तो पैसा कुपात्रों में ही लुटता है और वह भी वहां-जहां लोगों में उस पुण्य की चर्चा होने का अवसर मिले। आत्मविज्ञप्ति द्वारा थोड़ा सन्तोष पाने का भी यह तरीका किसी कदर अच्छा इसलिये है कि उसमें सदुद्देश्य की बात तो आगे रहती है पीछे दूरवर्ती परिणाम उसका कुछ भी होता रहे।

दूसरों के अनुचित व्यवहार ऐसे ही लोगों के साथ अधिक होते हैं। संकोची स्वभाव के कारण कहना, करना सब कुछ डरते-डरते होता है उसकी गति धीमी होती है क्रिया का परिणाम कम और समय अधिक लगता है। आशंकामय एवं असमंजस की स्थिति में ऐसा होना स्वाभाविक भी है। ऐसे लोगों के काम देर में थोड़े तो होते ही हैं जो होते हैं वे भी आधे अधूरे लंगड़े-कुबड़े होते हैं अस्तु उपहास होता है—डांट पड़ती हैं और खीज में अप्रिय व्यवहार भी होता रहता है। स्पष्ट उसमें शाब्दिक अथवा दूसरी तरह की प्रताड़ना भरी रहती है। इसकी प्रतिक्रिया रोष के रूप में होनी स्वाभाविक है। पर उसके प्रतिकार में कुछ करते भी नहीं बनता। घुटन दूनी बढ़ती है यह रोष कभी-कभी विस्फोट बनकर भी फूटता है। कई स्त्रियां अपने छोटे बच्चों को बेतरह पीटती देखी जाती हैं इसे आत्महीनता जन्य घुटन का विस्फोट ही कहा जा सकता है।

कुरूपता, दरिद्रता, मंदबुद्धि, जातिपांति, कोई शारीरिक कमी, प्रताड़ना, किसी अपराध में पकड़े जाना आदि कारणों से दूसरों की दृष्टि में उपहासास्पद होने की कल्पना करके कितने ही व्यक्ति आत्महीनता के शिकार हो जाते हैं। दूसरे लोग जब उपहास या अवमानना करते हैं तो उनकी अन्तः चेतना अपने को हेय या हीन मानती चली है और निरन्तर की मान्यता धीरे-धीरे परिपक्व होकर व्यक्तित्व को सचमुच उसी स्तर का बना देती है। ऐसे लक्षण प्रकट होने लगते हैं—ऐसे विचार एवं कर्म छलने लगते हैं जो हेय स्तर के लोगों के होते हैं। लड़कियों को आरम्भ से ही लड़कों की तुलना में हेय—पराये घर का कूड़ा—आजीवन बन्धन ग्रस्त रहने की बात मन में बिठाई जाती रहती है अस्तु वे अपनी सहज स्थिति वैसी ही स्वीकार कर लेती हैं। वस्तुतः लड़के और लड़की की संरचना में कोई विशेष अन्तर नहीं है पर एक को उभरा हुआ और दूसरे को दबा हुआ व्यक्तित्व उन परिस्थितियों का परिणाम है जिसने लड़की को आत्महीनता की ग्रन्थि में जकड़ कर मजबूती के साथ बांध दिया है।

अपने आपको पानी, अभिशप्त, दुर्भाग्यग्रस्त, गृहदशा पीड़ित मान लेने से भी व्यक्तित्व दब जाता हैं। दूसरों को जो उपलब्ध है वह हमें नहीं मिला, दूसरों की तुलना में हमारे सामने कठिनाइयां अधिक हैं, अपना भविष्य अमुक कारणों से अन्धकारमय है ऐसा सोचते रहने वाले एक प्रकार से अपना गौरव, पौरुष और साहस खो बैठते हैं। भीतर से टूटे और हारे हुए मनुष्य भविष्य निर्माण की दिशा में कुछ सोच भी नहीं पाते—कर तो पावेंगे ही कैसे? हिन्दू विधवाओं को आमतौर से इसी वर्ग में गिना जा सकता है।

