कठिनाइयों की कसौटी पर खरे उतरें

सुख ही सुख क्यों? दुख क्यों नहीं ?

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मानव जीवन संघर्षपूर्ण है। जीवन में नित्य ही नये-नये उतार-चढ़ावों का सामना करना पड़ता है। सुख दुख, लाभ-हानि, प्रसन्नता-शोक, जन्म-मरण आदि द्वन्द जीवन में आते-जाते रहते हैं। लेकिन हम केवल सुख, प्रसन्नता, लाभ, सफलता की ही आकांक्षा रखते हैं। इसके विपरीत दुख कठिनाइयों, परेशानियों समस्याओं से हम कतराते हैं। उनसे घबराकर उनकी कल्पना भी जीवन में नहीं करना चाहते, किन्तु हममें से प्रत्येक को अपनी इच्छा के विरुद्ध भी जीवन में इनका सामना करना ही पड़ता है। उस स्थिति में हममें से बहुत से रोने लगते हैं। चिन्ता, शोक, क्लेश अशान्ति में घुल-मिलकर असमय में ही जीवन नष्ट कर लेते हैं। दूसरे ऐसे भी लोग होते हैं जो इन कठिनाइयों को ही अपने विकास, उत्थान, महानता तथा प्रगति का साधन बना लेते हैं। महर्षि व्यास ने कहा है कि—‘‘क्षुद्रमना लोग ही दुख के वशीभूत होकर तप तेज शक्ति को नष्ट कर लेते हैं। किन्तु पुरुषार्थी महामना लोग कष्टों को भी अपनी सफलता और विकास का आधार बना लेते हैं।’’
रोना-धोना, शोक करना, चिंता-विषाद में खिन्न हो बैठना, हार मान लेना, कठिनाइयों दुखों का कोई समाधान नहीं है। ऐसी स्थिति में तो कठिनाइयां सुरसा की तरह बढ़कर समस्त जीवन को ही छिन्न-भिन्न कर देती हैं। यह भी निश्चित है कि जीवन के साथ दुख और कठिनाइयां सदैव रहे हैं और रहेंगे। इनसे कभी छुटकारा नहीं पाया जा सकता। उपनिषदकार ने कहा है—‘‘नहि वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोरपद्धतिरस्ति।’ (छान्दोग्य) निश्चय ही जब तक यह शरीर बना हुआ है तब तक सुख और दुख निवारण नहीं हो सकते कठिनाइयां जीवन का उसी तरह एक अनिवार्य अंग हैं, जिस तरह रात्रि का होना, ऋतुओं का बदलते रहना।
अतः आवश्यकता इस बात की है कि कठिनाइयों के रहते हुए भी आगे बढ़ा जाये इन्हें जीवन को विकसित और महान् बनने का आधार क्यों न बना लिया जाय? हार मान बैठने पर तो ये हमें मटियामेट ही कर देंगी। दृढ़ साहस निष्ठा से काम लेने पर अविचल भाव से अपने पथ पर बढ़ते रहने से ये समस्यायें ही मनुष्य की सहायक और सहयोगी बन जाती हैं। स्मरण रखिये; उन्नति एवं सफलता का मार्ग कष्ट एवं मुसीबतों के कंकड़-पत्थरों से ही बना है। प्रत्येक महान् बनने वाले व्यक्ति को इसी मार्ग का अवलम्बन लेना पड़ता है जिस तरह विष को शुद्ध करके अमृत के गुण प्राप्त कर लिए जाते हैं उसी प्रकार कठिनाइयों का भी शोधन कर इन्हें आत्मोत्थान का आधार बनाया जा सकता है।
कठिनाइयां एक रूप में उस स्थिति का नाम है जहां मनुष्य अपना पूरा-पूरा समाधान प्राप्त नहीं कर पाता। ‘क्या करूं’, ‘क्या न करूं’ का निर्णय नहीं कर पाता। ऐसी स्थिति में एक रास्ता तो उन लोगों का है जो रो-रोकर, शोक करके, चिन्ता विषाद में डूबकर अपना समय बिताते हैं। दूसरे प्रकार के व्यक्ति वे होते हैं जो समस्या के समाधान में अधिक मनोयोगपूर्वक विचारमग्न होते हैं। समाधान जल्दी ही मिले इसके लिए व्यस्त रहते हैं। यही मार्ग उत्तम है। कठिनाइयों में रोने के बजाय उनके समाधान का मार्ग ढूंढ़ना ही रोग का सही इलाज है। रोगी को औषधि न देकर, उसके इलाज की व्यवस्था न करके रोग और औषधि के लिए रोते रहने से तो संकट बढ़ेगा ही। इसलिए संकट के समय अपने समस्त बुद्धि विवेक और प्रयत्नों को इनके हल करने में लगा देना चाहिए। इससे तीन लाभ होंगे—
(1) जब समस्त शक्तियां एकाग्र होकर किसी एक क्षेत्र में काम करेंगी तो सन्तोषजनक समाधान भी मिलेगा। साथ ही शक्तियां अधिक सूक्ष्म और विकसित होंगी। (3) बुद्धि विवेक अनुभव बढ़ेंगे। मनुष्य के व्यस्त रहने से कठिनाइयों के प्रति शोक चिन्ता एवं उद्विग्नता में डूबने के लिए कोई समय ही नहीं मिलेगा। स्वामी विवेकानन्द ने लिखा है—‘‘व्यस्त मनुष्य को आंसू बहाने के लिए कोई समय नहीं रहता।’’
कठिनाइयां एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति सुदृढ़ प्रबुद्ध बनता है। प्रारम्भिक कठिनाइयां मनुष्य को बहुत ही भयंकर जान पड़ती हैं। किन्तु धीरे-धीरे वही व्यक्ति कठिनाइयों में पलते-पलते इतना दृढ़ एवं परिपक्व हो जाता है कि जिन स्थितियों में वह भयभीत रहा करता था, चिन्ता और विषाद में डूबा रहता था उन्हीं स्थितियों में वह बेधड़क ही जीवन-पथ पर चलने लगता है।
आप कठिन परिस्थितियों से घबरायें नहीं, न इनसे शोकातुर ही हों। ये तो आपके जीवन को विकसित परिपुष्ट बनाने के लिए आती हैं। सोना तप कर ही निखरता है। इसी तरह मनुष्य का जीवन भी कठिनाइयों में पलकर ही खिलता है।
कठिनाइयां जीवन की कसौटी हैं, जिनमें हमारे आदर्श, नैतिकता एवं शक्तियों का मूल्यांकन होता है। दुख और कठिनाइयां ही जीवन का एक ऐसा अवसर है जिसमें मनुष्य अपने आन्तरिक जीवन की ओर अभिमुख होता है। सुखद परिस्थितियों में और तो और मनुष्य अपना आपा भी भूल जाता है। सुख की मादकता मस्ती में मनुष्य के बुद्धि, विवेक, विचारशीलता, नीति एवं सदाचार तिरोहित हो जाते हैं इसीलिए महाभारत में वेदव्यास ने लिखा है—‘‘दुःख में ही दुखियों के प्रति हमदर्दी पैदा होती है और मनुष्य भगवान का चिन्तन करता है। सुख में मनुष्य का हृदय सम्वेदना रहित कठोर बन जाता है और मनुष्य ईश्वर तक को भूल जाता है।’’ दुखों में ही अपने बुरे भले का विचार कर सकने का विवेक पैदा होता है। रहीम जी ने कहा है—
रहिमन विपदा हू भली, जो थोड़े दिन होय ।
हित अनहित या जगत में, जानपरत सब कोय ।।
जब मनुष्य सुख की नींद में सोया रहता है तो अपने जीवन के शाश्वत लाभ तथा संसार में अपने कर्तव्य को भूला रहता है। किन्तु दुख का झटका उसे इस नींद से जगाता है और मनुष्य को क्या करना है? वह किस लिए आया है? संसार में उसका का क्या कर्तव्य धर्म है? इसका पाठ मजबूरन सिखाता है। दुख के झकझोर डालने पर जब हम अपने ध्येय और कर्तव्य में एकाग्र होकर लग जाते हैं, जीवन को सक्रिय बना लेते हैं तो वही दुख कालांतर में सुखद परिणाम लेकर आता है। आन्तरिक बाह्य जीवन में सुख का संचार होता है। दुख, सुखों का सन्देश लेकर आता है यह कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।
