काया में समाया प्राणग्नि का जखीरा

अन्तराल में निहित सिद्धि वैभव

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बीज में प्राण तत्व होता है। वही नमी और आरंभिक पोषक अनुकूलता प्राप्त करके अंकुरित होने लगता है। इसके उपरान्त वह बढ़ता, पौधा बनता और वृक्ष की शकल पकड़ता है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर है कि उसे जड़ें जमाने का आवश्यक खाद पानी व पोषण प्राप्त हुआ या नहीं। यदि उसकी आवश्यकताएं पूरी होती चलें तो बढ़वार रुकती नहीं, किन्तु यदि बीज अपने स्थान पर बोरे में ही बन्द रखा रहे, उसे सुखाया और कीड़ों से बचाया जाता रहे तो वह मुद्दतों तक यथा स्थिति अपनाये रहेगा। बहुत पुराना हो जाने पर काल के प्रभाव से वह हतवीर्य हो जायगा अथवा घुन जैसे कीड़े लगकर उसे नष्ट कर देंगे।

बीज में उगने की शक्ति होती है यदि वह पका हुआ हो। यदि उसे कच्ची स्थिति में ही तोड़ लिया गया है तो वह खाने के काम भले ही आ सके, बोने और उगने की क्षमता विकसित न होगी। वह देखने में तो अन्य बीजों के समान ही होगा, पर परखने पर प्रतीत होगा कि उसमें वह गुण नहीं है जो परिपक्व स्थिति वाले बीजों में पाया जाता है। हर मनुष्य में प्राणशक्ति होती है, पर उसकी मात्रा में न्यूनाधिकता बनी रहती है। यह इस बात पर निर्भर रहता है कि प्राण रूपी बीज को प्रौढ़ बनाने के लिए जानकारी अथवा गैर परिपक्वता लाने वाले प्रयत्न होते रहे या नहीं।

मानवी प्राणशक्ति का विकास और परिपाक इस बात पर निर्भर है कि उसमें पूर्व संचित संस्कारों का समूह था या नहीं। गर्भ-धारण करते समय माता-पिता के रज-वीर्य में अभीष्ट उत्कृष्टता या परिपक्वता थी या नहीं? उसे आरंभिक पोषण मिला या नहीं? प्राण प्रक्रिया के अनुदान समुचित मात्रा में मिले या नहीं? यह सब भ्रूणावस्था में पूरी की जाने वाली आवश्यकताएं हैं। इसके बाद जब परिपक्व बालक संसार के खुले वातावरण में सांस लेता है और समीपवर्ती लोगों द्वारा विनिर्मित वातावरण का प्रभाव ग्रहण करता है, तब भी उस स्थिति में मनुष्य प्रभाव ग्रहण करता है। खान-पान से, जलवायु से स्थूल शरीर के स्तर का निर्माण होता है, किन्तु प्राण प्रभाव समीपवर्ती लोगों की चेतना से ही उपलब्ध होता है। खोटे और ओछे लोगों के सम्पर्क से व्यक्ति, स्तर की दृष्टि से ऊंचा नहीं उठ सकता। मांसलता की दृष्टि से वह मोटा, पतला या सुन्दर, कुरूप हो सकता है, पर व्यक्ति में जो प्रतिभा पाई जाती है, विशिष्ट स्तर की विशेषता देखी जाती है वह इस बात पर निर्भर रहती है कि सम्पर्क-वातावरण में किस स्तर की जीवट एवं क्षमता विद्यमान थी। अन्न-जल से रक्त मांस बनता है किन्तु व्यक्तित्व विकसित करने की क्षमता उन लोगों में होती है जो अपने बड़प्पन के कारण छोटों पर प्रभाव छोड़ते हैं। मनुष्य का स्वयं का चिन्तन, मनन भी इस संदर्भ में काम करता है। वह अपनी इच्छा शक्ति और संकल्प शक्ति से भी अपने आप को प्रभावित करता है। पूर्व संचित संस्कार भी ऐसा वातावरण पाकर स्वतः उभरते हैं। ग्रीष्म ऋतु में घास सूख जाती है फिर भी जमीन के अन्दर उसकी जड़ों में किसी प्रकार नमी बनी रहती है। वर्षा होते ही वे जड़ें अनायास ही अंकुरित हो चलती हैं और तेजी से अपना विस्तार करती हुई जमीन पर फैलकर हरीतिमा बिखेरती हैं।

