मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्युटर

शरीर से भी विलक्षण मस्तिष्क

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यों तो मनुष्य शरीर अपने आप में ही परमात्मा की अद्भुत और विलक्षण कृति है। मनुष्य शरीर जैसी समर्थ, सूक्ष्म बारीकियों से बनी हुई और स्वयं संचालित मशीन बना पाना तो दूर रहा, इसकी संरचना को भी अभी समझ पाना सम्भव नहीं हो सका है। इस विलक्षण और अद्भुत यंत्र का ‘संचालन केन्द्र है मस्तिष्क’ इस मस्तिष्क की रचना मनुष्य शरीर से भी जटिल और विलक्षण है।

खोपड़ी की हड्डी से बनी टोकरी में परमात्मा ने इतनी महत्वपूर्ण सामग्री संजोकर रखी है कि उसे जादू की पिटारी कहने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी। शरीर के अन्य किसी भी अवयव की अपेक्षा उसमें सक्रियता, चेतना और संवेदनशीलता की इतनी अधिक मात्रा है कि उसे मानवीय सत्ता का केन्द्र बिन्दु कहा जा सकता है। रेलगाड़ी में जो महत्व इंजन का है वही अपने शरीर में मस्तिष्क का है। डिब्बों की टूट फूट हो जाने पर उन्हें सुधारने की या काटकर अलग कर देने की व्यवस्था आसानी से हो जाती है किन्तु यदि इंजन खराब हो जाय तो सुयोग्य इंजीनियर की देख-रेख में साधन सम्पन्न कारखाने में ही उसकी मरम्मत हो सकती है। जब तक मरम्मत न हो जाय तब तक रेलगाड़ी जहां की तहां खड़ी रहेगी उसका थोड़ी दूर आगे बढ़ सकना भी सम्भव न होगा।

शरीर में मस्तिष्क का वही स्थान हो जो किसी बड़े कारखानों की मशीनों को बिजली सप्लाई करने वाली शक्तिशाली मोटर का। मोटर बन्द हो जाय या बिगड़ जाय तो फिर बिजली के अभाव में सारा कारखाना ही ठप्प हो जायगा। शरीर के अन्य कलपुर्जों में जो गतिशीलता दिखाई पड़ती है वह उनकी अपनी नहीं है। मस्तिष्क उन पर पूरी तरह नियन्त्रण रखता है। संचालन की प्रेरणा ही नहीं शक्ति भी वही से मिलती है।

मस्तिष्क को दो भागों में विभक्त माना जा सकता है एक वह जिस में मन और बुद्धि काम करती है। सोचने विचारने, तर्क विश्लेषण और निर्णय करने की क्षमता इसी में है। दूसरा भाग वह है जिसमें आदतें संग्रहीत हैं और शरीर के क्रिया कलापों का निर्देश निर्धारण किया जाता है। हमारी नाड़ियों में रक्त बहता है, हृदय धड़कता है फेफड़े श्वांस प्रश्वांस क्रिया में संलग्न रहते हैं, मांस पेशियां सिकुड़ती फैलती हैं, पलक झपकते खुलते हैं, सोने जागने का खाने पीने और मल-मूत्र त्याग का क्रम अपने ढर्रे पर अपने आप स्वसंचालित ढंग से चलता रहता है। पर यह सब अनायास ही नहीं होता इसके पीछे वह निरन्तर सक्रिय मन नाम की शक्ति काम करती है जिसे अचेतन मस्तिष्क कहते हैं। इसे ढर्रे का मन कह सकते हैं। शरीर के यन्त्र अवयव अपना-अपना काम करते रहने योग्य कलपुर्जों से बने हैं पर उनमें अपने आप संचालित रहने की क्षमता नहीं है, यह शक्ति मस्तिष्क के इसी अचेतन मन से मिलती है। विचारशील मस्तिष्क तो रात में सो जाता है, विश्राम ले लेता है नशा पीने या बेहोशी की दवा लेने से मूर्छा ग्रसित हो जाता है। उन्माद आवेश आदि रोगों से ग्रसित भी वही होता रहता है। डॉक्टर इसी को निद्रित करके आपरेशन करते हैं। किसी अंग विशेष में सुन्न करने की सुई लगा कर भी इस बुद्धिमान मस्तिष्क तक सूचना पहुंचाने वाले ज्ञान तन्तु संज्ञा शून्य कर दिये जाते हैं फलतः पीड़ा का अनुभव नहीं होता और आपरेशन हो जाता है पागलखानों में इस चेतन मस्तिष्क का ही इलाज होता है अचेतन की एक छोटी परत ही मानसिक अस्पतालों की पकड़ में आयी है वे इसे प्रभावित करने में भी थोड़ा बहुत सफल होते जा रहे हैं। किन्तु उसका अधिकांश भाग प्रत्येक नियन्त्रण से बाहर है। पागल लोगों के शरीर की भूख, मल-त्याग, श्वांस-प्रश्वांस, रक्त-संचार तथा पलक झपकना आदि क्रियायें अपने ढंग से होती रहती हैं मस्तिष्क की विकृति का शरीर के सामान्य क्रम संचालन पर बहुत कम असर पड़ता है।

मस्तिष्क अपने आप तो बहुत कुछ करता है पर उसका विचार पूर्वक नियन्त्रण एवं उपयोग करना बहुत कम, लोगों को बहुत थोड़ी मात्रा में आता है। वैज्ञानिकों का कथन है कि मस्तिष्कीय चेतना पर 8 प्रतिशत नियन्त्रण प्राप्त कर सकना प्रगतिशील मनुष्य के लिए अभी तक सम्भव हो पाया है। उसकी 92 प्रतिशत शक्ति ऐसी है जिस पर नियन्त्रण करना तो दूर उसकी ठीक तरह जानकारी भी प्राप्त नहीं की जा सकी है। मनुष्य की बुद्धिमत्ता! साहसिकता, सूझबूझ की बहुत प्रशंसा की जाती है। अनुशासित मनोभूमि किस प्रकार प्रखर प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व के रूप में विकसित होती है यह भी सर्व विदित है। इतने पर भी इतना ही कहा माना जाता है कि यह उसकी खोपड़ी में रखी हुई जादुई पिटारी का एक नगण्य सा चमत्कार है। यदि उसे पूरी तरह जाना समझा जा सके तो अब की अपेक्षा वह हजारों गुनी अधिक विभूतियों से भरा पूरा हो सकता है।