अपने से ऊंची स्थिति के लोगों के साथ अपनी तुलना करते रहने से सहज ही अपने दुर्भाग्य पर दुःख होता है। कदाचित यह तुलना अपने से छोटे लोगों के साथ की गई होती तो वर्तमान स्थिति को भी सौभाग्य शाली गिना जा सकता था। बड़ों की तुलना तक पहुंचने के लिये पुरुषार्थ जगता तो भी एक बात थी, पर यदि उससे अपने को दुर्भाग्यग्रस्त मान लिया गया है तब तो उस चिन्तन से अहित ही अहित है। उत्साह और विनोद की परिस्थितियां न मिलने पर—मित्रता, सहानुभूति, प्रशंसा और प्रोत्साहन न मिलने पर भी मन उदास होता है और थकान अनुभव करता चला जाता है। नीरस जिन्दगी कोल्हू के बैल की तरह चलने वाला ढर्रा मनुष्य विकासोन्मुख प्रवृत्तियों को कुचल कर रख देता है। ऐसे मनुष्य रोते-चीखते मौत के दिन पूरे करते रहते हैं, न उनमें आनन्द होता न उल्लास। भविष्य की अच्छी आशायें गवा कर फिर हाथ में रहता ही क्या है?

वियाना के मनोविज्ञानी डा. एल्फर्ड एडलर ने उदास और हतप्रभ लोगों के विश्लेषण में अधिकतर ऐसे लोग पाये जो स्वार्थरत रहते रहे और आत्मचिन्तन के निषेधात्मक पक्ष में ही उलझे रहे। अपने आपको स्वस्थ, सुसम्पन्न, विद्वान आदि बनने की बात सोचते रहने, स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि आदि की व्यक्तिगत लालसाओं में संलग्न व्यक्ति उस सहज आनंद से वंचित रह जाते हैं जो सामाजिक जीवन बिताने वाले एवं सामूहिक चिन्तन करने वाले लोगों को मिलता है दूसरों के सुख-दुख में भागीदार होना, उनकी कठिनाइयों को समझना एवं सहायता करना ऐसा गुण है जिसके कारण व्यक्ति लोकप्रिय बनता है। स्नेह, सम्मान एवं श्रद्धा सौजन्य अर्जित करने वाला व्यक्ति वैभव सम्पादित करने में संलग्न, संकीर्ण, स्वार्थपरायण व्यक्तियों की तुलना में कहीं अधिक प्रसन्न रहता है। उसका मनोबल अनायास ही बढ़ता जाता है।

अदक्ष होना कोई प्रकृति प्रदत्त अभिशाप या अभाव नहीं है। हर मनुष्य का मस्तिष्क लगभग एक जैसे कणों, कोषों एवं तन्तुओं से बना है। मानवी मस्तिष्कों की संरचना में उतना अन्तर नहीं होता जितना कि बौद्धिक दृष्टि से उनमें दिखाई पड़ता है।

इस अन्तर का प्रधान कारण मस्तिष्कीय शक्तियों को अभीष्ट विचारों एवं निर्धारित कामों पर पूरी तरह केन्द्रित करने में शिथिलता बरतना ही कहा जा सकता है। लोग काम तो करते हैं, पर वह कोल्हू के बैल की तरह—जेल खाने के कैदी की तरह अथवा मशीनी ढर्रे जैसा होता है। उसमें गहरी दिलचस्पी नहीं ली जाती यदि ली गयी होती तो उत्साह उत्पन्न होता, रस आता और तन्मय-तत्परता बरती गई होती। फलतः वही कार्य जो घटिया स्तर का बनकर रह गया—किसी कुशल कलाकार की कारीगरी बनकर सामने आता। हर काम यह घोषणा करता है कि उसे किस दिलचस्पी एवं तत्परता के साथ किया गया है। बारीकी से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्त्ता ने उसे बेगार की तरह टाला है—या प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर पूरी सावधानी के साथ सम्पन्न किया है।