यह सब वे कारण हैं जिनके बलबूते विशेष साधन न बन पड़ने पर भी मनुष्य का आत्मबल विकसित स्थिति में देखा जा सकता है और उसे भी सिद्ध पुरुषों जैसी विभूतियां अनायास ही प्रकट होती हुई प्रकाश में आती दृष्टिगोचर हो सकती हैं। कई व्यक्ति योग, तप, साधना, अनुष्ठान जैसे कृत्य प्रयास न करने पर भी सूक्ष्म विशेषताओं से सम्पन्न पाये जाते हैं। यह उपहार उन्हें जन्मजात रूप में भी मिलता है अथवा नितान्त बचपन से आगे बढ़ती हुई दृष्टिगोचर होने लगती है। यह अनायास का प्रकटीकरण भी संयोगवश नहीं होता। उसके पीछे ऐसे कारण सन्निहित होते हैं जिन्हें घटनाएं या प्रयास तो नहीं कहा जा सकता, पर अदृश्य और अविज्ञात कारण ऐसे होते हैं जिनके कारण कुछ विशेष व्यक्ति अपने में चमत्कारी क्षमताएं प्रकट करते हैं किन्तु उनके साथी पड़ौसी उन विशेषताओं से वंचित बने रहते हैं।

प्रयत्न करने पर तो उसका लाभ कोई भी उठा सकता है। साहित्यकार, संगीतज्ञ, शिल्पकार, चिकित्सक, इंजीनियर आदि विशेषज्ञ अपने में ये विशेषताएं अभ्यास द्वारा अर्जित करते हैं। पहलवान व्यायामशालाओं में, विद्वान पाठशालाओं में, शिल्पी कारखाने में आवश्यक अभ्यास करते हुए समयानुसार सुयोग्य बनते हैं। किन्तु आश्चर्य तब होता है जब प्रशिक्षण के अभाव में अथवा स्वल्प प्रशिक्षण के सहारे किसी-किसी की प्रतिभा अनायास ही फूट पड़ती है। उदाहरण के लिए मोजार्ट 8 वर्ष की अल्पायु में ही संगीतज्ञ बन गये थे। पास्कल 12 वर्ष की उम्र में प्रख्यात गणितज्ञों की श्रेणी में गिने जाने लगे थे। 13 वर्ष की किशोरावस्था में बुडरर प्रसिद्ध कलाकार बन गये थे। संत ज्ञानेश्वर ने 16 वर्ष की आयु में गीता का भाष्य किया था तो सिक्ख धर्म के प्रवर्तक गुरुनानक देव 10 वर्ष की छोटी अवस्था से ही भावपूर्ण सबद की रचना करने लगे थे। इन प्रतिभाओं को देखने पर मोटी दृष्टि से सुयोग, संयोग, भाग्य, वरदान आदि समझा जाता है, पर वस्तुतः उस अनायास के पीछे भी कारण होते हैं। भले ही यह प्रत्यक्ष घटनाक्रम सामने आया हो या न आया हो।