भवितव्यता से भयभीत न हों
शरीरधारी की सबसे बड़ी विशेषता ही यह है कि उसे सुख और दुख दोनों के बीच से गुजरना पड़ता है। शरीर सुख और दुख दोनों को भोगने के लिए मिलता है। जीव ने पूर्व जन्म में जिस प्रकार के कर्म किये होते है उसी के अनुसार उसे शरीर मिलता है और उसी के अनुसार सुख-दुख देने वाली परिस्थितियां। शरीर पूर्व प्रारब्ध पूरा करने का एक संयोग है। इसलिए मनुष्य को चाहिये कि वह सुख-दुख की परिस्थितियों में समभाव बनाये रखे।
इस बोध के पाते ही कि हम शरीरधारी है मनुष्य को निश्चय कर लेना चाहिए कि उसे सुख-दुख दोनों का भोग करना है। और अपने इस बोधजन्य निश्चय के अनुसार हर समय उद्यत भी रहना चाहिये। जब शरीर धारण किया है तो दुख-सुख दोनों का ही भोग करना होगा। शरीरधारियों में से किसी के लिए भी केवल सुख अथवा दुख भोगने का कोई विधान नहीं है। इस अटल नियम के होते भी और जानते हुए भी यदि मनुष्य दुख के अवसरों पर अधिक व्याकुल अथवा उद्विग्न हो उठता है तो इसे उसका दुर्भाग्य ही कहा जावेगा। दुख और सुख शरीर के साथ लगी रहने वाली दो छायायें हैं। उन्हें अपने पास से दूर नहीं किया जा सकता। ऐसी दशा में उत्तम यही होता है कि सुख और दुख दोनों में तटस्थ रहकर अपना यथायोग्य कर्त्तव्य करते रहा जाय। जो इस मर्म के अनुयायी रहकर संसार में बरतते हैं वे प्रायः सुखी ही रहते हैं।
इस दार्शनिक विवेचन से हटकर यदि व्यवहार क्षेत्र में भी आकर विचार किया जाय तो भी पता चलेगा कि दुःख कष्ट अथवा आपत्ति के समय व्याकुल होना अथवा धीरज खो देना व्यर्थ है। रोने, चिल्लाने अथवा व्याकुल होने से आज तक किसका दुःख दूर हुआ है? अधैर्य दुख-कष्ट का उपचार नहीं बल्कि उसका बढ़ाने वाला सिद्ध होता है। एक तो दुख का कारण स्वयं ही उपस्थित होता है, उस पर यदि धैर्य, साहस, आशा, सहनशीलता और सक्रियता को छोड़कर व्याकुलता, व्यग्रता और कायरता का आश्रय लिया जाय तो परिस्थिति और भी गम्भीर हो जायेगी।
काली रात में घटा घिर आने के समान अन्धकार और भी सघन तथा गम्भीर हो जायेगा। इसके विपरीत धैर्य और साहस को बनाये रहने से बुद्धि और विवेक का दीप जलता रहता है। जिसके प्रकाश में उपाय और उपचार दृष्टिगोचर होते रहते हैं। यही कारण है कि किसी आपत्ति के समय कोई अधैर्यवान् तो बुरी तरह हानि की चपेट में आ जाता है और धैर्यवान आपत्ति का आक्रमण विफल कर साफ निकल जाता है। जहां अधैर्यवान् आपत्ति को अपना बहुत कुछ दे देता है, वहां धीर, गम्भीर पुरुष कुछ देना तो दूर, उल्टे उससे न जाने कितने अनुभव लूट ले जाता है।
यदि दुख, संकट और आपत्ति के संयोग की प्रतिक्रिया अधैर्य ही होती तो संसार में सबको ही उस स्थिति में गुजरना और व्याकुल होना चाहिए। किन्तु ऐसा होता कदापि नहीं। जहां बहुत से लोग दुख आने पर बुरी तरह व्याकुल और उद्विग्न हो उठते हैं, वहां बहुत से लोग अपने स्वभाव में स्थिर रहते है। उनकी शान्ति और सन्तुलन अक्षुण्य बना रहता है। इस अन्तर का कारण और कुछ नहीं, केवल यह होता है कि एक हृदय से निर्बल होता है और दूसरा नहीं। एक विनाश का विश्वासी होने से सोचता है कि अब मैं नष्ट हो जाऊंगा, मेरा सब कुछ बरबाद हो जायेगा। यह संकट अथवा विपत्ति हमें मिटा देगी। कैसे क्या करें जो इस भयंकर परिस्थिति से बचें।
दूसरा जीवन और सृजन में विश्वास रखने वाला होने से सोचता कि आपत्तियां अस्थायी होती हैं, दुःख क्षणिक होते हैं। परमात्मा का अंश होने से मनुष्य आनन्द स्वरूप हैं। दुःख अथवा संकट के कारण मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। मैं एक जीवन्त पुरुष हूं, मुझे प्रभु ने बुद्धि और विवेक दिया है, धैर्य और साहस दिया है। मैं उसके बल पर मुझे परास्त करके संकट अथवा आपत्ति के इरादे को चूर-चूर कर दूंगा। अपनी इन्हीं मनोनीतियों के अनुसार निषेध अथवा सम्बल पाकर एक दुख में डूब जाता है और दूसरा उससे पार उतर जाता है।
संसार में संकट और आपत्ति सभी पर आती हैं। इससे कोई भी नहीं बचता। संसार में जिसे भी देखिये सुख-दुख से द्वन्द करता हुआ यात्रा पर बढ़ा चला जा रहा है तब हम ही क्यों दुख का रोना लेकर बैठे रहें। सुख-दुःख मय इस संसार में सामान्य पुरुष तो क्या बड़े-बड़े सम्राट श्रीमन्तों और महान् पुरुषों को भी संकटों का सामना करना पड़ा है। शिवि, हरिश्चन्द्र, मोरध्वज, नल, पाण्डव, प्रभ्रति न जाने कितने ऐतिहासिक पुरुषों को अपार संकट उठाने पड़े। हजारों साल बाद आज भी उनका नाम अमर है, इसका कारण यही है कि उन लोगों ने सारे संकटों को सहर्ष स्वीकार किया, अपने धैर्य विवेक की परीक्षा दी, पूरी तरह उत्तीर्ण हुए और समय की शिला पर अपना नाम खोदकर अमर हो गये। ऐसे धैर्यवान् पुरुष सिंह ही वास्तविक सुख, यश, कीर्ति और पूजा प्रतिष्ठा के अधिकारी होते हैं और ऐसे पुरुष ही संसार पथ पर अपने उन आदर्श पद चिन्हों को छोड़कर जाते हैं, जिनका अनुसरण कर लाखों लोग भवसागर से पार हो जाते हैं।
अपने ऊपर आपत्ति या संकट को आया देखकर धैर्य खोना कायरता है। जब संसार के कोई दूसरे लोग दुख में धैर्य रख सकते हैं हंसते-खेलते हुए आपत्ति को पार कर सकते हैं तो हम ही क्यों उन्हें देखकर रोने-चिल्लाने लगें। जबकि परमपिता परमात्मा ने हमें भी साहस आशा और धैर्य के साथ बुद्धि और विवेक का सम्बल उनकी तरह दे रखा है। अन्तर केवल यह है कि जहां संसार के सिंह पुरुष अन्धकार आते ही अपने गुणों के प्रदीप प्रज्ज्वलित कर लेते हैं, वहीं कायर पुरुष घबड़ाकर उनको प्रदीप्त करना ही भूल जाते हैं।
आत्मा का भार, भविष्य का अन्धकार कुछ कर्म हो गया और प्रकाश का लक्ष्य कुछ समीप आ गया है। ऐसे उपकारी संकटों को देख कर रोना चिल्लाना वैसी ही मूर्खता है जैसी कि किसी विषाक्त फोड़े का आपरेशन करने के लिए आये डॉक्टर को देखकर भयभीत होने की मूर्खता। दुख के बाद सुख और संकट के बाद सुविधा, प्रकृति का यह अटल नियम है। इस आधार पर भी दुख देखकर प्रसन्न होना चाहिये। दुख और संकट उस सुख सम्पत्ति की पूर्व भूमिका होते हैं, जो निकट भविष्य में मिलनी होती है। बादल और बिजली को देखकर भयभीत होने वाले बाल-बुद्धि के लोग कुछ देर में होने वाली प्राणदायक और धन धान्य विधायक वर्षा को नहीं देख पाते। संकट सुख और कल्याण के अग्रदूत होते हैं। उनको देखकर भयभीत न होना चाहिये बल्कि सहर्ष उनका स्वागत करना चाहिये।
