कठिनाइयों की कसौटी पर खरे उतरें

कठिनाइयों की कसौटी से कतराइए मत

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सृष्टि संचालन के सार्वभौम नियमों के अनुसार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परिवर्तन होते रहना एक स्वाभाविक बात है। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन होता है। वर्षा के बाद शरद और इसके पश्चात् ग्रीष्म ऋतु का आगमन भी निश्चय से होता है। सूर्य, चन्द्र एवं अन्य ग्रह भी एक नियमबद्ध गति में चलते हैं। इसी तरह मानव जीवन भी इन सार्वभौम नियमों के अन्तर्गत सदैव एक सा नहीं रहता। मनुष्य की इच्छा हो या न हो जीवन में भी परिवर्तनशील परिस्थितियां आती रहती हैं। आज उतार है तो कल चढ़ाव। चढ़े हुए गिरते हैं और गिरे हुए उठते हैं। आज अंगुली के इशारे पर चलने वाले अनेकों अनुयायी हैं तो कल सुख दुःख को पूछने वाला एक भी नहीं रहता। रंक कहाने वाला एक दिन धनपति बन जाता है तो धनवान निर्धन बन जाता है। जीवन में इस तरह की परिवर्तनशील परिस्थितियां आते-जाते रहना नियति चक्र का सहज स्वाभाविक नियम है। इनसे बचा नहीं जा सकता—इन्हें टाला नहीं जा सकता।
एकांगी विचार प्रेरित मनुष्य इस नियति के विधान को नहीं समझ पाता। वह अपनी इच्छा कामना के अनुकूल परिस्थितियों में ही सुख का अनुभव करता है तो विपरीत परिस्थितियों में दुःखी हो जाता है। अधिकांश व्यक्ति सुख, सुविधा, सम्पन्नता, लाभ, उन्नति आदि में प्रसन्न और सुखी रहते है किन्तु दुःख, कठिनाई, हानि आदि में दुःखी और उद्विग्न हो जाते हैं। किन्तु यह मनुष्य के एकांगी दृष्टिकोण का परिणाम है और इसी के कारण, कठिनाई, मुसीबत कष्ट आदि शब्दों की रचना हुई। वस्तुतः परिवर्तन मानवजीवन में उतना ही महत्त्वपूर्ण, सहज और स्वाभाविक है जितना रात और दिन का होना—ऋतु का बदलना—आकाश में ग्रह-नक्षत्रों का विभिन्न स्थितियों में गतिशील रहना। किन्तु केवल सुख, लाभ अनुकूल परिस्थितियों की ही चाह के एकांगी दृष्टिकोण के फलस्वरूप मनुष्य दुःख, कठिनाई और विपरीतताओं में रोता है, दूसरों को अथवा ईश्वर को अपनी विपरीतताओं के लिए कोसता है। शिकायत करता है, इनसे बचने के लिए कोसता है। वह सदा ही इससे बचने के लिए असफल प्रयत्न करता है। किन्तु इससे तो उसकी समस्यायें बढ़ती ही जाती हैं, घटती नहीं। वस्तुतः कठिनाइयां जीवन का एक आवश्यक नियम है, जिन्हें स्वीकार करने में ही लाभ है।
कठिनाइयां जीवन की एक सहज स्वाभाविक स्थिति है, जिन्हें स्वीकार करके मनुष्य अपने लिए उपयोगी बना सकता है और कठिनाइयों को जीवन का विरोधी भाव मानकर उनसे दुःखी और परेशान होकर मनुष्य अपनी ही हानि भी कर लेता है। कठिनाइयों में रोना, हार मान लेना, निराशा और अवसाद से ग्रस्त होना अपने विश्वास के मार्ग को छोड़ बैठना ही है। वस्तुतः कठिनाइयां इतनी भयंकर और कष्टदायक नहीं है जितना बहुत से लोग समझते हैं। जिन कठिनाइयों में कई व्यक्ति रोते हैं, मानसिक क्लेश अनुभव करते हैं उन्हीं कठिनाइयों में दूसरे व्यक्ति नवीन प्रेरणा, नव उत्साह पाकर सफलता का वरण करते हैं। इस तरह कठिनाइयां अपने आप में कुछ नहीं हैं वरन् मन की स्थिति से ही इनका स्वरूप बनता है। मन और कठिनाइयां सापेक्ष हैं। सबल मन वाला व्यक्ति बड़ी कठिनाई को भी स्वीकार करके आगे बढ़ता है तो निर्बल मन वाला सामान्य सी कठिनाई में भी निश्चेष्ट हो जाता है। निर्बल मन तो अपनी कल्पना-जन्य कठिनाइयों में ही अशान्त हो जाता है।
