काया में समाया प्राणग्नि का जखीरा

मानवी काया : एक उच्चस्तरीय विद्युत्भाण्डागार

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विद्युत ऊर्जा के सहारे यंत्र-उपकरणों के संचालन की बात सर्वविदित है, पर प्रायः यह कम लोग ही जानते हैं कि मानवी शरीर एक शक्तिशाली यंत्र है और उसके सुसंचालन में जिस ऊर्जा की आवश्यकता होती है वह एक प्रकार की विशिष्ट विद्युत ही है। अध्यात्म की भाषा में इसे ‘‘प्राण’’ कहते हैं। यह एक अग्नि है जिसे ज्वलन्त रखने के लिए ईंधन की आवश्यकता पड़ती है। प्राण रूपी शरीराग्नि आहार से ज्वलन्त बनी रहती है। प्राणियों में संव्याप्त इस ऊर्जा को वैज्ञानिकों ने ‘‘जैवविद्युत’’ नाम दिया है। शरीर संचार की समस्त गतिविधियां तथा मस्तिष्कीय हलचलें रक्त मांस जैसे साधनों से नहीं, शरीर में संव्याप्त विद्युत प्रवाह द्वारा परिचालित होती हैं। यही जीवन तत्व बनकर रोम-रोम में व्याप्त है। उसमें चेतना और संवेदना के दोनों तत्व विद्यमान हैं। विचारशीलता उसका विशेष गुण है। मानवी विद्युत की यह मात्रा जिसमें जितनी अधिक होगी वह उतना ही ओजस्वी, तेजस्वी और मनस्वी होगा। प्रतिभाशाली, प्रगतिशील, शूरवीर, साहसी लोगों में इसी क्षमता की बहुलता होती है। काय कलेवर में इसकी न्यूनता होने पर विभिन्न प्रकार के रोग शीघ्र ही आ दबोचते हैं। मनःसंस्थान में इसकी कमी होने से अनेक प्रकार के मनोरोग परिलक्षित होने लगते हैं। ‘जैव विद्युत’ उस भौतिक बिजली से सर्वथा भिन्न है जो विद्युत यंत्रों को चालित करने के लिए प्रयुक्त होती है। मानवी प्राण विद्युत का सामान्य उपयोग शरीर को गतिशील तथा मन, मस्तिष्क को सक्रिय रखने में होता है। असामान्य पक्ष मनोबल, संकल्पबल, आत्मबल के रूप में परिलक्षित होता है जिसके सहारे असंभव प्रतीत होने वाले काम भी पूरे होते देखे जाते हैं। ‘‘ट्रांसफार्मेशन आफ एनर्जी’’ सिद्धान्त के अनुसार मानवी विद्युत सूक्ष्मीभूत होकर प्राण ऊर्जा और आत्मिक ऊर्जा के रूप में संगृहीत और परिशोधित-परिवर्तित हो सकती है। इस ट्रांसफार्मेशन के लिए ही प्राणानुसंधान करना और प्राण साधना का अवलम्बन लेना पड़ता है।

जैव भौतिकी के नोबुल पुरस्कार प्राप्त प्रख्यात वैज्ञानिक हाजकिन हक्सले और एक्लीस ने मानवी ज्ञान तंतुओं में काम करने वाले विद्युत आवेगों की खोज की है। इनके प्रतिपादनों के अनुसार ज्ञान तंतु एक प्रकार के विद्युत संवाही तार हैं जिनमें निरंतर बिजली दौड़ती रहती है। पूरे शरीर में इन धागों को समेटकर एक लाइन में रखा जाय तो उनकी लम्बाई एक लाख मील से भी अधिक बैठेगी। इस प्रकार इतने बड़े तंत्र को विभिन्न दिशाओं में गतिशील रखने वाले यंत्र को कितनी अधिक बिजली की आवश्यकता पड़ेगी, यह विचारणीय है।