विश्वास रखिये दुख का अपना कोई मूल अस्तित्व नहीं होता। इसका अस्तित्व मनुष्य का मानसिक स्तर ही होता है। यदि मानसिक स्तर योग्य और अनुकूल है तो दुख की अनुभूति या तो होगी ही नहीं और यदि होगी भी तो बहुत क्षीण। तथापि यदि आपको दुख की अनुभूति सत्य प्रतीत होती है, तब भी उसका अमोध उपाय यह है कि उसके विरुद्ध अपनी आशा, साहस और उत्साह के प्रदीप जलाये रखा जाये। अन्धकार का तिरोधान और प्रकाश का अस्तित्व बहुत से अकारण मयों को दूर कर देता है।
आशा, विश्वास और परिवर्तन के अटल विधान में आस्था रखने के साथ ही साथ समय रूपी महान् चिकित्सक में विश्वास रखिये। समय बड़ा बलवान् और उपचारक होता है। वह धैर्य रखने पर मनुष्य के बड़े-बड़े संकटों को ऐसे टाल देता है, जैसे वह आया ही न था। संकट तथा दुःख देख कर भयभीत होना कापुरुषता है। आप ईश्वर के अंश है, आनंद स्वरूप हैं। आपको धैर्य, साहस, आशा-विश्वास और पुरुषार्थ के आधार पर संकट और विपत्तियों की अवहेलना करते हुए सिंह की तरह ही जीवन व्यतीत करना चाहिये। कठिनाइयों की कसौटी पर खरे उतरकर आपका व्यक्तित्व और अधिक निखरेगा।
एकांगी बनकर अपूर्ण न रह जायें
सुख ही सुख अर्जित करने की मनोवृत्ति कहने, सुनने में अच्छी हो सकती है उससे शरीर को थोड़ी तृप्ति भी मिल सकती हैं पर यह जीवन शरीर तक तो सीमित नहीं है, इसमें परिवार का पालन पोषण, सामाजिक सम्बन्ध, नैसर्गिक परिस्थितियां आत्मिक हित और परमार्थिक आकांक्षाएं भी उतनी ही सत्य हैं। यदि मनुष्य की काक-चेष्टा मात्र सुखों में रमण करती रही तो वह जीवन के दूसरे महत्वपूर्ण अध्यायों की कल्पना तक नहीं करता। मात्र कठिनाइयां ही उसे इन अध्यायों की ओर अभिमुख करती हैं। शायर ने इसी की भावाभिव्यक्ति करते हुए लिखा है—
रंज से खॅूगर हुआ इंसां तो मिट जाता है गम ।
मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसां हो गयीं ।।
निरन्तर सफलता से तो संसार का केवल एक पक्ष समझ में आता है। कठिनाइयां हमें दूसरे भाग का भी बोध करा देती हैं। वे हमें यथार्थ में जीवन जीने की कला सिखा देती हैं। इनके बिना किसी भी प्रयोजन की सिद्धि, चाहे वह अध्यात्मिक हो अथवा सांसारिक, सम्भव न होगी।
सुख और दुःख संसार रथ के दो पहिये हैं। एक का अस्तित्व दूसरे पर टिका है। एक दिन है तो दूसरा रात। एक शरीर दूसरा प्राण। दोनों के मध्य से ही जीवन की सरिता का प्रवाह बहता है। यदि अन्धकार न हो तो फिर प्रकाश की महत्ता ही क्या रहेगी? तात्पर्य यह है कि जीवन को क्रियाशील बनाये रखने के लिए दोनों ही आवश्यक हैं। इनसे बचा भी नहीं जा सकता। जब तक शरीर है तब तक सुख-दुख का निवारण नहीं हो सकता।
सुख प्राप्ति के मार्ग में जो परिस्थितियां बाधा उत्पन्न करती हैं उन्हें कठिनाइयां मानते हैं। घन-क्षय, शारीरिक व्याधियां, अप्रिय पुरुषों का संग, प्रियजनों से विछोह इन्हें ही मोटे तौर पर कठिनाईयां मानते हैं। आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति में मनोविकारों के स्वभावजन्य कुकृत्यों को कठिनाई माना जाता है। इन्हीं के कारण मनुष्य दुःखी रहता है। किन्तु यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो यही परिस्थितियां महान् परिणाम की जननी हैं। उपनिषदकार ने लिखा है ‘‘विगमारुहत तपसा तपस्वी’’। तप से ही आत्मोत्थान सम्भव है। तप का अर्थ कड़कती धूप में बैठकर जप ध्यान करना, गहन शीत में स्नान करना अथवा शारीरिक तितीक्षा नहीं। इसका सर्वमान्य अर्थ यही है कि मनुष्य मार्ग में आई हुई कठिनाइयों से निरन्तर संघर्ष करे। इनसे लड़ते हुये अपने लक्ष्य की प्राप्ति करे। हीरा-बिना रगड़ खाये चमकता नहीं। मनुष्य बिना परीक्षा दिये पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता। कठिनाइयां और कुछ नहीं, वे एक कसौटी मात्र हैं जो आगे के लिये सचेष्ट करती हैं।
कोई विद्यार्थी यह कहे कि छिमाही परीक्षा से न तो मैं उत्तीर्ण होता हूं न ही अनुत्तीर्ण, फिर क्यों कलम, दवात, कापी और कागजों में व्यर्थ खर्च करूं? कई बीमारी आदि का बहाना बनाकर उसे टाल भी देते हैं। किन्तु चतुर अध्यापक उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं। और उन्हें बताते हैं कि यदि यह परीक्षा न दी तो यह कैसे अनुमान लगा पायेंगे कि वार्षिक परिक्षा में किन-किन विषयों में कितना परिश्रम करना है। पहली स्थिति में तो फेल होने की ही अधिक आशंका रहती है। ऐसे विद्यार्थियों की तरह अपने लिये भी यह उचित है कि अपनी प्रगति के लिये कठिनाइयों को जीवन का आवश्यक अंग मान लें।
बिना विपत्ति की ठोकर लगे विवेक की आंखें नहीं खुलती। सच्चे ज्ञान की कसौटी यह है कि उसे कठिनाइयों में प्राप्त किया गया हो। प्रसिद्ध उपन्यासकार श्री प्रेमचन्द ने लिखा है ‘‘विपत्तियों से बढ़कर तजुर्बा दिलाने वाला विद्यालय आज तक नहीं खुला। कठिनाइयां मनुष्य के विकास का साधन हैं। जिस तरह आग की तेज भट्टी में तपाने पर सोने का रंग निखर जाता है वैसे ही सच्चे व्यक्ति का जीवन कठिनाइयों की आग से परिपक्व बनता है। महात्मा गांधी, बुद्ध, ईसा आदि महापुरुष पग-पग पर कठिनाइयों से लड़े थे। तब महान् सामाजिक व राजनैतिक क्रांतियों का उन्नयन का सके थे।
विपत्ति में मानसिक शक्तियां अंतर्मुखी हो जाती हैं। इससे मनुष्य को सत्य-असत्य, अपने पराये का यथार्थ ज्ञान होता है। आत्मीय स्वजनों की पहचान भी कठिन समय आ पड़ने पर ही होती है—
कहि रहीम सम्पत्ति सगे बनत बहुत बहुरीति ।
विपति कसौटी जे कसे तेई सांचे मीति ।।
सच्चे मित्र की, आत्मीय की पहिचान कठिनाइयों में होती है। इसे और भी स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करते हुए कवि ने लिखा है—
रहिमन विपदा हूं भली जो थोड़े दिन होय ।
हित अनहित या जगत में जानि हड़े सब कोय ।।