हमारे विचार छितराये रहते हैं। कोई बात सोचने की अब आवश्यकता हो तो बहुत थोड़ी देर—समस्या के एक अंग पर आधे अधूरे मन से ध्यान देते हैं। इतने में ही मन अपनी सहज संरचना के आधार पर बहुमुखी दिशा में उड़ने लग जाता है। यदि पूरी दिलचस्पी के साथ प्रस्तुत समस्या पर विचार करने की आदत होती तो उसके प्रत्येक पहलू पर सोच विचार किया जाता। पक्ष और विपक्ष के तर्क एवं तथ्य सामने लाये जाते और गुण अवगुण की दृष्टि से पूरा मन्थन किया जाता। कई तरह के विकल्पों को सोचा जाता। आगत कठिनाईयां एवं उनके समाधानों को समझा गया होता। और कई दृष्टियों से गहराई तक वस्तु स्थिति में जाने का प्रयत्न किया गया होता। इतना मंथन करने के बाद जो निष्कर्ष निकलता, निर्णय किया जाता, निश्चय ही वह बहुत महत्वपूर्ण होता और उस आधार पर कदम उठाना असफलता एवं पश्चात्ताप का कारण न बनता।

आधी अधूरी बात सोचना एक पक्ष को ही समग्र मान लेना, विकल्पों और व्यवधानों को समझना इस लिए संभव नहीं होता कि विचारों की एकाग्रता, समग्रता और गहराई अभ्यास में नहीं होती। सर्वांगपूर्ण कार्य की तरह समग्र चिन्तन भी आवश्यक है। इसके लिए मानसिक आलस्य को हटाकर वैज्ञानिकों जैसी गहराई में उतरने की आदत को अभ्यास में सम्मिलित करना होगा। शरीर के आलस्य से काम खराब होते हैं। मन का आलस्य प्रमाद कहलाता है। बात को गम्भीरता से पूरी तरह न सोचना, अधूरे चिन्तन को ही पर्याप्त मान लेना, फूहड़ और अधूरे काम करने की अस्तव्यस्तता जैसी ही बुराई है।

प्रवीणता प्रकृति प्रदत्त गुण नहीं है वह अभ्यास की उपलब्धि है। तन्मयतापूर्वक काम करने वालों के हाथ कुशल कलाकार जैसे प्रवीण होते जाते हैं और उनका स्तर सदा सराहा जाता है ठीक इसी प्रकार किसी विचार पर पूरी सावधानी के साथ ध्यान केन्द्रित करना और उसके हर पक्ष पर सतर्कता पूर्वक विचार करना तात्कालिक समस्या का तो सही समाधान निकालना ही है। साथ ही एक बड़ा लाभ यह प्रस्तुत करता है कि समग्र चिन्तन की आदत उसे बुद्धिमान बनाती चली जाती है। कुशाग्र बुद्धि, सूक्ष्म दृष्टि, वस्तुतः समग्र एवं सर्वतोमुखी चिन्तन की आदत की परिपक्वावस्था ही है। पूरा चिन्तन करने के अभ्यास को ही दूसरे शब्दों में दूरदर्शिता, प्रतिभा सम्पन्नता, कुशाग्र बुद्धि आदि नामों से पुकारा जा सकता है। पूरा काम और पूरा विचार करना उस सतर्कता का परिणाम है। जो गहरी दिलचस्पी होने पर ही विकसित होती है। जिसे अपने कामों को पूरा मनोयोग लगा कर करने की आदत है, उसकी प्रगति और सफलता असंदिग्ध बन कर ही रहेगी।

