कठिनाइयों की कसौटी पर खरे उतरें

उतार चढ़ावों से उद्विग्न न हों

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दूसरे व्यक्ति वह होते हैं जो बात-बात पर चिढ़ते और उद्विग्न होते हैं। जरा-जरा सी बात पर दुःखी होना बहुत से लोगों का स्वभाव होता है। यह स्वभाव किसी प्रकार भी वांछनीय नहीं माना जा सकता। मनुष्य आनन्द स्वरूप है, उसको दुखी होना क्या? उसे तो हर समय प्रसन्न, आनन्दित तथा उत्साहित ही रहना चाहिए। यही उसके लिए अवांछनीय है और यही जीवन की विशेषता है। इस स्वभाव के अतिरिक्त लोग तब तो अवश्य ही दुःखी रहने लगते हैं, जब ये किसी उच्च स्थिति से नीचे उतर आते हैं। इस दशा में वे अपने दुःखावेग पर नियन्त्रण नहीं कर पाते और फूल जैसे जीवन में ज्वाला का समावेश कर लेते हैं। जबकि उस उतार की स्थिति में भी दुःख-शोक की उपासना करना अनुचित है।
उतार की स्थिति में दुःखी होना तभी ठीक है जब वह उतार पतन के रूप में घटित हुआ हो। और यदि उसका घटना नियत के नियम ‘परिवर्तन’ ईश्वर की इच्छा, प्रारब्ध अथवा दुष्टों की दुरभि-संधियों के कारण हुआ हो तो कदापि दुःखी न होना चाहिए। तब तो दुःख के स्थान पर सावधानी को ही आश्रित करना चाहिए। पतन के रूप में उतार का घटित होना अवश्य खेद और दुःख की बात है। उदाहरण के लिए किसी परीक्षा को ले लीजिए, यदि परीक्षार्थी ने अपने अध्ययन, अध्यवसाय और परिश्रम में कोताही रखी है, समय पर नहीं जागा, आवश्यक पाठ आत्म-सात नहीं किये, गुरुओं के निर्देश और परामर्श पर ध्यान नहीं दिया, अपना उत्तरदायित्व अनुभव नहीं किया और असावधानी तथा लापरवाही बर्ती है तो उसका फेल हो जाना खेद, दुःख व आत्म-हीनता का विषय है। उसे अपने उस किये का दुःखरूपी दण्ड मिलना ही चाहिए। वह इसी योग्य था। उसके साथ न किसी की सहानुभूति होनी चाहिए और न उसे सान्त्वना और आश्वासन का सहयोग ही मिलना चाहिए।
किन्तु उस पुरुषार्थी विद्यार्थी को दुख से अभिभूत होना उचित नहीं, जिसने पूरी मेहनत की है और पास होने की सारी शर्तों का निर्वाह किया है। बात अवश्य कुछ उल्टी लगती है कि जिसने परिश्रम नहीं किया, वह तो अनुत्तीर्ण होने पर दुःखी हो और जिसने खून-पसीना एक करके तैयारी की वह असफल हो जाने पर दुःखी न हो। किन्तु हितकर नीति यही है कि योग्य विद्यार्थी को असफलता पर दुःखी नहीं होना चाहिए। इसलिए कि उसके सामने उसका उज्ज्वल भविष्य होता है। दुःख और शोक से अभिभूत हो जाने पर वह निराशा के परदे में छिप सकता है।
अयोग्य विद्यार्थी का न तो कोई वर्तमान होता है और न भविष्य। वह निकम्मा, चाहे दुःखी हो, चाहे प्रसन्न कोई अन्तर नहीं पड़ता। इस प्रकार पतन द्वारा पाई असफलता तो दुःख का हेतु है, किन्तु पुरुषार्थ से अलंकृत प्रयत्न की असफलता तो दुःख खेद का नहीं, चिन्तन मनन और अनुभव का विषय है। आशा, उत्साह, साहस और धैर्य की परीक्षा का प्रसंग है। प्रयत्न की असफलता स्वयं एक परीक्षा है। मनुष्य को उसे स्वीकार करना और उत्तीर्ण करना ही चाहिए।
प्रायः आर्थिक उतार लोगों को बहुत दुःखी बना देता है। जिसका लम्बा-चौड़ा व्यापार चलता हो। लाखों रुपये वर्ष की आमदनी होती हो, सहसा उसका रोजगार ठप्प हो जाए, कोई लम्बा घाटा पड़ जाए हैसियत बिगड़ जाए, और वह असाधारण से साधारण स्थिति में जा गिरे तो वह अवश्य ही दुःखी और शोकग्रस्त रहने लगेगा। फिर भी इस आर्थिक उतार का शोक करना उचित नहीं। क्योंकि शोक करने से स्थिति में सुधार नहीं हो सकता। यदि शोक करने और दुःखी रहने से स्थिति में सुधार की आशा हो तो एक बार शोक करना और दुःखी रहना उस स्थिति में किसी हद तक उचित कहा जा सकता है। किन्तु यह सभी अच्छी तरह से जानते हैं कि विपन्नता का उपचार दुःखी रहना नहीं, बल्कि उत्साहपूर्वक पुरुषार्थ करना ही है। तथापि लोग उल्टा आचरण करते हैं। यह कम खेद की बात नहीं है।