मूर्धन्य वैज्ञानिक डॉ. मेटुची वैनबर्ग ने अपने अनुसंधान निष्कर्ष में कहा है कि मानवी काया के आन्तरिक संस्थानों में विद्युत शक्ति रूपी खजाने छिपे हैं। इनकी प्रकट क्षमता की जानकारी मांसपेशियों के सिकुड़ने-फैलने से उत्पन्न विद्युत धाराओं से होती है। इस संदर्भ में अंग्रेज वैज्ञानिक वाल्टर ने भी बहुत खोजें कीं और उन खोजों का लाभ चिकित्सा जगत को प्रदान किया है।

तंत्रिका विशेषज्ञों के अनुसार प्रत्येक न्यूरान एक छोटा डायनेमो है। काय विद्युत का उत्पादन मुख्यतया यही वर्ग करता है। इसका केन्द्र संस्थान मस्तिष्क है। एक सामान्य स्वस्थ युवा व्यक्ति का मस्तिष्क 20 वाट विद्युत उत्पन्न करता है जिससे उसके शरीर की समस्त गतिविधियां संचालित होती हैं। सामान्य जांच प्रक्रिया में हृदय कोशिकाओं में विद्यमान इस बिजली का प्रयोग ई.सी.जी. में, मांसपेशियों की विद्युत का ई.एम.जी. में तथा ब्रेन सेल्स की विद्युत का ई.ई.जी. में प्रयोग किया जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि मानवी काया एक उच्चस्तरीय परमाणु बिजलीघर है। इससे प्राण विद्युत तरंगों का निरन्तर कम या अधिक मात्रा में विकिरण होता रहता है। येल विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध चिकित्सा शास्त्री हेराल्ड बर्र ने अपने शोध निष्कर्ष में बताया है कि प्रत्येक जीवधारी अपने-अपने स्तर के अनुरूप कम या अधिक विभव वाली विद्युत उत्पन्न करता है। मनुष्यों में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में इसकी मात्रा अधिक होती है। इस मानवीय विद्युत शक्ति को उन्होंने ‘‘लाइफ फील्ड’’ के नाम से सम्बोधित किया है। उनके अनुसार व्यक्तित्व के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति का अलग-अलग लाइफ फील्ड होता है। जैव क्रियाओं से संबंधित होने के कारण उसमें परिवर्तन होता रहता है। आवेशग्रस्त होने अथवा घृणा, ईर्ष्या की स्थिति में मनुष्य शरीर से बिजली की सर्वाधिक क्षति होती है।

मूर्धन्य परामनोविज्ञानियों ने भी अपने विभिन्न अनुसंधानों के आधार पर यह पाया है कि सामान्य मनुष्य के सूक्ष्म शरीर से निस्सृत होने वाली वैद्युतीय तरंगें उसके स्थूल शरीर से छह इंच बाहर तक फैली रहती हैं। पूर्ण स्वस्थ एवं पवित्र अंतःकरण वाले व्यक्ति के शरीर से निकलने वाली इन तरंगों का विकिरण तीन फुट दूर तक फैला रहता है। इसे इन्होंने मानवी तेजोवलय की संज्ञा दी है और कहा है कि मनुष्य जिस स्थान पर निवास करता या साधना उपासना करता है काया से निस्सृत प्राण विद्युत का अदृश्य कंपन वहां स्थित जड़ पदार्थों के परमाणुओं में तीव्र प्रकंपन पैदा कर देता है। मनुष्य शरीर से निकली विद्युत तरंगें आस-पास के वातावरण में छा जाती हैं और जड़ चेतन दोनों को प्रभावित, आकर्षित करती हैं।

प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ. ब्राउन के मतानुसार एक स्वस्थ नवयुवक के शरीर और मस्तिष्क में व्याप्त विद्युत शक्ति से एक बड़ी मिल को संचालित किया जा सकता है जबकि छोटे बच्चे के शरीर में सन्निहित विद्युत ऊर्जा से एक रेलगाड़ी का इंजन चल सकता है। इस विद्युत शक्ति को उन्होंने ‘बायोलॉजिकल इलेक्ट्रिसिटी’कहा है। उनके अनुसार यह जैव विद्युत मनुष्य के सूक्ष्म शरीर से उत्पन्न होती है और स्थूल काया समेत समस्त गतिविधियों का नियंत्रण नियमन करती है। मस्तिष्क से लेकर अंगुलियों पर्यन्त इसी का आधिपत्य होता है। नेत्र सहित सभी इन्द्रियां इस शक्ति के प्रमुख विकिरण केन्द्र हैं। सर जान वुडरु ने भी अपनी पुस्तक ‘‘सर्पेण्टाइनपावर’’ में बताया है कि नेत्र और हाथ पैरों की अंगुलियों के पोरों पर प्राण विद्युत का विकिरण विशेषज्ञ अनुपात में पाया जा सकता है।

