कठिनाइयों की कसौटी पर खरे उतरें

कसौटी से कतराइये मत

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किसी उद्देश्य के लिए जीवन भर कठिनाइयों से जूझते रहना ही महापुरुष होना है। कठिनाइयों से गुजरे बिना कोई भी अपने लक्ष्य को नहीं पा सकता। विद्वानों का कहना है कि जिस उद्देश्य का मार्ग कठिनाइयों के बीच नहीं जाता उसकी उच्चता में सन्देह करना चाहिए।
ऐसा नहीं की संसार के सारे महापुरुष असुविधापूर्ण परिस्थिति में ही जन्मे और पले हों। ऐसे अनेक महापुरुष हुए हैं जिनका जन्म बहुत ही सम्पन्न स्थिति में हुआ और जीवन भर सम्पन्नतापूर्ण परिस्थिति में ही रहे। यदि वे चाहते तो कठिनाइयों से बचकर भी बहुत से कार्य कर सकते थे। किंतु उन्होंने वैसा नहीं किया। जो असुविधापूर्ण परिस्थितियों में रहे उन्हें तो कठिनाइयों का सामना करना ही पड़ा—साथ ही जिन्हें किसी प्रकार की असुविधा नहीं थी उन्होंने भी कठिन कामों को हाथ में लेकर कठिनाइयों को इच्छापूर्वक आमन्त्रित किया।
वास्तव में बात यह है कि कठिनाइयों के बीच से गुजरे बिना मनुष्य का व्यक्तित्व अपने पूर्ण चमत्कार में नहीं आता और न सुविधापूर्वक पाया हुआ ही किसी को पूर्ण सन्तोष देता है। कठिनाइयां एक ऐसी खरीद की तरह हैं जो मनुष्य के व्यक्तित्व को तराशकर चमका दिया करती है। कठिनाइयों से लड़ने और उन पर विजय प्राप्त करने से मनुष्य में जिस आत्मबल का विकास होता है वह एक अमूल्य सम्पत्ति होती है जिसको पाकर मनुष्य को अपार सन्तोष होता है। कठिनाइयों से संघर्ष पाकर जीवन में एक ऐसी तेजी उत्पन्न हो जाती है जो पथ के समस्त झाड़-झंखाड़ों को काटकर दूर कर देती है। एक चट्टान से टकराकर बढ़ी हुई नदी की धारा मार्ग के दूसरे अवरोध को सहज ही पार कर जाती है।
अपने व्यक्तित्व को पूर्णता की चरमावधि पर पहुंचाने के लिए ही भारतीय ऋषि-मुनियों ने तपस्या का कष्टसाध्य जीवन अपनाया। घर की सुख सुविधाओं को छोड़कर अरण्य आश्रमों का कठिन जीवन स्वीकार किया। हर आर्य गृहस्थ का धार्मिक कर्तव्य रहा है कि वह जीवन का अन्तिम चरण सुख-सुविधाओं को त्यागकर कठिन परिस्थितियों में व्यतीत करने के लिए वानप्रस्थ तथा संन्यास ग्रहण किया करता था। भारतीय आश्रम धर्म के निर्माण में एक उद्देश्य यह भी रहा है कि घर-गृहस्थी में सुख सुविधाओं के बीच रहते-रहते मनुष्य के व्यक्तित्व में जो निस्तेजता और ढीलापन आ जाता है वह संन्यस्त जीवन की कठोरता से दूर हो जाय और व्यक्ति अपने परलोक साधना के योग्य हो सके। कठिनाइयां मनुष्य को धमकाने और उसे तेजवान् बनाने के लिए ही आती हैं। कठिनाइयों का जीवन में वही महत्व है जो उद्योग में श्रम का और भोजन में रस का।