आत्महीनता की ग्रंथि से ग्रसित व्यक्ति अपने पर, अपनी योग्यताओं पर विश्वास करना छोड़ देता है। वह किसी कार्य को पूरा कर सकेगा इस पर विश्वास नहीं कर पाता। आत्मविश्वास का अभाव सफलता में सबसे बड़ी बाधा है। अपने आप को हेय एवं तुच्छ मानना प्रकारान्तर से अपने भविष्य को अन्धकारमय बना लेने का स्वनिर्मित प्रयत्न ही कहा जा सकता है।

व्यक्तित्व को इस प्रकार सींचें

आत्महीनता से बचने के लिए स्वयं को प्रोत्साहन देते रहना इस मनोव्याधि की अचूक औषध है। पौधे को खाद पानी से सींचा जाता है और व्यक्तित्व को—प्रोत्साहन से। आत्मगौरव का अनुभव किया जाना चाहिये और कराया जाना चाहिए। गलतियां बताना और सुधारना एक बात है और व्यक्तित्व हेय तथा हीन सिद्ध करना दूसरी। प्रायः लोग एक बड़ी भूल करते हैं कि गलती की भर्त्सना करते हुए, निराकरण की अपेक्षा रखते हुए ऐसे कदम उठाते हैं जिन्हें आक्रमण की संज्ञा दी जा सकती है। बच्चों के साथ बड़े कहे जाने वाले—अभिभावक लोग भी प्रायः ऐसी ही भूल जान या अनजान में करते रहते हैं जिससे उनके व्यक्तित्व को भारी आघात पहुंचता है।

किसी गलती को मूर्खता कहा जा सकता है और उसे सुधारने पर बुद्धिमान कहलाने का रास्ता बनाया जा सकता है। किन्तु किसी को मूर्ख, मन्दबुद्धि, असभ्य, बेशऊर आदि कहते रहने से अनायास ही बड़ों के उस निर्देश अनुदान को अन्तःचेतना स्वीकार करती चली जाती है और क्रमशः हीनता के परत इतने मजबूत हो जाते हैं कि बच्चा सचमुच ही मन्द बुद्धि, बेशऊर और मूर्ख बन जाता है। व्यक्तित्व की दूरी आत्म मान्यता है। यदि अपने आपको अयोग्य, अभागा, अविकसित और पिछड़ा हुआ मान लिया जाय तो फिर समझना चाहिये कि उस मान्यता के इर्द गिर्द ही जीवन चक्र घूमता रहेगा। दुर्भाग्यग्रस्तता की स्थिति से मरण पर्यन्त पीछा न छूट सकेगा।

लड़कियों और लड़कों की प्रतिभा में अन्तर किसी शारीरिक अथवा मानसिक बनावट के कारण नहीं वरन् उनके साथ होने वाले भेद-भाव पूर्ण व्यवहार के कारण होता है। बेटे को अधिक लाड़ प्यार और अधिक सुविधा साधन मिलते हैं और बेटी को डाट डपट, उपेक्षा, अवज्ञा मिलने से लड़की का अन्तःकरण यह स्वीकार करता चला जाता है कि वस्तुतः वह हेय और हीन है। इस हेय मान्यता के कारण वह आजीवन डरी, सहमी, सकुची और पिछड़ी स्थिति में रहती है। यह कुसंस्कार बहुत प्रयत्न करने पर भी निकलते नहीं—अधिक प्रयत्न किया जाय तो वे उद्धत प्रदर्शन या उच्छृंखल व्यवहार में फूट पड़ते हैं। महिलाओं का अधिक फैशन बनाना, सजधज दिखाना, उनकी आत्महीनता का उद्धत प्रदर्शन है। कभी-कभी वे अधिक झगड़ालू बच्चों को पीटने वाली, रूठने वाली, आत्महत्या की धमकी देती देखी जाती हैं। उनके इस चण्डी रूप से उनका उच्छृंखल व्यवहार ही फूटता है। वस्तुतः ग्रह आत्म हीनता का ही दूसरा रूप है। अत्यधिक संकोची, बात-बात में रो पड़ने वाली न हो तो पग-पग पर उफनने वाली सही, दो परस्पर विरोधी दिशाओं में एक ही प्रवाह फूट पड़ता है।