सम्पन्नता से विपन्नता में आ जाने पर लोग क्यों दुःखी रहते हैं? इसके अनेक कारण होते हैं। इसका एक कारण तो है अपनी वर्तमान स्थिति से विगत स्थिति की तुलना करना। दूसरा कारण है दूसरों की सम्पन्न स्थिति को सामने रखकर अपनी स्थिति देखना। तीसरा कारण है, सामाजिक अप्रतिष्ठा की आशंका करना। चौथा कारण है लज्जा और आत्म-हीनता का भाव रखना। और पांचवां कारण है, विगत वैभव का व्यामोह। यह और इसी प्रकार के अन्य कारणों वश लोग अपने आर्थिक उतार पर दुःखी और शोकग्रस्त रहा करते हैं। किन्तु यदि इन कारणों पर गहराई से विचार किया जाए नो पता चलेगा कि इन कारणों को सामने रखकर अपनी विपन्नता पर शोक करना बड़ी हल्की और निरर्थक बात है। इनमें से कोई कारण तो ऐसा नहीं, जिसे शोक का उचित सम्पादक माना जा सके।
अपनी वर्तमान स्थिति से विगत स्थिति की तुलना करने से क्या लाभ। अतीत काल की वह स्थिति जो वैभवपूर्ण थी, आज लौटकर नहीं आ सकती। हां उसकी तरह की स्थिति वर्तमान में बनाई अवश्य जा सकती है। किन्तु यह सम्भव तभी होगा जब अतीत का रोना छोड़कर वर्तमान के अनुरूप साधनों का सहारा लेकर परिश्रम और पुरुषार्थ किया जाये। केवल अतीत की याद कर-करके दुःखी होने से कोई काम न बनेगा। जब मनुष्य अपने वैभवपूर्ण अतीत का चिन्तन करके इस प्रकार सोचता रहता है तो उसके हृदय में एक हूक उठती रहती है—एक समय ऐसा था कि हमारा कारोबार जोरों से चलता था। लाखों रुपयों की आय थी। हजारों आदमी अधीनता में काम करते थे। बड़ी-सी कोठी और कई हवेलियां थीं। मोटरकार में चलते थे। मनमाने ढंग से रहते और व्यय करते थे। लेकिन आज यह हाल है कि कारोबार बन्द हो गया है। आय का मार्ग नहीं रह गया। दूसरों की मातहती की नौबत आ गई है, कोठियां और हवेलियां बिक गईं। मोटरकार चली गई। हम एक गरीब आदमी बन गए। अब तो यह जीवन ही बेकार है। इस प्रकार का चिन्तन करना अपने जीवन में निराशा और दुःख को पाल लेना है।
यदि अतीत का चिन्तन ही करना है तो इस प्रकार करना चाहिए। हमने इस-इस प्रकार के अमुक-अमुक काम किये थे। जिससे इस-इस तरह की उन्नति हुई थी। उन्नति के इस मार्ग में इस-इस तरह के विघ्न आये थे। जिसको हमने इस नीति द्वारा दूर किया था। इस प्रकार का चिन्तन करने से मनुष्य का सफल स्वरूप ही सामने आता है और आगे उन्नति करने के लिये प्रेरणा पाता है। विचारों का प्रभाव मनुष्य के जीवन पर बड़ा गहरा पड़ता है जो व्यक्ति अपनी अवनति और अनिश्चित भविष्य के विषय में ही सोचता रहता है, उसका जीवन चक्र प्रायः उसी प्रकार से घूमने लगता है। इसके विपरीत जो अपनी उन्नति और विकास का चिन्तन किया करता है, उसका भविष्य उज्ज्वल और भाग्य अनुकूलतापूर्वक निर्मित होता है।
मनुष्य की चिन्तन क्रिया बड़ी महत्वपूर्ण होती है। चिन्तन को यदि उपासना की संज्ञा दे दी जाय तब भी अनुचित न होगा जो लोग करते हैं, उन्हें अनुभव होगा कि जब वे अपना ध्यान परमात्मा में लगाते हैं तो अपने अन्दर एक विशेष प्रकार का प्रकाश और पुलक पाते हैं। उन्हें ऐसा लगता है, मानो परमात्मा की करुणा उनकी ओर आकर्षित हो रही है। वह कल्याणकारी अनुभव उस उपासना उस चिन्तन अथवा उन विचार का ही फल होता है, जिनके अन्तर्गत कल्याण का विश्वास प्रवाहित होता रहता है।
इस प्रकार जिस प्रकार का विश्वास और जिस प्रकार के विचार लेकर मनुष्य अपने भविष्य के प्रति उपासना करता है, उसी प्रकार के तत्व उसकी जीवन परिधि में सजग तथा सक्रिय हो उठते हैं। अतएव मनुष्य को सदैव ही कल्याणकारी चिन्तन ही करना चाहिए। निराशापूर्ण चिन्तन जीवन के उत्थान और विश्वास के लिए अच्छा नहीं होता।
दुःख करने से लाभ क्या?