शरीर में काम करने वाली जैव विद्युत में कभी-कभी व्यतिरेक होने से गंभीर संकटों का सामना करना पड़ता है। भौतिक बिजली का जैव विद्युत में परिवर्तन असंभव है, पर जैव विद्युत के साथ भौतिक बिजली का सम्मिश्रण बन सकता है। कई बार ऐसी विचित्र घटनाएं देखने में आयी हैं जिनने मानवी शरीरों को एक जेनरेटर डायनामो के रूप में काम करते पाया गया।

सन् 1934 में इटली के पिरानी अस्पताल में एक ऐसी ही घटना घटित हुई अन्नामोनारी नामक एक महिला के शारीरिक कोशिकाओं से बिजली रिसने लगी। शरीर को छूते ही बिजली के नंगे तारों की भांति तेज झटका लगता था। बिजली का यह उत्पादन सीने के एक वृत्ताकार भाग में विशेष रूप से अधिक होता था। गहन निद्रा के समय सीने पर एक वृत्ताकार गैलेक्सी भी कुछ समय तक छायी रहती थी। यह प्रकाश पुंज कुछ सप्ताह तक बना रहा। इस घटना की जांच पड़ताल विभिन्न वैज्ञानिकों, चिकित्सा शास्त्रियों एवं भौतिक-विदों द्वारा की गई, पर रहस्य पर से पर्दा नहीं उठ सका। अन्नामोनारी की जांच कर रहे मूर्धन्य वैज्ञानिक डॉ. के. सेग के कथनानुसार इस प्रकार की घटनाएं शरीर में ‘इलेक्ट्रोमैग्नेटिक इन्डक्शन’ के कारण होती हैं। अन्य वैज्ञानिकों का अभिमत था कि त्वचा में कुछ रासायनिक प्रक्रियाएं इसके लिए जिम्मेदार हैं। किसी ने इसे ‘‘हाईवोल्टेज सिण्ड्रोम’’ कहा तो किसी ने इसे ‘‘साइकोकाइनेटिक शक्ति’’ के नाम से संबोधित किया।

‘‘सोसायटी आफ सायकिकलरिसर्च’’ द्वारा प्रस्तुत एक विवरण के अनुसार केवल अमेरिका में ही 20 से अधिक ऐसे व्यक्ति पाये गये हैं जिनके शरीर से सतत् विद्युत धाराएं निकली थीं। तलाश करने पर वे संसार के अन्य भागों में भी मिल सकते हैं। फ्रांसीसी भौतिक विट् फ्रैन्क्वाइसएरैंगों ने अपने देश के ‘‘ला पेरियर’’ शहर की एन्जोलिक कोटिन नामक विद्युत महिला का तथा डॉ. एफ. काफ्ट ने आयरलैण्ड की जे. स्मिथ का अध्ययन किया था और घटना को प्रामाणिक बताया था। कोलोरेडों के मूर्धन्य वैज्ञानिक डब्लू. पीजोन्स एवं उनके सहयोगी नार्मन लॉग ने भी इस संदर्भ में गहन अनुसंधान किया है और इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि वस्तुतः ये घटनाएं शारीरिक व्यतिरेक के परिणाम स्वरूप घटित होती हैं। कोशिकाओं में अधिक विद्युत उत्पादन होने पर वह शरीर से बाहर निकलने लगती हैं। यदि इस बढ़ी हुई विद्युत शक्ति के सुनियोजन की कला ज्ञात हो सके तो मनुष्य अतीन्द्रिय क्षमताओं का धनी बन सकता है।

