मनुष्य को जब एक प्रगाढ़ आत्मीय और आजीवन सहचरत्व निभाने की आवश्यकता अनुभव होती है, तब विवाह होता है। विवाह एक ऐसी मैत्री का पुण्य आरंभ है जो समस्त कमियों, त्रुटियों के बावजूद भी जीवन भर अक्षय बनी रहती है। अन्य मित्रताएं बनती और टूटती रहती हैं। मनुष्य अपने सामाजिक जीवन में कई मित्र बनाता है और उन्हें भूलता रहता है, उन मित्रताओं के मूल में कोई न कोई स्वार्थ अवश्य रहता है। इसीलिए वे बनती हैं और टूटती भी हैं। जीवन साथी को अंगीकार करने का धर्मानुष्ठान विवाह ही एकमात्र ऐसी मित्रता है जो निस्वार्थ भाव से आरंभ होता है, आत्म त्याग से पोषित, प्रेम से सिंचित, पल्लवित और पुष्पित होता है। ये भाव आजीवन बने रहें तो दांपत्य जीवन में सुख-शांति और आनंद के मधुर फल लगते हैं।
कई लोग समझते हैं कि दांपत्य जीवन के लिए प्रचुर मात्रा में धन आवश्यक है। पर्याप्त मात्रा में सुख-सुविधाओं के साधन पास में हों तो व्यक्ति चिरंतन उनका लाभ उठाता रह सकता है। यह मान्यता अब तक के हजारों, लाखों और करोड़ों द्वारा कही जाने पर भी दंपत्तियों के अनुभव में गलत ही सिद्ध हुई है। सच तो यह है कि किसी भी दंपत्ति ने आज तक यह अनुभव नहीं किया कि धन-संपदा के कारण वे दुखी और क्लान्त विवाहित जीवन जी रहे हैं। धन के अभाव से उत्पन्न होने वाली पारिवारिक विवशताएं अवश्य कष्ट पहुंचाती हैं, पर ये कष्ट भी मधुर दांपत्य संबंधों के कारण कम पीड़ा पहुंचाते हैं। पति-पत्नी का प्रेम उन कष्टों के घाव पर मरहम का काम करता है।
अक्सर देखा गया है कि धनवान् व्यक्तियों का दांपत्य जीवन निरानंद और नीरस हो जाता है। पति धन कमाने में इतना व्यस्त रहता है कि पत्नी से दो प्रेम भरे बोल भी नहीं बोल सकता। इसके अभाव में पत्नी धन और ऐश्वर्य में उस सुख की तलाश करती है, परंतु वहां निराश होना पड़ता है फलतः सारा आक्रोश पति या परिवार के अन्य सदस्यों पर उतरता है तो दांपत्य संबंध कटुता पूर्ण तथा मनमुटाव से भर जाता है।
कुछ लोगों की यह भी मान्यता है कि सुखी दांपत्य जीवन के लिए पति-पत्नी का शिक्षित होना अनिवार्य है। शिक्षित पति-पत्नी अपने दांपत्य संबंधों को अधिक सुलझा और निखरा तो बना सकते हैं। पर दांपत्य जीवन के लिए जो दूसरे तत्व अनिवार्य हैं, वे न हों तो शिक्षा उल्टे दांपत्य संबंध में विकार उत्पन्न कर देती है। शिक्षा दांपत्य जीवन को सरस भी बना सकती है और नीरस भी। एक बारगी शिक्षा न भी हो और दांपत्य संबंध उन सब अपेक्षाओं को पूरा करते हुए चल रहे हों जो कि उसके लिए आवश्यक हों तो पति-पत्नी अशिक्षित रहते हुए भी सुखी और प्रेमपूर्ण रह सकते हैं। करोड़ों लोग अशिक्षित रहते हुए भी दांपत्य जीवन को सफलता पूर्वक जी रहे हैं। जबकि लाखों शिक्षित व्यक्ति उन गुणों के अभाव में तनावपूर्ण जीवन जी रहे हैं।
