काया में समाया प्राणग्नि का जखीरा

अणु शक्ति से भी बृहत्तर प्राणाग्नि

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यू.सी.एल.ए. (अमेरिका) के जॉन डेक ने ऐसे कई व्यक्तियों की जांच की है जो स्वतः दहन के आंशिक रूप से शिकार हुए। वे अपने शोध ग्रन्थ ‘‘ए ड्रिटाइज ऑन स्पान्टेनियस ह्यूमन कम्बशन’’ में लिखते हैं कि ‘‘यह समझ में नहीं आता कि इन आंशिक दहन वाले व्यक्तियों में ऐसा क्यों होता है कि थोड़ा-सा हिस्सा ही जलकर रह जाता है।’’ डा. वेन्टले के प्रकरण का वे विशेष रूप से हवाला देते हैं जिसमें उनके सहित दो और व्यक्ति कार में बैठे-बैठे जल कर भस्म हो गए। फलस्वरूप कार में भी आग लग गयी। किसी की भी पास जाने की हिम्मत न पड़ी। जब पूर्णाहुति हो चुकी एवं आग के शोलों की गर्मी ठण्डी पड़ी तो भी अस्थि पिंजर, खोपड़ी, दांत व अन्दर के कई अवयव सुरक्षित बच गये थे। आग के बीच रह कर भी कुछ अंगों का न जलना आश्चर्य का विषय था।

वैज्ञानिकों का मत है कि मनुष्य शरीर में उसके भार का पैंसठ प्रतिशत (लगभग पैंतालीस लीटर) जल होता है। इसे वाष्पीभूत कर काय अवयवों को जलाने के लिए लगभग पांच हजार डिग्री फौरेनहाइट की अग्नि चाहिए। यह कहां से पैदा हो जाती है? शरीर के जीवकोशों (लगभग 60 खरब) में से प्रत्येक में अग्नितत्व प्रोटोप्लाज्मा में सन्निहित होता है पर वह इतना सुव्यवस्थित व सूत्रबद्ध होता है कि उससे शरीर जले, यह संभावना दूर-दूर तक नहीं सोची जा सकती। जब तक प्रोटोप्लाज्मा को विखण्डन प्रक्रिया द्वारा उच्च प्लाज्मा में नहीं बदला जाता, तब तक अग्नि का स्वतः दहक उठना समझ से परे है। पर ऐसा होता है दहकने के अतिरिक्त यह जैव विद्युत शरीर के अंग विशेषों से विस्तृत होकर दूसरों को प्रभावित करती भी पायी गयी है। उच्च स्तर को प्राप्त योगीजनों, महापुरुषों को चरण स्पर्श करने पर, सिर पर हाथ फेरे जाने, वात्सल्य, थपथपाने, अनुदान, शक्तिपात आदि में इसी स्तर की विद्युत प्रयुक्त होती है। किसी उच्च मनोभूमि के महायोगी के समीप बैठने से भी मन व अंतःकरण में हलचल मचा देने वाली यही प्राण-विद्युत है। यह सामान्य विद्युत से भिन्न स्तर की, उपकरणों की पकड़ से बाहर की शक्ति है एवं मूलतः अनुभूति का विषय है। मात्र भावनात्मक माध्यम से इसे सम्प्रेषित किया जा सकता है।

मनुष्य शरीर में स्थित प्राण-विद्युत के इन आकस्मिक विस्फोटों के कारणों का और उन्हें रोक सकने के उपायों का पता तो वैज्ञानिक ही लगा सकते हैं और वे लगा भी लेंगे। परन्तु ऐसे विस्फोट तो विरल ही होते हैं। वे मानव-जाति की उतनी बड़ी समस्या नहीं हैं, जितनी कि भीतरी प्राणाग्नि के दुरुपयोग से उत्पन्न समस्याएं।

शरीर, मन, बुद्धि अन्तःकरण में क्रियाशील इस प्राणाग्नि के दुरुपयोग से व्यक्ति ऊपर चर्चित आकस्मिक विस्फोटों की तरह पूरे तौर पर भले ही न जले, किन्तु भीतर ही भीतर वह दग्ध, क्षत-विक्षत होता रहता है। शरीर-शक्ति का दुरुपयोग, आहार-विहार के नियमों की अवज्ञा, बहुमूल्य जीवनी-शक्ति को काम-विकार की नालियों में बहाना—ये प्राणाग्नि के वे दुरुपयोग हैं, जिनसे व्यक्ति का बल छीजता और ओजस् घटता है। कटुवचन, परनिन्दा, असत्य-कथन, वाग्घल वाणी द्वारा प्राणाग्नि को गलत ढंग से खर्च करने के उदाहरण हैं। जिनसे व्यक्ति स्वयं भी जलता है, दूसरों को भी जलाता है। दहकते अंगारों जैसे, तपी हुई छड़ जैसे, जलाने और दाग छोड़ने वाले शब्द बोलने वाले को भी उत्तप्त करते हैं और जिसके लिए कहे जाते हैं, उसे भी जलाते हैं। शरीर-शक्ति का अवांछित उपयोग स्वयं का बल घटाता है और पास-पड़ौस में भी विकृति-विक्षोभ बढ़ाता है।