दुःख मानने से दुःख के कारण का निवारण नहीं हो सकता। दुःख के कारण उद्विग्न और मलीन रहने के कारण मनः शक्तियां नष्ट होती हैं। अधोगत व्यक्ति के भौतिक साधन प्रायः नगण्य हो जाते हैं। उस स्थिति में इसके पास मनोबल के सिवाय अन्य कोई साधन नहीं रह जाता। मनोबल का साधक कुछ कम बड़ा साधक नहीं होता। मनोबल के बने रहने पर मनुष्य में प्रसन्नता, विश्वास और उत्साह बना रहता है। इन गुणों को साथ लेकर जब किसी स्थान पर व्यवहार किया जाता है तो दूसरों पर उसके धैर्य, सहिष्णुता और साहस का प्रभाव पड़ता है। लोग उसे एक असामान्य व्यक्ति मानने लगते हैं। उन्हें विश्वास रहता है कि इसको दिया हुआ सहयोग सार्थक होगा। यह परिस्थितियों से हार न मानने वाला दृढ़ पुरुष है। इस प्रतिक्रिया से लोग उस व्यक्ति की ओर आकर्षित हो उठते हैं—ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार उपासक की ओर परमात्मा की करुणा आकर्षित करती है।
विगत वैभव का सोच करना किसी प्रकार भी उचित नहीं। क्योंकि अतीत का चिन्तन न तो वर्तमान में कोई सहायता करता है और न भविष्य का निर्माण। बल्कि यह उस व्यामोह को और भी सघन तथा दृढ़ बना देता है जिसके अधीन मनुष्य विगत वैभव का सोच किया करते हैं। उत्थान अथवा अवनति के मायाजाल से बचने के लिए आवश्यक है कि उनके प्रति व्यामोह के अन्धकार से बचे रहा जाय। इस सत्य में तर्क की जरा भी गुंजाइश नहीं है कि संसार परिवर्तन के चक्र से बंधा हुआ घूम रहा है। यहां पर कोई भी सदैव एक जैसी स्थिति के प्रति आश्वस्त रहने का अधिकार नहीं रखता। उसे परिवर्तन का अटूट नियम सहन ही करना पड़ेगा। यह सोचकर इस सत्य को स्वीकार करना ही होगा कि पहले गरीब थे, फिर अमीरी आई और अब इसी चक्र के अनुसार पुनः गरीबी आ गई। पुनरपि यह निश्चित है कि यदि पूर्ववत् पुरुषार्थ का प्रमाण दिया जाय तो सम्पन्नता निश्चित है। इस सहज संयोग में रहते हुए सम्पन्नता, विपन्नता से विचलित होना किसी प्रकार भी बुद्धि संगत नहीं है।
किन्हीं विगतमान चीजों के प्रति दुःख होने का कारण यह है कि व्यामोह के वशीभूत मनुष्य उससे अपना आत्मभाव स्थापित कर लेता है। सोचने की बात है कि जब यह संसार ही हमारा नहीं है, यह शरीर तक हमारा नहीं है तो यहां की किसी चीज के साथ आत्म-भाव स्थापित कर लेने में क्या बुद्धिमत्ता है। एक दिन जब मनुष्य खुद ही सबको छोड़कर चला जाता है तो यदि कोई चीज उसे छोड़कर चली जाती है तो उसमें दुःख की क्या बात है? यह संसार और उसकी दृश्यमान अथवा अदृश्यमान सारी चीजें एकमात्र परमानन्द की हैं। उसके सिवाय किसी भी व्यक्ति का यहां की किसी चीज पर अधिकार नहीं है। जिसे जो कुछ मिलता है, वह सब परमात्मा का दिया होता है।
मनुष्य की बुद्धिमानी इसी में है कि वह इस सत्य को स्वीकार करे और इस बात के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए कि परिवर्तन के नियम के अन्तर्गत उससे कोई भी चीज किसी समय ली जा सकती है। इस सत्य में विश्वास रखने वालों को व्यामोह का कोई दोष नहीं लगने पाता और वह सम्पत्ति तथा विपत्ति में सदा समभाव रहता है।
धैर्यवान पुरुष सिंह
विशेषकर यदि हम कोई महत्वपूर्ण कार्य करना चाहते हैं तो उसमें अनेक आपत्तियों का मुकाबला करने के लिये हमें तैयार ही रहना चाहिये। अनेक व्यक्ति इसी डर के मारे भारी काम में हाथ नहीं डालते। सम्भव है वे इस जीवन में दुःखों से बच जायें। पर वे किसी प्रकार की प्रगति, उन्नति भी नहीं कर सकते। उनका जीवन कीड़े-मकोड़ों से बढ़कर नहीं होता।