दांपत्य जीवन को सुखी बनाने के लिए धन भी आवश्यक है और शिक्षा भी, पर मूल आवश्यकता कुछ और ही है। धर और शिक्षा वही काम करते हैं जो सोने के आभूषण बनाने के लिए आंच और हथौड़ी हो तो सोने का आभूषण बन जाता है पर सोना ही नहीं हो तो आभूषण किस धातु का बनेगा। धन और शिक्षा से दांपत्य जीवन को सुविधा संपन्न बनाया जा सकता है पर आनंदमय नहीं। आनंदमय दांपत्य जीवन के लिए उन गुणों की आवश्यकता है जो पति-पत्नी के दो शरीरों में बसने वाली दो आत्माओं को एक सूत्र में आबद्ध कर दें। वे गुण प्रेम, आत्मीयता, स्नेह त्याग और परिमार्जित भावनाएं तथा परिमार्जित दृष्टिकोण हैं।
प्रेम ही वह सूत्र है जो पति-पत्नी को बांधता है। न केवल बांधता है वरन् आत्मोत्सर्ग, त्याग और निस्वार्थ भावना को भी जन्म देता है। इसका आधार न तो सौंदर्य है और न कामुकता। इस दिव्य अमृत की वर्षा एक दूसरे के दृष्टिकोण को सामने और एक दूसरे की सुख-सुविधाओं के लिए अपनी आवश्यकताओं की उपेक्षा करने पर होती है। स्त्री-पुरुषों के स्वभाव मिलते हों और दोनों एक दूसरे के लिए आत्मदान की भावना रखते हों, तो दीन-हीन स्थिति में कम साधन और कम शिक्षा में भी हंसी-खुशी का मधुर जीवन जिया जा सकता है।
अशिक्षित और गरीब दंपत्तियों में जो प्रेम, जो आनंद और जो संगीत होता है उसका कारण यही दिव्य प्रेम है। सौभाग्य से भारतीय परिवार आधुनिकता से कोसों दूर हैं। लड़कियों को ये भावनाएं विरासत के रूप में मिलती हैं और वे इन्हीं भावनाओं के बल पर पति की सर्वस्व स्वामिनी बन जाती हैं, उन्हें अपनी इच्छानुसार मोड़ सकती हैं। आधुनिक परिवारों में दांपत्य जीवन का आनंद स्रोत सूख जाने का कारण यह नहीं है कि उनमें एक दूसरे के प्रति कोई भावना नहीं होती। भावनाएं होती तो हैं, पर उन भावनाओं से भी अधिक महत्व अपने स्वार्थ को दिया जाता है। आधुनिक शिक्षित परिवारों में तनावपूर्ण दांपत्य संबंधों का कारण यह है कि वहां पति-पत्नी एक दूसरे की सुविधाओं से अधिक अपने स्वार्थ को महत्व देते हैं। कहना नहीं होगा कि ऐसा दांपत्य जीवन आत्मिक कम व्यावसायिक संबंधों जैसा अधिक होता है, जो अपनी स्वार्थपूर्ति में तनिक-सी भी कमी आ जाने पर चटखने लगता है।
असुंदर और कुरूप जोड़ियां भी प्रेम का अमृत लेकर हंसी-खुशी तथा मौज-मस्ती की जिन्दगी जीती देखी जा सकती हैं। जबकि रूपवान् और सुंदर दंपत्ति भी प्रेम के अभाव में क्लेशपूर्ण जीवन जीने के लिए विवश देखे जाते हैं। प्रायः तो सुंदर दंपत्ति जो शारीरिक आकर्षण से आकृष्ट होकर विवाह बंधन में बंधते हैं असफल जीवन जीने लगते हैं। क्योंकि शरीर की सुंदरता कुछ ही समय तक रहती है और वे प्रेम भावनाएं बढ़ाने की अपेक्षा अपना सौंदर्य सुरक्षित करने की ओर ही अधिक प्रयत्नशील रहते हैं। ऐसे दंपत्तियों के जीवन में दो-चार बच्चे होने पर नरक का-सा वातावरण बन जाता है। क्योंकि तब तक सौंदर्य चुक गया होता है और प्रेम भावना का विकास न होने के कारण दोनों एक दूसरे से जल्दी ऊब जाते हैं। कहने का अर्थ यह नहीं कि सभी सुंदर जोड़ियां असफल दांपत्य जीवन जीती हैं। यदि वे भी प्रेम भावना के विकास की ओर ध्यान दें तो सुंदरता के ढल जाने पर भी हंसी खुशी का जीवन बना रह सकता है। क्योंकि बच्चे हो जाने पर तो दांपत्य जीवन में और भी परिपक्वता तथा निखार आता है।
