मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्युटर

​​​यों नष्ट होती हैं शक्ति क्षमतायें

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मस्तिष्क यों विलक्षण क्षमताओं का केन्द्र है पर सर्व साधारण न उन क्षमताओं का उपयोग कर पाते हैं और न उनके बारे में जानते ही हैं। ये क्षमतायें जाग्रत हो सकें, इस तरह की परिस्थितियां मनुष्य के लिये स्वयमेव ही उपलब्ध हैं परन्तु अपनी ही गल्तियों के कारण वह उन शक्तियों क्षमताओं को नष्ट करता रहता है। इन गल्तियों के दुष्परिणाम चिंता, तनाव, आत्महीनता, और विविध भांती के मनोरोगों के रूप में उत्पन्न होते रहते हैं। इन्हीं कारणों से मनुष्य अस्त-व्यस्त, दीन-हीन, क्षुद्र, दुर्बल और पंगु अकर्मण्य बनता चलता है।

ये विकृतियां क्यों उत्पन्न होती हैं? इनके क्या दुष्परिणाम होते हैं यह यदि जान लिया जाय तो इनको समाप्त करने का मार्ग भी मिल सकता है और इनके कारण होने वाले दुष्परिणामों से भी बचा जा सकता है। सौ में से निन्यानवे मानसिक विकृतियां तो मनुष्य के सोचने समझने के दूषित ढंग से ही उत्पन्न होती हैं। उदाहरण के लिये चिंता को ही लें। जन्म के समय सभी निश्चित और प्रफुल्लित रहते हैं बन्द मुट्ठियां लेकर जन्मने वाले बच्चे के पास भौतिक दृष्टि से क्या होता है? कुछ भी नहीं। फिर वह कौन-सी ज्योति है जो एक शिशु अपने नन्हे हृदय में धारण किये इस संसार में विनोद उल्लास की अभिवृद्धि करता रहता है। सर्वथा अकिंचन, असमर्थ और नासमझ बच्चे की सक्रियता भी इस समय देखते ही बनती है। लेकिन बड़ा होने पर वही व्यक्ति, सही स्वस्थ दृष्टिकोण एवं समुचित प्रशिक्षण के अभाव में, जहां एक ओर महत्वाकांक्षाओं के नाम पर ऊंची कल्पनात्मक उड़ानों का अम्बार लगा लेता है, वहीं दूसरी ओर काल्पनिक चिन्ताओं के भयंकर नागों और प्रचण्ड महासर्पिणियों को पाल-पोसकर उनकी वंश वृद्धि करता जाता है।

अधिकांश व्यक्ति अधिकतर समय किसी न किसी चिन्ता के तनाव से व्यग्र-बेचैन रहते और तड़पते रहते हैं। चिन्ता सदा बड़ी या विशेष बातों को ही लेकर नहीं होती। कई बार तो बहुत ही मामूली, छोटी-छोटी बातों को लेकर लोग चिन्ता पालते रहते हैं। मन तो है। मन तो है, जैसा अभ्यास डाल दिया जाए, बेचारा वफादार नौकर की तरह वैसा ही आचरण करने लगता है। जब अपनी चिन्ता नहीं होती, तो पड़ौसियों के व्यवहार-विश्लेषण और छिद्रान्वेषण द्वारा चिन्ता के नये-नये आधार ढूंढ़ निकाले जाते हैं। या फिर नमाज के बिगड़ जाने, लोगों में भ्रष्टाचार फैल जाने, खाद्य पदार्थों में मिलावट की प्रवृत्ति बढ़ने, दो लड़के-लड़कियों द्वारा अन्तर्जातीय प्रेम-विवाह कर लेने, मुहल्ले की किसी बारात की व्यवस्था ठीक न होने, किसी नवविवाहित दंपत्ति का ‘पेयर’ ठीक न होने आदि की गम्भीर चिन्ताएं, प्रसन्नता और एकाग्रता को चाट जाने के लिए पर्याप्त ही सिद्ध होती हैं। मोटर में बैठे हैं, तो चिन्ता लगी है कि कहीं मोटर के सामने से आ रहे किसी ट्रक या बस की भिड़न्त न हो जाए, अथवा चालक निद्राग्रस्त न हो जाए, वायुयान में जा रहे हैं, तो चिन्ता हो गई है कि कहीं यह विमान सहसा नीचे न गिर जाए।

धर्मपत्नी किसी से सहज सौम्य वार्त्तालाप कर रही है, तो पति महोदय को चिन्ता हो गई है कि कहीं यह व्यक्ति इस वार्त्तालाप को अपने परिचितों के बीच गलत रूप में न प्रचारित करे। याकि पत्नी कहीं उससे मेरी बुराई न करती हो अकेले में। कहीं धर्मपत्नी स्वभाव से मितभाषी हुई, तो चिन्ता है कि लोग इसे मूर्ख या घमण्डी न समझ बैठें। इसी तरह पति महोदय कार्यालय से देर से आये तो पत्नी चिंतित है कि कहीं मेरे प्रति इनका प्रेम घट तो नहीं रहा। ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें उनके परिचित यदि व्यस्तता में या कि अन्यत्र ध्यान दिए होने के कारण किसी दिन नमस्कार करना भूल जाएं, तो उन्हें चिन्ता होने लगती है कि कहीं मेरे प्रति इसकी भावना तो परिवर्तित नहीं हो गई। है तो चिन्ता एक काल्पनिक उड़ान मात्र किन्तु व्यक्ति उसे यथार्थ की तरह मानकर तनाव और भय से भर उठते हैं। यह बैठे ठाले अपने शरीर संस्थान को एक अनावश्यक श्रम में जुटा देने तथा कष्ट में फंसा देने वाली क्रिया है। इसके परिणामस्वरूप सर्वप्रथम होता है अपच। क्योंकि उदर-संस्थान स्वाभाविक गति से कार्य नहीं कर पाता। फिर अनिद्रा, सिर दर्द, सर्दी-जुकाम आदि का जो क्रम प्रारम्भ होता है वह हृदय रोग तक पहुंचकर दम लेता है। मनःशक्ति के अपव्यय से एकाग्रता और मनोबल का ह्रास होता है, स्मरणशक्ति शिथिल होती जाती है, और जीवन में विषाद ही छाया रहता है।