जिसने शरीर धारण किया है उसको सुख-दुःख दोनों का ही अनुभव करना होगा। शरीरधारियों को केवल सुख ही सुख या केवल दुःख ही दुःख कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता। जब यही बात है, शरीर धारण करने पर दुःख सुख दोनों का ही भोग करना है तो फिर दुःख में अधिक उद्विग्न क्यों हुआ जाय? दुःख-सुख तो शरीर के साथ लगे रहते हैं। हम धैर्य धारण करके उनकी प्रगति को ही क्यों न देखते रहें। जिन्होंने इस रहस्य को समझकर धैर्य का आश्रय ग्रहण किया है, संसार में वे ही सुखी समझे जाते हैं।
धैर्य की परीक्षा सुख की अपेक्षा दुःख में ही अधिक होती है। दुःख की भयंकरता को देखकर विचलित होना प्राणियों का स्वभाव है। किन्तु जो ऐसे समय में भी विचलित नहीं होता वही ‘‘पुरुषसिंह’’ धैर्यवान कहलाता है। आखिर हम अधीर होते क्यों हैं? इसका कारण हमारे हृदय की कमजोरी के सिवा और कुछ भी नहीं है। इस बात को सब कोई जानते हैं कि आज तक संसार में ब्रह्मा से लेकर कीड़े-मकोड़ों तक सम्पूर्ण रूप से सुखी कोई नहीं हुआ है। सभी को कुछ न कुछ दुःख अवश्य हुए हैं। फिर भी मनुष्य दुःखों के आगमन से व्याकुल होता है तो उसकी कमजोरी ही कही जा सकती है।
महापुरुषों की यह विशेषता होती है कि दुःखों के आने पर वे हमारी तरह अधीर नहीं हो जाते। उन्हें प्रारब्ध कर्मों का भोग समझकर वे प्रसन्नता पूर्वक सहन करते हैं। पाण्डव दुःखों से कातर होकर वे अपने भाइयों के दास बन गये होते, मोरध्वज पुत्र शोक से दुःखी होकर मर गये होते, हरिश्चन्द्र राज्य के लोभ में अपने वचनों से फिर गये होते, राजा शिव ने यदि शरीर के कटने के दुःख से कातर होकर कबूतर को बाज के लिए सुपुर्द कर दिया होता तो इनका नाम अब तक कौन जानता? वे भी असंख्य नरपतियों की भांति काल के गाल में चले गये होते किन्तु इनका नाम अभी तक ज्यों का त्यों जीवित है, इसका एकमात्र कारण उनका धैर्य ही है।
अपने प्रियजन के वियोग से हम अधीर हो जाते हैं। क्योंकि वह हमें छोड़कर चल दिया। इस विषय में अधीर होने से क्या काम चलेगा? क्या वह हमारी अधीरता को देखकर लौट आयेगा? यदि नहीं तो हमारा अधीर होना व्यर्थ है। फिर हमारे अधीर होने का कोई समुचित कारण भी तो नहीं क्योंकि जिसने जीवन धारण किया है, उसे मरना तो एक दिन है ही। जो जन्मा है वह मरेगा भी। सम्पूर्ण सृष्टि के पितामह ब्रह्मा हैं। चराचर सृष्टि उन्हीं से उत्पन्न हुई। अपनी आयु समाप्त होने पर वे भी नहीं रहे। क्योंकि वे भी भगवान विष्णु के नाभि कमल से पैदा हुए हैं। अतः महा प्रलय में वे भी विष्णु के शरीर में विलीन हो जाते हैं। जब यह अटल सिद्धान्त है कि जायमान वस्तु का नाश होगा ही तो फिर हम अपने उस प्रिय का शोक क्यों करें? उसे तो मरना ही था, आज नहीं तो कल और कल नहीं तो परसों। सदा कोई जीवित रहा भी है जो वह रहता? जो जहां से आया था, चला गया। एक दिन हमें भी जाना है। इसलिए जो दिन शेष हैं उन्हें धैर्य के साथ उस परमपिता परमात्मा के गुणों के चिन्तन में लगावें।
शरीर की व्याधि होते ही हम विकल हो जाते हैं। विकल होने से आज तक कोई रोगमुक्त हुआ है? यह शरीर तो व्याधियों का घर है। जाति, आयु भोग को साथ लेकर ही तो यह शरीर उत्पन्न हुआ है। पूर्व जन्म के जो भोग हैं, वे तो भोगने ही पड़ेंगे।
भाग्य को बुरा मत कहिये
संसार में ऐसे व्यक्तियों की भी कमी नहीं है जो अपनी हीनावस्था का कारण अपने दुर्भाग्य को बतलाया करते हैं। उनसे बात कीजिए और पूछिए कि भाई, आप जो इस प्रकार विपन्नता में जीवन काट रहे हैं, इसमें आपका सन्तोष किस प्रकार हो रहा है और इस दशा को बदलने के बजाय हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे हुए हैं?