लेकिन प्रगति का आधार इसी मस्तिष्कीय स्थिति पर निर्भर है। मूर्ख, मन्दबुद्धि और अनपढ़, अविकसित व्यक्ति या तो सुख का साधन कमा ही नहीं पाते और यदि किसी प्रकार मिल भी जाये तो उनका समुचित सदुपयोग करके सुखी रह सकने की व्यवस्था बना नहीं पाते, वे वस्तुएं या परिस्थितियां उनके लिए जाल-जंजाल बन जाती हैं। उपयोग की सही विधि न मालूम होने पर प्रयोग गलत होते हैं और गलती का परिणाम विकृति एवं क्षति ही हो सकती है। सम्पदाएं भी अविकसित मन-स्थिति होने पर किसी को कोई सुख नहीं पहुंचा सकती। बारूद का खेल करने वाले जिस प्रकार क्षतिग्रस्त होते हैं उसी प्रकार सांसारिक वैभव पाने पर भी मन्द बुद्धि लोग लाभान्वित नहीं होते यों आमतौर से अच्छे सुविधा साधन मिलना ही उनके लिए कठिन पड़ता है। इसके विपरीत प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति कठिन परिस्थितियों में भी अभीष्ट साधन उपलब्ध कर लेते हैं। सम्पदाएं पाते हैं, सुख भोगते हैं और गौरवान्वित होते हैं। यह सब मस्तिष्कीय प्रखरता का ही वरदान है।

जिस मस्तिष्क पर हमारा वर्तमान और भविष्य पूरी तरह निर्भर है उसके सम्बन्ध में लोग बहुत ही कम जानते हैं, बहुत ही कम ध्यान देते हैं। यह कितने आश्चर्य और दुःख की बात है कि शरीर को परिपुष्ट बनाने के लिए कीमती भोजन जुटाया जाता है, सुन्दर बनने के लिए वस्त्राभूषण एवं श्रृंगार साधनों पर समय तथा धन लगाया जाता है इन्द्रिय तृप्ति के लिए खर्चीले और समय साध्य साधन जुटाये जाते हैं अन्यान्य सफलताओं के लिए घनघोर प्रयत्न किए जाते हैं पर न जाने क्यों यह अनुभव नहीं किया जाता कि मानसिक प्रखरता के बिना सारे काम औंधे सीधे होंगे और उनके कठिन प्रयत्नों के फलस्वरूप जो सामग्री मिलेगी वह आनन्ददायक न होकर विपत्ति का कारण बनेगी।

मानवीय मस्तिष्क में जितनी किस्म का जितनी मात्रा में ज्ञान भरा रहता है उसकी तुलना में संसार के बड़े से बड़े पुस्तकालय को भी तुच्छ ठहराया जा सकता है। उलझे हुए प्रश्नों का न्यूनतम समय में उपयुक्त हल निकालने में संसार के किसी सशक्त कंप्यूटर की तुलना उससे नहीं हो सकती। जरा से डिब्बे में भरी हुई यह गुलाबी रंग की कढ़ी इतनी विलक्षण है कि उसकी समानता किसी भी बहुमूल्य रासायनिक पदार्थ से नहीं की जा सकती।

मस्तिष्कीय क्रिया-कलाप जिन नर्व सेल्स (तन्त्रिका कोशिकाओं) से मिलकर संचालित रहता है उनकी संख्या प्रायः दस अरब होती है। इन्हें आपस में जोड़ने वाले नर्व फाईवर (तन्त्रिकातन्तु) और उनके इन्सुलेशन खोपड़ी के भीतर खचाखच भरे हुए हैं। एक तन्त्रिका कोशिका का व्यास एक इंच के हजारवें भाग से भी कम है। और उसका वजन एक ओंस के आठ अरबवें भाग से अधिक नहीं है। तन्त्रिका तन्तुओं से होकर बिजली के जो इम्पल्स दौड़ते हैं वही ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से आवश्यक सूचनाएं उस केन्द्र तक पहुंचाते हैं।

इन दस अरब कोशों को अद्भुत विशेषताओं से सम्पन्न देव दानव कहा जा सकता है। इनमें से कुछ में तो माइक्रो फिल्मों की तरह न जाने कब-कब की स्मृतियां सुरक्षित रहती हैं। मोटे तौर पर जिन बातों को हम भूल चुके होते हैं वे भी वस्तुतः विस्मृत नहीं होतीं, वरन् एक कोने में छिपी पड़ी रहती हैं। और जब अवसर पातीं हैं वर्षा की घास की तरह उभर कर ऊपर आ जाती हैं। केनेडा के स्नायु विशेषज्ञ डा. पेनफील्ड ने एक व्यक्ति का एक स्मृति कोश विद्युत धारा के स्पर्श से उत्तेजित किया। उसने बीस वर्ष पहले देखी हुई फिल्मों के कथानक और गाने ऐसे सुनाये मानो अभी अभी देखकर आया हो।

इन कोशों से सम्बन्धित नाड़ी तन्तु समस्त शरीर में फैले पड़े हैं। इन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है 1—सेन्सरी नर्वज-संज्ञा वाहक। 2—मोटर नर्वज-गति वाहक। संज्ञा वाहक तन्तुओं का सम्बन्ध ज्ञानेन्द्रियों से होता हैं। जो कुछ हम देखते, सुनते, चखते, सूंघते और स्पर्शानुभव करते हैं वह इन संज्ञा वाहकों के माध्यम से सम्पन्न होता है और चलना, फिरना, खाना, नहाना पढ़ना लिखना आदि गति वाहकों द्वारा वे कर्मेन्द्रियों को नियन्त्रित एवं संचालित करते हैं।

यह मस्तिष्क सामान्य इन्द्रिय गम्य ज्ञान की जानकारियों तक सीमित है ऐसा शरीर विज्ञानियों द्वारा कहा जाता रहा है पर अब न्यूरो लोजी—पैरा साइकोलाजी मैटाफिजिक्स विज्ञान के जानकार यह स्वीकार करने लगे हैं कि मानवी मन—विराट् विश्व मन का ही एक अंश है और जो कुछ उस विराट् ब्रह्माण्ड में हो रहा है या निकट भविष्य में होने जा रहा है उसकी सम्वेदनाएं मानवी मन को भी मिल सकती हैं।