आत्मदान प्रगाढ़ प्रेम की आत्मा है। उसमें एक दूसरे की आवश्यकताओं का इतना ध्यान रहने लगता है, कि अपनी आवश्यकताएं एकदम उपेक्षणीय लगने लगती हैं। साथी की सुविधा का ध्यान रखना ही अपना धर्म बन जाता है और उसमें साथ-साथ मरने की दृढ़ भावना बन जाती है। सन् 1952 में एक ऐसा ही दृश्य टाइटैनिक नामक अंग्रेजी जहाज पर देखने में आया था। समुद्री तूफान के कारण यह जहाज डूबने लगा। उसके कर्मचारी लाइफ बोटों द्वारा यात्रियों तथा आवश्यक सामान को बचाने लगे। उसी जहाज पर स्टाल नामक दंपत्ति भी यात्रा कर रहे थे। जहाज में इतना पानी भर गया कि दोनों में से एक को ही बचाया जा सकता था। स्टाल ने अपनी पत्नी इसाडोरा को बचाने की सोची और इसाडोरा स्टाल को लाइफबोट पर जाने के लिए जिद करती रही। अंत में स्टाल ने अपनी पत्नी को उठाकर लाइफबोट में बैठा दिया। जहाज डूबने को ही था इसाडोरा लाइफबोट से कूदकर अपने पति के पास आ गई। और बोल-‘‘मैं अकेली जीकर ही क्या करूंगी। क्यों न हम दोनों ही साथ-साथ ही मृत्यु का वरण करें।’’ दोनों ने एक साथ जल समाधि ली और मौत को अपने गले लगाया। इसाडोरा द्वारा कहे गए इन शब्दों में कितनी आत्मीयता, कितना प्रेम और कितनी गूढ़ भावना थी।
विश्वास दांपत्य प्रेम का प्राण है। पति-पत्नी को एक दूसरे पर इतना प्रगाढ़ विश्वास होना चाहिए कि उसमें दुराव-छिपाव का कहीं कोई नाम भी न रहे। नव-दंपत्तियों में, विशेषतः युवकों में अपनी पत्नी के प्रति संदेह की भावना रहती है। पत्नी भी पति का यकायक विश्वास नहीं कर पाती। इसका कारण अपरिचय ही है। जैसे-जैसे पति-पत्नी एक दूसरे के घनिष्ठ संपर्क में आते जाएं वैसे-वैसे संदेह की संभावना की संभावना को निर्मूल करते जाना चाहिए, उसे जड़ से ही उखाड़ फेंकना चाहिए। दुराव-छिपाव, दिखावटी और बनावटी व्यवहार की नीति जितनी जल्दी बदली जा सके उतनी जल्दी बदल डाली जाए और परस्पर विश्वास उत्पन्न किया जाए।
उदारता विश्वास का पोषक तत्व है। दांपत्य-जीवन में कई ऐसे अवसर भी आते हैं जब मन में कोई संदेह पलता है और पति या पत्नी किसी अनजाने संकोच के कारण एक दूसरे से कह या पूछ नहीं पाते। दांपत्य जीवन को सफल बनाने में यह स्थिति बाधक है। संदेह का अंकुर जब बढ़ने से रोका नहीं जाता तो वह घृणा और अविश्वास के वृक्ष रूप में बदलने लगता है और जरा-जरा सी बातों पर एक दूसरे पर आक्षेप तथा छींटाकशी की प्रवृत्ति बल पकड़ती है। यह घृणा अविश्वासी को इतना अधिक बढ़ा देती है कि विग्रह की स्थिति तक बन जाती है।
उचित तो यह है कि संदेह का वातावरण ही न बनने दिया जाए। पति या पत्नी से कोई बात छुपाने पर किसी पक्ष को यदि संदेह हो भी जाए तो सम्मानपूर्वक उसे एक दूसरे से पूछकर दूर कर लेना चाहिए। ये बातें परस्पर से ही संबंधित हैं। इनमें न तो किसी मध्यस्थ की आवश्यकता रहती है और न किसी माध्यम की। वरन् ये तत्व और भी गड़बड़ी पैदा करते हैं। सद्भावनापूर्वक एक दूसरे से पूछ लेना ही अपने संदेह को दूर करने का एकमेव मार्ग है।