विभिन्न प्रयोग-परीक्षणों के आधार पर यह प्रमाणित किया जा चुका है कि काया के सूक्ष्म केंद्रों के इर्द-गिर्द प्रवाहमान विद्युतधारा ही सुखानुभूति का निमित्त कारण है। वैज्ञानिकों का कहना है कि वैद्युतीय प्रकम्पनों के बिना किसी प्रकार की सुख संवेदना का अनुभव नहीं किया जा सकता। पदार्थों के संयोग से उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियाएं एवं अनुभूतियां उनके अभाव में विद्युत कंपनों से भी पैदा की जा सकती हैं। परामनोविज्ञानियों की भी यही मान्यता है कि सुख-दुःख की अनुभूतियां जैव विद्युत तरंगों पर निर्भर करती हैं। शरीर कि परिपुष्टता और मानसिक उत्कृष्टता का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। एक के पूर्ण स्वस्थ होने पर दूसरे का स्वस्थ होना सुनिश्चित है। गुण, कर्म स्वभाव में उच्चस्तरीय उत्कृष्टता जीवन में समस्वरता पैदा करती है, फलतः प्राण विद्युत की सशक्तता बढ़ती है, जिससे मनुष्य को असीम सुख शान्ति की अनुभूति होती है।

मानवी विद्युत प्रवाह ही एक दूसरे को आकर्षित प्रभावित करता है। शिर और नेत्रों में यह विशेष रूप से सक्रिय पाया जाता है। वाणी की मिठास, कड़ा होना अथवा प्रामाणिकता में उसका अनुभव किया जा सकता है। तेजस्वी मनुष्य के विचार ही प्रखर नहीं होते, उनकी आंखें भी चमकती हैं और उनकी वाणी अन्तर की गहराई तक घुस जाने वाला विद्युत प्रवाह उत्पन्न करती है। उभरती आयु में यही प्राण विद्युत काय आकर्षण की भूमिका निभाती है। सदुपयोग होने पर प्रतिभा, प्रखरता, प्रभावशीलता के रूप में विकसित होकर कितने ही महत्वपूर्ण कार्य करती है और दुरुपयोग होने पर मनुष्य निस्तेज, छूंछ एवं अवसादग्रस्त रहने लगता है। ऊर्ध्वरता संयमी, विद्वान, वैज्ञानिक, दार्शनिक, योगी, तपस्वी जैसी विशेषताओं से सम्पन्न व्यक्तियों के बारे में यही कहा जा सकता है कि उन्होंने अपनी प्राण विद्युत का अभिवर्धन, नियंत्रण एवं सदुपयोग किया है।

किस व्यक्ति में कितनी मानवी विद्युत शक्ति विद्यमान है, इसका परिचय उसके चेहरे के इर्द-गिर्द और शरीर के चारों ओर बिखरे हुए तेजोवलय को देखकर प्राप्त किया जा सकता है। यह आभा मण्डल खुली आंखों से नहीं देखा जा सकता वरन् सूक्ष्म दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति ही इसे अनुभव कर पाते हैं। अब ऐसे यंत्र भी विकसित कर लिये गये हैं जो मानव शरीर में पायी जाने वाली विद्युत शक्ति और उसके विकिरण का विवरण प्रस्तुत करते हैं। किर्लियन फोटोग्राफी तथा आर्गान एनर्जी के मापन को इस संदर्भ में महत्वपूर्ण माना जा सकता है।

निःसन्देह मनुष्य एक जीता जागता बिजलीघर है, किन्तु झटका मारने वाली—बत्ती जलाने वाली सामान्य बिजली की तुलना उससे नहीं की जा सकती। जड़ की तुलना में चेतन की जितनी श्रेष्ठता है उतना ही भौतिक और जीवन विद्युत में अन्तर है। प्राण विद्युत असंख्य गुनी परिष्कृत और संवेदनशील है। उसके सदुपयोग एवं दुरुपयोग के भले-बुरे परिणामों को ध्यान में रखते हुए यदि प्राण विद्युत पर नियंत्रण, परिशोधन, उसका संचय-अभिवर्धन किया जा सके तो मनुष्य असामान्य शक्ति का स्वामी बन सकता है। अभी तो वैज्ञानिक स्थूल विद्युत के चमत्कार जानकर ही हतप्रभ हैं। यदि कायपिण्ड में विद्यमान इस जखीरे को विस्तार से जाना समझाया जा सके तो अविज्ञात के रहस्योदघाटन के क्षेत्र में एक नया आयाम खुलता है।