पिछले दिनों क्या-क्या हो चुका, इस समय कहां क्या हो रहा है, और निकट भविष्य में क्या होने की संभावनायें बन गईं उस जान लेना किसी परिष्कृत मस्तिष्क के लिए संभव है। हां—सामान्यतया यह अतीन्द्रिय अनुभूति प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती है। केवल वर्तमान से सम्बन्धित प्रत्यक्ष का ही अधिक ज्ञान रहता है, भूतकाल की निज से सम्बन्धित घटनाएं जब विस्मृत हो जाती हैं, तब अन्यत्र होने वाली घटनाओं की जानकारी तो रहे ही कैसे? पर यह बात केवल सामान्य स्तर के मस्तिष्कों पर लागू होती है। परिष्कृत मस्तिष्क इससे कहीं ऊंचे उठे होते हैं और वे त्रिकालज्ञ की भूमिका प्रस्तुत कर सकते हैं।

उपलब्ध सूचनायें दफ्तर में रिकार्ड बनकर जमा नहीं होती रहतीं वरन् उन पर तत्काल निर्णय करना होता है। इसके लिए सूचना कितने ही दफ्तरों, कितने ही अफसरों के सामने से गुजरती हुई, उनको परामर्श, निर्देश नोट कराती हुई सम्बद्ध अवयवों को सूचना देती है कि उन्हें इस संदर्भ में क्या करना है। आदेश ही नहीं आवश्यक साधन जुटाने की व्यवस्था भी इसी केन्द्रीय निदेशालय से होता है। इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध सूचनायें और विचारों की हलचलें हर क्षण मस्तिष्क को इतना अधिक कार्य व्यस्त रखती हैं कि इस सक्रियता पर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। सिर पर इलेक्ट्रोड लगाकर भीतर चल रहीं हलचलों के जो चित्र इलेक्ट्रोएन्से-फेलोग्राम तैयार किये जाते हैं उन्हें विद्युतीय तूफान की तरह देखा जा सकता है। बच्चों को मस्तिष्क की जानकारी टेलीफोन एक्सचेंज का उदाहरण देकर कराई जाती है। बड़ों को उसे समझाना हो तो यों कहना चाहिए कि यदि अपने टेलीफोन का सम्बन्ध संसार के समस्त टेलीफोनों से हो, अपनी बात समस्त टेलीफोनों से सुनी जाय और उनके उत्तर एक साथ प्राप्त हों, सुने समझे जायें तो उस स्थिति की तुलना मस्तिष्कीय क्रिया-कलाप से की जा सकती है।

मानव निर्मित सर्वोत्तम कंप्यूटर में अधिक से अधिक दस लाख इकाइयां होती हैं और प्रत्येक इकाई के पांच-छह से अधिक संपर्क सूत्र नहीं होते। किन्तु मस्तिष्क में दस अरब कोशिकायें हैं। उनमें से प्रत्येक के लाखों लाख सम्पर्क सूत्र हैं। साथ ही प्रत्येक में जैव रसायनों के सम्मिश्रण में भारी भिन्नता भी है। घटित होने वाली घटनायें और इन्द्रिय संस्थानों द्वारा प्राप्त सूचनाओं का निपटारा एक अलग और सामयिक कार्य है। इसके अतिरिक्त स्वासोच्छ्वास, निद्रा, जागरण, हृदय की धड़कन, रक्त संचार, पेशियों का आकुंचन-प्रकुंचन, शरीर कोशिकाओं का जीवन मरण आदि शरीर संचालन के इतने अधिक कार्य हैं जिन्हें बारीकी से देखने पर समस्त संसार की सरकारों की संयुक्त व्यवस्था से भी अधिक सुविस्तृत ठहराया जायेगा।

शरीरगत आवश्यकताओं और इनकी पूर्ति की क्रिया व्यवस्था मस्तिष्क का जो छोटा-सा भाग संभालता है उसे ‘‘हाइपोथैलेमस’’ कहते हैं भूख, प्यास, नींद, मल विसर्जन, पाचन आदि अनेकों क्रिया-कलाप इसी केन्द्र से संचालित एवं व्यवस्थित किये जाते हैं। मस्तिष्क के पिछले भाग में गुम्बदाकार अंग ‘‘सेरिवेलम’’ इन हलचलों को परस्पर सम्बद्ध करने वाले असंख्य सूत्रों को श्रृंखलाबद्ध करता है।

‘चिन्तन’ का ज्ञान, स्मृति, बुद्धि विवेचना इच्छा आदि कार्य-भार संभालने वाला अत्यन्त विकसित भाग ‘‘सेरिब्रल कार्टेक्स’’ कहलाता है। मस्तिष्कीय द्रव्य से बनी हुई यह झुर्रीकार परत मस्तिष्क के अग्रभाग और पार्श्वों में लिपटी हुई है। इसकी मोटाई प्रायः एक मिलीमीटर है। सूचनाओं का ग्रहण और निर्देशों का प्रसारण करने में इस पट्टी की महत्वपूर्ण भूमिका है।

तन्त्रिका कोशाणु एक सफेद धागे तन्तु युक्त होता है। यह तन्तु अन्यान्य न्यूरोनों से जुड़ा होता है। इस प्रकार पूरा मस्तिष्क इन परस्पर जुड़े हुए धागों का एक तन्तु जाल बना हुआ है। इन्हीं सूत्रों से वे परस्पर सम्बद्ध रहते हैं और अपने कार्यों एवं उत्तरदायित्वों का निर्वाह परस्पर मिल जुलकर करते हैं।

प्रत्येक प्रौढ़ मस्तिष्क प्रायः 20 वॉट विद्युत शक्ति से चलता है। कुछ कोशाणु विशेष रूप से इस बिजली को उत्पन्न करने का काम करते हैं और शेष उसका उपयोग करके अपना काम चलाते हैं वह एक सूक्ष्म डाइनेमो है। ग्लूकोस और ऑक्सीजन का रासायनिक ईंधन जलाकर उसकी ऊर्जा को वे बिजली में परिवर्तित करते हैं। काम चलाऊ मात्रा में वे कोशाणुओं को शक्ति प्रदान करती है और यदि उसकी अनावश्यक मात्रा बन गई है तो स्वयं ही विसर्जित हो जाती है। उसका चार्ज-डिस्चार्ज शारीरिक और मानसिक क्रियाओं के अनुसार घटता बढ़ता रहता है। इलेक्ट्रोऐन्सीफैलोग्राफ की सहायता से यह जाना जा सकता है कि इस बिजली का उत्पादन और उपभोग कहां किस मात्रा में हो रहा है। इसमें घट बढ़ हो जाने से मानसिक संतुलन बिगड़ने लगता है अथवा यों भी कहा जा सकता है कि मानसिक सन्तुलन बिगड़ने से इन विद्युत धाराओं में गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है।