जीवन को अधिकाधिक कठोर और कर्मठ बनाने में कठिनाइयों की जिस प्रकार आवश्यकता है, उसी प्रकार चरित्र निर्माण के लिए भी कठिनाइयों की उपयोगिता है, मनुष्य का सहज स्वभाव है कि उसे जितनी ही अधिक छूट मिलती है, सुख-सुविधायें प्राप्त होती हैं वह उतना ही निकम्मा और आलसी बनता जाता है और एक प्रमादपूर्ण जीवन संसार की सारी बुराइयों और व्यसनों का जन्मदाता है। खाली और निठल्ला बैठा हुआ व्यक्ति सिवाय खुराफात करने के और क्या कर सकता है। यही कारण है कि उत्तराधिकार से सफलता पाये हुए व्यक्ति अधिकतर व्यसनी और विलासी हो जाते हैं।
किन्तु जो कठिनाइयों से जूझ रहा है, परिस्थितियों से टक्कर ले रहा है—असुविधाओं को चुनौती दे रहा है, उसे संसार की फिजूल बातों के लिए अवकाश कहां। उसके लिए एक-एक क्षण का मूल्य है जीवन की एक-एक बूंद का महत्व है। जिस प्रकार मोर्चे पर डटे हुए सैनिकों की साहस और उत्साह की वृत्तियों के अतिरिक्त अन्य सारी वृत्तियां सो जाती हैं, उसी प्रकार कठिनाइयों के मोर्चे पर अड़े हुए व्यक्ति की समस्त प्रभावपूर्ण वृत्तियां सो जाती हैं।
कष्ट और कठिनाइयों को जो व्यक्ति विवेक और पुरुषार्थ की कसौटी समझकर परीक्षा देने में नहीं हिचकते वे जीवन की वास्तविक सुख-शान्ति को प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु जो कायर हैं, क्लीव हैं, आत्म-बल से हीन हैं, वे इस परीक्षा बिन्दु को देखकर डर जाते हैं जिनके फलस्वरूप ‘हाय-हाय’ करते हुए जीवन के दिन पूरे करते हैं। न उन्हें कभी शान्ति मिलती है न सुख। सुखों का वास्तविक सूर्य दुःखों के घने बादलों के पीछे ही रहता है। जो इन बादलों को पार कर सकता है वही उसके दर्शन पाता है और दुःखों के गम्भीर बादलों की गड़गड़ाहट से भयभीत होकर दूर खड़ा रहता है वह जीवन भर सुख-सूर्य के दर्शन नहीं कर सकता। वास्तविक सुख को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है संसार के दुःखों का झूठा परदा फाश किया जावे। शीतलता का सुख लेने के लिए गरमी को सहन करना ही होगा।
केवल मात्र सुख-सुविधाओं से भरा जीवन अधूरा है। जब तक मनुष्य दुःख का अनुभव नहीं करता, कष्टों को नहीं सहता, वह अपूर्ण ही रहता है। मनुष्य की पूर्णता के लिए दुःख तकलीफों का होना आवश्यक है। दुःखों की आग में तपे बिना मनुष्य के मानसिक मल दूर नहीं होते और जब तक मल दूर नहीं होते मनुष्य अपने वास्तविक रूप में नहीं आ पाता।
इसके अतिरिक्त कष्ट क्लेशों का सबसे महत्वपूर्ण उपयोग यह है कि उनके आगमन पर गरीब को बड़ी तीव्रता से ईश्वर की याद आती है। दुःख की तीव्रता मनुष्य में ईश्वरीय अनुभूति उत्पन्न कर उसके समीप पहुंचा देती है। कष्ट और क्लेशों के रूप में मनुष्य अपने संचित कर्मफलों को भोगता हुआ शनैः शनैः परलोक का पथ-प्रशस्त किया करता है। जहां दुख की अनुभूति नहीं वहां ईश्वर की अनुभूति असम्भव है। यही कारण है कि भक्तों ने ईश्वर के समीप रहने के साधन रूप दुख को सहर्ष स्वीकार किया है।
कष्ट और कठिनाइयों को दुःखमूलक मानकर जो इससे भागता है उसे यह दुख रूप में ही लग जाती है और जो बुद्धिमान इन्हें सुखमूलक मानकर इनका स्वागत करता है, उनके लिए यह देवदूतों के समान वरदायिनी होती है।

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