प्राणाग्नि का प्रकटीकरण—

मानव शरीर के अन्दर भरी पड़ी प्राणाग्नि के भाण्डागार की जानकारी विज्ञान जगत को आधुनिक उपकरणों की सहायता से आज मिल पायी है। इस सम्बन्ध में उपनिषद्कार पहले ही लिख चुके हैं कि— ‘‘इस ब्रह्मपुरी यानी शरीर में प्राण ही कई तरह की अग्नियों के रूप में जलता है।’’

(प्रश्नोपनिषद्) प्राण को अंगारा व प्राणाग्नि को उससे निकलने वाली ताप ऊर्जा-धधकती लौ के रूप में समझा जा सकता है। जड़-जगत में वेव-क्वान्टम (तरंगों) के रूप में तथा चेतन जगत में विचारणा एवं सम्वेदना के रूप में व्याप्त यह प्राण-प्रवाह वस्तुतः विद्युत ऊर्जा का सूक्ष्मतम स्वरूप है। अदृश्य अन्तरिक्ष जगत से अनुदान रूप में प्राप्त ब्राह्मी प्राणशक्ति को मानव शरीर सतत् ग्रहण करता है—अवशोषित करता तथा निस्सृत करता रहता है। इसका संचय ही प्राण निग्रह कहलाता है जो व्यक्ति को ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी बना देता है। क्षरित होने पर यही शिथिल जीवनी शक्ति, निरुत्साह, रुग्णता, हताशा, अवसाद के रूप में प्रकटीकृत होती है। संयमी ब्रह्मचारी तपस्वी उसे बढ़ाते चलते हैं और अभिवृद्धि का परिचय बढ़ी-चढ़ी प्रतिभा प्रखरता के रूप में देते हैं।

प्राण विद्युत चेहरे पर आंखों में इसी की चमक होती है। वाणी में मिठास भी इसी की होती है और सिंह जैसी गर्जन भी। दूसरों पर प्रभाव डालना इसी के माध्यम से बन पड़ता है। प्राण विद्युत सम्पर्क में आने वालों को चुम्बक की तरह खींचती और अपनी विशेषताओं से प्रभावित करती है। ऋषि आश्रमों के इर्द-गिर्द उनमें निवासियों का प्राण छाया रहता है और उसका प्रभाव हिंस्र पशुओं तक पड़ता है। सिंह गाय एक घाट पानी पीने की घटनाएं ऐसे ही क्षेत्रों में दृष्टिगोचर होती हैं। नारद के प्रभाव से वाल्मीकि ओर बुद्ध के सान्निध्य में अंगुलिमाल का काया-कल्प हो जाना ऐसे ही प्रचण्ड प्राण प्रहार का प्रतिफल है। कुसंग और सत्संग में यही प्राण ऊर्जा विशेष रूप से काम करती है।

यह प्राणाग्नि कई बार प्रयत्नपूर्वक प्रकट की जा सकती है और कई बार अनायास ही अप्रत्याशित रूप से उभरती है। पौराणिक गाथा के अनुसार शिव पत्नी सती ने पितृगृह में अपने शरीर से ही योगाग्नि प्रकट करके शरीर दाह किया था। अन्य योगियों के बारे में भी ऐसी ही गाथाएं मिलती हैं जिनने शरीरान्त के समय अन्य किसी के द्वारा अन्त्येष्टि किये जाने की प्रतीक्षा न करके अपने भीतर से ही अग्नि प्रकट की थी और काया को भस्मसात कर लिया था। शाप देकर दूसरों को भस्म कर देने के तो कितने ही कथानक हैं। शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था और दमयन्ती के शाप से व्याध जल कर भस्म हो गया था। भस्मासुर ने तो इस विशिष्टता को अपनी तपस्या के सहारे एक सिद्धि के रूप में ही प्राप्त कर लिया था वह किसी पर भी हाथ रखकर उसे भस्म कर सकता था।