चिन्ता करने का अभ्यस्त मन सोते में देखे गये चित्र-विचित्र स्वप्न दृश्यों का मुफ्त के सिनेमा के रूप में आनन्द लेना तो दूर, उनकी अजीबोगरीब व्याख्याएं ढूंढ़ता-पूछता रहता और अन्धविश्वास सत्रास तथा मतिमूढ़ता की एक निराली ही दुनिया रचता रहता है। वह हताश और भयभीत रहता है तथा अपनी वास्तविकता क्षमता का एक बड़ा अंश अनायास ही गंवा बैठता है। विपत्तियों का सामना करने में, शत्रुओं से संघर्ष में जो शक्ति व्यय की जाने पर सफलता और आनन्द प्रदान करती, वह काल्पनिक भय के दबाव से क्षत-विक्षत होती रहती है। ऋण पटाने के लिए, किये जाने वाले पुरुषार्थ में यदि वही शक्ति नियोजित की गई हो तो, जो कर्ज के भार से लदे होने की चिन्ता में बहाई जा रही है, तो मस्तक ऊंचा होता और चित्त प्रफुल्ल। चोर-लुटेरों की, काल्पनिक विपदाओं की चिन्ता व्यक्ति की शक्ति को लीलती रहती है। असफल रह जाने की चिन्ता भी कई लोगों की मृत्यु के समान दुःखदायी प्रतीत होती है। वे इस सामान्य तथ्य को भुला बैठते हैं कि असफलता और सफलता तो सभी के जीवन में आती-जाती रहती हैं। अपने दुराचरण और अपराध पर तो ग्लानि स्वाभाविक है। पर उसकी भी चिन्ता करते रहने से मन क्षेत्र में कुंठा और विषाद की ही वृद्धि होगी। आवश्यक है वैसे आचरण की अपने भीतर विद्यमान जड़ों को तलाश कर उन्हें उखाड़ फेंकना तथा प्रायश्चित के रूप में समाज में सत्प्रवृत्ति के विस्तार में अपना योगदान देना, कोई सृजनात्मक विधि अपनाना जिससे मन का वह भार हल्का हो सके।

चिन्ता सदैव भय उत्पन्न करती और आत्मविश्वास का हरण करती है। भविष्य में आने वाली कठिनाइयों, उपस्थित होने वाले अवरोधों-उपद्रवों, आ पड़ने वाली विपत्तियों-प्रतिकूलताओं और प्राप्त होने वाली विफलताओं की कल्पना-जल्पना, आशंका-कुशंका चित्र-विचित्र रूप धारण कर व्यक्ति को भयभीत करती और साहसहीन बनाती रहती है। आत्मविश्वास नहीं रहे तो अपने को ही प्राप्त सफलताओं तक का स्मरण नहीं रहता, किसी दिशा में तेजी से चल पड़ने का साहस नहीं जुट पाता, जबकि प्रगति-पथ पर अग्रसर होने के लिए आत्मविश्वासजन्य साहस की सर्वोपरि आवश्यकता है। चिन्तन तो अनिवार्य है। किसी रास्ते या काय-विशेष को चुनने के पहले उसके सभी पहलुओं पर भली-भांति चिन्तन, मनन करना आवश्यक है, पर निर्णय लेने के बाद अभीष्ट प्रयोजन के लिये तत्परतापूर्वक जुट जाना होता है। चिन्ता का तब अवकाश ही नहीं रहना चाहिये। चिन्ता तो निष्क्रियता की उत्पत्ति भी है और उत्पादक भी। चिन्ता से विक्षुब्ध मन, शक्ति का कितना ह्रास करता है, यह यदि लोग जान जाएं तो कभी उद्विग्नता और तनाव की जननी चिन्ता को प्रश्रय न दें। अधिकांश लोग प्रतिकूल परिस्थितियों में चिन्ताग्रस्त होकर हताशा के गहन अन्धकार के विवर्तों में फंसकर अपना सब कुछ गंवा बैठते हैं। किन्तु मनस्वी, विवेकी व्यक्ति ऐसी विषम स्थितियों में अधिक साहस और सक्रियता के साथ आगे बढ़ते हैं तथा विजय प्राप्त करते हैं। आशा और उल्लास मनुष्य-जीवन के चिरंतन सुरभित पुष्प हैं। चिन्ता की काली छाया से इन्हें कुम्हलाने ने देने पर ही मानव-जीवन सुगन्धित प्रमुदित रह सकता है और अन्यों से भी सुरभि-सुषमा वितरित कर सकता है।

चिन्ता इन सुरभि-सुषमा को समाप्त कर डालती है। इसलिए चिन्ता को चिता से भी बढ़कर कहा गया है। चिता यो मृत्यु के पश्चात् जलाती है, पर चिन्ता ज्वाला जीवित व्यक्ति को ही जलाना आरम्भ कर देती है। मस्तिष्क चिन्ता से झुलस कर निस्तेज और धुंआ से भरा रहता है। उसे चारों ओर धुंआ ही नजर आता है, ज्योति और उल्लास तो कहीं दीखता ही नहीं।