प्रयास अभ्यास तो कई लोगों का सफल होता है। मनोयोगपूर्वक कड़ा परिश्रम करने पर तो कालिदास और वरदराज जैसे मूर्ख समझे जाने वाले व्यक्ति भी उच्चकोटि के विद्वान बन गये थे। सेन्डो और चांदगी राम ने अपने गये गुजरे स्वास्थ्य को ऐसा बना लिया था कि उनकी गणना विश्व के मूर्धन्य पहलवानों में होने लगी। अमेरिका का जैक ब्लाटिन पिछले दिनों कई वर्ष तक कैंसर से पीड़ित रहने के उपरान्त जब किसी तरह रोगमुक्त हुआ तो वह पहलवानी पर उतर आया। संकल्प, साहस और अभ्यास के सहारे उसने अपना शरीर बल इस स्तर तक बढ़ा लिया कि ओलंपिक कुश्ती के सुपर हैवीवेट का खिताब जीतकर न केवल अपने राष्ट्रीय गौरव को ऊंचा उठाया वरन् समूची मानव जाति के लिए एक अनूठा और प्रेरणाप्रद उदाहरण प्रस्तुत किया। यह प्रयास का प्रत्यक्ष प्रभाव है।

किन्तु आश्चर्य तब होता है जब प्रत्यक्ष घटनाक्रमों के रूप में अभ्यास न किये जाने पर भी दिव्य क्षमताएं विकसित हो जाती हैं। विश्व में ऐसे अनेक व्यक्ति हुए हैं जिनमें यह प्रतिभा जन्मजात रूप में विकसित पाई गई है। हालैण्ड का क्रोसेट नामक एक बालक बचपन से ही भविष्यवाणियां करने के लिए विख्यात था उसके द्वारा किये गये भविष्य कथन शत प्रतिशत सही उतरते थे। इजराइल का यूरीगेलर अपनी अतीछिद्रय क्षमताओं के लिए प्रसिद्ध है। भविष्य दर्शन की विशेषता के कारण संसार भर में जिन लोगों ने विशेष ख्याति अर्जित की है उनमें एण्डरसन, सेमवैंजोन, पीटर हरकौस, हेंसक्रेजर आदि के नाम प्रमुख हैं। नौस्ट्राडोमस तो अपनी भविष्यवाणियों के लिए विश्वविख्यात ही हैं। फ्लोरेंस स्टर्न फेल्स नामक 8 वर्षीय बालिका में दिव्य दर्शन की क्षमता अनायास ही फूट पड़ी थी। इसका पता लोगों को तब लगा जब उसने सदियों पुरानी टूटी-फूटी एक कब्र के खोदे जाने की न केवल तिथि व समय बता दिया था वरन् उसमें सोये हुये व्यक्ति का नाम भी बता दिया था। वह कब्र विलियम जान्सन की थी, जिस पर किसी का नाम तक नहीं खोदा गया था और न किसी को उसकी जानकारी थी। रजिस्टर के पुराने पन्नों को पलटने पर फ्लोरेंस द्वारा दी गई जानकारी सही निकली। वस्तुतः इस संसार में अनायास कुछ भी नहीं होता है। हां इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इस असाधारण प्रक्रिया के पीछे कोई अविज्ञात कारण रहे हैं जिन्हें प्रत्यक्ष रूप में नहीं देखा जा सकता।

प्राणशक्ति का संरक्षण-अभिवर्धन

आर्थिक आदान-प्रदान—शरीरगत सेवा सहयोग के सहारे परस्पर एक दूसरे की सहायता करने, मैत्री विकसित करने एवं सद्भावना उपलब्ध करने के अनेकानेक प्रमाण सामान्य जीवन में आये दिन मिलते रहते हैं। छोटे और बड़ों में—मित्र-मित्र में, कई कारणों से, कई प्रकार के आदान-प्रदानों का सिलसिला चलता रहता है। ऊंचे स्तर पर मनुष्य की एक विशेष क्षमता है—प्राण। यह एक प्रकार की जीवन्त विद्युत है। जीवन एवं व्यक्तित्व इसी की न्यूनाधिकता में गिरता उठता रहता है। प्राण की सीमित मात्रा सभी प्राणधारियों को समान रूप से उपलब्ध है। वे शरीर यात्रा के आवश्यक साधन इसी के सहारे जुटाते हैं और यथोचित पुरुषार्थ एवं कौशल विकसित करने में सफल रहते हैं। प्राण ऐसा तत्व है जो हवा की तरह भीतर भी भरा है और समस्त ब्रह्माण्ड में भी संव्याप्त है। उसकी अतिरिक्त मात्रा प्राणायाम प्राणाकर्षण विधान जैसे उपायों के सहारे अर्जित भी की जा सकती है।