यह प्राणाग्नि के प्रयत्नपूर्वक किये गये प्रयोग हुए। इसके पीछे कुछ उद्देश्य और प्रयोग भी हैं पर आश्चर्य तब होता है जब यह कायिक ऊर्जा अनायास ही किसी-किसी के शरीर से फूट पड़ती है और अपनी काया को ही नहीं समीपवर्ती सामान को भी जलाने लगती है।

इस संबंध में शास्त्रकार का कथन है—
एषोऽग्निस्तपत्येष सूर्य एषपर्जन्यो मद्यवानष्। एष पृथिवी रयिर्देवः सद्सच्चामृतं चयत्।।

प्रश्नोपनिषद् 2।5
यह प्राण ही शरीर में अग्नि रूप धारण करके तपता है, यह सूर्य, मेघ, इन्द्र, वायु, पृथ्वी तथा भूत समुदाय है। सत असत तथा अमृत स्वरूप ब्रह्म भी यही है। शरीर में यह कई तरह की अग्नियों के रूप में जलता है।’’ यह अग्नि जठराग्नि हो सकती है, यज्ञ में वर्णित तीन दिव्य अग्नियां आयुर्वेद वर्षित प्राकृत अग्नि विज्ञान की तेरह अग्नियां अथवा योगाग्नि के रूप में प्राण शक्ति का समुच्चय कुण्डलिनी हो सकती है। अपने-अपने भिन्न-भिन्न रूप में यह बहिरंग में प्रकट होती रहती है एवं कभी आंखों से, कभी भाव-भंगिमा द्वारा, कभी वाक् शक्ति के माध्यम से एवं कभी-कभी बल पराक्रम-साहसिकता के रूप में इसकी स्थूल अभिव्यक्ति देखी जा सकती है।

मन को लुभाने वाले, समुदाय को आकर्षित करने वाले सौन्दर्य में जो तेजस्विता एवं सौम्यता बिखरी होती है, वह और कुछ नहीं, प्राणों का उभार है। वृक्ष-वनस्पति पुष्पों से लेकर, पहाड़, नदी-सरोवर, शिशु-शावक, किशोर-किशोरियों में जो कुछ भी आह्लादकारी सौंदर्य दिखाई पड़ता है, वह सब प्राण का ही प्रताप है। अभिव्यक्ति के रूप भिन्न-भिन्न घटकों में भिन्न हो सकते हैं, पर मूल प्राण तत्व एक ही होता है, एक ही स्रोत इस समष्टिगत प्राण का है।

मानवी काया का जो स्थूल बहिरंग है, उसका सूक्ष्म शरीर जिन प्राण स्फुल्लिंगों के समुच्चय से बना है, वह अपने आप में अनन्त अपरिमित शक्तियों का पुंज है। यही कारण है कि इस शरीर को देव मन्दिर कहा गया है, जिसमें पांच प्राण रूपी पंच देव प्रतिष्ठापित हैं। जब एक देवता की सहायता ही मनुष्य को अजर-अमर बना देती है तो इन पंच देवों की सिद्धि कर लेने वाला कितना समर्थ, सशक्त हो सकता है, उसकी कल्पना भर से रोमांच हो उठता है।