बड़े पैमाने पर स्पष्ट दिखाई दे सकने वाली हानियां तो शरीर की आग से जल उठने की घटनाओं जैसी ही विरल होती हैं। भीषण दुष्परिणाम तो कभी-कभी ही सामने आते हैं। किन्तु प्राणविद्युत के असन्तुलन से, उसके ‘लीक’ करने लगने से स्वयं को तथा सम्पर्क क्षेत्र के लोगों को तेज झटके लगने के वैसे उदाहरण नित्य ही देखे जा सकते हैं जिनकी मन, बुद्धि, अन्तःकरण में क्रियाशील प्राण-विद्युत निरन्तर ‘लीक’ होती रहती है, ऐसे ढीले-पोले व्यक्तित्वों की समाज में कमी नहीं, भरमार ही दिखाई पड़ती है। उनके सम्पर्क में जो भी आता है, वह उनके कटुवचनों, कुचालों, दुर्भावनाओं और दुर्व्यवहार के रूप में ‘लीक’ हो रही प्राण-विद्युत के झटकों से आहत हो जाता है। दूसरी ओर जो लोग इस प्राण-विद्युत का सदुपयोग करते हैं, वे कोलराडों के डब्ल्यू.पी. जोन्स की तरह स्वयं भी सुख-शान्ति पाते हैं, दूसरों को भी लाभ पहुंचाते हैं। जोन्स अपनी इसी विद्युत क्षमता से धरती पर नंगे चलकर भू-गर्भ की अनेक धातुओं के भण्डार की सही-सही जानकारी दे देते हैं। ऐसी क्षमताओं से सम्पन्न अनेक लोग आये दिन देखे जाते हैं और उनकी चारों ओर प्रसिद्धि फैलते देर नहीं लगती। उन्हें स्वयं भी इस परोपकार से प्रसन्नता होती है, दूसरों को भी वे उपयोगी एवं महत्वपूर्ण लगते हैं। आन्तरिक क्षेत्र में क्रियाशील प्राण-शक्ति के सदुपयोग से मिलने वाले लाभ तो और भी कई गुने अधिक हैं। साहस, शौर्य, बौद्धिक प्रखरता, सत्संकल्प और सक्रियता सही दिशाधारा में नियोजित किये जाने पर प्रगति, उत्कर्ष, सफलता, सन्तोष और शान्ति के शतमुखी अनुदानों की वर्षा करती हैं। शांख्यायन-सूत्र में कहा गया है—

‘‘प्राणोऽस्मि प्रज्ञात्या’’

अर्थात् —प्राण रूप प्रज्ञा मैं हूं। इस प्राण-प्रज्ञा के द्वारा सत्संकल्प, सत्कर्म, सद्ज्ञान और सद्भाव के आधार पर जीवन के सदुद्देश्य की प्राप्ति ही प्राणाग्नि का अभिवर्धन एवं सदुपयोग है।

जीवन में उत्कृष्टताओं की उपलब्धि इसी जीवन्त प्राण-शक्ति द्वारा होती है। इसे ही प्रतिभा कहा जाता है। यही वह विद्युत तत्व है जो अपना परिचय कभी संकल्प बल के रूप में, कभी प्रचण्ड जिजीविषा के रूप में, कभी प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाले अग्नि के दहकते शोलों के रूप में देता रहता है। इस महाशक्ति का यदि सुनियोजन सोचा जा सके एवं नष्ट होने से बचा कर प्रसुप्त पड़ी सामर्थ्य को जगाने में उसका सदुपयोग हो सके तो मनुष्य अपरिमित शक्ति का स्वामी हो सकता है। अपनी जाग्रत सामर्थ्य से वह ऋद्धि-सिद्धियों को करतलगत कर अपनी आत्मिक प्रगति का तथा समष्टि के कल्याण का पथ प्रशस्त करता रह सकता है।
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