प्रतिभा के विकास में मनुष्य को स्वाभिमानी, आत्मावलम्बी तथा आत्मविश्वासी होना चाहिये और किसी के भी द्वारा थोपे गये आत्म हीनता के निर्देशों को अस्वीकार कर देना चाहिए। गलती ढूंढ़ने, पूंछने और सुधारने का प्रयत्न जारी रहना चाहिये। वस्तुतः यदि अधिक योग्य बनने का रचनात्मक प्रयास और उत्कर्ष का क्रमिक विकास तो महान् से महान् व्यक्तियों को भी इसी प्रकार अपनाना पड़ा है। प्रगति का अर्थ ही गलती सुधारने में तीव्रता उत्पन्न होना है। यह क्रम पूंछने बताने से और भी अधिक सही होता है। पर वह रचनात्मक होना चाहिये। मनुष्य का, मनुष्यता का मूल्य समझने वाले प्रत्येक विवेकवान् व्यक्ति का दृष्टिकोण यह होना चाहिये कि किसी के व्यक्तित्व पर आक्रमण न करे। बड़ा सांढ़ छोटे बछड़े के पेट में सींग घुसेड़ सकता है—बड़ा कुत्ता छोटे कुत्ते की गर्दन दांतों से फेफड़े सकता है, पर ऐसा व्यवहार मनुष्य को मनुष्य के साथ तो नहीं करना चाहिये। व्यक्तित्व को छोटा, घटिया, गया बीता बताना उसके भविष्य को अन्धकारमय बताना उतना बुरा है जिसे उसके साथ किये गये किसी भी दुर्व्यवहार के समतुल्य माना जा सकता है। बलवान दुर्बल को पछाड़ कर इसका कचूमर निकाल सकते हैं, इसी प्रकार प्रभावशाली, शक्ति सम्पन्न व्यक्ति छोटे लोगों को हेय, हीन ठहरा कर उसके मनोबल को तोड़ सकते हैं। यह बुद्धि एवं प्रतिभा का आक्रमणात्मक दुरुपयोग है।

हमें रचनात्मक सुझाव देने चाहिये। यह काम बुरा हुआ इसकी उतनी अधिक व्याख्या करने की जरूरत नहीं है—जितनी कि सुधार के लिये जो किया जा सकता है उसका सुझाव देने की। सुझाव रचनात्मक होते हैं। उनसे दिशा मिलती है और लाभ होता है, किन्तु भर्त्सना से मन छोटा होता है। तिरस्कार के फलस्वरूप द्वेष-दुर्भाव की खाई चौड़ी होने के अतिरिक्त और कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। गलती से होने वाली हानि और सुधार का तरीका अपनाने का लाभ तुलनात्मक रीति से समझाया जा सकता है। दूसरे के दबाव से, परिस्थितियों से, अपनी आत्म अवज्ञा से आत्महीनता की मनोवैज्ञानिक ग्रन्थि बनती है और उसके कारण व्यक्तित्व बहुत ही दीन और दुर्बल बन जाता है। ऐसे व्यक्ति दब्बू, संकोची, चापलूस, हां में हां मिलाने वाले, असहमति को प्रकट न कर सकने वाले, भीतर ही भीतर खीझे-रूठे रहने वाले होते हैं। उनसे कोई बेगार ले सकता है, ठग सकता है, साहस के अभाव में वे यह तक प्रकट नहीं कर सकते कि उनसे जो कुछ कराया जा रहा है, जो वे कर रहे हैं उसमें उनकी स्वेच्छा नहीं है।