प्राण अपनी सर्वतोमुखी समर्थता के लिए तो आवश्यक है, उसका प्रयोग उपचार दूसरों के हित अनहित के लिए भी किया जा सकता है। योग के माध्यम से प्राणोपचार का प्रयोग प्रायः सदुद्देश्यों के लिए ही होता है किंतु तांत्रिक अभिचार से इसे दूसरों को परास्त करने के लिए प्रहार रूप में भी किया जाता है। शक्ति, शक्ति ही रहेगी। उसका उपयोग किसने किस प्रकार किया यह दूसरी बात है। प्राण मानवी सत्ता की सबसे बड़ी शक्ति है। उसका उपयोग पग-पग पर होता है। जीवन-मरण के लिए—समर्थता-दुर्बलता के लिए—कायरता-साहसिकता के लिए—अवसाद और पराक्रम के लिए। प्राणशक्ति की न्यूनाधिकता एवं उत्कृष्टता निकृष्टता ही आधारभूत कारण होती है। बाहरी उपचारों से तो तनिक-सा ही सुधार परिवर्तन सम्भव होता है।

विचार दूर-दूर तक जा सकते हैं। उन्हें पत्रों, लेखों तथा टेप टेलीफोन आदि के माध्यम से अन्यत्र भी भेजा जा सकता है। किन्तु प्राण में यह कमी है कि वह एक सीमित क्षेत्र में ही रहता है। उसका कहने लायक प्रयोग समीपवर्ती परिधि में ही हो सकता है। जैसे-जैसे दूरी बढ़ती जाती है वैसे ही प्राण प्रभाव का क्षेत्र झीना होता जाता है। किन्हीं महाप्राणों की बात दूसरी है जो अपेक्षाकृत बड़े क्षेत्र को—उसमें रहने वाले समुदाय को अनुप्राणित करें। किन्तु सामान्यतया यह सचेतन ऊर्जा जलती आग की तरह निकटवर्ती को ही अधिक प्रभावित करती है। आग से दूर हटते जाने पर उसकी रोशनी भले ही दीखे पर गर्मी में तो निश्चित रूप से कमी ही होती जायगी। प्राण की प्रकृति भी यही है।

ऋषि आश्रमों में गाय और सिंह निर्भय होकर एक घाट पानी पीते थे। किन्तु उस प्रभाव परिधि से बाहर निकल जाने पर फिर वे ‘आक्रामक आक्रान्त’ की रीति-नीति अपनाने लगते हैं। इसे प्राण शक्ति का सम्मोहन ही कहना चाहिए।

सान्निध्य का प्रभाव क्या पड़ता है इसका सामान्य परिणाम सत्संग और कुसंग के भले-बुरे रूप में देखा जाता है। समर्थों की निकटता असमर्थों को प्रभावित किये बिना नहीं रहती। चोर, जुआरी, लम्पट, मद्म-व्यसनी, दुर्गुणी सम्पर्क में आने वालों को अपना छूत लगा देते हैं। यह कुसंग हुआ। सज्जनों की—प्राणवान महामानवों की निकटता भर से सहचरों में उन गुणों का एक महत्वपूर्ण अंश अनायास ही हस्तांतरित होता है। इसलिए अधिक समय के लिए सम्भव न होने पर भी लोग महामानवों के निकट तक पहुंचने का किसी न किसी बहाने कुछ न कुछ प्रयत्न करते रहते हैं।