इस सहानुभूति के उत्तर में उनका कथन होगा कि—‘‘क्या करें हमारा भाग्य ही खराब है, परमात्मा ने हमारे भाग्य में दुःख-दर्द ही लिखे हैं सो भोग रहे हैं। यदि हमारे भाग्य में मुख-सुविधा होती तो क्या अन्य लोगों की तरह हमारा जन्म भी अमीर अथवा साधन सम्पन्न घर में नहीं होता? हम जानते हैं कि हमारा भाग्य खराब है इसलिये कोई उद्योग करना भी बेकार है।’’
लोगों का ऐसा निराशापूर्ण उत्तर सुनकर तरस आये बिना नहीं रहता। यह भाग्य एवं भविष्य के ‘जानपांडे’ उपाय एवं उद्योग की अपेक्षा विपन्नावस्था में अधिक विश्वास करते हैं। उनका गरीब होना वास्तव में उतना दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है जितना कि उनका यह निराशापूर्ण अन्ध-विश्वास!
कितने आश्चर्य की बात है कि भाग्य के अन्धविश्वासी अपनी दशा बदलने का उपाय किये बिना ही बड़ी आसानी से वह मान लेते हैं कि गरीबी तो उनका प्रारब्ध भोग है। वह किसी उपाय अथवा उद्योग से नहीं बदली जा सकती। इसलिए इसके विरोध में डटकर मोर्चा लेना बेकार है। इस प्रकार के भाग्य-ज्ञाताओं को जरा सोचना चाहिये कि जब तक उन्होंने परिश्रम एवं पुरुषार्थ नहीं किया तब तक उन्हें यह किस प्रकार पता चल गया कि कोई भी उद्योग सफल न होगा।
अपनी समुन्नति में प्रतिकूल संयोगों अथवा भाग्यहीनता को हेतु मानना अपने को भ्रम में रखना और आत्मविश्वास को धोखा देना है। अपने साथ इस प्रकार का विश्वासघात करने से निश्चय ही जीवन में सफलता का सौभाग्य नहीं ले पाते। अपने में विश्वासघात करने की निकृष्ट भावना को छोड़कर उन्हें आंख फैलाकर चारों ओर देखना चाहिये और समझने की कोशिश करनी चाहिये कि आज जो उनके सामने ही उन्नति के शिखर पर चढ़ गये हैं और दिन-दिन अग्रसर होते जा रहे हैं वे सब क्या जन्मजात सुविधाओं के अधिकारी रहे हैं? इतिहास साक्षी है कि संसार के प्रसिद्ध व्यक्तियों में से अधिकांश ऐसी कठिन परिस्थितियों में जन्मे, ऐसी वज्र-विवशताओं में पले और ऐसे विकट-विकट विरोधों में आगे बढ़े हैं कि ऐसी प्रतिकूलताओं की छाया भी उन जैसे निराशावादियों पर पड़ जाती तो कदाचित उन्होंने रो-रोकर जान ही दे दी होती।
हिम्मत हारकर बैठे व्यक्तियों को सोचना चाहिये कि उनके आस-पास उन्हीं जैसी परिस्थितियों में जो लोग रह रहे हैं इनमें से आगे चलकर न जाने कितने लोग धनवान, विद्वान्, कलाकार तथा जन नेता आदि बनकर जीवन को सफल बनायेंगे, तब क्या कारण है कि वे वैसा नहीं बन सकते? कारण केवल यही है कि वे उद्योगशील आशावादी उन जैसे दुर्भाग्यवादी नहीं हैं। वे बल पूर्वक बदलने में विश्वास रखते हैं। यदि जन्म-जात सुविधाएं ही उन्नति एवं महानता का कारण होती तो निश्चय ही संसार के सारे साधन सम्पन्न व्यक्तियों को चांद-सूरज की तरह चमकना चाहिए था। किन्तु ऐसा देखा कहीं नहीं जाता। कठिन परिस्थितियों अथवा प्रतिकूल संयोग ही किसी की उन्नति एवं विकास के विरुद्ध विजयी रहे होते तो न कोई गरीब से अमीर बन पाया होता और न निम्न से महान। और न आगे ही कोई ऐसा परिवर्तन प्राप्त कर सकने की सम्भावना ही रख सकता। लोग प्रतिकूलताओं को जीतकर आगे बढ़े हैं. बढ़ रहे हैं और भविष्य में भी बढ़ते जायेंगे। किन्तु आत्म-विश्वास एवं पुरुषार्थ के बल पर।