दुराव-छिपाव के अतिरिक्त उपेक्षापूर्ण व्यवहार भी संदेह का वातावरण बना देते हैं। पति, पत्नी के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और पत्नी, पति के लिए। सैद्धांतिक रूप से तो इस तथ्य को हर कोई स्वीकार करता है, परंतु व्यवहार में यदा-कदा यह तथ्य भुलाया भी जाने लगता है। कई बार ऐसी स्थितियां भी बनती हैं जो उपेक्षा मन मुटाव भी पैदा कर देती है जैसे स्त्री बीमार है और पुरुष अपने काम-काज में इतना व्यस्त है कि उसे पत्नी के स्वास्थ्य की परवाह करने की फुरसत ही नहीं मिलती। फुरसत निकाली तो जा सकती है पर पति यदि स्त्री के स्वास्थ्य को हल्के रूप में लेता है तो वह स्थिति दांपत्य जीवन को विषाक्त बना देती है। स्मरण रखा जाना चाहिए कि पति-पत्नी एक दूसरे के अभावों की पूर्ति और परेशानियों में सहायक की भूमिका लेकर जीवन संग्राम में उतरते हैं। फिर एक दूसरे की उपेक्षा हो तो संदेह का जन्म अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता।
दांपत्य जीवन को सर्वोत्तम बनाने में भावनात्मक रूप महत्वपूर्ण होता है। भावनात्मक परिष्कार का अर्थ है पति-पत्नी एक दूसरे के प्रति कर्तव्यनिष्ठ और सद्भाव संपन्न हों। पुरुष में पुरुषत्व के गुण हों और स्त्री में नारीत्व के, तो कोई कारण नहीं कि दांपत्य जीवन में आनंद की धारा न बहे। दांपत्य जीवन के सभी क्रिया-कलाप, कार्यक्रम और योजनाएं इन्हीं गुणों के आधार पर बनती व चलती हैं। पुरुषत्व का अर्थ है—शक्ति, साहस, सक्रियता और नियमितता तथा नारीत्व में कोमलता, मृदुलता, स्नेह सौम्यता और सहानुभूति के गुण पूर्ण रूप से विद्यमान होना चाहिए।
पति-पत्नी के अनेक गुणों का पहला स्थान हो तो प्रेम, विश्वास, आत्मीयता आदि का परिमार्जन और परिवर्धन अपने आप होता रहता है तथा जीवन में घनिष्ठता भी आप ही आप बढ़ती रहती है तथा उनके जीवन में आनंद की कोई कमी नहीं रहती। एक बात का स्मरण और रखना चाहिए कि गलतियां सभी से होती हैं। उनके कारण छोटी-छोटी बातों के लिए एक दूसरे को झिड़कना, डांटना, अपशब्द कहना या कोसना मूर्खता का चिह्न है। इन बातों से दांपत्य जीवन की जड़े धीरे-धीरे कुरेदी जाती हैं।
सफल दंपत्ति ही सुयोग्य संतानें उत्पन्न कर सकते हैं, सद्गुणी नागरिकों का जन्म सुयोग्य संतानों के रूप में ही होता है। अतः दांपत्य जीवन की सफलता या असफलता पूरे समाज को प्रभावित करती है। इसलिए न केवल व्यक्तिगत या पारिवारिक दृष्टि से वरन् सामाजिक दृष्टि से भी गृहस्थ योग की साधना अनिवार्य है।
बहुत-सी पत्नियां समझने लगती हैं कि विवाह का अर्थ—शृंगार, विलास और आलस्य है। हमारी फरमाइश हर तरह पूरी ही होनी चाहिए, मुझे मनाने-रिझाने आदि में पति को अधिक से अधिक शक्ति और समय लगाना ही चाहिए। इस तरह जो लोग बहुत अधिक आशा करते हैं, वे बहुत कुछ पाकर भी दुःखी हो जाते हैं, इसलिए कम से कम आशा करो और उससे जो अधिक मिल जाए, उसे सौभाग्य समझो।