एक जर्मन मनोवैज्ञानिक ने चिन्ताग्रस्त लोगों का सर्वेक्षण किया। ज्ञात हुआ कि मात्र 8 प्रतिशत चिन्ताएं ऐसी थीं, जिन्हें वजनदार कहा जा सकता था। 10 प्रतिशत ऐसी थीं, जो थोड़े प्रयास से सुलझ गईं। 12 प्रतिशत स्वास्थ्य सम्बन्धी सामान्य चिन्ताएं थीं, जो सामान्य उपचार से ही सुलझ गईं। 30 प्रतिशत ऐसी थी, जो थीं तो वर्तमान से ही सम्बन्धित, पर जो साधारण सूझ बूझ से सुलझ गईं। सर्वाधिक 40 प्रतिशत चिन्ताएं काल्पनिक समस्याओं और आशंकाओं से सम्बन्धित थीं।

ओसा जान्स का कथन है—‘‘यदि मैं सतत सृजनात्मक चिन्तन एवं कर्म में संलग्न रहने की विधि न सीख पाता तो औरों की तरह मुझे भी चिंता घुल घुल कर मरना होता। व्यस्तताओं विषमताओं से भरे संसार में चिंता के झोंके यदा-कदा आते रहते हैं, पर उन्हें कभी भी चित्त पर अपना प्रभाव अंकित नहीं करने देना चाहिए। मानव जीवन एक सुरम्य उद्यान है। इसमें आनन्द उल्लास की, सुन्दर, कोमल संवेदनाओं के रूप में रंग-बिरंगे पुष्पों की कमी नहीं है। इन हंसते मुस्कराते फूलों को चिन्ता की ज्वाला से झुलसने से बचाये रहने की कला का अभ्यास सभी को करना ही चाहिये।

चिन्ता की सहोदरी खिन्नता

चिन्ता के समान ही शरीर मंदिर को ध्वस्त करने वाली एक दूसरी मानसिक दुर्बलता हैं।

संसार में ऐसे न जाने कितने व्यक्ति देखने को मिल सकते हैं, जो हर समय कुछ सोचते-विचारते से रहते हैं। उनका मुख मलीन और मुद्रा गम्भीर रहती है। काम करते हैं तो स्पष्ट झलकता है कि यह काम कर रहा है, उसमें उसका मनोयोग रंचमात्र भी नहीं है, यों ही हाथ-पैर चलाता हुआ सक्रियता की अभिव्यक्ति ही कर रहा है। केवल उनकी क्रिया देखने से ही नहीं, काम का स्वरूप देखकर भी पता चल जाता है कि यह काम उत्साहपूर्वक, मनोयोग द्वारा नहीं किया गया है। बेगार टाली गई है, या कोई मजबूरी पूरी की गई है। किसी भी काम पर मनुष्य के मन की छाप पड़ना स्वाभाविक ही है। उत्साह के साथ मन लगाकर कर्तव्यपूर्वक किये हुए किसी भी कार्य की सफलता, सुन्दरता, व्यवस्था तथा समयांश स्पष्ट बता देता है कि इसका करने वाला कोई जीवन्त, उत्साही और कर्मों के धर्म और उसकी पवित्रता को जानने वाला उसमें आस्था रखने वाला व्यक्ति है। इसके विपरीत किसी भी ऐसे काम को, जिसमें किसी प्रकार का कर्तृत्व न झलका हो, जिसमें सफाई सुव्यवस्था और आकर्षण का अभाव है अथवा जिसे देखकर मन प्रसन्न न हो जावे, आंखें तृप्त न हो आयें देखकर विश्वास कर लीजिये कि इस काम का करने वाला अदक्ष, अस्वस्थ अथवा निरुत्साही व्यक्ति है।

इस प्रकार की असफल अभिव्यक्तियों वाला अवश्य ही कोई ऐसा व्यक्ति होता है, जो व्यग्र, चिन्तित, खिन्न अथवा निराश मनोदशा वाला होता है। जिन लोगों की आदत खिन्न और अप्रसन्न रहने की हो जाती है, वे एक प्रकार से मानसिक रोगी ही होते हैं। किसी काम, किसी बात और किसी व्यवहार में उनका मन नहीं लगता। उनके अन्दर एक तनाव की स्थिति बनी रहती है और वे प्रतिक्षण मानसिक खींचातानी में पड़े रहते हैं जिसका फल यह होता है कि उनकी बहुत-सी ऐसी जीवन शक्ति जलकर भस्म हो जाती हैं, जिसका सदुपयोग करने से सफलता के पथ पर, उन्नति के शिखर पर अनेक विश्वस्त कदमों को बढ़ाया जा सकता है।

परमात्मा ने मनुष्य को जीवन दिया, जीवनी शक्ति दी, सक्रियता तथा कार्य के प्रति अभिरुचि प्रदान की—इसीलिये कि वह अपने कर्तव्यों में सुचारुता का समावेश करके संसार को सुन्दर बनाने, सुखी करने में अपना योगदान करे और उसी माध्यम अथवा मार्ग से स्वयं भी अभ्युदय की ओर बढ़े अपना और अपनी आत्मा का उपकार करे, सुखी सम्पन्न और सन्तुष्ट जीवन पाकर यह अनुभव कर सके कि मानव-जीवन में सुन्दरताओं के भंडार भरे पड़े हैं, उसके सत्य स्वरूप, सत्-चित्-आनन्द के विषय में सत्य ही कहा सुना गया है। किन्तु होता यह है कि लोग अपने अन्दर खिन्नता, अप्रसन्नता अथवा निराशा का रोग पाल कर सर्वसम्पन्न, मानव जीवन को आग और अंगारों का भाग बना लेते हैं। सफलता, अभ्युदय और प्रकाश की ओर अग्रसर होने के स्थान पर विफलता अवनति और अन्धकार के शिकार बन जाते हैं। यह बहुत ही खेद का विषय है, किन्तु इससे भी अधिक दुःख की बात यह है कि वे यह नहीं समझते कि इस प्रकार की मनोदशा से वे अपनी और इस संसार की कितनी गहरी क्षति कर रहे हैं। और यदि समझ कर भी अपना सुधार करने खिन्नता की बेड़ियों से छूटने का प्रयत्न नहीं करते, तब तो इस पर होने वाले दुःख का वारापार ही नहीं रह जाता खिन्नता अथवा अप्रसन्नता की स्थिति अकल्याणकर है—इसमें शीघ्र ही छूट लेना अच्छा है। खिन्न रहकर जीवन को नष्ट करने का किसी भी मनुष्य का अधिकार नहीं है।

