कठिनाइयों की कसौटी पर खरे उतरें

परिवर्तन के साथ सामंजस्य बैठाना सीखें

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नन्हें-नन्हें कीड़े-मकोड़े और पक्षियों में आत्म रक्षा की एक विचित्र आदत होती है। उन पर शत्रु वार करता है तो वे अपने को सूखी टहनी, पत्ती या मिट्टी के ढेले की शक्ल का बना कर निर्जीव से हो जाते हैं। शत्रु की बुद्धि चक्कर काट जाती है। और वह समझ लेता है कि शिकार हाथ से निकल गया। संकट टलते ही यह जीव फिर फुदकने लगते हैं। जीवन के प्रति अपनाया गया यही दृष्टिकोण सही है।
परिवर्तन संसार का स्वाभाविक गुण है। यह एक रस कदापि नहीं रह सकता। ऋतुओं का परिवर्तन, रात-दिन, धूप-छांह की अदल-बदल यही प्रकट करते हैं कि संसार की शोभा भी इसके परिवर्तनशील होने में है। हर परिवर्तन एक नवीन जिन्दगी लेकर आता है। जब संसार ग्रीष्म में तप कर व्याकुल हो उठता है तब बरसात उसका ताप दूर करके एक नव जीवन ‘नये सुख’ का संसार करती है। बरसात में नदियां जब बढ़ जाती हैं, रास्ते बन्द हो जाते हैं, पानी गन्दला हो जाता है, कीड़े-मकोड़े बढ़ जाते हैं, तब इनका निवारण करने के लिए शरद् ऋतु आती है और बरसात से ऊबा हुआ मनुष्य पुनः एक नये जीवन का अनुभव करता है। इसी प्रकार जब जाड़ा प्राण-लेवा बन जाता है, तब पुनः शीत रहित ऋतु का आगमन होता है। आशय यह कि एक सी स्थिति में रहते संसार के प्राणी ऊब कर विरक्त न होने लगें, इसलिए परमात्मा ने संसार में परिवर्तन का एक अनिवार्य नियम बना दिया है।
संसार का एक अंग होने से मनुष्य का जीवन भी परिवर्तनशील है। बचपन, जवानी, बुढ़ापा आदि का परिवर्तन, तृषा, तृप्ति, काम, आराम, निद्रा, जागरण तथा जीवन-मरण के अनेक परिवर्तन मानव जीवन से जुड़े हुए हैं। इसी प्रकार सफलता असफलता तथा सुख दुख भी इसी परिवर्तनशील मानव जीवन के एक अभिन्न अंग हैं।
परिवर्तन जीवन का चिन्ह हैं। अपरिवर्तन जड़ता का लक्षण है। जो जीवित है उसमें परिवर्तन आयेगा ही। इस परिवर्तन में ही रुचि का भाव रहता है। एकरसता हर क्षेत्र में ऊब और अरुचि उत्पन्न कर देती है।
कठिनाइयों का आगमन भी इसी परिवर्तनशीलता के ही अन्तर्गत हुआ करता है। मानव-जीवन संघर्षपूर्ण प्रक्रिया है। अधिकतर लोग संघर्ष को बुरा मानते हैं, उससे बचने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु यह संघर्ष ही मनुष्य जीवन के विकास एवं सफलता का कारण है। यदि संघर्ष न हो तो कोई शक्तिशाली, विद्वान, पुरुषार्थी अथवा परिश्रमी बनने का प्रयत्न ही न करे। स्पर्धा रूपी संघर्ष ही मनुष्य को एक दूसरे से ऊंचा कलाकार, कार्यकर्ता तथा शिल्पकार बनने की प्रेरणा देता है। यदि मनुष्य को बिना श्रम किये भोजन मिल जाया करे, प्रकृति की कठोरता से संघर्ष किये बिना ही यदि उसकी आवश्यकतायें पूरी हो जाया करतीं, तो मनुष्य कितना काहिल और निकम्मा होता, इसका अनुमान लगा सकना कठिन है।