अपना हितैषी कौन है और कौन कपटपूर्वक धूर्तता का, धोखेबाजी का व्यवहार कर रहा है इसकी परीक्षा मुसीबत पड़ने पर ही होती है। सुखी जीवन के तो हजार साथी होते हैं पर मुसीबत पड़ने पर कोई सच्चा सगा ही काम देगा।
सन्मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति की सच्ची परीक्षा कठिनाइयों में ही होती है। ऐसे अवसरों पर बहुधा लोगों को यह कहते सुना जाता है कि उन पर परमात्मा रूठा है। उनके दुर्दिन चल रहे हैं। पर स्थिति ठीक इसके विपरीत है। महात्मा स्वेट मार्डेन ने लिखा है ‘‘जितने दुःख जितनी विपत्तियां हमें प्राप्त होती हैं उनका कारण यह है कि अनन्त ऐश्वर्यशाली एवं सर्व शक्तिमान परमात्मा से हम अलगाव का भाव बनाये हैं।’’ कठिनाइयां वह वरदान हैं जिन्हें देकर परमात्मा हमें अपने पास बुलाना अपनी गोद में बिठाना चाहता है सच्चे अध्यात्मवादी की पहिचान मुसीबतों में होती है। मुसीबतों में तपे बिना व्यक्ति अपने आपको ब्रह्मवादी घोषित करने का अधिकार नहीं पाता है। सच्चा ईश्वर-वादी वह है जो कहता है। ‘‘मालिक मुझे सुख नहीं दुःख दे। सुविधायें नहीं मुसीबतें दे, ताकि तुमसे विलग न होऊं।’’
विपत्ति वह खराद है जिससे परमात्मा अपने रत्नों की चमक बढ़ाता है। इसलिए आप देखिए कि आपके जीवन में भी कठिनाइयां हैं अथवा नहीं। आप अध्यात्मवादी हैं आपके जीवन में निरी कठिनाइयां बाघ की भांति मुंह बाये हैं। आप इनसे विचलित तो नहीं हो रहे। यदि आपके पांव लड़खड़ाते हैं तो सहन कर खड़े होइये। धर्म और अध्यवसाय का अवलम्बन लीजिये। जिसे धीरज है जो परिश्रम से पांव पीछे हटाना नहीं जानता सफलता की देवी उसी के गले विजय माला पहनाती है। धैर्य प्रारम्भ में कडुआ भले लगे किन्तु उसका फल मधुर होता है।
आत्म-निर्भर बनने का और अपने में आत्म-विश्वास जागृत करने का एक ही गुरु-मन्त्र है कि—आप अपने जीवन में कठिनाइयों को आने दीजिए, दूसरों के दुःख तकलीफ और मुसीबतों में हाथ बंटाइये। दूसरों की सहायता कीजिए और परमात्मा आपकी सहायता करेगा। दूसरों के दुःखों को समझिये और अनुभव कीजिए कि आप असंख्यों से सुखी हैं, ऐसा दृष्टिकोण बना लेने से कठिनाई और दुःख की परिस्थितियां टल जायेगी और अपने पीछे सफलता की राह बन जायेगी। किसी कवि ने कहा—
गम राह नहीं कि साथ दीजे ।
दुःख बोझ नहीं कि बांट लीजे ।।
कठिनाइयां छोटे मनुष्य को निस्तेज निष्प्राण बना सकती हैं किन्तु महान वे हैं जो दुःखों की छाया में पलते हैं औरों के दुःख, मुसीबतों में हाथ बटाते हैं। पुरुषार्थ भी इसी का नाम है कि व्यक्ति परिस्थितियों से संघर्ष करे। स्वयं उनके वश न हों वरन उन्हें वशवर्ती करे।
सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एलफेड एडलर का मत है कि भयभीत और हीन भावनाओं के व्यक्ति वे होते हैं जिनके जीवन में कभी कठिनाइयों नहीं आई होतीं अथवा जो कठिनाइयों से कतराते या बचते रहते हैं। ऐसे व्यक्तियों का मानसिक विकास रुक जाता है। ऐसे व्यक्ति छोटे छोटे कार्य में भी सफलता नहीं पाते। कठिनाइयां अपने आप उतनी भयावह नहीं होतीं जितनी उनकी भयोत्पादक कल्पना। जब कभी किसी कठिनाई का आभास हो, आत्म-विश्वास जगाइये, निश्चय ही उससे आपको हितकर परिणाम प्राप्त होंगे।
पूर्वकाल में दार्शनिक व्यवस्था ऐसी बनाई गई थी जिसमें अनिवार्य रूप से छोटे-बड़े बालकों को गुरुकुलों में रखकर अक्षर ज्ञान कम और व्यवहारिक जीवन की कठिनाइयों का पाठ पढ़ाने का क्रम अधिक रखा जाता था। जब तक वह पद्धति चलती रही इस देश में साहसी, पुरुषार्थी, चरित्रवान् ओर प्रतिभाशाली नररत्नों की कमी नहीं रही। किन्तु जब से कठिन परिस्थितियों में रह कर जीवन बिताने का ह्रास हुआ तब से निर्बल निस्तेज और दुराचारी व्यक्तियों का ही बाहुल्य होता चला जा रहा है।
इन परिस्थितियों के रहते हुये किसी समाज राष्ट्र का उत्थान सम्भव नहीं। कठिनाइयों से न जूझने का अर्थ यह है कि व्यक्ति सत्य की अवहेलना कर रहा है और मिथ्याचार को प्रोत्साहन दे रहा है साहस सदाचार आदि नैतिक-सद्गुण कठिनाइयों से विमुख होते ही पलायन कर जाते हैं तब फिर व्यक्तित्व के विकास का मार्ग अवरुद्ध होना ही निश्चित मानिये। एक व्यक्ति ने अपना जीवन लक्ष्य प्राप्त करने के लिये साधना उपासना का क्रम बनाया। पड़ोस वालों ने देखा तो लगे उपहास करने। बस उसका उत्साह ढीला पड़ गया। ऐसी आस्था में सत्य की खोज करना एवं अपनी दुर्बलताओं से जूझना कहां बन पड़ेगा? पर दूसरे वे होते हैं जो यह मानते हैं कि उपहास करने वाले व्यक्ति हमें बुराइयों से सावधान रखने वाले पहरुथ हैं। जो लोग उपहास और अवरोध की परवाह न करते हुये अपने रास्ते पर चलते रहते हैं वे स्वयं सफलता प्राप्त करते हैं और दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी बनते हैं। ऐसे ही व्यक्ति समाज का उत्थान कर सकते हैं। उन्हीं से आध्यात्मिक प्रगति की आशा की जा सकती है।
जीवन के विभिन्न व्यवसायों में चाहे वह लौकिक हों अथवा आत्मा परमात्मा की भक्ति से सम्बन्ध रखने वाले हों सबको कठिनाइयों के मार्ग से ही गुजरना पड़ेगा, शरीर मिला है तो रोग, शोक, बीमारी आदि आयेंगी ही। जीवनयापन के लिए कोई भी उद्योग करे, उसमें सब ओर लाभ ही लाभ हो यह संभव नहीं। सुख-सुविधाओं की सामान्य इच्छा सभी की होती है फिर सारी सुख-सुविधायें आपको ही मिल जायेंगी इसकी कोई गारन्टी नहीं है। अतएव आप ऐसे समय में भी संतोष और धैर्य की वृत्ति बनाये रहें और अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति में लगे रहें तो आपका जीवन सफल माना जायेगा।
दुःख और कठिनाइयों में ही सच्चे हृदय से परमात्मा की याद आती है। सुख-सुविधाओं में तो भोग और तृप्ति की ही भावना बनी रहती है। परमात्मा की याद तब आती है जब व्यक्ति असहाय-सा चारों ओर से अपने आपको कठिनाइयों से घिरा पाता है। इसलिये उचित यही है विपत्तियों का सच्चे हृदय से स्वागत करें। परमात्मा से मांगने लायक एक ही वरदान है कि वह कष्ट दे मुसीबतें दे ताकि मनुष्य अपने लक्ष्य के प्रति सावधान व सजग बना रहे। कृष्ण के समक्ष अपनी इच्छा-व्यक्त करते हुए कुन्ती ने ऐसी ही कामना की थी—
विपदः सन्तु नः शाश्वत तत्र जगद्गुरो ।
भगतो दर्शनम् यत्स्याद पुनर्भव दशनम् ।।