खिन्न मनःस्थिति वाले व्यक्ति को विशेष का रोग लग जाता है कहीं भी किसी बात में उसका मन नहीं लगता, घर में प्रसन्न बच्चों की क्रीड़ा, उनका उछलता-कूदना, खेलना और प्रसन्न होना उसे ऐसा अखरता है मानो वे भोले-भाले प्रसन्न बच्चे उसका अहित कर रहे हों। वह उनकी क्रीड़ा देखने पर प्रसन्न होने, हंसने और उनके केलिकल्लोल में सहभागी होने के बजाय उन्हें डांटने-मारने लगता है अथवा उससे विरक्त होकर, दुःखी होकर दूर हट जाता है अथवा बाहर चला जाता है। यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि उसका घर प्रसन्नता और उल्लास का आगार बना हुआ है, किन्तु खिन्न व्यक्ति उसका आनन्द नहीं ले सकता उल्टे अपने मानसिक वैदूर्य के कारण वह पारिवारिक सुख उसे कष्ट देता है। इसे भाग्य की वंचना के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता।

बच्चों की क्रीड़ा ही नहीं खिन्नता व्यक्ति को अपनी पत्नी का विनोद, उसकी मुस्कान, उसका कथन अथवा अन्य प्रियतादायक बातें अच्छी नहीं लगतीं। पत्नी हंसती है तो वह गुर्रा उठता है। पत्नी कोई बात कहती, पूछती अथवा सुनाती है तो काटने दौड़ता है। अस्वस्थ मन वालों की अनुभव शक्ति कुछ इस प्रकार की उल्टी हो जाती है कि उन्हें अनुकूल से अनुकूल बात भी प्रतिकूल और सुन्दर से सुन्दर वातावरण दुःखमयी लगने लगता है।

खिन्न व्यक्ति सर पर बाल-बच्चों के बीच तो त्रस्त रहता ही है, बाहर जाकर भी उसे शांति एवं समाधान नहीं मिल पाता। कुछ ही समय में मित्रों के सम्पर्क से, उनके साथ मनो-विनोद और वार्तालाप में ऊब उठता है। उसे उपयोगी से उपयोगी बात-चीत बेकार की बकवास लगती है। उसे बाह्य संसार का कोलाहल, उसकी हलचल उसका क्रिया-कलाप काटने को दौड़ता है। उपवन अथवा एकान्त में भी उसका चित्त शांति से वंचित रहता है। खिले हुये फूलों का सौंदर्य और कलरव करती हुई चिड़ियों का सुख उसके लिये असम्भव रहता है। कुछ ही देर में उपवन का सौंदर्य उसके लिये वन की भयानकता में बदल जाता है। एकांत अथवा निर्जन स्थान में तो उसकी दशा और भी खराब हो जाती है। वहां पहुंचते ही उसके मन की भयानकता, बाह्य निर्जसता में मिल कर वातावरण इतना असह्य बना देती है कि उसे वह स्थान श्मशान जैसा लगने लगता है। उसे अपने से, अपनी छाया से भय लगने लगता है, जिससे वह उस शांत स्थान में भी शांति नहीं पा पाता, जिसमें पहुंचकर किसी भी स्वस्थ चित्त व्यक्ति को नये विचार, नूतन भाव और एक अलौकिक निस्तब्धता की उपलब्धि हो सकती है।

सुख-शांति के स्थानों, घर और बाहर किसी का उद्विग्न रहना, त्रास एवं संताप पाना कितना बड़ा दण्ड हो सकता है। यह दण्ड किसी बड़े पाप का ही परिणाम हो सकता है और वह पाप निश्चित रूप से वह पिशाचिनी खिन्नता ही है, जिसे अज्ञानी व्यक्ति अपने मनोमन्दिर में बसा लेता है, जिसमें सद्विचारों और शांति-सन्तोष के देवी-देवताओं की स्थापना करनी चाहिये। जितना शीघ्र इस पाप से छूटा और बचा जा सके उतना ही कल्याणकारी है।

खिन्नता के दोष से मनुष्य के मन में विक्षेप का विकार उत्पन्न हो जाता है, जिससे न तो उसका मन किसी काम में लगता है और न किसी स्थान में उसे शांति मिलती है। जहां आस-पास लोग हंसते-बोलते अपना काम-काज करते संसार के सभी व्यवहारों को निभाते, उन्नति और प्रगति करते हुए दिखाई देते हैं, वह मलीन मन व्यक्ति हर समय शोक संताप में जलता और रोता-झींकता रहता है। संसार का कोई भी काम यह ठीक से नहीं कर पाता। अभी एक काम प्रारम्भ किया कि शीघ्र ही उसे छोड़ कर दूसरा करने लगा। अभी कहीं जाने का उत्साह जागा कि दूसरे ही क्षण अन्दर बैठी खिन्नता की डायन ने उसे क्षीण उत्साह का गला दबा दिया। खिन्न व्यक्ति का मनोबल नष्ट हो जाता है, उसका आत्म-विश्वास उसे छोड़ कर चला जाता है। जिससे वह संसार में आगे बढ़ने, अपनी आत्मा का उद्धार करने के लिये पुरुषार्थ के योग्य नहीं रहता।