प्राकृतिक कठोरताओं के संघर्ष से ही प्रेरित होकर मनुष्य ने जीवन में सुख-सुविधाओं के रूप में बड़ी-बड़ी सभ्यताओं एवं संस्कृतियों का निर्माण कर डाला है। प्रकृति से पिछड़े हुए संघर्ष ने ही संसार में आश्चर्यचकित कर देने वाले शिल्प को जन्म दिया है। संघर्ष संसार की न केवल स्वाभाविक प्रक्रिया है, बल्कि परिवर्तन की तरह यह आवश्यक भी है। इसके बिना मनुष्य का विकास रुक जाता और भौचक्की कर देने वाली विज्ञान एवं ज्ञान की प्रगति न होती।
किन्तु कितना आश्चर्य है कि मानव विकास की इस अनिवार्य आवश्यकता से न जाने मनुष्य क्यों डरता है? परिवर्तन से डरना और संघर्ष से कतराना मनुष्य की बहुत बड़ी कायरता है।
मनुष्य जब तक जीवित है, उसे परिवर्तन पूर्ण उतार-चढ़ाव और बनने बिगड़ने वाली अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना ही होगा। दुख-सुख, लाभ-हानि, सफलता-असफलता, सुविधा एवं कठिनाइयों के बीच से गुजरना ही होगा। लाख चाहने और प्रयत्न करने पर भी वह इनको आने से नहीं रोक सकता। वह आयेगी ही और मनुष्य को इनसे जूझना ही होगा।
यह बात दूसरी है कि कोई कायर इनकी मार खाकर रोता चिल्लाता हुआ इनको पार करता है और कोई साहसी अपने आत्मबल एवं पुरुषार्थ के सम्बल का सहारा लेकर या तो इनको अपने अनुकूल बना लेता है या इनका मुख मोड़ देता है।
रोना-धोना, शोक, चिन्ता और विषाद करने से कोई परिस्थिति नहीं बदलती, कोई कठिनाई दूर नहीं होती। बल्कि वे कमजोर मनोभूमि पाकर और भी विकराल रूप में अपना ताण्डव करती हुई कायर के भय से मनोरंजन किया करती है। जहां उनके ठहरने का समय एक दिन-दो दिन होता है, वहां वे महीनों वर्षों के लिए अपना ठिकाना बना लेती हैं। रोना, झींकना, भयभीत अथवा भागना एक प्रकार से कठिनाइयों एवं आपत्तियों के प्रति आत्मसमर्पण करना है और किसी शत्रु के सम्मुख आत्म समर्पण करने का जो फल होता है वही उसे भोगना पड़ता है। एक दुर्बल व्यक्ति का आत्मसमर्पण पाकर आपत्तियां उसका सर्वस्व हरण कर लेती हैं। उसकी मानसिक शक्तियों, आत्मिक बल, प्रसन्नता, आशा, उल्लास आदिक सम्पत्तियों को हड़प कर नितान्त दरिद्री बना देती हैं।
परिवर्तन के नियम और संघर्ष में प्रबलता के कारण जब जीवन में कठिनाइयों, परेशानियों और आपत्तियों का आना अनिवार्य ही है तब रोने-धोने, भागने, भयभीत होने के स्थान पर उनसे लड़ना और टकराना ही उचित मालूम होता है।
बिना कठिनाइयों के मनुष्य का पुरुषार्थ नहीं खिलता, उसके आत्मबल का विकास नहीं होता, उसके साहस और परिश्रम के पंख नहीं लगते, उसकी कार्य-क्षमता का विकास नहीं होता। यदि कठिनाइयां न आवें तो मनुष्य साधारण रूप से रेलगाड़ी के पहिए की तरह निरुत्साह के साथ ढुलकता चला जाए। उसकी अलौकिक शक्तियों, उसकी दिव्य क्षमताओं, उसकी अद्भुत बुद्धि और शक्तिशाली विवेक के चमत्कारों को देखने का अवसर ही न मिले। उसकी सारी विलक्षणताएं अद्भुत कलायें और विस्मयकारक योग्यताएं धरती के गर्भ में पड़े रत्नों की तरह ही पड़ी-पड़ी निरुपयोगी हो जाती।