अपनी दयनीयता का दोष परमात्मा को देने से कहीं अच्छा है कि अपने अपरिश्रमी स्वभाव को दिया जाए। वह समदर्शी परमपिता परमात्मा कभी किसी के साथ अन्याय नहीं करता। उसके पास देने के लिए जो दया का कोष है उसका भाग वह सबको पात्रता के अनुसार न्यायपूर्वक ही देता है। जगत में आकर जो पुरुषार्थी एवं आत्म-विश्वासी व्यक्ति अपनी पात्रता की वृद्धि कर लेते हैं निश्चय ही वे उसकी कृपा का अधिक अंश पा लेते हैं। परमात्मा मनुष्य के प्रयत्न पात्र को अपनी कृपा से लबालब भरा रहता है। अब जो अपने प्रयत्न को छोटा कर लेता है कृपा का अंश उसमें से कम हो जाता है और जो उसको जितना विशाल बना लेता है उसकी कृपा का उतना ही अंश उसमें बढ़ जाता है। अपनी प्रयत्नहीनता को दोष न देकर परमात्मा को दोष देना उसकी न्यायशीलता में एक अक्षम्य अशिष्टता तथा धृष्टता है। यह उनकी इस दुष्ट भावना का भी फल होता है कि आशा की ओर से अन्धे होकर निराशा का हाथ पकड़े हुए जीवन का मार्ग टटोल कर ठोकरें खाते फिरते हैं। यह उनकी इस दुष्टता का ही परिणाम है कि उनका विश्वास सौभाग्य के प्रति होने के स्थान पर दुर्भाग्य के प्रति दृढ़ रहता है। अपना कल्याण चाहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का पावन कर्तव्य है कि वह परमात्मा को दोष देने के बजाय, उसकी कृपा में न्यूनता खोजने के बजाय अपने निष्क्रिय स्वभाव, अनुद्योगी प्रवृत्ति एवं निराशापूर्ण विश्वासों को दोष दे और अपनी कमियों, त्रुटियों एवं न्यूनताओं की खोज करे और उन्हें दूर करने का प्रयत्न करे। मनुष्य जब तक भी अपनी विवशताओं की खोज अपने में न करके उनका दोष दूसरों को देता रहेगा यों ही दयनीय एवं दुर्भाग्यपूर्ण जीवन बिताता रहेगा।
हारिये मत, जीतने की ही बात सोचिये
जो वस्तु या विषय अनुकूल स्थान पा लेता है वह बहुत शीघ्र पल्लवित तथा स्थायी हो जाता है। अन्नों के विभिन्न प्रकार होते हैं। किन्तु प्रत्येक अन्न हर क्षेत्र में नहीं हो सकता। हर बीज को फलीभूत होने के लिए उसे अनुकूल तत्वों वाली भूमि की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि किसी भूमि पर गेहूं, चना होता है तो किसी भूमि पर चावल, चना, मक्का, ज्वार आदि। किसी बाग की भूमि आम के लिए अनुकूल होती है तो किसी की अमरूद के लिये। अनुकूल क्षेत्र परिस्थिति पाए बिना किसी बात अथवा विषय का विकास एवं दायित्व सम्भव नहीं।
यदि हमारे शरीर में रोगों के अनुकूल हानिकारक तत्व मौजूद न हों तो रोगों को शक्ति नहीं कि वे हमको आक्रांत कर सकें। इसी प्रकार यदि अनिष्ट अथवा अशुभ के अनुकूल निर्बलता हमारे मन में न रहे तो उनका कोई प्रभाव हम पर नहीं पड़े। बहुत बार एक जैसी हानि अथवा अप्रियता से घिरकर दो व्यक्तियों में से एक की दशा दयनीय हो जाती है। इस हिम्मत तथा हौसला समाप्त हो जाता है और वह प्रतिकूलता के समक्ष आत्म-समर्पण करके सदा को निष्क्रिय बन बैठता है इसके प्रतिकूल दूसरा व्यक्ति उस अनिष्ट से जरा भी प्रभावित नहीं होता। दुःखद परिस्थिति हवा के एक गर्म झोंके की तरह उसे ऊपर से छूकर निकल जाती है। न उसका साहस टूटता है और