सन् 1968 में यूनेस्को द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय मस्तिष्क सम्मेलन आयोजित किया गया था और संसार के विचार शील लोगों का ध्यान मस्तिष्कीय सुरक्षा एवं प्रगति की ओर आकर्षित किया था। इंटर-नेशनल सोसाइटी फोराब्यूरो कैमिस्ट्री-ब्रेन एण्ड बिहेवियर सोसाइटी-ब्रेन रिसर्च ऐसोसियेशन जैसी संस्थाओं ने उस वर्ष मस्तिष्कीय गरिमा, संभावना, सुरक्षा एवं प्रगति के सम्बन्ध में अधिक उत्साह पूर्वक काम किया था और जो कार्य वैज्ञानिक क्षेत्रों में अब तक इस दिशा में हो चुका है उसका परिचय जनता को कराया था। इन्टरनेशनल रिव्यू आफ ब्यूरो बायोलॉजी-ब्रेन रिसर्च-जनरल आफ ब्यूरोबाइलोजी जैसे विज्ञान पत्रिकाओं ने भी अति महत्वपूर्ण लेख उस वर्ष प्रकाशित करके वैज्ञानिकों, सरकारों एवं विचारशील लोगों को यह सुझाव दिया था कि मस्तिष्कीय गरिमा को अधिक गम्भीरतापूर्वक अनुभव किया जाय और उसे परिष्कृत करने की दिशा में अधिक काम किया जाय।

मानवीय मस्तिष्क तीन पौंड से भी कम वजन का—अखरोट जैसी आकृति का—दो गोलार्धों में बंटा हुआ अनेक घुमावों वाला मांस पिन्ड है। एक को सेरब्रिम दूसरे को सेरबेलम कहते हैं। तान्त्रिकी कोशिकाओं से बना धूसर द्रव्य वाला यह पदार्थ सूक्ष्म दर्शक यन्त्र से देखने पर चित्र विचित्र कोशिकाओं का रेगिस्तान जैसा लगता है इसके सारे कलपुर्जे इस प्रकार तोड़े मुड़े रखे हैं मानो वे आगे बढ़ना चाहते हों, पर खोपड़ी की हड्डी ने उन्हें रोक दिया हो और वे मुड़-तोड़ कर गर्भस्थ बालक की तरह किसी प्रकार गुजारा कर रहे हों।

तीन महीने के भ्रूण का दिमाग मात्र पांच ग्राम का होता है छह महीने का होने तक वह सौ ग्राम हो जाता है जन्मते समय 350 ग्राम का होता है। यह प्रौढ़ मनुष्य के मस्तिष्क का एक चौथाई है अन्ततः मस्तिष्क चौदह सौ ग्राम तक जा पहुंचता है। इससे प्रकट है कि आरम्भिक जीवन में मस्तिष्कीय विकास कितनी तेजी से होता है और पीछे वह कितना धीमा पड़ जाता है। छह साल के बच्चे का दिमाग प्रौढ़ता की स्थिति का पंचानवे प्रतिशत होता है। बीस वर्ष की आयु तक विकास पूर्ण हो जाता है। पीछे तो वह परिपक्व और परिष्कृत भर होता रहता है।

पुरुष की तुलना में स्त्रियों का मस्तिष्क 100 ग्राम हल्का होता है। पर उसमें शारीरिक वजन का अनुपात भर मानना चाहिये। स्त्रियां पुरुषों की अपेक्षा वजन में हल्की होती हैं तदनुरूप उनका मस्तिष्क भी हल्का होता है। वजन के आधार पर किसी को विकसित अथवा अविकसित नहीं ठहराया जा सकता। संसार के प्राणियों में सबसे भारी मस्तिष्क ह्वेल मछली का 7000 ग्राम का होता है इसके बाद 5000 ग्राम हाथी का होता है क्या उन्हें 1400 ग्राम वाले मनुष्य से अधिक बुद्धिमान कहें? संसार भर में सबसे अधिक हल्की अपने नाटे कद के कारण जापानी महिलाएं होती हैं उनका वजन औसतन 50 ग्राम कम अर्थात् 1250 ग्राम होता है फिर भी वे संसार में कहीं की भी नारियों से कम बुद्धिमान नहीं होती हैं वे अपने समाज में पुरुषों से किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं होती।

कुछ समय पूर्व बम्बई के एक विद्वान वी.जे. रेले ने एक पुस्तक लिखी थी—‘‘दी वैदिक गार्डस एस. फिगर्स आफ बायोलॉजी’’ उसमें उसने सिद्ध किया था कि वेदों में वर्णित आदित्य, वरुण, अग्नि, मरुत्, मित्र, अश्नि, रुद्र आदि मस्तिष्क के स्थान विशेष में सन्निहित दिव्य शक्तियां हैं जिन्हें जागृत करके विशिष्ट क्षमता समान बनाया जा सकता है।

ग्रान्ट मेडिकल कालेज के प्राध्यापक वाई.जी. नाडगिर और एडगर जे टामस ने भी संयुक्त रूप से पुस्तक की भूमिका लिखते हुए कहा है कि वैदिक ऋषियों के शरीर शास्त्र सम्बन्धी गहन ज्ञान पर अचम्भा होता है कि उस साधन हीन समय में किस प्रकार उन्होंने इतनी गहरी जानकारियां प्राप्त होंगीं आंख की सीप में ऊपर के मस्तिष्क का भाग वृहत मस्तिष्क कहलाता है वही सेरिवेलम-ब्रह्म चेतना शक्ति का केन्द्र है इन्द्र और सविता यहीं निवास करते हैं नाक की सीध में सिर के पीछे वाला भाग—सेरिवेलम—अनुमस्तिष्क—रुद्र और शूषन देवता का कार्य क्षेत्र है मस्तिष्क का ऊपरी भाग—रोदसी मध्य भाग अन्तरिक्ष और निम्न भाग पृथ्वी बतलाया गया है। रेाटली से दिव्य चेतना का प्रवाह—अन्तरिक्ष में ग्रह नक्षत्रों वाला ब्रह्मांड और पृथ्वी ये अपने लोक में काम कर रही भौतिक शक्तियों का सूत्र सम्बन्ध जुड़ा रहता है। सप्त धार सोम अग्नि, स्वर्ग द्वार, अत्रि, द्रोण, कलश एवं अश्विनी शक्तियों का सम्बन्ध रोटसी क्षेत्र से है।