निःसन्देह यह आपत्तियों तथा कठिनाइयों की कृपा है जो कि मनुष्य अपनी शक्तियों तथा अपने स्वरूप को पहचान सका है। कठिनाइयां ही मनुष्य के मस्तिष्क को जगाती, उसकी आत्मा को प्रबुद्ध करती और उसको विकास के पथ पर अग्रसर करती हैं। मनुष्य को आपत्तियों से घृणा नहीं बल्कि प्रेम करना चाहिए उनका आभार मानना चाहिये।
मनुष्य के ज्ञान वर्धन में कठिनाइयों का बहुत हाथ है। आपत्ति के समय ही मनुष्य को ठोस अनुभव होता है। आपत्ति काल में ही उसे अपने परायों की मनुष्यता एवं पशुता की परख होती है। कठिनाइयां तथा आपत्तियां ही संसार के वास्तविक रूप को उसके सामने प्रकट करती हैं। कठिनाइयां ही मनुष्य को अपने प्रति बहुत से भ्रमों को दूर कर देती हैं। आपत्ति के बीच अपनी दशा देखकर ही मनुष्य ठीक-ठीक समझ पाता है कि वह कितने पानी में हैं। बड़े-बड़े साहसी अपने को कायर तथा कमजोर समझने वाले देखते हैं कि उनमें तो काफी साहस है। इस प्रकार कठिनाइयां मनुष्य के लिये हर प्रकार से सहायक तथा उपयोगी ही होती है।
किन्तु किसके लिये? क्या उनके लिये जो उनको देखते ही दुम-दबाकर भागते या रोते चिल्लाते हैं। क्या आपत्तियों में जिनकी बुद्धि विकल एवं भ्रष्ट हो जाती है, मन का सारा साहस कूच कर जाता है? क्या उनके लिए जो भीरु है सुकुमार हैं, असहिष्णु अथवा सुखलिप्सु है? नहीं, कठिनाइयों को सहन कर सकना निर्बल हृदय व्यक्ति के वश की बात नहीं है और जो उनको सहन नहीं कर सकता वह सिद्धि पाना तो दूर उनसे लाभ उठाना तो क्या, उलटे उनमें जलकर भस्म ही हो जायेगा। आपत्तियों का झंझावात जहां नरसिंहों को झकझोर कर उनका प्रमाद दूर करके पुरुषार्थ के लिये खड़ा कर देता है वहां श्रंगाल-शशकों को भयभीत करके जीवन रण में परास्त कर देता है।
आपत्तियां संसार का स्वाभाविक धर्म हैं। वे आती हैं और सदा आती रहेंगी। उनसे न तो भयभीत होइये और न भागने की कोशिश करिये, बल्कि अपने पूरे आत्म-बल साहस और शूरता से उनका सामना कीजिये, उन पर विजय प्राप्त करके ही जीवन में बड़ा-से-बड़ा लाभ उठाया जा सकता है।
कठिनाइयों के दो स्वरूप होते हैं। एक बाह्य परिस्थितियों के रूप में आने वाली कठिनाई दूसरी आन्तरिक स्वरूप में उपस्थिति होने वाली। साधारणतया लोग बाह्य कठिनाइयों की ही जानकारी रखते हैं। आन्तरिक कठिनाइयों को कोई बिरला ही समझ पाता है। वस्तुतः अन्त: बाह्य दोनों के मूल में आन्तरिक कठिनाइयां ही प्रमुख होती हैं। बाह्य कठिनाइयां आन्तरिक कठिनाइयों की छाया मात्र ही होती है।
अनुकूल परिस्थितियां, साधन सुविधा, मनुष्य के पतन का कारण बनती देखी गई हैं जबकि विपरीत परिस्थितियों में, कठिनाइयों में भी लोगों ने आगे बढ़कर जीवन में उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त की है, कठिनाइयों से भी लाभ उठाकर आगे बढ़ने, जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए मनुष्य के दृष्टि-कोण एवं उसके जीवनक्रम की बुनियाद में सुधार होना आवश्यक है।