यह प्राणशक्ति ही मनुष्य सत्ता की जीवनी शक्ति है। वह यदि कम हो तो मनुष्य समुचित पराक्रम कर सकने में असमर्थ रहता है और उसे अधूरी मंजिल में ही निराश एवं असफल हो जाना पड़ता है। क्या भौतिक, क्या आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्र में अभीष्ट सफलता के लिए आवश्यक सामर्थ्य की जरूरत पड़ती है। इसके बिना प्रयोजन को पूर्ण कर सकना, लक्ष्य को प्राप्त कर सकना असम्भव है। इसलिए कोई महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए उसके आवश्यक साधन जुटाना आवश्यक होता है। कहना न होगा कि भौतिक उपकरणों की अपेक्षा व्यक्तित्व की प्रखरता एवं ओजस्विता कहीं अधिक आवश्यक है।

साधनों का उपयोग करने के लिए भी शौर्य, साहस और सन्तुलन चाहिए। बढ़िया बन्दूक हाथ में पर मन में भीरुता, घबराहट भरी रहे तो वह बेचारी बन्दूक क्या करेगी? चलेगी ही नहीं, चल भी गई तो निशाना ठीक नहीं लगेगा, दुश्मन सहज ही उससे इस बंदूक को छीन कर उल्टा आक्रमण कर बैठेगा। इसके विपरीत साहसी लोग छत पर पड़ी ईंटों से और लाठियों से डाकुओं का मुकाबला कर लेते हैं। ‘साहस वालों की ईश्वर सहायता करता है’ यह उक्ति निरर्थक नहीं है। सच तो यही है कि समस्त सफलताओं के मूल में प्राणशक्ति ही साहस, जीवट दृढ़ता, लगन, तत्परता की प्रमुख भूमिका सम्पादन करती है और ये सभी विभूतियां प्राण-शक्ति की सहचरी हैं।

प्राण ही वह तेज है जो दीपक के तेल की तरह मनुष्य के नेत्रों में, वाणी में, गतिविधियों में, भाव-भंगिमाओं में, बुद्धि में, विचारों में प्रकाश बनकर चमकता है। मानव जीवन की वास्तविक शक्ति यही है। इस एक ही विशेषता के होने पर अन्यान्य अनुकूलताएं तथा सुविधाएं स्वयंमेव उत्पन्न, एकत्रित एवं आकर्षित होती चली जाती हैं। जिसके पास यह विभूति नहीं उस दुर्बल व्यक्तित्व वाले की सम्पत्तियों को दूसरे बलवान् लोग अपहरण कर ले जाते हैं। घोड़ा अनाड़ी सवार को पटक देता है। कमजोर की सम्पदा— जर, जोरू, जमीन दूसरे के अधिकार में चली जाती है।

जिसमें संरक्षण की सामर्थ्य नहीं वह उपार्जित सम्पदाओं को भी अपने पास बनाये नहीं रख सकता। विभूतियां दुर्बल के पास नहीं रहतीं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए विचारशील लोगों को अपनी समर्थता—प्राणशक्ति बनाये रखने तथा बढ़ाने के लिए भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रयत्न करने पड़ते हैं। आध्यात्मिक प्रयत्नों में प्राण शक्ति के अभिवर्धन की सर्वोच्च प्रक्रिया गायत्री उपासना को माना गया है। उसका नामकरण इसी आधार पर हुआ है।

शरीर में प्राण शक्ति ही निरोगता, दीर्घ-जीवन, पुष्टि एवं लावण्य के रूप में चमकती है। मन में वही बुद्धिमत्ता, मेधा, प्रज्ञा के रूप में रूप में प्रतिष्ठित रहती है। शौर्य, साहस, निष्ठा, दृढ़ता, लगन, संयम, सहृदयता, सज्जनता, दूरदर्शिता एवं विवेकशीलता के रूप में उस प्राण-शक्ति की ही स्थिति आंकी जाती है। व्यक्तित्व की समग्र तेजस्विता का आधार यह प्राण ही है। शास्त्रकारों ने इसकी महिमा को मुक्त कण्ठ से गाया है और जन-साधारण को इस सृष्टि की सर्वोत्तम प्रखरता का परिचय कराते हुए बताया है कि वे भूले न रहें, इस शक्ति-स्रोत को—इस भाण्डागार को ध्यान में रखें और यदि जीवन लक्ष्य में सफलता प्राप्त करनी हो तो तन्त्र को उपार्जित, विकसित करने का प्रयत्न करें।