यह ठीक है कि दांपत्य-जीवन इतने में ही सार्थक नहीं हो जाता, विशेष सेवा, विनोद, आकर्षण, हर काम में सहयोग आदि बहुत-सी बातें दांपत्य की सार्थकता के लिए जरूरी हैं, सो उनके लिए यथाशक्य प्रयत्न करना चाहिए, बिना प्रयत्न के ही मिल जाएं तो सौभाग्य, पर उपर्युक्त पांच बातों के मिल जाने पर असंतुष्ट न होना चाहिए और असंतोष प्रकट करना तो और भी ठीक नहीं। रूप, विद्या, कला, स्वास्थ्य, धन बल आदि की कमी का विचार विवाह के पहले कर लिया जाए, पीछे इस विषय में असंतोष व्यक्त करने की जरूरत नहीं है, पीछे तो इन त्रुटियों के रहते हुए भी संतोष के साथ जीवन बिताना चाहिए।
साथी का स्वभाव और रुचि समझे और उनके अनुसार व्यवहार करें।
किसी का स्वभाव एकांत प्रिय होता है, किसी के स्वभाव में गप्पे मारने की आदत होती है, कोई संघर्षशील होते हैं। कोई बड़े तुनक मिज़ाज, किसी को गाने-बजाने में मजा आता है, कोई इससे चिढ़ते हैं और नीरवता पसंद करते हैं, किसी की आदत क्रीड़ा-विनोद में लगे रहने की होती है, कोई किसी न किसी काम से लगे रहना पसंद करते हैं, किसी को भांति-भांति के भोजन बनाने खाने में मजा आता है, कोई इस तरफ से लापरवाह होते हैं, कोई शृंगार या सजावट को अधिक पसंद करते हैं, कोई इसमें समय, शक्ति, साधन लगाना व्यर्थ समझते हैं। इस प्रकार अनेक लोगों की अनेक रुचियां होती हैं। इस प्रकार का रुचि स्वभाव भेद पति-पत्नी में भी हो सकता है ऐसी बातों को लेकर संघर्ष नहीं होना चाहिए। इस संघर्ष को टालने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि घर की आर्थिक स्थिति का ख्याल रखते हुए और अपने-अपने कर्तव्य का भार संभालते हुए यथाशक्ति दोनों को स्वतंत्रता दी जाए, अपनी आदत ऐसी बनाई जाए कि दूसरे की स्वतंत्रता में बाधा न पड़े। अपना कर्तव्य पूरा करने के बाद अगर किसी को गाने-बजाने में अच्छा मालूम होता है तो उसको उसकी स्वतंत्रता हो, शर्त यह है कि इतना शोर न मचाया जाए कि दूसरे को अपना काम करना या चैन से बैठना मुश्किल हो जाए।
यद्यपि दांपत्य में नियमों की पाबंदी से ही काम नहीं चल सकता, नियमों के उद्देश्य पर ध्यान देना पड़ता है और एक-दूसरे की सुविधा और स्वतंत्रता का ख्याल रखना पड़ता है, फिर भी इस काम के लिए साथी के स्वभाव और रुचि को समझना जरूरी है। स्वभाव की परख हो जाने पर संघर्ष को बचाने की सुविधा हो जाती है।
एक-दूसरे की सेवा या मनोरंजन खुशी से किया जाए तभी उससे वास्तविक संतोष होता है और करने वाले को भी वह बोझ मालूम नहीं होता। घर के बाहर भी इस नियम की जरूरत है, पर दांपत्य में तो यह आवश्यक है।
जबरदस्ती तीन साधनों की अपेक्षा तीन तरह की होती है—तन से, वचन से, अर्थ से। वचन से जबरदस्ती का अर्थ है—गाली देना, कठोर वचन बोलना या कठोर स्वर में बोलना आदि। तन से जबरदस्ती का अर्थ है—मारना-पीटना आदि। अर्थ से जबरदस्ती का अर्थ है—योग्य साधनों का उपयोग न होने देना आदि।