चिंता और खिन्नता जैसी मानसिक विकृतियां दुर्बल मनःस्थिति अथवा मानसिक रुग्णता के परिणामस्वरूप ही उत्पन्न होती हैं। इस तरह की मानसिक दुर्बलताएं व्यक्ति के स्वभाव में रचपच जाती है तो वह न केवल मानसिक दृष्टि से अपितु शारीरिक दृष्टि से भी अकर्मण्य निरूपाय और कुछ न कर सकने की स्थिति में आ जाता है। स्वभाव में सम्मिलित होने वाली मानसिक दुर्बलताओं में से एक है बिना सोचे समझे कभी भी कुछ भी कर डालने की आदत। इस दुर्बलता को सनकीपन भी कहा जा सकता है।

परिपक्वता का अभाव

सनकें जब अपने पूरे उभार पर होती हैं तो वह अपने वाहन को इस कदर आवेश ग्रस्त कर देती हैं और विश्वासों की इतनी गहरी भूमिका में उतार देती हैं कि वह बेचारा सम्भव असम्भव का भी भेद भूल जाता है अपनी तर्क शक्ति गंवा बैठता है और जो कुछ भी उसे सनक ने मान बैठने के लिये कहा था उन्हीं पर पूरा विश्वास करने लगता। सनकी की मनःस्थिति के अनुरूप वे कल्पनायें कई बार एक सचाई की तरह मस्तिष्क में जड़ जमाती हैं और धीरे-धीरे व्यक्ति गहरा विश्वास करने लगता है कि वस्तु स्थिति वही है जो उसके कल्पना क्षेत्र में उमड़-घुमड़ रही है। ऐसी स्थिति में उसके लिए कल्पना, कल्पना न रहकर एक सचाई बन जाती है और वह अपनी ही उड़ानों में मान्यताओं में मकड़ी की तरह बेतरह जकड़ जाता है। पूर्ण या आंशिक भावोन्माद की यह स्थिति कितने ही लोगों में देखी गई है। पागलखाने के डॉक्टर ऐसे लोगों को पागल नहीं कह सकते क्योंकि अमुक विशिष्ठ सनक के अतिरिक्त अन्य बातों में वे साधारण लोगों की तरह सोचते और काम करते हैं यदि वे पागल होते तो सभी बातों में पागल होते। डॉक्टर अधिक से अधिक उन्हें सनकी कह सकते हैं।

सनक का एक विचित्र उदाहरण देखिए। अमेरिका में एक बहुत ही सुसम्पन्न और सुशिक्षित व्यक्ति अंतर्ग्रहीय उड़ानों की कल्पना करते-करते सनक की इस स्थिति में जा पहुंचा, जहां वह मान्यता बना बैठा कि वह शुक्र ग्रह के बारे में न केवल बहुत जानता भी है वरन् उस लोक की यात्रा तक कर आता है। वह शुक्र के राजकुमार का मित्र है और ऐसा अन्तरिक्ष यान बनाने की विधि जान चुका है जो अन्तर्ग्रही यात्राएं बड़ी सरलता से और कम खर्च में कर सकें।

यह व्यक्ति दो करोड़पति कम्पनियों का अध्यक्ष था। उम्र पचपन साल। नशेबाजी से बिलकुल दूर विवाहित दो बच्चों का पिता, धार्मिक प्रकृति, नियमित रूप से गिरजा जाने वाला, निवासी वाशिंगटन का, नाम हैराल्ड जैसी बर्नी।

अन्तरिक्ष यात्राओं के सम्बन्ध में अति भावुकता पूर्वक एकांकी चिन्तन करते-करते उसने यह मान्यता ली कि वह दो बार शुक्र की यात्रा कर चुका है—‘‘वहां के राजकुमार को अपना मित्र बना चुका है और ऐसी एक कम्पनी बनाने में उसका सहयोग प्राप्त कर चुका है जो उसके कल्पित ‘मैगनेटिक फ्लस मोडलेटर’ सिद्धान्त के अनुसार सस्ते, सरल और सुविधाजनक अन्तरिक्षयान बनाया करेगी। उसने इस कम्पनी का नाम रखा ‘‘प्रोपल्सन रिसर्च लेवोरेटरीज’’। वर्नी अपने को संसार का सर्व प्रथम शुक्र ग्रह यात्री मानता था और उसने अपनी दो यात्राओं का विवरण बताने वाली पुस्तक ‘‘शुक्र ग्रह में दो सप्ताह’’ भी लिखी वह 118 पृष्ठ की थी। उसकी सीमित प्रतियां टाइप की गई थीं प्रेस में नहीं छपाई गई थी, क्योंकि विषय ‘अत्यन्त गोपनीय था’ इस आविष्कार के आधार पर ‘‘अरबों खरबों की सम्पत्ति कमाई’’ जानी थी।

बर्नी अपनी सनक में पूरी तरह खो गया था। कल्पना और यथार्थता का अन्तर भुला देने वाली उसकी मनःस्थिति बन गई थी। उसने आवेश में अपने 169,000 डालर के शेयर बेच डाले। आश्चर्य यह कि जिस आत्मविश्वास के साथ बातें की उससे प्रभावित होकर अनेक सुसम्पन्न लोग उसकी बातों पर यकीन करने लग गये और उसके शुक्र ग्रह अभियान में सम्मिलित हो गये उस कार्य के लिये इन लोगों ने भी अपना प्रचुर धन लगा दिया। सनक का स्वरूप इतना बड़ा योजनाबद्ध हो सकता है, इसका इतना आश्चर्यजनक उदाहरण अत्यंत कदाचित् ही मिलेगा।