जिनके प्राण समर्थ हैं वे एक ही शरीर से कई स्थानों पर कार्य करते रह सकते हैं। ऐसी अनेक घटनाएं प्राणवान संकल्पवान व्यक्तियों के साथ घटती देखी गयी हैं। जापान के डा. शेरावुड ने प्राणयोग प्रक्रिया का अध्ययन कर महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले व अपने शोधग्रन्थ में प्रकाशित किये है। श्रीमती जे.सी. ट्रस्ट (‘‘अणु और आत्मा’’ पुस्तक की लेखिका) की ही तरह उन्होंने भी प्राण सत्ता के अद्भुत प्रयोग किए व सम्मानित नागरिकों, पत्रकारों के समक्ष प्रस्तुत किए थे। एक ब्लैक बोर्ड पर खड़िया बांधकर अपनी प्राण सत्ता सूक्ष्म शरीर के रूप में स्थूलकाया से बाहर निकालकर अनेक प्रश्न ब्लैक बोर्ड पर हल किए। पत्रकार गुत्थियां देते रहे एवं खड़िया ब्लैक बोर्ड पर चलती रही। ओ.बी.ई. (आउट ऑफ बॉटी एक्सपीरिएन्स) की इस प्रक्रिया द्वारा उन्होंने यह प्रमाणित किया कि मानव शरीर मात्र वहीं तक सीमित नहीं है, जो दृश्यमान है। सूक्ष्म की सत्ता, प्राण शक्ति की क्षमता असीम अपरिमित है। इस प्रकार के कई उदाहरण ग्रन्थों में मिलते हैं। यहां चर्चा ओ.बी.ई. की नहीं, इच्छा शक्ति के चमत्कारी स्वरूप एवं उसके सुनियोजन की चल रही है। इस प्रसंग में उपरोक्त घटना को देखा जाय तो वह रहस्य रोमांचकारी घटना कम एवं मानवी प्राणशक्ति की अपरिमित सामर्थ्य की परिचायक अधिक कहीं जाएगी।

शरीक के नियम बन्धनों से मुक्त मानवी चेतना को प्रमाणित करने के लिए डा. थेल्मामॉस ने ऐसी कई घटनाओं का उल्लेख किया है उनमें से एक घटना सन् 1908 की है। ब्रिटेन के ‘हाउस ऑफ लार्डस’ का अधिवेशन चल रहा था। इस अधिवेशन में विरोधी दल ने सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव रखा था और उस दिन प्रस्ताव पर मत संग्रह किया जाना था। विरोधी पक्ष तगड़ा था। अतः सरकार को बचाने के लिए सत्तारूढ़ दल के सभी सदस्यों का सदन में उपस्थित होना आवश्यक था। इधर सत्तारूढ़ दल के एक प्रतिष्ठित सदस्य सर कॉर्नरोश गम्भीर रूप से बीमार पड़े हुए थे। उनकी स्थिति इस लायक भी नहीं थी कि वे शैया से उठकर चल फिर भी सकें। जबकि उनको हार्दिक आकांक्षा यह थी कि वे भी मतदान में भाग लें। उन्होंने डाक्टरों से बहुत कहा कि उन्हें किसी प्रकार मतदान के लिए सदन में ले जाया जाय परन्तु डॉक्टर अपने कर्त्तव्य से विवश थे। आखिर उनका जाना सम्भव न हो सका। परन्तु मतदान के समय सदन में कई सदस्यों ने देखा कि सर कॉर्नरोश अपने स्थान पर बैठे मतदान में भाग ले रहे हैं जबकि डाक्टरों का कहना था कि वे अपने बिस्तर से हिले तक नहीं। प्रबल प्रचण्ड शक्ति ही चेतन-सत्ता को वहां खींच लायी थी।

एक दूसरी घटना का उल्लेख करते हुए डा. मॉस ने लिखा है—‘‘ब्रिटिश कोलम्बिया विधान सभा का अधिवेशन विक्टोरिया सीनेट में चल रहा था। उस समय एक विधायक चार्ल्सवुड बहुत बीमार थे, डाक्टरों को उनके बचने की उम्मीद नहीं थी, परन्तु उनकी उत्कट इच्छा थी कि वे अधिवेशन में भाग लें। डॉक्टरों ने उन्हें बिस्तर से उठने के लिए भी मना कर दिया था और वे अपनी स्थिति से विवश बिस्तर पर लेटे थे। परन्तु सदन में सदस्यों ने देखा कि श्री चार्ल्स विधान सभा में उपस्थित हैं। अधिवेशन की समाप्ति पर सदस्यों का जो फोटो लिया गया, उसमें चार्ल्सवुड भी विधान सभी की कार्यवाही में भाग लेने वाले सदस्यों के साथ उपस्थित थे। यह चित्र आज भी वहां के म्यूजियम में सुरक्षित है।’’
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