न उसे निराशा होती है। वह उसी हिम्मत तथा उत्साह से काम करता रहता है और अन्त में विजयी होता है। इस विषय का केवल एक ही कारण होता है, और वह है परिस्थितियों के योग्य मानसिक अनुकूलता। निराश व्यक्ति की मनोभूमि निर्बल होने से घटना उसको सहज ही दबा लेती है और सारी शक्ति को व्यर्थ कर निष्क्रिय बना देती है। हार न मानने वाले व्यक्ति की मन:स्थिति उस अप्रियता के अनुकूल नहीं होती इसलिए वह उस पर प्रभाव नहीं डाल पाती उसकी सारी शक्तियां सक्रिय तथा समर्थ बनी रहती हैं। फलतः न तो वह निराश होता है और न निरुत्साहित यथावत कार्य करता रहता है और अन्त में प्रतिकूलता पर नियन्त्रण कर विजयी होता है। मनुष्य की बाह्य हार-जीत बहुत कुछ मानसिक हार जीत पर निर्भर रहती है। बाहर से असफलता मिलने पर भी यदि हृदय से हारा न जाये तो कोई कारण नहीं कि हमारा नाम पराजितों में लिखा जा सके। मानसिक हार जीत के कारण बहुत से लोग जीतकर हार जाते हैं और बहुत से हारकर जीत जाते हैं। कितनी ही विषम परिस्थिति क्यों न आ जाये, संकट की घनी घटायें क्यों न घिर रही हों, कितना ही अन्धकार क्यों न दिखाई देता हो, मन से मत हारिये। हृदय से विजय की सफलता एवं निस्तार का तेजस्वी विचार कभी भी तिरोहित मत होने दीजिये। संसार का ऐसा कोई संकट नहीं जो आपके पैर मैदान से उखाड़ दे।
अधिकतर होता यह है कि लोग एक अंश बाहर से हारते ही दस अंश भीतर से हार जाते हैं। उनकी विचार-धारा जिसे उनका साथ देना चाहिए था प्रतिकूलताओं के पक्ष में हो जाती हैं। प्रतिकूल दिशा में बहने लगती है। संकट के समय में उसे सोचना तो इस प्रकार चाहिये कि—यह संकट कुछ नहीं है। यह तो मानव जीवन में जाते रहने वाले धूप-छांह का खेल है। यह साधारण सी असफलता हमारी अजेय आशा को विचलित नहीं कर सकती, मुझ में शक्ति, साहस तथा संघर्षशीलता की कमी नहीं है। मैं निरन्तर पुरुषार्थ तथा धैर्य के आधार पर अपना हारा दाव जीत लूंगा। किंतु सोचने इस प्रकार लगता है—‘लीजिए काम करते ही हानि होने लगी, शायद मेरा भाग्य खराब है, समय और नक्षत्र हमारे प्रतिकूल हैं। जब इस प्रकार कदम-कदम पर असफलता मिलेगी तब हमारा आगे बढ़ सकना कैसे सम्भव हो सकता है। हम पर तो दैवी कोप मालूम होता है, हममें इतनी शक्ति कहां कि दुर्दैव से टक्कर ले सकें।’ इस प्रकार की परस्पर विरोधी—अनुकूल प्रतिकूल विचारधाराओं का परिणाम यही तो है कि एक हिम्मत से मैदान में डटा रहता है, दूसरा मैदान छोड़ जाता है। स्वाभाविक है कि एक जीते और दूसरा हारे।
मनुष्य स्वभाव में ही अपनी दशा तथा स्थिति का स्वामी बनने के लिये बनाया गया है न कि उनका दास बनकर रहने के लिए। यदि अन्य पशु-पक्षियों की तरह ही अनुकूलता में नाचने कूदने और प्रतिकूलता में भागने, रोने चिल्लाने, घबराने, उद्विग्न होने लगे तो उसकी विशेषता ही क्या रह जाये? उसकी बुद्धि विवेक तथा संघर्ष शक्तिमत्ता ही क्या रह जाये? किन्तु खेद है कि मनुष्य सारी शक्तियों तथा क्षमताओं के रहते हुए भी अपनी मानसिक निर्बलता तथा प्रतिकूल विचारधारा के कारण हार मान लेता है। इसका कारण यही समझ में आता है कि ऐसे कायर लोग अपने मनुष्य होने का शायद ध्यान नहीं रखते अथवा मानवीय विभूतियों को निरुपयोगी समझते हैं। परिस्थितियों से हारने जीतने की शर्म व गैरत उन्हें नहीं होती।