बर्नी की महिला सेक्रेटरी ‘एन्जेलिका’ पूरी तरह इन गति-विधियों पर विश्वास करती थी। उस बेचारी को पता तक न था कि जिस प्रयोजन के लिये वह इतनी दौड़-धूप कर रही है, एक दिन बर्नी को और भी विचित्र सनक चढ़ी उसने शुक्रग्रह से अपनी सेक्रेटरी को वहां के राजकुमार यूसीलस की ओर से फोन कराया कि इस ग्रह पर आकर बर्नी बीमार हो गये हैं और अपने साथियों के नाम अमुक सन्देश नोट कराते हैं जो उन तक पहुंचा दिया जाय। सेक्रेटरी ने वैसा ही किया। इसके बाद कुछ समय उपरान्त ही उसके मरने का समाचार आ गया।’’ सेक्रेटरी ने उचित समझा कि अमेरिका भाग्य बदल देने वाली इतनी बड़ी योजना को अधूरी न पड़ी रहने दें वरन् राष्ट्रपति को बता दें। बदहवासी में किन्तु पूरे आत्म विश्वास के साथ एंजेलिका राष्ट्रपति आइजन हावर से मिली। बर्नी की दो शुक्र यात्राओं से लेकर उसका अन्तरिक्ष यान बनाने की योजना और उस लोक में जाने का पूरा विवरण बताया और सुझाव दिया कि वे स्वयं इस कार्य को हाथ में लें और आगे बढ़ायें।

राष्ट्रपति ने इस रोमांचक एवं विचित्र विवरण पर विश्वास न कर उनसे सारा मामला गुप्त पुलिस के उच्च अधिकारियों को सौंप दिया। पुलिस ने छान बीन की तो शुक्र पर मरा हुआ बर्नी धरती पर ही जीवित अवस्था में अर्धविक्षिप्त स्थिति में पाया गया। वह अपने वतन से बहुत दूर एक साइवोर्ड बनाने वाले के यहां पेट भरने जितनी मजदूरी कर रहा था, भिखारियों जैसे फटे हाल में रहता हुआ पुलिस ने उसे पकड़ लिया। अदालत में उस पर झूठी अफवाहें फैलाने और धोखा-धड़ी करने के अपराध में मुकदमा और इसके लिए अदालत ने उसे जेल की सजा भी सुना दी।

मानसिक रोगों में सनक का अपना स्थान है। यह रोग दिन-दिन बढ़ रहा है लोग तर्क शक्ति का उपयोग नहीं करते, विवेक पर जोर नहीं देते। मानसिक आलस्य और नशेबाजी का सम्मिश्रण मानसिक स्तर को इतना दुर्बल बना देता है कि उसमें सनकों के पलने की सम्भावना ही चली जाती है।

ब्रिटेन के अस्पतालों में अब मानसिक रोगों के शिकार व्यक्तियों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। इनमें न केवल प्रौढ़ व्यक्ति वरन् छोटे बच्चे भी शामिल हैं। बड़ी आयु के लोग चिन्ताओं, मानसिक दबावों अथवा नशेबाजी आदि कारणों से विक्षिप्त हो सकते हैं पर छोटे बच्चे क्यों इन रोगों के शिकार होते हैं इस सम्बन्ध में वहां बहुत अधिक चिन्ता की जा रही है। इस सम्बन्ध में सर जूलियन हक्सले के नेतृत्व में जो शोध आयोग बना उसने रिपोर्ट दी है कि पांच में से एक मानसिक रोगी यह व्यथा अपने मां-बाप से लेकर आता है। अर्ध विक्षिप्त और सनकी नर नारी अपेक्षाकृत अधिक बच्चे उत्पन्न करते हैं और उन बालकों में वे बीमारियां जन्म से ही आती हैं जो आयु वृद्धि के साथ-साथ अधिक स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगती हैं।

शारीरिक और मानसिक उच्छृंखलता बरतने से विवेक बुद्धि खीजने लगती है और सोचने लगती है कि जब अपनी विवेचना और निष्कर्ष का कुछ उपयोग ही नहीं, जो चाहा सो बरता वाली नीति चल रही है तो फिर उखाड़-पछाड़ करने का क्या लाभ? ऐसी थकी बुद्धि की पहरेदारी शिथिल पड़ने पर सनकों को फलने फूलने का अवसर मिल जाता है और ऐसे उदाहरण सामने आते हैं जिनमें से एक का वर्णन ऊपर दिया गया है।

गहराई से विचार करें तो हम में से अधिकांश व्यक्ति अपने ढंग से सनकी हैं। जीवन का लक्ष्य, स्वरूप, उपभोग हम लगभग पूरी तरह भूल चुके हैं। उपलब्ध अद्भुत क्षमताओं, अनुपम परिस्थितियों और दिव्य अनुदानों का क्या सदुपयोग हो सकता है यह हमें तनिक भी नहीं सूझता। जो न सोचने योग्य है वह सोचते हैं और जो न करने योग्य है सो करते हैं, मिथ्या विडम्बनाओं में उलझे और मोद मनाते रहते हैं। अन्ततः पापों की गठरी सिर पर बांध कर अन्धकारमय भविष्य के गर्त में गिरने के लिए चले जाते हैं। क्या यह सनकीपन नहीं है? आत्म निरीक्षण करें, अपनी वर्तमान गति-विधियों पर विचार करें तो प्रतीत होगा कि अमेरिका के उपरोक्त सनकी से अपना भी सनक भरा जीवन क्रम किसी प्रकार कम नहीं है।

सनक की बढ़ती हुई बीमारी लोक व्यवहार और दृष्टिकोण निर्धारण के दोनों ही क्षेत्रों को अपने चंगुल में कसती चली जा रही है यह कम चिन्ता का विषय नहीं है।

सनकी पर जिस प्रकार स्वभाव में सम्मिलित एक मानसिक दुर्बलता है उसी प्रकार दम भी एक मानसिक दुर्बलता ही है। सनकी व्यक्ति अपनी अव्यावहारिक कल्पनाओं के मिथ्या लोक में रमण करता रहता है, वही क्षेत्र के कारण व्यक्ति अपने आपके बारे में अतिरंजित घटनायें बना लेता है।