नियति के नियम अजेय एवं अपरिवर्तनीय हैं। मानव जीवन में होने वाले परिवर्तन भी इसी के अन्तर्गत होने से ध्रुव सत्य हैं। जीवन में आने वाली कठिनाइयों की जड़ में भी यही है। इस तथ्य को हृदयंगम कर कठिनाइयों में भी सन्तुष्ट, सन्तुलित रहने वालों की जीवन यात्रा सहज-गति में चलती रहती है अनेकों विपरीततायें भी उनका मार्ग नहीं रोक पातीं। छोटी-बड़ी कठिनाइयां उनके लिए इसी तरह महत्व रखती है जैसे रात और दिन, सर्दी और गर्मी।
परीक्षा की कसौटी पर प्रतिष्ठित हुए बिना कोई वस्तु उत्कृष्टता प्राप्त नहीं कर सकती, न उनका कोई मूल्य ही होता है। सोना भीषण अग्नि में तप कर ही शुद्ध और उपयोगी होता है। कड़ी धूप में तपने पर ही खेतों में खड़ी फसल पकती है। आग की भयानक गोद में पिघल कर ही लोहा सांचे में ढलने के उपयुक्त बनता है। जन-जन द्वारा पूजी जाने वाली मूर्ति पर पैनी छैनी की असंख्यों चोटें पड़ती हैं। परीक्षा की अग्नि में तपकर ही वस्तु शक्तिशाली, सौन्दर्ययुक्त और उपयोगी बनती है। मनुष्य भी कठिनाइयों में तपकर उत्कृष्ट, सौन्दर्ययुक्त, प्रभावशाली और महत्वपूर्ण बनता है। जीवन को अधिक उत्कृष्ट और महत्वपूर्ण बनाने के लिए मनुष्य को उतनी ही अधिक कठिनाइयों और परेशानियों में से गुजरना पड़ेगा। वस्तुतः कठिनाइयां, दुःख परेशानियां जीवन की कसौटी हैं—जिनमें मनुष्य के व्यक्तित्व का रूप निखरता है।
कठिनाइयां मनुष्य के विकास में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इन्हें खुले हृदय से स्वीकार करके मानसिक विकास प्राप्त किया जा सकता है। कठिनाइयों में खुलकर खेलने से इच्छा शक्ति प्रबल होती और बड़े-बड़े काम करने की क्षमता प्राप्त होती है। कठिनाइयों में मनुष्य की आन्तरिक शक्तियां एकत्रित और संगठित होकर काम करती हैं। जीवन की कोई भी साधना कठिनाइयों में होकर निकलने पर पूर्ण होती है। कठिनाइयों में ही जीवन दर्शन की परीक्षा होती है।
कठिनाइयां दुधारी तलवार हैं। जो व्यक्ति इनसे घबराकर गिर पड़ा वह हार बैठा। वह अपने जीवन की सभी सम्भावनाओं को नष्ट कर देता है। इसके विपरीत जिसने कठिनाइयों को साधकर उनसे समझौता, समन्वय कर लिया वह व्यक्ति कठिनाइयों को ही अपनी सफलता, उत्कृष्टता का साधन बना लेता है। कठिनाइयां एक ओर जीवन में कसौटी बनकर सुधार, नवनिर्माण, उत्थान की प्रेरणा देने में उत्साह और मनोबल को ऊंचा उठाने में सहायक होती हैं तो दूसरी ओर मनुष्य को अकर्मण्य, निरुत्साह बना देती हैं। जीवन की आशा, उमंगों को धराशायी कर देती है दोनों ही स्थितियों का उत्तरदायी मनुष्य स्वयं ही होता है। इनमें कठिनाइयों का कोई दोष या गुण नहीं है। जब मनुष्य कठिनाइयों की यथार्थता को नहीं समझता, उन्हें जीवन का स्वाभाविक अंग मानकर सहर्ष स्वीकार नहीं करता तो ये ही कठिनाइयां अपार दुःख, अशान्ति, क्लेश का कारण बन जाती हैं, भय और घबराहट पैदा हो जाते हैं—इससे मनुष्य का मानसिक संतुलन संगठन बिखर जाता है और अन्तर्द्वंद पैदा हो जाते हैं। जब किसी राष्ट्र की आन्तरिक शक्तियां विघटित होकर उनमें अन्तर्द्वंद गृहयुद्ध पैदा हो जाता है तो उसका पतन होना स्वाभाविक है। उस पर बाह्य आक्रमण भी होने लगते हैं। फिर सामान्य सी कठिनाइयां भी मनुष्य की आशा, उमंग और धैर्य को घायल कर उसे निराशा, हीनता, अवसाद की ओर ढकेलती हैं। मनुष्य की बड़ी-बड़ी आशायें, उमंगें, अभिलाषायें इस स्थिति में कठिनाइयों की चट्टान से टकराकर टूट-फूट जाती हैं, छिन्न-भिन्न हो जाती हैं।
इसी तरह मनुष्य चाहे तो कठिनाइयों को वरदान बना सकता है और अभिशाप भी। आवश्यकता इस बात की है कि वह बार-बार प्रयत्न करके कठिनाइयों की कसौटी में सफल होने के प्रयास न छोड़े—अपनी साधना जारी रखे।

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