अग्नि से नीचे वाले भाग को स्वर्ग द्वार और उससे नीचे वाले भाग को द्रोण कलश कहा गया है। जहां से सप्त सरितायें—सात नदियां बहती हैं। द्रोण कलश में सोमरस भरा रहता है जिसके आधार पर स्नायु केन्द्रों को शक्ति प्राप्त होती है मेरुरज्जुओं के साथ बंधे हुए दो ग्रन्थि गुच्छक अश्विनी कुमार बताये गये हैं। मस्तिष्क की परिधि को घेरे हुये एक विशेष द्रव सम्पूर्ण मस्तिष्क को चेतना प्रदान करता है इसी को वरुण कहते हैं इसी केन्द्र में अग्नि देवता का ज्ञानकोष है। मस्तिष्क के पिछले भाग में अवस्थित ‘‘टेंपोलर लोव’’ प्राचीन काल का शंख पालि है। इसके नीचे की पीयूष ग्रन्थियां जिन्हें मेदुला भी कहते हैं। अश्वमेध यज्ञ की वेदी है। अश्वमेध अर्थात् इन्द्रिय परिष्कार इसके लिये पीयूष ग्रन्थि वाला क्षेत्र ही उत्तरदायी है।

देवताओं की चमत्कारी शक्तियों का साधना विज्ञान के अन्तर्गत विस्तृत वर्णन किया गया है वस्तुतः वह अपने भीतर मस्तिष्कीय क्षेत्र में सन्निहित दिव्य शक्तियां हैं जिन्हें अनुकूल बना कर वे सभी लाभ वरदान प्राप्त किये जा सकते हैं जो देव अनुग्रह से मिलने वाली ऋषि-सिद्धियों के रूप के कहे समझे जाते हैं।

अचेतन ही नहीं मस्तिष्क अतींद्रिय भी

भौतिक जानकारी संग्रह करने वाले चेतन मस्तिष्क और स्वसंचालित नाड़ी संस्थान को प्रभावित करने वाले अचेतन मस्तिष्क तक का ही ज्ञान अभी विज्ञान क्षेत्र की परिधि में आया ही पर अब अर्तीद्य मस्तिष्क के अस्तित्व को भी स्वीकारा जा रहा है क्योंकि बहुत सी ऐसी घटनायें घटित होती रहती हैं, जिनसे भविष्य में होने वाली घटनाओं का पूर्वाभास मिलने और उसके अक्षरशः सही उतरने के प्रमाण मिलते ही यह प्रभाव इतने स्पष्ट और इतने प्रामाणिक व्यक्तियों द्वारा प्रस्तुत किये गये होते हैं कि उनमें किसी प्रकार के सन्देह की गुंजाइश नहीं रह जाती।

अतींद्रिय चेतना का मानवी सत्ता ये अस्तित्व स्वीकार किये बिना इन भविष्य वाणियों का और कोई कारण नहीं रह जाता। योगी और सिद्ध पुरुष जिस दिव्य चेतना को अपनी तप साधना के माध्यम से विकसित करते हैं वह कई बार कई व्यक्तियों में अनायास और जन्म जात स्वर पर भी पाई जाती है। इस सत्ता का विकास करके मनुष्य सीमित परिधि के बन्धन काटकर असीम के साथ अपने सम्बन्ध मिला सकता है और अपनी ज्ञान परिधि को उतनी ही विस्तृत बना सकता है। समय-समय पर इस प्रकार के जो प्रमाण मिलते रहते हैं उनसे उस सम्भावना को और भी अधिक बल मिलता है कि आत्म विकास के प्रयत्न मनुष्य को कही से कहीं पहुंचा सकने में समर्थ हैं।

अतीन्द्रिय ज्ञान के सम्बन्ध में कई प्रामाणिक ग्रंथ पाये जाते हैं। उनमें कुछ यह है—(1) टीन लोव सग रम्पा कृत—थर्ड आई (2) सुग्र अल जहीर द्वारा लिखित—मठभूमि की आध्यात्मिक यात्रा। (3) डेनियल बारे लिखित दी मेका आफ हैवनली ट्राडजर्स। इन पुस्तकों में लेखकों ने अपनी निजी दिव्य अनुभूतियों के वे वर्णन लिखे हैं जो उन्होंने आज्ञा चक्र स्थित तीसरे नेत्र से देखे और परीक्षा को कसौटी पर पूर्णतया खरे उतरे। भ्रूमध्य भाग में अवस्थित तीसरा नेम देवी देवताओं के ही नहीं—मनुष्य के भी होता है और वह उसे विकसित करके दिव्य दर्शी बन सकती है।

उपरोक्त लेखकों द्वारा उल्लेखित घटनाओं और विवरणों के अनुसार यह अतीन्द्रिय क्षमता मस्तिष्क के उच्चतम विकास के कारण ही प्राप्त हुई है। डेनियल ने अपनी पुस्तक ‘‘द मैका आफ हैवनली ट्राइजर्स’’ में लिखा है कि साधारण मनुष्यों से अलग और विलक्षण मस्तिष्कीय क्षमताओं वाले जितने भी व्यक्ति प्रकाश में आये हैं उनकी सामंत विशेषताओं का भूल उनके मानसिक विकास पर निर्भर करता है। यह विकास कई बार तो जन्मांतरों की मानसिक प्रगति के कारण छोटी आयु में अनायास ही हो जाता है। किन्तु इस विकास क्रम का मार्ग अवरुद्ध किसी के लिए भी नहीं है। प्रयत्न पूर्वक कोई भी अपनी मानसिक क्षमताओं का श्रमिक विकास करते हुए उन्हें उच्च स्तर तक पहुंचा सकता है।