दम्भ भी एक दुर्बलता

यह कोई आवश्यक नहीं है कि दंभ अभी उच्च वर्ग के लोगों में ही पाया जाय। दंभ का दुर्गुण हर वर्ग और हर स्थिति के व्यक्तियों में उत्पन्न हो सकता है। यह घटना बहुश्रुत है कि प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात के पास एक बार कोई व्यक्ति फटे-पुराने कपड़े पहन कर आया। उसके शरीर पर तार-नार कपड़े थे फिर भी उसकी चाल-ढाल, बात करने का अन्दाज और मुखमुद्रा में एक दर्प टपकता था। सुकरात से आकर उसने कुछ अटपटे प्रश्न किए और कहा—‘महात्मन्! मैं इसके उत्तर चाहता हूं।’ प्रश्न करने और उत्तर पूछने के बाद उस व्यक्ति ने सुकरात की ओर इस प्रकार देखा जैसे कोई विद्वान् अपनी तुलना में कम जानकार ज्ञानी से प्रश्न करता है। अन्तर्दृष्टि सम्पन्न सुकरात ने उस व्यक्ति के मनोगत भावों को जान लिया और पूछा—‘मित्र तुम इन प्रश्नों का उत्तर किसलिए जानना चाहते हो।’

‘यह तो आज जानते ही होंगे। लोग आपके पास किस आशय से आते हैं—स्पष्ट था कि वह जिज्ञासा का समाधान करना व्यक्ति कर रहा था परन्तु अहंकार के मद में उन्मत्त व्यक्ति अपना मन्तव्य सीधे-सीधे व्यक्त करने से कतराता है। सुकरात जानते थे कि इस व्यक्ति को उत्तर देकर व्यर्थ के वाद-विवाद में उलझना पड़ेगा। अतः उन्होंने कहा—मित्र मेरे पास तो लोग जिज्ञासायें लेकर आते हैं और मैं उनका शक्ति भर समाधान करता हूं पर तुम तो जिज्ञासा से नहीं आए हो क्योंकि तुम्हारे फटे कपड़ों के प्रत्येक छिद्र में से दाम्भिकता झांक रही है।

वस्तुतः वह व्यक्ति दम्भी था और साथ ही साथ अल्पज्ञ भी। अल्पज्ञ व्यक्ति अपने सीमित ज्ञान को लेकर अपने सभी साथियों पर रौब गालिब करने का अवसर ढूंढ़ता रहता है। जहां तक ज्ञानार्जन का प्रश्न है, अपनी अल्पज्ञता का आभास और विशेष ज्ञान प्राप्ति का प्रवास एक उचित उपाय है। परन्तु कुण्ठित महत्वाकांक्षी व्यक्ति अपने थोड़े से ज्ञान को लेकर ही ‘चुहिया को चिंदा मिल गया तो मजाज खाना खोल दिया’ वाली कहावत चरितार्थ करने लगते हैं। जबकि इस प्रकार के दम्भ और बन्द कर मृत्यु के मुंह में बड़ी क्रूरता के साथ धकेल दिया।

नेपोलियन भी महत्वाकांक्षी युवक था और उसने अपनी उस तृषा को तृप्त करने, यशः कीर्ति की पताका लहराने के लिए प्रथमतः लेखक बनने का प्रयास किया था। लेखक बनने के लिये उसने रूसी और ऐब्बो रेनाल की कृतियों का स्वाध्याय किया। फिर लिख डाली आनन फानन में एक पुस्तक—कर्सिका का इतिहास और उसे ऐल्बे रेनाल के पास भेज दिया।

पढ़ कर रेनाल ने लिखा—‘और गहरी खोज कर दुबारा लिखने का प्रयत्न करो।’

बड़ी झुंझलाहट हुई नेपोलियन को। उसने दुबारा एक निबन्ध लिखा—फिर निराशा, तीसरे प्रयास में भी असफलता। और इन तीन विफलताओं ने ही उसे तोड़कर रख दिया। अधीर व्यक्ति मिनटों में आम और घन्टों में जाम लगाना और उगाना चाहते हैं। साहित्य क्षेत्र में मिली प्रारम्भिक असफलताओं ने नेपोलियन की राह ही बदल दी और वह बन गया युद्धोन्मादी—विश्वविजय का स्वप्न द्रष्टा। द्वन्द्व युद्ध मारकाट, दमन, विरोधी शासकों का पतन और चीख पुकार ही उसका जीवन मार्ग बन गयी। न तो नेपोलियन अपने विजित प्रदेशों पर सदैव शासन कर सका। वह वीर था, योद्धा था, साहसी था यह ठीक है। ये गुण अनुकरणीय हैं परन्तु उसकी प्रवृत्ति विध्वंसात्मक थी। इसलिये जितने उसके प्रशंसक हैं उनसे भी कहीं ज्यादा उसके आलोचक मिलते हैं।

महत्वाकांक्षा कोई बुरी चीज नहीं। बुरी है उसकी विपरीत दिशा। इतिहास के कुछ गिने चुने व्यक्ति ही नहीं सर्व साधारण में भी बड़प्पन की कुण्ठित इच्छा पूरी करने के लिए लोग ऊल-जुलूल दावतें करते रहते हैं, महत्ता और सम्मान प्राप्त करने के लिये अनपढ़ और गंवार लोग जेवरों, कीमती कपड़ों में अपनी कमाई झोंकते दिखाई देते हैं। धनवान स्त्रियां अपने शरीर पर रौप्य और स्वर्णाभूषण लादे रहती हैं। युवक युवतियां अपने अभिभावकों की कमाई को तरह-तरह की पोशाकें बनाने और फैशन करने में उजाड़ते रहते हैं। आखिर इन सबका क्या अर्थ है और क्या उद्देश्य? यही न कि हम औरों से अच्छे दर्प से न तो उसका कोई हित है और न उसके मित्र और सहयोगी ही उससे प्रभावित होते हैं।