अपने कर्त्तव्य धर्म की जानकारी उसके प्रति अनन्य निष्ठा पैदा होना सफलता की प्राथमिक शर्त है। कर्तव्य की जानकारी और उसके प्रति निष्ठा से मनुष्य कृत संकल्प होता है और इससे उसमें असाधारण शक्ति का स्रोत फूट पड़ता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य भारी से भारी कठिनाइयों को भी सहर्ष सहन करता है। कर्तव्य के लिए सर्वस्व लुटा देने को तैयार हो जाता है। हरिश्चन्द्र, पाण्डव, नल, कर्ण, प्रताप, शिवाजी, गांधी आदि ने अपने कर्तव्य धर्म की रक्षा के लिये कितने कष्ट सहे यह सभी जानते हैं। कर्तव्य का ध्यान रखने पर व्यक्ति को आन्तरिक शक्ति मिल जाती है जिससे वह मार्ग में आई कठिनाइयों को सहज ही सहन कर लेता है, जिससे उसकी शक्ति, साहस कार्य क्षमता में दिनों दिन विकास होता जाता है। कर्तव्य में लगा हुआ व्यक्ति बाह्य कठिनाइयों पर क्रमशः विजय प्राप्त करता जाता है तो उसके साथ ही उसकी आन्तरिक कठिनाइयां भी स्वतः ही हल होती चली जाती हैं।
कर्तव्य दृष्टि प्राप्त होने के पहले एवं बाद में भी सबसे बड़ी आवश्यकता है सक्रियता की। कर्तव्य को जानकर भी मनुष्य निष्क्रिय रह सकता है। अतः इसके साथ ही आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य सक्रिय बना रहे। अकर्मण्यता की स्थिति में अनेकों ऊल-जलूल विचार आते जाते रहते है और इनसे मानसिक शक्तियों का विघटन होने लगता है। शक्तियों का बटवारा हो जाता है। खाली मन शैतान का घर होता है। मानसिक दुर्बलता से शक्तियों के विघटित हो जाने पर कठिनाइयों से लड़ना और भी कठिन हो जाता है।
कठिनाइयों से भागने की मनोवृत्ति कायरता है। इससे कठिनाई घटती नहीं निरन्तर बढ़ती ही आती है। भागने वाले मनुष्य को चारों ओर से कठिनाइयां घेर लेती हैं। वह कहीं भी भाग कर जाय, उनसे छुटकारा नहीं मिलता। कठिनाइयों से भागने वाले की आत्मिक शक्तियां कुण्ठित हो जाती हैं। अतः आवश्यकता इस बात की है कि कठिनाइयों का डरकर मुकाबला किया जाये उन्हें जीवन में सहर्ष स्वीकार किया जाय, वरण किया जाये। जो कठिनाई का सामना करने का निश्चय कर लेते हैं, उनको कठिनाई का भान ही नहीं होता। कब आई और कब चली गई, इसका ध्यान तक नहीं रहता उन्हें। कठिनाइयों का सामना करने से ही आत्म-शक्तियां जाग्रत होती हैं, उनका विकास होता है। यही कारण है कि साधन सुविधा सम्पन्न घरानों में अधिकांश बच्चों का पर्याप्त विकास नहीं होता क्योंकि उनकी आवश्यकतायें सरलता से पूरी हो जाती हैं। उनकी शक्तियों को संघर्ष का स्पर्श नहीं मिलता। दूसरी ओर संसार के अधिकांश महापुरुषों का प्रादुर्भाव कठिनाइयों के बीहड़ वनों में ही हुआ है।