जगद्गुरो! हमारे जीवन में सदैव पग-पग पर विपत्ति आती रहें क्योंकि विपत्तियों में ही निश्चित रूप से आपके दर्शन करते हैं और आप के दर्शन हो जाने पर फिर जन्म मृत्यु के चक्कर में नहीं आना पड़ता।’’ अपने अन्तःकरण की कुन्ती भी यदि ऐसी कामना करने लगे तो लक्ष्य प्राप्ति आधी सफलता आप पा गये समझिये। पूर्णता की प्राप्ति कराने में कठिनाइयां आपकी बाधक नहीं सहायक ही होती हैं। उनके होने से ही तो संघर्ष करने का पौरुष प्रकट होता है और सुविकसित व्यक्तित्व के द्वारा किया हुआ प्रबल पुरुषार्थ कभी निरर्थक नहीं जाता। उससे लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में निरन्तर प्रगति ही होती जाती है।
अपने शत्रु, आप न बनें
वस्तुतः बाहरी शत्रु उतना खतरनाक नहीं होता जितना अपने दुर्ग में बैठा अपना शत्रु। विपरीत परिस्थितियों में घबड़ा जाने की कायरता इतनी बड़ी दुश्मन है कि वह आदमी को कहीं का भी नहीं छोड़ती।
उन निर्बलमना व्यक्तियों को महानता के लक्ष्य प्राप्त कर सकने की आशा नहीं करनी चाहिए जो असफलताओं, बाधाओं, विरोधों एवं कठिनाइयों से डरते घबराते हों। यह स्थितियां उस पथ के उपहार हैं जो पथिक को स्वीकार ही करने होते हैं।
महानता इस जीवन में ही मिल जाए आवश्यक नहीं। प्रायः होता यही है कि महानता के मार्ग गामियों को अपने जीवनकाल में तिरस्कार, उपेक्षा आलोचना और विरोधों को सहन करना पड़ता है किन्तु जब वे अपना कर्तव्य पूरा कर संसार से चले जाते हैं तब लोग उनकी महानता स्वीकार करते, जीवन गाथा कहते, लिखते और पढ़ते हैं। उनकी पूजा करते और उन्हें जीवन का आदर्श बनाते हैं।
ईसामसीह का पूरा जीवन कठिनाइयों, कष्टों, विरोधों, तिरस्कार तथा अत्याचार के बीच बीता। किन्तु वे अपने ध्येय पर डटे रहे। प्राण दे दिए किन्तु व्रत का त्याग नहीं किया। ईसा प्रेम, दया, क्षमा का संदेश संसार को देने चले थे। कितना महान और कल्याणकारी लक्ष्य था। उसमें उनका किसी प्रकार का कोई स्वार्थ नहीं था। वे मनुष्य के बीच फैले द्वेष, घृणा, आक्रोश तथा संघर्ष से द्रवित हो उठे थे। वे नहीं चाहते थे कि मनुष्य, जो कि परमपिता परमात्मा के पुत्र हैं इस प्रकार की दूषित प्रवृत्तियों के शिकार बन दुःखी, संतप्त तथा त्रस्त जीवन बितायें। यदि वह अपना अज्ञान दूर कर दें सद्प्रवृत्तियों का मूल्य एवं महत्व समझें, प्रेम, दया, करुणा और क्षमा के दिव्य गुणों की शीतलता अनुभव करें तो निश्चय ही अन्त में पिता के स्वर्गीय राज्य में स्थान पायेंगे। जीवन में भी सुख-शांति के लिये कलपते न रहें। उन्होंने उस दिव्य अनुभूति को अनुभूत किया था इसलिए विश्वास था कि प्रयत्न पूर्वक भ्रम में भटकती मनुष्य जाति का अज्ञान दूर किया जा सके, संदेश दिया जा सके तो सभी मनुष्य उस स्वर्गीय अनुभूति को प्राप्त करके उसका सुख अनुभव कर सकेंगे।
इसी आशा विश्वास के साथ वे अपना शीतल सन्देश लेकर मानवता की सेवा करने के लिए उतरे थे उनकी उत्कट इच्छा थी कि हमारे मनुष्य भाई भी उस स्वर्गीय शांति को पायें जो उन्हें मिलो थी। ईसा का यह विचार कितना महान, निःस्पृह, निर्विकार एवं निःस्वार्थ था। इसमें कितना उपकार और मनुष्यों के प्रति मंगल भावना भरी हुई थी। किन्तु मनुष्यों ने उस आलोकदाता के साथ क्या व्यवहार किया? इतना कष्ट, इतना क्लेश तिरस्कार एवं त्रास दिया कि उन्हें अनेक बार एकान्त में बैठकर रोना पड़ा—इसलिये नहीं कि उनको कष्ट दिया जा रहा है, बल्कि इसलिये कि आखिर मनुष्य जाति अपना हित सुनना समझना क्यों नहीं चाहती। यदि ईसा के स्थान पर कोई दुर्बल मना व्यक्ति होता तो वह यह कहकर अपना रास्ता लेता कि जब मूर्ख मनुष्य अपने कल्याण की बात सुनना-समझना ही नहीं चाहते तब मेरी क्या गर्ज पड़ी है जो इन्हें समझाने की कोशिश करूं और बदले में पत्थर खाऊं।
किन्तु संसार के सच्चे हितैषी इस प्रकार कहां सोच पाते हैं। वे एक बार अपने निर्विकार मनोमुकुर में जिस सत्य के दर्शन कर लेते हैं उसका आलोक संसार को देने के लिए आजीवन प्रयत्न करते रहते हैं। वे विरोध अथवा तिरस्कार की परवाह नहीं करते। क्योंकि उन्हें पता रहता है कि लोग जो कुछ प्रतिकूल कर रहे हैं अज्ञानवश ही कर रहे हैं। यदि उनमें यह अज्ञान न होता तो उन्हें आलोक देने की आवश्यकता ही क्यों होती और क्यों मेरी आत्मा मुझे इस कठोर कर्तव्य के लिए कहती। साथ ही यह विश्वास भी होता है कि मनुष्यों का यह अज्ञान आज नहीं तो कल अवश्य दूर हो जाएगा। मुझे ‘आज ही’ की जिद के साथ अपने कर्तव्य को बोझिल नहीं बना लेना चाहिए। मनुष्य, मनुष्य है वे एक दिन समझेंगे और सत्य के दर्शन करेंगे।
ईसा को सफलता की कोई जल्दी न थी, उन्हें चिन्ता थी अपने कर्तव्य पालन की। वे लगन और धैर्य पूर्वक अपने कर्तव्य में लगे रहे और उसकी पूर्ति में ही अपने प्राणों को उत्सर्ग कर दिया। ईसा जीवन भर अपने ध्येय में असफल रहे किन्तु एक क्षण को भी विचलित न हुए। आज यह उनके धैर्य एवं निःस्वार्थ प्रयास का ही सत्फल है कि आधे से अधिक संसार उनका अनुयायी है वह ईसा जिन पर जीवन काल में पत्थर मारे गए, बड़े से बड़ा त्रास दिया गया यहां तक कि जीवित क्रूस पर लटकाकर मार डाला गया, जीवनोपरान्त ईश्वर के समान पूजे और माने गए। आज उनका नाम संसार के महानतम व्यक्तियों में हैं।
महानता को सुख नहीं है, जैसा कि लोग समझते हैं। यह मनुष्य की जीवनकालीन सेवाओं, लोकमंगल की कामनाओं, प्रयत्नों, कष्टों, बलिदानों और ध्येय धीरता का प्रमाण-पत्र है जो प्रायः उसके दिवंगत हो जाने के बाद संसार द्वारा घोषित किया जाता है। जीवनकाल में ही सफलता का हठ लेकर चलने वालों को यही उपयुक्त है कि वे या तो अपना कदम पीछे हटालें अथवा अपनी मनोवृत्ति में सुधार कर लें।
महान उद्देश्यों में सफलता जीवन काल में नहीं मिलती, ऐसा नैसर्गिक नियम नहीं है। वह जीवन काल में भी मिल सकती है। भगवान बुद्ध, महावीर विवेकानन्द और महात्मा गांधी प्रभृति सत्पुरुष इसके उदाहरण हैं। किन्तु महान पथ पर चरण रखने वालों को सफलता-असफलता और उसके आगमन की चिन्ता से मुक्त रहकर ही अपने कर्तव्य में लगा रहना चाहिए। उसे जब आना है आ जायेगी। उसके विषय में सोवसा और चिन्ता करना क्या?