महत्वाकांक्षा के कुण्ठाग्रस्त होने का कारण होता है सृजनात्मक दृष्टिकोण का अभाव। लगभग आठ नौ दशाब्दियों पूर्व जर्मनी के एक निर्धन परिवार में एक छोटा सा लड़का था, नाटे कद का और दुर्बल। घर के लोगों से लेकर ‘बाहर’ के हमजोलियों तक उसे चिढ़ाया करते उसका मजाक बनाते रहते। यहां तक कि उसके माता-पिता तक ने उसे प्रताड़ित किया और उसका बचपन इन कारणों से बड़ा घुटा-घुटा व्यतीत हुआ। वस्तुतः तो वह प्रतिभाशाली और महत्वाकांक्षी था। मिलना चाहिए था उसे प्रोत्साहन और मार्ग दर्शन जबकि मिली उपेक्षा और प्रताड़ना। फिर भी वह सोचता रहा कि मैं बड़ा आदमी बनूंगा। महान् बनूंगा कोई मुझे छोटा न समझे। दीन-हीन और नगण्य न माने। इसके लिए मैं प्रयत्न करूंगा...........प्रबल प्रयत्न करूंगा।

और उसने प्रयत्न साधना के लिये सैनिक क्षेत्र का चुनाव किया। उसके मन में बड़प्पन और विजयाकांक्षा उत्तरोत्तर बढ़ती रही। उचित मार्गदर्शन न मिलने के कारण उसमें सृजनात्मक दृष्टिकोण का अभाव हो रहा फलतः उसकी दाम्भिकता भी बढ़ती रही और शक्ति भी। एक दिन यही व्यक्ति जर्मनी का प्रसिद्ध डिक्टेटर और दो-दो विश्व युद्ध से का जनक हिटलर बना। उसके पास प्रतिभा थी, शक्ति थी और उनसे उसने सारे विश्व को चमत्कृत भी किया पर कुण्ठाग्रस्त विध्वंसात्मक महत्वाकांक्षाओं के कारण वह विनाश की ओर ही अग्रसर हुई। वियना की गलियों में सिर पर गन्दगी की टोकरियां ढोने वाला यह साधारण मजदूर एक दिन बड़ी बुलंदी के साथ कहने लगा—मेरा जन्म शासन करने के लिये हुआ है। अपनी कुंठाओं का प्रतिशोध पूरा करने के लिए उसने करीब नब्बे हजार निरपराध प्राणियों को यंत्रणा गृह में और ऊंचे दिखाई दें। और जब सभी लोग इस दौड़ में शामिल होते हैं तो बड़प्पन की क्या पहचान?

मृत्यु भोज, ब्याह-शादियों और अन्य पारिवारिक आयोजनों में लोग अनाप-शनाप खर्च कर अपनी शान जताते हैं। इसमें भी कोई शान है। लाखों रुपये खर्च कर बड़ी धूमधाम से इनका आयोजन किया जाय परन्तु उनकी स्मृतियां चिरस्थायी नहीं रहतीं। लोग थोड़े ही दिनों में उन बातों को भूल जाते हैं। यदि दो-चार दिनों बाद ही उससे इक्कीस आयोजन कहीं हुआ तो उल्टे सारी शान मिट्टी में मिल जाती है। न भी हो तो अपनी सामर्थ्य से अधिक खर्च कर अपना बड़प्पन बघारना कोई बुद्धिमानी नहीं है। भला इतनी कीमत पर दो चार दिन के लिए चर्चित बन गये तो क्या बहादुरी है? यह बात भी नहीं है कि लोग इस तथ्य से अनभिज्ञ हों। पर बड़प्पन का व्यामोह और कुण्ठाग्रस्त अहं किसी भी कीमत पर अपना अस्तित्व मिथ्या आधारों पर स्थापित करने के लिये प्रयत्न करता है।

इस प्रकार के बड़प्पन को हिटलर और मुसोलिनी से किसी भी रूप में कम नहीं कहा जा सकता। फर्क इतना है कि हिटलर और मुसोलिनी को व्यापक क्षेत्र मिला था और ऐसे व्यक्तियों को सीमित क्षेत्र मिलता है। हिटलर मुसोलिनी ने नरसंहार किया था तो ऐसे व्यक्ति धन संहार करते हैं। संहार और विध्वंस दोनों ही स्थानों पर हैं, अन्तर केवल सामर्थ्य और क्षेत्र का है।

तो महत्वाकांक्षा की उचित कसौटी क्या है, स्पष्ट है सृजनात्मकता और उपयोगिता। सृजन का अर्थ ही उपयोगिता है। बड़ा ही बनना है तो सत्कार्यों में—पुण्य प्रवृत्तियों में अपनी शक्ति और सामर्थ्य का व्यय करना चाहिए। अर्जन करना है तो भले बुरे सभी तरीके अपना कर धनवान बनने की अपेक्षा गुणवान, परोपकारी और सेवा भावी बनना अधिक सहज है तथा अधिक लाभदायक भी। इस मार्ग से प्राप्त की गयी प्रशंसा और कीर्ति चिरस्थायी तथा अमर होती है। बुद्ध और महावीर से लेकर गांधी, नेहरू, लिंकन, वाशिंगटन, लेनिन, पटेल आदि महा मानवों ने इसी मार्ग का वरण किया है और प्रत्येक महत्वाकांक्षी को करना भी चाहिए।

दंभ का—विकृत महत्वाकांक्षा का दुर्गुण न केवल उसी व्यक्ति के लिए, वरन् समाज के लिए भी कितना विघातक सिद्ध हो सकता है। इसके लिये उदाहरण सर्वत्र सब कालों और देशों में देखे जा सकते हैं। मानसिक दुर्बलता का प्रकार चाहे जो हो, भले वह चिन्ता हो या खिन्नता, सनकीपन हो अथवा दंभ मस्तिष्कीय क्षमताओं को लकवाग्रस्त करने का कारण ही बनाते हैं। इनसे दूर रहा जा सके, इनसे बचा जा सके तो मस्तिष्कीय क्षमता का एक बड़ा अंश नष्ट होने से रोका जा सकता है।
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