मनोविज्ञानी जे.सी. राबर्टस ने अपनी ‘‘दैनिक जीवन में मनोविज्ञान’’ विषय की पुस्तकों में इस बात पर बहुत जोर दिया है कि हर मनुष्य को अपने भीतर से साहस का उदय करना चाहिये। अपने आप को सबसे बड़ा न सही—कम से कम सबसे अयोग्य मानना तो बन्द कर ही देना चाहिये। परमात्मा ने प्रत्येक व्यक्ति को दो लगभग समान स्तर की क्षमता प्रदान की है। सबके भीतर प्रगति के बीज छिपे पड़े हैं, और हर कोई अपनी सामर्थ्य को विकसित करने में समर्थ है। अन्तर इतना ही रहता है कि साहसी लोग अपने को पहचानते हैं—अपने ऊपर भरोसा करते हैं और अपनी श्रेष्ठता से साथियों को प्रभावित करके अच्छा सम्मान, सद्भाव एवं सहयोग सम्पादित करते हैं। इसके विपरीत दब्बू लोग यह छाप छोड़ते हैं कि इनसे किसी को कुछ मिलता तो है नहीं—उल्टे सदा भार और सिर दर्द सिद्ध होते रहेंगे। इसलिये इससे तो बचना ही ठीक है। हर व्यक्ति एक दूसरे से कुछ चाहता है और इस आशा से मैत्री करता है कि उनके सम्पर्क में प्रसन्नता और प्रगति की सम्भावना बढ़ेगी। जो इस कसौटी पर खरे उतरते हैं उनके स्नेही, समर्थक और सहयोगी सहज में ही बढ़ते जाते हैं। इसी संचय से मनुष्य उन साधनों से सम्पन्न बनता है जो अंतरंग बहिरंग प्रति का पथ प्रशस्त करते हैं। आत्म हीनता से ग्रसित व्यक्ति का मित्र वह है जो सदा उसके गुणों की चर्चा करे—प्रतिभा को निखारे—प्रशंसा करे और प्रोत्साहन प्रदान करे। साहस की अभिवृद्धि, धन सम्पत्ति, विद्या, रूप-सौन्दर्य आदि सभी विभूतियों से बढ़ी-चढ़ी उपलब्धि है। साहस जीतता है, आत्मबल सबसे बड़ा बल है। आत्म विश्वास और हिम्मत के साथ जिस दिशा में भी बढ़ा जायेगा, उसी में सफलता मिलती चली जायगी। यदि यह तथ्य समझ लिया जाय तो आत्महीनता की निकृष्ट दरिद्रता से पीछा छुड़ाना हर किसी को प्रथम कर्त्तव्य प्रतीत होगा।

जन-सम्पर्क के काम करने की आदत डालना भी इस दृष्टि से एक अच्छा उपचार है। चार दुकानों पर मोल भाव करके और घटिया-बढ़िया तलाश करके शाक-भाजी खरीदने का नुस्खा छोटा होने पर भी इस रोग में बड़े काम का है। अपने हाथों टिकट खरीदने, सामान बुक कराने, सीट रिजर्व कराने, जैसे छोटे काम करने से भी हिम्मत खुलती है। आदान प्रदान में वार्तालाप करना आवश्यक हो जाता है। गोष्ठियों और प्रतियोगिताओं में भाग लेने से भी अपनी अभिव्यक्तता प्रकट करनी पड़ती है। यह अच्छे अभ्यास हैं। यह न सोचा जाय कि मैं कुछ नहीं हूं वरना यह मानना चाहिए कि मैं भी कुछ हूं। विश्व भर में से व्याप्त असीम बुद्धि चेतना और प्रचंड शक्ति सामर्थ्य का समुचित अंश सभी में विद्यमान है। अतः न किसी को निराश हताश होने की आवश्यकता है और न ही अपने आपको हेय हीन दुर्बल मानने की अपने प्रति भरपूर आस्था अटूट आत्म विश्वास जागृत कर मस्तिष्कीय शक्तियों को जगाने व उनका सदुपयोग करने में ही सर्वविध कल्याण है।
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