गायत्री साधना मनुष्य को प्राणयुक्त बनाती और उसमें प्रखरता उत्पन्न करती है। गायत्री का अर्थ ही है प्राणों का उद्धार करने वाली। इस प्रकार प्राणवान और विभिन्न शक्तियों में प्रखरता उत्पन्न होने से पग-पग पर सफलताएं, सिद्धियां प्राप्त होती हैं। प्राण की न्यूनता ही समाज विपत्तियों का, अभावों और शोक-सन्तापों का कारण है। दुर्बल पर हर दिशा से आक्रमण होता है, दैव भी दुर्बल का घातक होता है। भाग्य भी उसका साथ नहीं देता और मृत लाश पर जैसे चील, कौए दौड़ पड़ते हैं वैसे ही तत्वहीन मनुष्य पर विपत्तियां टूट पड़ती है। इसलिए हर बुद्धिमान को प्राण का आश्रय लेना ही चाहिए। कहा गया है—

प्राणो वै बलम्। प्रापणों वै अमृतम्। आयुर्नः प्राणः राजा वै प्राणः। —ब्रहृदारण्यक
प्राण ही बल है, प्राण ही अमृत है। प्राण ही आयु है। प्राण ही राजा है।

यो वै प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः। —सांख्यायन
जो प्राण है, सो ही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है, सो ही प्राण है।

यावद्धयास्मिन् शरीरे प्राणोवसति तावदायुः। —कौषीतकि
जब तक इस शरीर में प्राण हैं तभी तक जीवन है।

प्राणो वै सुशर्मा सुप्रतिष्ठान्ः। —शतपथ
प्राण ही इस शरीर रूपी नौका की सुप्रतिष्ठा है।

एतावज्ज्न्मसाफल्यं देहिनाभिह देहिषु। प्राणैरयैर्धिया वाचा श्रेय एवाचरेत्सदा।।
‘‘प्राण, अर्थ, बुद्धि और वाणी द्वारा केवल श्रेय का ही आचरण करना देहधारियों का इस देह में जन्म साफल्य है।’’

या ते तनूर्वाचि प्रतिष्ठिता या श्रोत्रे या च चक्षुषि। या च मनसि सन्तताशिवां तां कुरुमोत्क्रमीः।।
‘हे प्राण, जो तेरा रूप वाणी में निहित है तथा जो श्रोत्रों, नेत्रों तथा मन में निहित है, उसे कल्याणकारी बना, तू हमारी देह से बाहर जाने की चेष्टा मत कर।’

प्राणस्येद वशे सर्व त्रिदिवे यत् प्रतिष्ठितम्। मातेव पुत्रान रक्षस्व प्रज्ञां च विधेहिन इति।।
‘‘हे प्राण, यह विश्व और स्वर्ग में स्थित जो कुछ है, वह सब आपके ही आश्रित है। अतः हे प्राण! तू माता-पिता के समान हमारा रक्षक बन, हमें धन और बुद्धि दे।’’ व्यक्ति का व्यक्तित्व ही नहीं, इस सृष्टि का कण-कण इसी प्राण शक्ति की ज्योति से ज्योतिर्मय हो रहा है। जहां जितना जीवन है, प्रकाश है, उत्साह है, आनन्द है, सौन्दर्य है वहां उतनी ही प्राण की मात्रा विद्यमान समझनी चाहिए। उत्पादन शक्ति और किसी में नहीं, केवल प्राण में ही है। जो भी प्रादुर्भाव, सृजन, आविष्कार, निर्माण और विकासक्रम चल रहा है, उसके मूल में परब्रह्म की यही परम चेतना काम करती है। जड़ पंच तत्वों के चैतन्य की तरह सक्रिय रहने का आधार यह प्राण ही है। परमाणु उसी से सामर्थ्य ग्रहण करते हैं और उसी की प्रेरणा से अपनी धुरी तथा कक्षा में भ्रमण करते हैं। विश्व ब्रह्माण्ड में समस्त ग्रह-नक्षत्रों की गतिविधियां इसी प्रेरणा शक्ति से प्रेरित हैं। उपनिषद्कार ने कहा है—