कठिनाइयों को उनसे दूर भाग कर घबराकर दूर नहीं किया जा सकता। उनका खुलकर सामना करना ही बचने का सरल रास्ता है। प्रसन्नता के साथ कठिनाइयों का वरण करना उनसे उत्पन्न घबराहट का सर्वोत्तम उपाय है, आन्तरिक, मानसिक शक्तियों के विकसित होने का राज मार्ग है। संसार के अधिकांश महापुरुषों ने कठिनाइयों का स्वागत करके ही जीवन में महानता प्राप्त की है।
कठिनाइयों को देखकर मनुष्य जितना रूठता है कठिनाइयां भी उतनी ही रूठ जाती है। कहावत है, ‘‘रूठे को मनाना और टूटे को बनाना बुद्धिमानी है।’’ रूठा हुआ दुःख समझौता कर लेने पर दूर हो जाता है। एक व्यक्ति को देहाती जीवन छोड़कर शहर में रहना पड़ा। शहर की गन्दगी, घिचपिच मकानों की असुविधा, आदि से वह परेशान हो गया। वह बड़ा दुःखी था किंतु करता क्या? आखिर जब उसने इन परिस्थितियों से समझौता कर लिया तो वे शिकायतें फिर न रहीं। प्रसन्नतापूर्वक जीवन बिताने लगा। जो कठिनाइयां दुःख और परेशानी का कारण होती हैं वे ही समझौता कर लेने पर सरल बन जाती हैं। जटिल से जटिल समस्याओं के हल करने का सरल उपाय है उनसे समझौता कर लेना। समझौते का अर्थ यह भी नहीं है कि कठिनाइयों के कारण अपने उद्देश्य आदर्श लक्ष्य को ही छोड़ दिया जाय, वरन् यह है कि—उन्हें भी जीवन यात्रा का एक साथी मानकर अपनी यात्रा जारी रखते हुए साथ रहने दिया जाये।
समझौते को, कठिनाइयों को जीवन में स्वीकार करने का तरीका यह है कि अपने आपकी तुलना स्वयं से निम्न परिस्थितियों में रहने वाले लोगों से करें। आज हमें चार रोटी मिलकर भी बेचैनी है, किन्तु दो रोटी मिलने वाले से अपनी तुलना करने पर इस बेचैनी का निवारण हो जायेगा। आज हमें जीवन निर्वाह की पर्याप्त सुविधायें साधन नहीं हैं, किन्तु अधिकतर अभावग्रस्त लोगों को तथा असुविधामय जीवन में उत्कर्ष प्राप्त करने वालों को देखें तो हमारी यह शिकायत दूर हो सकती हैं। इसी तरह अपने से गिरी हुई परिस्थिति के लोगों से स्वयं की तुलना करने पर कठिनाइयां, परिस्थितियां सुविधाओं का अभाव सब दूर हो जाते हैं।
कठिनाइयों की कसौटी पर खरे उतरने के लिए इन होने वाली क्षति से बचने के लिए अपने अहंकार को कम करना आवश्यक है। जो वृक्ष नम्र होना जानते हैं वे बड़े-बड़े झंझावातों में भी अपनी जड़ सहित जमे रहते हैं। पानी की प्रबल धार उनका कुछ नहीं बिगाड़ती। किन्तु बड़े-बड़े पेड़ जो कठोर होते हैं, अकड़ कर खड़े रहते हैं वे एक झोंके में ही धराशायी हो जाते हैं। जो मनुष्य नम्रता, निरहंकारिता के सद्गुणों से सम्पन्न होते हैं, जो कष्ट सहिष्णु होते हैं, उनका बड़ी-बड़ी कठिनाइयां कष्ट मुसीबतें भी कुछ नहीं बिगाड़ती। सबसे प्रेम करने वाले, शिकायत न करने वालों को अनेक सहयोगी मिल जाते हैं। कठिनाइयां भी उनके साथ सहयोग करती हैं। जो समझौता करना जानते हैं उनकी जटिल समस्यायें भी सहज ही हल हो जाती हैं।

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*समाप्त*

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