इस विषय में संसार के प्रसिद्ध घूंसेबाज, कारवेट का विचार कितना सत्य तथा उपयोगी है। वह कहता है कि—हर घूंसेबाज के पास एक से साधन होते हैं। दो हाथ, दो पांव, एक धड़ और एक सिर। प्रतिस्पर्धी के घूंसे भी पांच सात से अधिक नहीं पड़ते, फिर किसी एक के ‘रुस्तमे हिन्द’ या ‘रुस्तमे जमा’ बन जाने का क्या कारण हो सकता है? अपने इस प्रश्न का स्वयं ही जवाब देता हुआ यह आगे लिखता है—‘जब तुम्हारे पैर इतने बेदम हो रहे हों कि तुम अखाड़े के एक कोने में चले जाने की सोच रहे हो तो एक मजबूत पकड़ और लड़लो। ‘जब तुम्हारी भुजायें ऐसी शिथिल हो रही हों कि उन्हें उठाना मुश्किल मालूम देता हो, तो सारा साहस बटोर कर प्रतियोगी से एक बार और भिड़लो। जब तुम्हारी नाक से रक्त की धारा बह रही हो और आंखों के आगे अंधेरा छा रहा हो, जब तुम इतने लस्त पस्त हो रहे हो कि बस यही जी चाहता कि प्रतिस्पर्धी तुम्हारे जबड़े पर दो घूंसे जमा कर तुम्हें चेतना लोक से बाहर भेज दे तो एक आखिरी टक्कर और ले लो। याद रखो जो मनोधनी एक आखिरी टक्कर और ले लेता है—एक पकड़ और लड़ लेता है—वह कभी पछाड़ नहीं खाता।
अपने क्षेत्र के अनुरूप कारवेट ने जो बात कही है वह जीवन के हर क्षेत्र पर एक समान लागू होती है। संघर्ष के प्रकार में अन्तर हो सकता है, किंतु तथ्य में कोई अन्तर नहीं। जीवन के सभी क्षेत्रों में असफलता, शिथिलता तथा निराशा के क्षण आते हैं। किन्तु जिनकी मनोभूमि जिनकी विचार-धारा उतनी समर्थ नहीं होती है वे जल्दी ही मैदान छोड़ जाते हैं। यदि एक बार उनका शरीर रुकना भी चाहे और शायद टक्कर ले लेने के योग्य भी हो तो भी उनका मन उन्हें लेकर भाग जाता है। किन्तु स्थिर मन व्यक्ति बाहर से शिथिल हो जाने पर भी शारीरिक साधनों की निराशा के बावजूद भी मनोबल से लड़ता है और जीत प्राप्त कर लेता है।
इतना ही क्यों, यदि एक बार दस बार क्या भी असफलता क्यों न आये। परिस्थितिवश मैदान छोड़ना पड़े तब भी अखाड़े से बाहर शरीर के साथ मन को भी हराकर मत जाइए। उस हार से शिक्षा लीजिए और आगे की जीत के लिए प्रयत्न कीजिए। और मैदान में पूरी तैयारी के साथ उतरिये। आप अवश्य विजयी होंगे। यदि शरीर के साथ मन को भी हराकर चले गये तो आपके पास ऐसा कोई उपाय शेष न रह जायेगा जिसके आधार पर आप आगामी विजय की तैयारी कर सकें। मानसिक अनुकूलता अथवा वैचारिक स्थिति का परिस्थितियों पर बहुत प्रभाव पड़ता है—इस सत्य को कभी विस्मरण न करना चाहिए।
यदि हमारा मन बलवान है, हमारे विचार हमारे साथ हैं, हमारी भावनायें शुभ तथा सृजनात्मक हैं तो हम पर प्रतिकूल परिस्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता और हम उस पर अवश्य नियन्त्रण प्राप्त कर लेंगे। हमें चाहिये कि हम अपनी मनोभूमि के संघर्षों के समय पहाड़ की उस चट्टान की तरह दृढ़ तथा अपने अनुकूल बनाये रहें जिस पर आंधी पानी का कोई प्रभाव बाहर से भले ही दृष्टिगोचर हो किन्तु उसका प्रवेश अन्तर में न हो सके।

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