श्रेय-पथ पर आने वाली कठिनाइयों से घबराकर निराशा, हताश, निरुद्योगी हो जाने वाले अपने लक्ष्य को नहीं पा सकते, संसार में ऐसे न जाने कितने कम-हिम्मत व्यक्ति हुए होंगे और आज भी होंगे जो किसी लक्ष्य को पाने का इरादा लेकर चले होंगे किन्तु चार-छः कदम चलने पर कठिनाइयों का सामना होते ही पीछे हटकर बैठ रहे होंगे। ऐसे लोगों के उदाहरण तो नहीं बताये जा सकते क्योंकि साहसहीन व्यक्तियों का अंकन न तो समय के स्मरण-पत्र पर होता है और न वे स्वयं अपना प्रकाश करते हैं। महान उद्देश्य को लेकर न चलना उतनी लज्जा की बात नहीं होती जितनी की चलने के बाद कठिनाइयों के भय से रुक जाना अथवा पीछे हट जाना। समय के स्मृति पट पर वे ही पुरुषार्थी व्यक्ति अंकित होते और लोक प्रेरणा के लिए उदाहरण बनते हैं, जो अपने श्रेय-पथ की बाधाओं, विघ्न तथा कठिनाइयों से तिल-तिल पर जूझते हुए बढ़ते रहते हैं। अपनी इस शक्ति तथा साहस को सुरक्षित रखने के लिए वे इनकी शत्रु निराशा एवं निरुत्साह को स्वप्न में भी पास फड़कने नहीं देते। ऐसे ध्येय धीर मनस्वी वीर पुरुष पहाड़ जैसी असफलता की उपेक्षा कर कण जैसी सफलता पर नजर रखकर उत्साह एवं सक्रियता की जननी प्रसन्नता को विनष्ट नहीं होने देते। उनकी गणना के विषय बढ़े हुए कदम होते हैं रुके अथवा परिस्थितियों द्वारा पकड़ कर पीछे हटाये हुए नहीं। लड़ाई के मैदान में कभी-कभी रुकना और पीछे भी हटना होता है। भय अथवा कायरता के वशीभूत होकर भागने के लिए नहीं बल्कि संभलने, समझने और फिर तेजी से आगे बढ़ने के लिए। अब्राहम लिंकन को एक सौ आठ बार असफलता का मुख देखना पड़ा। हुमायूं इक्कीस बार लड़ाई में हारा। प्रताप को जीवन भर लड़ना पड़ा और सुभाष की असफलता संसार की बड़ी सफलताओं के साथ लिखी गई। किन्तु क्या इन ऐतिहासिक पुरुष ने कभी निराश अथवा हतोत्साह होकर हार मानी। यदि इसमें यह दुर्बलता रही होती तो आज उनका नाम इतिहास में न होता। सफलता असफलता की सुखद अथवा दुःखद भावना से परे कर्मठ कर्तव्यवादी ही महानता के शिखर पर चढ़ कर अपने लक्ष्य की उपलब्धि किया करते हैं।
सफलता के लिए साधनों की नहीं साहस एवं संलग्नता की आवश्यकता होती है। अमेरिका के महान प्रेसीडेन्ट विल्सन को आज कौन नहीं जानता। अमेरिका में गुलामी-प्रथा का विरोध करने वाले इस महापुरुष का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उन्होंने अपना जीवन विवरण देते हुए लिखा है—
‘‘मैं एक अत्यन्त गरीब घर में पैदा हुआ था। घर में इतनी गरीबी थी कि दो-दो तीन-तीन दिन भोजन के दर्शन नहीं होते थे। जब कभी अबोधावस्था में भूख से व्याकुल होकर किसी से रोटी मांगता था तो वह भी नहीं मिलती थी। दस वर्ष की आयु में रोटी की तलाश में घर छोड़कर भागना पड़ा। अनेक मास तक दर-दर की ठोकरें खाने के बाद एक साधारण-सी नौकरी मिली जिसमें वेतन तो बहुत कम था किन्तु वर्ष में एक माह की छुट्टी मिलती थी। ग्यारह वर्ष तक उस नौकरी को करता रहा। वर्ष में एक माह की छुट्टी का अवकाश मैं पढ़ने में लगाया करता था। इस प्रकार ग्यारह वर्ष की नौकरी में मुझे केवल ग्यारह माह पढ़ने के लिए मिले जिसका मैंने परिश्रमपूर्वक इतना उपयोग किया कि अच्छी खासी योग्यता प्राप्त करली। अपने कर्तव्य कार्य को मैंने किस तत्परता से किया इसका प्रमाण यह है कि मालिक ने काम खत्म होने पर मुझे दो सौ रुपये मूल्य के जानवर इनाम में दिये जिन्हें बेचकर मैंने वह धनराशि धरोहर के समान आगे के लिए सुरक्षित रखली। मेरी इच्छा जीवन में तरक्की करने की थी इसलिए मैं जी तोड़ मेहनत करता और मजदूरी का एक-एक पैसा बचा लेने की कोशिश करता।’’
‘‘इक्कीस वर्ष की आयु तक मैंने बीस रुपये मासिक पर खेत जोतने, लकड़ी काटने, चीरने और ढोने का काम किया जिसमें मुझे सूर्योदय से एक पहर रात गये तक काम करना पड़ता था किन्तु मैंने निराशा अथवा उत्साहहीनता को पास न आने दिया। इस बीच अवकाश के समय में मैं बराबर अध्ययन करता और आगे उन्नति की युक्ति पर बराबर सोचता रहा जिससे मैं इस जी तोड़ मेहनत की नौकरी के समय में भी एक हजार पुस्तकें पढ़ सका। अपने बढ़ाये हुए ज्ञान और बचायी हुई पूंजी को लेकर आगे बढ़ा और कोई स्वतन्त्र काम करने के विचार से सो मील की दूरी पर नाटिक नामक कस्बे में मोची का काम सीखने गया। वहीं मैंने काम सीख कर अपना काम जमाया। मेरी उपार्जित दक्षता एवं शिक्षा ने मेरा साथ दिया और मैं शीघ्र अपने ईमानदार, इरादों, विचारों तथा कर्मों में इतना लोकप्रिय हो गया कि वहीं विधानसभा के निर्वाचन में बहुमत पा सकने में सफलता प्राप्त की जो कि बढ़ती-बढ़ती अमेरिका के सम्मानित एवं उत्तरदायित्वपूर्ण पद तक जा पहुंची।’’
अन्त में उन्होंने अपने जीवन का उदाहरण देते हुए कहा कि जो लोग उन्नति के लिए साधनों की कमी की शिकायत करते हैं वे वास्तव में उन्नति चाहते नहीं और अपनी साहसहीनता के साथ अकर्मण्यता का परिचय देते हैं।
सच्चाई को जानें और आगे बढ़ें
कठिनाइयों का मानव-जीवन में बड़ा महत्व है। यह बात सुनने में बड़ी अजीब-सी लगती है, लेकिन है सत्य। कोई सोच सकता है कि जिन कठिनाइयों से कष्ट होता है प्रगति में बाधा पड़ती है, वे किसी के जीवन के लिए महत्वपूर्ण कैसे हो सकती हैं? जीवन में महत्व तो सुविधा का होता है जिससे आराम मिलता है और प्रगति का लक्ष्य आसान होता है। यह विचार किसी हद तक सही होने पर भी अपूर्ण है। यदि कठिनाइयों के महत्व पर गहराई से विचार किया जाये, तो पता चलेगा कि कठिनाइयां मानव-जीवन की सार्थकता के लिये जरूरी हैं।