एक विशेषज्ञ के अनुसार यदि संसार भर के विद्युतीय संयन्त्र इकट्ठे कर लिये जायं और उन उपकरणों की समस्त पेचीदगी इकट्ठी करली जाय तो वह उस पेचीदगी से कहीं कम प्रतीत होगी, जो मानवी-मस्तिष्क में भरे साढ़े चार पाव ‘ग्रेमेटर’ में भरी पड़ी है।

मस्तिष्क का सामने वाला भाग सेरेक्रम संवेदनाओं और इच्छाओं का केन्द्र है। बुद्धि, विचारशीलता और भावनाएं भी यहीं उत्पन्न होती हैं। मस्तिष्क का पिछला हिस्सा ‘सैरेवेलम’ कहा जा जाता है। यह शरीर के सन्तुलन का बनाये रखने की तथा विभिन्न अवयवों की गतिविधियों को स्वसंचालित रखने की भूमिका सम्पादित करता है। हमारी सहज क्रियाएं—रिफ्लैक्श ऐक्शन का नियन्त्रण भी यहीं से होता है। मस्तिष्क का तीसरा भाग जिसको मेड्रला ओवलागटा कहते हैं, अंगों की स्वसंचालित-प्रक्रिया का अधिष्ठाता है।

मस्तिष्क का एक और भी वर्गीकरण हो सकता है। भूरा पदार्थ बुद्धि का और सफेद पदार्थ क्रिया का संचालन करता है। मस्तिष्क का दाहिना भाग शरीर के बायें भाग का और बांया भाग शरीर के दाहिने भाग का संचालन करता है।

यह मस्तिष्कीय संरचना अपने आप में पूर्ण है। उसमें स्वावलम्बन की और घात प्रतिघात सहने की अद्भुत क्षमता मौजूद है। बाहरी पोषण से अथवा मानसिक व्यायामों से वह विकसित हो सकता है और अवरोधों का सामना करने के लिए अभ्यस्त हो सकता है। किन्तु ऐसा कुछ न भी किया जाये तो भी वह अपनी समर्थता का कई बार अनायास ही ऐसा परिचय देता है, जिसे देखकर उसकी आत्म-निर्भरता को स्वीकार करना पड़ता है। निद्रा को मस्तिष्क की खुराक माना जाता है और कहा जाता है कि यदि मनुष्य सोये नहीं तो जल्दी ही पागल हो जायेगा या मर जायेगा। पर ऐसे अनेक प्रमाण मौजूद हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि मस्तिष्क निद्रा आदि किसी सुविधा की परवाह न करके अपने बलबूते—अपना काम भली प्रकार चलाता रह सकता है।

इंग्लैंड के एक जे.डब्ल्यू. स्मिथ नामक 76 वर्षीय किसान की निद्रा उसकी 18 वर्ष की आयु में किसी बीमारी के कारण सदा के लिए नष्ट हो गई और इसके बाद वह कभी भी नहीं सोया। 58 वर्ष तक बिना निद्रा के भी उसका काम बिना रुकावट के चलता रहा।

स्पेन के अर्नेस्टो यअर्स कृषि-फार्म से काम करने वाले लोंर्टन मेडिना की आयु अब 70 वर्ष के लगभग जा पहुंची, पर वे गत 50 वर्ष से नहीं सोये। इससे उनकी मुस्तैंदो में कमी नहीं आने। दिन भर खेत पर काम करते हैं और रात को जागते रहने के कारण वे ही चौकीदार की आवश्यकता भी पूरी करते हैं। जब थकान आती है तो थोड़ा लेट भर लेते हैं, उतने से ही उनका काम चल जाता है। स्पेन के स्वास्थ्य-विभाग ने उनके मरण उपरान्त मस्तिष्क की चीर-फाड़ करके अनिद्रा के कारण और उसकी क्षति-पूर्ति होते रहने की विशेषता जानने का अधिकार प्राप्त कर लिया।

पूर्वी पटेल नगर दिल्ली में बाबा रामसिंह नामक एक शतागु सज्जन बच्चों की कापी-पेन्सिल जैसी चीजों की दुकान चलाते थे। उनका कथन था कि गत 22 वर्ष से एक क्षण के लिए भी नहीं सोये। इस बात की पुष्टि उस मुहल्ले के सभी लोग करते थे, जो रात-विरात उधर से निकलने पर उन्हें बैठा, गुनगुनाता या कुछ न कुछ खटपट करते देखा करते थे।

उपेक्षा न कीजिए

फ्रांसीसी वैज्ञानिक प्रो. देल्गादो ने बताया है कि नसों में रक्त चढ़ाने जैसा ही सहज कार्य मस्तिष्क ये इच्छानुकूल आदतों का प्रवेश करा सकना भी है और अगले ही दिनों यह सहज सम्भव होगा कि प्रवृत्तियों और अभ्यासों की वैसी ही काट-छांट की जा सके, जैसे अभी फोड़े-फुन्सियों की होती है।

यह जानने की दिशा ये तेजी से कार्य हो रहा है कि मस्तिष्क में किस स्थान पर—किस प्रकार की क्षमता के संचालक नियामक केन्द्र हैं। मस्तिष्क में गहरी दबी पड़ी विस्मृतियों को बिजली के झटके देकर ताजी बनाया जा सकता है, जिससे लगने लगे कि सम्बन्धित घटना अभी-अभी घटित हुई है। कनाडा के मनोवैज्ञानिक डा. डब्ल्यू.जी. पेन फील्ड ऐसे इलेक्ट्रोड खोजने में सफल हुये हैं, जिनका स्थान विशेष की कुछ विशेष कोशिकाओं से सम्बन्ध जोड़ने पर मनुष्य अतीत की घटनाएं अपने सामने पुनः घटित हो रही सी ही ताजी, अनुभव कर सकता है। विगत सम्वादों, विवादों, चर्चाओं आदि को भी तत्काल सम्पन्न अनुभव कर सकता है।