प्राणद्धये व खल्विमान भूतानि जायन्ते। प्राणानि जातानि जीवन्ति। प्राण प्रयस्त्यभि संविशन्तीति। —तैन्तरीय
प्राण शक्ति से ही समस्त प्राणी पैदा होते हैं। पैदा होने पर प्राण से ही जीते हैं और अन्ततः प्राण में ही प्रवेश कर जाते हैं।

सर्वाणि हवा इमानि भूतानि प्राणमेवा। भिषं विशन्ति, प्राणमयुम्युंजि हते।। —छान्दोग्य
ये सब प्राणी, प्राण में से ही उत्पन्न होते हैं और प्राण में ही लीन हो जाते हैं।

अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा, च परा च पथिमिश्चरन्तम। स सध्रीचीः स विषूचीर्वसा न आवीवर्ति भुवनेष्यन्तः।।
( ऋग्. 1-164-31 )
‘‘मैंने प्राणों को देखा है—साक्षात्कार किया है। यह प्राण सब इन्द्रियों का रक्षक है। यह कभी नष्ट होने वाला नहीं है। यह भिन्न-भिन्न मार्गों अर्थात् नाड़ियों से आता, जाता है, मुख और नासिका द्वारा क्षण-क्षण में इस शरीर में आता है और फिर बाहर चला जाता है। यह प्राण शरीर में वायु रूप में है पर अधिदैवतं रूप से यह सूर्य है।’’ विश्वव्यापी यह प्राणशक्ति जहां जितनी अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती है। वहां उतनी ही सजीवता दिखाई देने लगती है, मनुष्य में इस प्राणतत्व का बाहुल्य ही उसे अन्य प्राणियों से अधिक बुद्धि विचारवान, अधिक बुद्धिमान, गुणवान, सामर्थ्यवान एवं सुसभ्य बना सका है। इस महान शक्ति पुञ्ज पुत्र को केवल प्रकृति प्रदत्त साधनों के उपभोग तक ही सीमित रखा जाय तो केवल शरीर मात्रा ही सम्भव हो सकती है और अधिकांशतः नर-पशुओं की तरह केवल सामान्य जीवन ही जिया जा सकता है पर यदि उसे अध्यात्म विज्ञान के माध्यम से अधिक मात्रा में बढ़ाया जा सके तो गई-गुजरी स्थिति से ऊंचे उठकर उन्नति के उच्च शिखर तक पहुंचना सम्भव हो सकता है। हीन स्थिति में पड़े रहना मानव जीवन में सरलतापूर्वक मिल सकने वाले आनन्द, उल्लास से वंचित रहना, मनोविकारों और उनकी दुःखद प्रतिक्रियाओं से विविध विधि कष्ट-क्लेश सहते रहना, यही तो नरक है। देखा जाता है कि इस धरती पर रहने वाले अधिकांश नर-तनुधारी नरक की यातनाएं सहते हुए ही समय बिताते हैं। आन्तरिक दुर्बलताओं के कारण सभी महत्वपूर्ण सफलताओं से वंचित रहते हैं। इस स्थिति से छुटकारा पाने के लिए प्राण तत्व का सम्पादन करना आवश्यक है।
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