सोने के लिये आग का जो महत्व है, वही महत्व, मानव-जीवन के लिये कठिनाइयों का है। सोना जब आग में अच्छी तरह तप लेता है, तभी वह पूरी तरह निखरता है और हर प्रकार से इस संसार में अपना उचित मूल्य पाता है। इसी प्रकार जब मनुष्य कठिनाइयों के बीच से गुजरता है तो उसकी बहुत-सी कमियां और विकृतियां दूर हो जाती हैं। वह शुद्ध सोने जैसा खरा और मूल्यवान हो जाता है। जब तक मनुष्य पूरी तरह सुख-सुविधा में रहता है, तब एक प्रकार से उसकी आंख बन्द रहती है। अपनी मौज में वह जो चाहता है, करता रहता है। इस प्रकार के अल्हड़ जीवनयापन में मनुष्य में अनजाने में ही अनेक दोष और विकार आ जाते हैं। किन्तु उस सुख सुविधा की स्थिति में उसे उसका पता नहीं चलता। अपने विकारों ओर दोषों का पता उसे तभी चलता है जब किसी कठिनाई के आने पर उसकी आंखें खुलती हैं।
यह मानव-स्वभाव की विचित्रता ही है कि वह सुख-सुविधा के समय तो असावधानी बरतता है किन्तु मुसीबत आने पर अधिक से अधिक सावधान शुभ तथा शुद्ध रहने का प्रयत्न करता है। बड़े-बड़े आस्तिक लोग भी सम्पत्ति की स्थिति में ईश्वर को भूले रहते हैं। उन्हें सुख के नशे में उसकी याद तक नहीं आती। पर जब कोई विपत्ति सिर पर आ जाती है तो वह बड़ी तत्परता से परमात्मा का स्मरण ही नहीं, उस की उपासना तक करने लगते हैं। इस विरोधी प्रतिक्रिया को देखते हुए यही मानना होगा कि कठिनाइयां वास्तव में बड़ी महत्वपूर्ण तथा उपयोगी हैं, जो मनुष्य को शुद्ध-बुद्ध और आस्तिक बनने में सहायक होती हैं। पावनता मानवता की विशेष शोभा है जिसकी प्राप्ति कठिनाइयों की प्रेरणा से ही होती है। यह बात मानव-जीवन में कठिनाइयों के महत्व का ही प्रतिपादन करती हैं।
किसी शस्त्र के लिये ‘शाण’ का जो महत्व है, वही महत्व मानव जीवन में कठिनाइयों का है। रक्खे अथवा पड़े रहने से हथियारों में जंग लग जाती है। उनकी धार उतर जाती है और ये कुन्द होकर बेकार हो जाते हैं। किन्तु जब वे शाण पर चढ़ाकर तराश दिये जाते हैं, तो पुनः तीव्र प्रखर तथा शानदार होकर चमकने लगते हैं। उनका विकार दूर हो जाता है और वे शुद्ध नए होकर उपयोगी बन जाते है। तब उनसे उनका काम बखूबी लिया जा सकता है। इसी प्रकार कठिनाइयों के चक्र पर चढ़कर उनसे रगड़कर मनुष्य की सारी शक्तियां और सारे गुण प्रखर हो उठते हैं। उनमें नई धार और नई योग्यता आ जाती है। आराम का जीवन बिताये रहने पर शक्तियों में कुण्ठा आ जाती है अप्रयुक्त होने से वे बेकार लगती हैं। पर जैसे ही कोई कठिनाई अथवा मुसीबत सामने आती हैं, मनुष्य उससे बचने और छूटने के लिये सक्रिय हो उठता है। साथ ही उसकी शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक शक्तियां भी संघर्ष में पड़कर अपना योगदान करने लगती हैं। इस संघर्ष से उनकी सारी कुण्ठा और निरुपयोगिता समाप्त हो जाती है। मनुष्य हर ओर से तरोताजा हो जाता है। कठिनाइयों के अवसर पर ही उसे अपनी शक्ति और गुणों का ठीक-ठीक पता चलता है। मानव-जीवन में शक्ति तथा गुणों की सक्रियता की जो महती आवश्यकता है उसकी पूर्ति कठिनाइयों द्वारा ही होती है।
मानव-मस्तिष्क की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि इससे ज्यों-ज्यों काम लिया जाता है वह त्यों-त्यों अधिक प्रौढ़ प्रबुद्ध तथा शक्तिशाली होता जाता है। इसके विपरीत ज्यों-ज्यों इसे आराम दिया जाता है, क्यों-त्यों सुस्त और चेतनाहीन होता जाता है। सुख सुविधा के समय तो मनुष्य निष्क्रिय होकर आलस्य में पड़ा रहता है। उसे प्रायः न किसी बात पर सोचने की जरूरत होती है और न मगज मारने की। ऐसी दशा में मस्तिष्क का सुस्त और कुण्ठित होना स्वाभाविक ही है। किन्तु कठिनाई तथा विपत्ति के अवसर पर स्थिति बिल्कुल भिन्न होती है। उस दशा में मुसीबत से बचने और कठिनाई को हल करने के लिए उसे बहुत कुछ सोचना, विचारना, योजना और कार्यक्रम बनाना पड़ता है। मस्तिष्क को हर समय सक्रिय तथा कार्यरत रखना पड़ता है। इस बौद्धिक परिश्रम से उसका मस्तिष्क विचारक, निर्णायक तथा विवेकवान बन जाता है। मानव-प्रगति के लिए जिस विवेकशीलता, विचारशीलता और निर्णय शक्ति की आवश्यकता होती है, वह कठिनाइयों की कृपा से सहज ही पूरी होती रहती है।
किन्तु कठिनाइयों से यह सब लाभ होता उसी को है जो उनका सहर्ष स्वागत करता है; डटकर उनसे लोहा लेता है और उन्हें परास्त करने में गौरव और पुरुषार्थ की सार्थकता समझता है। ऐसे धीर और बुद्धिमान व्यक्ति के लिए कठिनाइयां उसी प्रकार हितैषिनी होती हैं जिस प्रकार अखाड़े का वह गुरु जो अपने शिष्यों को रगड़-रगड़कर मजबूत तथा पकड़ने लड़ने में दक्ष बनाता है। कायर और भीरु व्यक्ति के लिए मुसीबत वास्तव में मुसीबत ही होती है जो कठिनाई अथवा आपत्ति को देखकर भयभीत हो जाते हैं; जिनके मन मस्तिष्क में निराशा से अंधेरा छा जाता है, कर्तव्य मूढ़ता से जिनके हाथ पैर रुक जाते हैं साहस और शक्ति जवाब  दे जाती है, वे निश्चय ही उसके शिकार बनकर बर्बाद हो जाते हैं। कायर मनुष्य को कठिनाइयां नहीं बल्कि उनके प्रति उसका भय ही उसे खा जाता है। जो कठिनाइयों से हार मान लेते हैं, वे निश्चय ही जीवन का दांव हार जाते हैं और जो उसकी चुनौती स्वीकार कर खम ठोंककर उद्यत हो जाते हैं उन्हें निश्चय ही परास्त कर देते हैं।