स्नायु विज्ञानी काल लैसले ने खोज की है कि मस्तिष्क के किस स्तर पर किस शक्ति से कितना विद्युत प्रवाह किये जाने पर किस काल खण्ड की (पुरानी से पुरानी) किस किस्म की स्मृतियां ताजी हो सकती है। मैकगिल विश्व-विद्यालय, मान्ट्रील (कनाडा) के डा. विल्डर पेनफील्ड ने विचार, ध्वनि और दृश्य का सम्बन्ध स्थापित करते हुए उस दिशा ये प्रगति की सम्भावना व्यक्त की है, जहां लोगों के मस्तिष्क निर्दिष्ट चिन्तन के लिए प्रेरित-प्रशिक्षित किये जा सकेंगे। कैलीफोर्निया इन्स्टीट्यूट आफ टेक्नालॉजी के डा. रोगरस्पेरी ने सुदीर्घ काल से संचित आदतों-अभ्यासों से मुक्त होने तथा सर्वथा नये अभ्यासों को गहराई से अपना लेने के लिए मस्तिष्क को प्रेरित कर सकने के प्रयोगों में सफलता प्राप्त की है।

स्वीडन के डा. हाल्गर हाइडन ने अपने प्रयोगों द्वारा पाया कि मस्तिष्कीय चेतना के आधार स्तम्भ रिवोन्यूक्लिक ऐसिड (आर.एन.ए.) नामक रसायन की मात्रा को चेतना की विभिन्न परतों में बटा-बढ़ाकर प्राणियों के चिन्तन की विधि एवं दिशा में परिवर्तन सम्भव है।

जीवशास्त्री जेम्स ओल्डस ने चूहों के मस्तिष्क पर आंशिक नियंत्रण की प्रक्रिया खोज निकाली और उनके मस्तिष्क से बिल्लियों के प्रति भय का भाव निकाल दिया। परिणाम यह हुआ कि वे चूहे बिल्लियों की पीठ पर बेझिझक चढ़ने दौड़ने लगे। उनके प्रति भय का भाव ही विदा हो गया और वे बिल्लियों को अपने हितैषी वर्ग का मानने लगे।

डा. डी. एल्वर्ट ने भी चूहों पर ही प्रयोग किया और उनकी एक ऐसी जाति पैदा की, जो रूपाकार में तो वैसी ही है, पर कार्य विधि एवं चिन्तन विधि में सर्वथा नयी हैं। डा. जे.वी. ल्यूको ने यही प्रयोग तिलचट्टों के साथ किया। डा. राबर्ट थामसन ने यही प्रयोग ‘प्लेरियन’ नामक कीड़े पर किये हैं। यह आधा इंच आकार का जलचर कीड़ा है, इसे रेडियो संकेतों के सहारे कुछ भी करने के लिये विवश करना पूरी तरह सम्भव हो गया है।

मस्तिष्क का बहिरंग और अन्तरंग संरचना में सम्बन्ध में अब पहले की अपेक्षा बहुत अधिक जान लिया गया है। एक समय था जब मस्तिष्क के भीतर भरी वसा कोशिकायें, तन्त्रिकाएं ही चिन्तन की आधार शिला मानी जाती रही और समझा जाता रहा कि जिसका मस्तिष्क जितना भारी और बड़ा होगा वह उतना ही बुद्धिमान होगा। इस मान्यता के कारण मस्तिष्क के स्वरूप का विकास करने के लिये ऐसी औषधियों और खाद्य-पदार्थों का सरंजाम जुटाया जाता रहा जो उस अवयव को परिपुष्ट बनाने में सहायक सिद्ध हो सके। अब वह अध्याय समाप्त होने जा रहा है और समझा जा रहा है कि इस संस्थान के अन्तरंग क्षेत्र में काम करने वाली विद्युत शक्ति ही विचार शक्ति बनती है। इस विद्युत को लगभग उसी स्तर की भौतिक विद्युत द्वारा प्रभावित किया जा सकता है और चिन्तन के बाहरी दबाव से उभारा या दबाया जा सकता है।

कपाल के भीतर भरी मज्जा के अन्तर्गत सूक्ष्म घटक जो ‘न्यूरान’ कहलाते हैं, जितने अधिक सूक्ष्म व सक्षम होते हैं, बुद्धिमत्ता का विकास उसी अनुपात से होता है। ये घटक अगणित वर्ग के हैं और उन्हीं वर्गों के विकास पर मानसिक गतिविधियों का निर्धारण, निर्देशन होता है। समझदारी का सम्बन्ध इस बात से है कि ये सूक्ष्म घटक ‘‘न्यूरान’’ कितने हैं और परस्पर कितनी सघनता से सम्बद्ध हैं।

मानव मस्तिष्क में प्रायः 1 खरब 4 अरब न्यूरान होते हैं। प्रत्येक न्यूरान स्वयं का काम तो करता ही है, दूसरे न्यूरानों के कार्य में भी भारी योगदान करता है। मनुष्य की बुद्धिमत्ता पिछले दस हजार वर्षों में लगातार बढ़ी है। किन्तु उसमें मस्तिष्क के आकार और भार में कोई खास फर्क नहीं आया है। यदि वजन और विस्तार के अनुसार बुद्धिमत्ता होती, तब तो अब तक मस्तिष्क आदमी के शरीर का बहुत बड़ा हिस्सा बन गया होता।

मस्तिष्कीय कणों का मध्यवर्ती न्यूक्लिक एसिड रासायनिक बैटरी का काम करता है तथा मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार के, विभिन्न स्तरों के संवेग और सम्वेदनाएं एक विद्युत संवेग के रूप में उत्पन्न करता एवं उस विद्युत संवेग को नियन्त्रित भी करता है। इस न्यूक्लिक अम्ल के समुचित उत्पादन के लिए मैग्नेशियम पेन्सिलीन खोजी गई है। केन्सास विश्व-विद्यालय के रसायनवेत्ताओं ने कुछ प्रोटीन एटम्स भी इसी हेतु ढूंढ़े हैं।