कठिनाइयों का वास्तविक स्वरूप क्या है इसकी व्याख्या दार्शनिक ‘चुनिंग तोहांग’ ने ठीक ही की है। वे लिखते हैं ‘कठिनाई एक विशालकाय भयंकर आकृति के, किन्तु कागज के बने हुए शेर के समान होती हैं, जिसे दूर से देखने पर बड़ा डर लगता है, पर एक बार जो साहस करके उनके पास पहुंच जाता है, वह उसकी असलियत को जान लेता है कि वह केवल एक कागज का खिलौना मात्र ही है।’
कठिनाइयां वास्तव में कागज के शेर के समान ही होती हैं। वे दूर से देखने पर बड़ी ही डरावनी लगती हैं। उस भ्रमजन्य डर के कारण ही मनुष्य उन्हें देखकर भाग पड़ता है। पर जो एक बार साहस कर उनको हटाने के लिये तैयार हो जाता है वह इस सत्य को जान जाता है कि कठिनाइयां जीवन की सहज प्रक्रिया का अंग होने के सिवाय और कुछ नहीं होतीं। संसार में संपत्ति-विपत्ति, हानि-लाभ, सुख-दुख के जोड़े दिन रात की तरह एक दूसरे से बंधे घूमते रहते हैं। इस द्वन्द्व चक्र से संसार में कोई नहीं बच सकता। हम साधारण लोगों की बात ही क्या बड़े-बड़े महापुरुष भी कठिनाइयों और विपत्तियों से न बच सके! सर्व साधन सम्पन्न राम, कृष्ण, हरिश्चन्द्र, नल, पाण्डव, प्रताप, शिवाजी, गुरु गोविन्दसिंह जैसे लोग तक विपत्ति के चक्र से न बच सके। कठिनाइयां मानव जीवन की सामान्य प्रक्रिया का ही एक अंग हैं। जो संसार में जन्मा है उसे कठिनाइयों का सामना करना ही पड़ेगा। ऐसी अनिवार्य स्थिति से घबराना अथवा भयभीत होना बुद्धिमानी नहीं है। बुद्धिमानी है विपत्तियों तथा कठिनाइयों से लड़ने और उन पर विजय पाने में।
जो चेतन है, विवेकवान और जीवन से पूर्ण है, वह मनुष्य उन्नति करने के लिए अवश्य ही जिज्ञासा करता है। प्रायः सभी मनुष्य अपने को चेतन तथा जीवन्त मानते हैं और सभी जीवन में कुछ न कुछ उन्नति करने के लिए उत्सुक रहते हैं। लेकिन संसार में ऐसे मनुष्य की संख्या अधिक नहीं होती जो किसी उल्लेखनीय शिखर पर पहुंचते हैं। ऐसा केवल इसलिए होता है कि सब मनुष्य समान रूप से न तो पुरुषार्थ करते हैं और न कठिनाइयों से टक्कर लेने का साहस रखते हैं। उन्नति का पथ सरल अथवा सुगम नहीं होता। उसमें पग-पग पर विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ता है। श्रेय की प्राप्ति परिश्रम तथा संघर्ष द्वारा होती है। संसार का ऐसा कोई भी महत्वपूर्ण कार्य नहीं जो कठिनाई उठाये बिना ही पूर्ण हो जाए। जिसमें कठिनाई सहने और विपत्ति से लड़ने का साहस होता है, वही सफलता के उन्नत शिखर पर पहुंच जाता है। जिन्होंने अपने जीवन में आपत्तियों का सामना किया है कठिनाइयों के बीच से अपना अभियान आगे बढ़ाया है, वे ही महान कार्य कर सके और महापुरुष बन सके!
महा पुरुषत्व का प्रमाण इस बात में नहीं कि कोई किस ऊंचे स्थान पर पहुंच सका है। महापुरुषत्व का प्रमाण इस बात में है कि उस स्थान पर पहुंचने में किसने कितनी कठिनाई उठाई। कितनी आपत्ति और प्रतिकूलताओं से संग्राम किया और उनको परास्त किया। जो पद अथवा प्रतिष्ठा जितनी आसानी से मिल जाती है, वह उतनी ही सस्ती और कम महत्व की होती हैं। आज अमेरिका का प्रेसीडेन्ट कोई न कोई हर पांच साल बाद होता है। किंतु उस सर्वोच्च पद पर हर व्यक्ति उतना महान नहीं समझा जा सकता जितने कि जार्ज वाशिंगटन और अब्राहम लिंकन माने जायेंगे। आज सामान्यतः राष्ट्र के उस सर्वोच्च पद पर पहुंचने वाला व्यक्ति महत्वपूर्ण तो हो सकता है लेकिन महापुरुष नहीं। उच्च श्रेणी के महापुरुष जार्ज वाशिंगटन अथवा अब्राहम लिंकन ही माने जा सकते हैं। इस अन्तर का कारण केवल यही है कि जार्ज वाशिंगटन ने अपने पूरे जीवन को लगाकर और अपार संघर्ष करने के बाद अमेरिका का निर्माण तथा संचालन किया था। अब्राहम लिंकन और उस पद में जमीन आसमान का अन्तर था। तथापि साधनहीन एक लकड़हारे के बेटे लिंकन ने अपने पुरुषार्थ, अध्यवसाय तथा लगन के साथ ही असंख्यों बाधाओं, विपत्तियों, असफलताओं, विरोधों, संकटों और कठिनाइयों के बावजूद भी हिम्मत न हारी, न भय माना और न निराशा को पास आने दिया। वे निरन्तर श्रेय पथ पर विरोध-बाधाओं से लड़ते हुए आगे बढ़ते गये और राष्ट्र के उस सर्वोच्च पद पर पहुंचे जो उनकी स्थिति को देखते हुए असम्भव कहा जा सकता था। महापुरुषत्व का मानदण्ड पद अथवा स्थिति नहीं है। उनका मानदण्ड वह कठिनाई तथा विपत्ति हैं जो वहां तक पहुंचने में आयीं होती हैं। अपने श्रेय पथ पर जो जितना हो कष्ट-सहिष्णु और साहसी रहता है, जितनी अधिक कठिनाईयां सहन कर सफलता पाता है वह उसी अनुपात से महापुरुष माना जाता है।
श्रेय पथ पर कठिनाइयों का आना बहुत जरूरी है। यदि उन्नति प्रगति का पथ सरल हो, श्रेय और लक्ष्य यों ही आसानी से मिल जाया करें तो उसका कोई महत्व ही न रह जाये। यह तो पकी पकाई रोटी खा लेने के समान ही सस्ता और सामान्य काम हो जाये। ऐसी सरल सफलता पाने पर उसमें न तो आनन्द का लेश रह जायेगा और वह आत्म-गौरव जो उस स्थिति में अपेक्षित हो जाता है। लक्ष्य का महत्व कठिनाइयों से और पुरुष का गौरव वन को पार कर लक्ष्य पाने में ही होता है।
कठिनाइयों का मानव जीवन में बड़ा महत्व तथा उपयोग है। किसी को उनसे घबराना नहीं चाहिए। उन्हें कागज का शेर समझकर, टक्कर लेनी और विजय पाने के लिए प्रस्तुत रहना चाहिए। कठिनाइयां ही मानव को महामानव और पुरुष को महापुरुष बनाती हैं।

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