मस्तिष्कीय कोशिकाओं के अलावा सम्बन्ध सूत्रों को जोड़ता है एक विद्युत-प्रवाह। यह प्रवाह मनश्चेतना की इच्छानुसार मस्तिष्क की विभिन्न परतों में तीव्रगति से कौंधता है और अरबों कोशिकाओं में बिखरी पड़ी क्षमताओं की स्मृतियों में से अमुक क्षण विशेष में आवश्यक तथ्य ढूंढ़ लाता है। यह विद्युत-प्रवाह जितना ही सुव्यवस्थित, द्रुतगामी एवं संवेदनशील होगा, मनुष्य उतना ही कुशल व बुद्धिमान होगा। यह प्रवाह धीमा रुका-सा चले तो मनुष्य अस्त-व्यस्त, भुलक्कड़, मन्द बुद्धि बन जायगा। मस्तिष्क को मेरुदण्ड से जोड़ने वाले रेटीक्युलर फार्मेशन की गतिविधियों को जितनी अधिक मात्रा में समझा और प्रभावित किया जा सकेगा, उतनी ही मानवीय संवेदनाएं नियन्त्रित हो सकेंगी। बिना किसी घटना या उपलब्धि में भी इस नियन्त्रण द्वारा हर्ष, शोक आदि की अनुभूतियों की तरंगें दौड़ाई, अनुभव कराई जा सकती हैं।

मात्र विद्युत शक्ति से रेडियो ऊर्जा से ही नहीं, यह कार्य रासायनिक पदार्थों, औषधियों के सहारे भी एक सीमा तक सम्भव हो सकता है। नशे का प्रभाव बहुत पहले ही विदित है अब रासायनिक पदार्थों से चिन्तन को मोड़ने मरोड़ने और इच्छित प्रयोजन की दिशा में घसीट ले जाने में भी सफल बनाया जा सकता है।

रूसी वैज्ञानिक प्रो. एनोखोव ने एमीनाजाइन नामक एक दवा तैयार की है, जो रेक्टिक्युलर फार्मेशन में स्थित पीड़ा-संवेदन केन्द्र को जकड़ लेती है। इससे पीड़ित अंगों में होने वाली दर्द की, रोगी को अनुभूति नहीं होती। भले ही शरीर का का कोई मांस काट डाले, तो भी दर्द न होगा। इसके लिए निद्रा लानी आवश्यक नहीं। यह एड्रेनेलीन वर्ग की औषधि कहलाती है। इसके प्रयोग से प्रसव, साइटिका, तीव्र उदरशूल, सिरदर्द आदि रहते हुए भी आदमी को कोई कष्ट अनुभव नहीं होगा और वह अपना काम निपटाता रहेगा। जब आपरेशन आदि की जरूरत पड़ी भी, तो वह भी बिना किसी कष्ट के सरलता से सम्पन्न हो सकेगा। चीर फाड़ प्लास्टिक सर्जरी अंगों का प्रत्यारोपड़, विकिरण आदि के क्षेत्र में जिस प्रकार प्रगति होती रही है, उसी तरह मनोरोगों, मनोव्यथाओं से मुक्ति की दिशा में भी प्रयास हो रहे हैं। साथ ही मन को निर्दिष्ट दिशा में बहाया जा सके, इसके प्रयोग भी प्रगति पर हैं।

नवीनतम शोधें भी यह बताती हैं कि बीमारियों के कारण मात्र विषाणुओं की प्रकृति की प्रतिकूलता को अथवा आहार-विहार की अस्त-व्यस्तता तक सीमित मान बैठना उचित नहीं। वस्तुतः रोगों का बहुत बड़ा कारण मनुष्य की मानसिक विकृतियां होती हैं। मनोविकारों का आरोग्य पर जितना घातक प्रभाव पड़ता है उतना और किसी का नहीं। यदि क्रोध, चिन्ता, भय, निराशा, आशंका, ईर्ष्या जैसे आवेशों से मस्तिष्क भरा रहे तो स्वास्थ्य-संरक्षण की सारी सुविधायें रहने पर भी निरोग रह सकना सम्भव न होगा। इसके विपरीत-निश्चिन्त, निर्भय, साहसी और मस्त तबियत का आदमी अपनी व्यथाओं का बिना उपचार के अनायास ही आधा निवारण कर लेता है। दीर्घ-जीवन के अनेकों आधार बताये जाते हैं, उनमें सबसे बड़ा कारण है—जीवनेच्छा की प्रबलता। जो अपनी जिन्दगी को समाप्त हुआ नहीं मानता, देर तक जीने पर गहरा विश्वास रखता है, वह कष्ट-साध्य और असाध्य रोगों से देर तक लड़ता रह सकता है और भयावह संकट को परास्त भी कर सकता है।

मनोविज्ञानी डा. ले का कथन है—‘‘क्रोधी और झगड़ालू मनुष्यों के शरीर में आवेश-जन्य उत्तेजना से एड्रेनेलिन जहर पैदा होता है और वह रक्त में मिलकर पहले तो कई तरह की हानियां पहुंचाता, पीछे नशे सेवन करने वालों की तरह वह विष ही शरीर की एक भूख बन जाता है। उसके बिना रहा ही नहीं जाता। ऐसी दशा में उस व्यक्ति की अन्तः चेतना किसी से न किसी से झगड़ा करने की प्रेरणा करता है और वह मनुष्य कोई न कोई बहाना किसी से लड़ने का ढूंढ़ निकालता है। आये दिन बातों की बातों की लड़ाई करने के लिये उसे आकुलता बनी रहती है। क्रोध के कारण शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक हानियों की बात तो अलग रही यह न छूटने वाली झगड़ने की आदत इतनी बड़ी हानि है, जिससे मनुष्य का स्वास्थ्य और सन्तुलन ही नहीं, समग्र व्यक्तित्व नष्ट होता चला जाता है।’’

यही बात अन्यान्य मनोविकारों पर लागू होती है, वे इतना अधिक अहित करते हैं, जिनकी तुलना किसी भी बाहरी शत्रु के भयानक आक्रमण से नहीं की जा सकती। इसके विपरीत यदि मानसिक-संतुलन ठीक से बना रहे तो मूर्ख मनुष्य बुद्धिमान बन सकता है और प्रगति के अवरुद्ध मार्गों को खोल सकता है।

उपेक्षा में पड़ी हर वस्तु नष्ट होती चली जाती है। मस्तिष्क के सम्बन्ध में भी यही होता है। हम चेहरे की सुन्दरता बनाये रखने के लिए जितना प्रयत्न करते हैं, यदि उससे आधा प्रयास भी मस्तिष्कीय-क्षमता को समझने और उसे सुसन्तुलित, समुन्नत बनाने के लिए करते रहें तो निस्सन्देह हमारी अन्तर्हित क्षमताओं का सहज ही विकास हो सकता है और उस आधार पर हम अभीष्ट दिशा में आशातीत प्रगति कर सकते हैं।
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