दांपत्य को सुख-शांतिमय बनाने के लिए यह आवश्यक है कि उसमें न तो जबरदस्ती से काम लिया जाए और न यथाशक्य जबरदस्ती को मौका दिया जाए। इशारे में या थोड़े में ही एक दूसरे के मनोभावों को समझा जाए और नैतिक-मर्यादा का पालन करते हुए एक-दूसरे के अनुकूल बना जाए। पति-पत्नी में थोड़े-बहुत झगड़े होते ही हैं और शांत भी हो जाते हैं, पर अगर उनका उल्लेख बाहर कर दिया जाता है, तो घर में झगड़ा शांत हो जाने पर बाहर निंदा होती ही रहती है घर की इज्जत को धक्का लगता है, बाहरी लोगों की दृष्टि में दोनों हीन या दयनीय हो जाते हैं। इस प्रकार दोनों का नुकसान होता है, साथ ही जब भी कभी ऐसे निन्दा-वाक्य कान में पड़ते हैं, तभी पुराना झगड़ा फिर याद आ जाता है। भीतरी झगड़े को लौटाना आसान है, पर बाहर फैली निन्दा को लौटाना आसान नहीं।
जब एक-दूसरे की शिकायत बाहर कही जाती है तब सिर्फ आकस्मिक झगड़ा नहीं रह जाता, किन्तु एक-दूसरे के विरुद्ध एक प्रकार से युद्ध की चुनौती हो जाती है। इसका अर्थ हो जाता है कि एक-दूसरे को पछाड़ने के लिए लोकमत आदि का बल संचित करना। इससे एक प्रकार का स्थाई द्वेष पैदा हो जाता है, जो कि दांपत्य जीवन को खोखला कर देता है।
बैठना-उठना, आना-जाना, मिलना-जुलना, किसी विशेष कार्य में या क्रीड़ा-विनोद में लगाना आदि की दोनों को पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए। हां इस स्वतंत्रता का उपयोग इस कार्य में ही होना चाहिए कि घर के आवश्यक कार्य या एक-दूसरे की आवश्यक सेवा में न बाधा पड़ जाए। घर के और परस्पर के आवश्यक कार्य हो जाने पर एक-दूसरे की स्वतंत्रता में बाधा न डालेंगे। घर के आवश्यक कार्य हो जाने पर जितने समय दोनों की रुचि हो दोनों साथ बैठें, अगर किसी एक की रुचि दूसरे काम में लगने की हो तो उसे उसमें लगने दो। ऐसे अवसर पर तुम अकेले ही दिल बहलाने की आदत डालो। रुचि के विरुद्ध एक-दूसरे को बांधने से प्रतिक्रिया होने लगती है, इससे अरुचि और घृणा बढ़ने लगती है। जब दूसरे में हमें अरुचि और घृणा का पता लगता है, तब हमें प्रेम में संदेह होने लगता है। प्रेम में संदेह होने पर दांपत्य की दुर्दशा किस सीमा तक जाएगी, कह नहीं सकते।
इसके लिए यह जरूरी है कि पत्नी और पति दोनों ही को फुर्सत के समय एकांत में पढ़ने-लिखने की या कला-कौशल की आदत हो, जिससे एक अगर अपनी रुचि के अनुसार कोई काम करना चाहे तो बाकी दूसरा भी अपनी रुचि के अनुसार कोई काम निकाल ले। इस प्रकार दोनों ही बिना किसी कष्ट के एक-दूसरे की स्वतंत्रता रक्षित रख सकें, इससे किसी को बुरा भी न लगे और प्रेम में ढीलापन न आए।
पति अगर पत्नी का स्त्री-धन ले या पत्नी स्त्री-धन बढ़ाने की दृष्टि से भूषण आदि बनवाने का हठ करे तो इससे दोनों का मन मैला हो जाएगा। एक-दूसरे की इज्जत न करेंगे, प्रेम शिथिल हो जाएगा, इसलिए पैसे के मामले में एक-दूसरे के अधिकारों में गड़बड़ी न करो और न अपने पैसे पर इतना मोह रक्खो कि उसके आगे प्रेम या अन्य दांपत्य-सुख गौण मालूम होने लगें।
प्रेम या विलास में भूलकर दोनों या कोई एक जब अपना कर्तव्य पूरा नहीं करते या किसी दूसरे पर बोझ लादते हैं, तब थोड़े ही दिनों में प्रेम या विलास नष्ट हो जाता है। यद्यपि दांपत्य में जीवन की अभिन्नता होती है, पति और पत्नी एक ही जीवन के दो अंग बन जाते हैं फिर भी जैसे एक अंग का कार्य यदि दूसरे अंग से लिया जाए तो एक अंग अति भार के कारण और दूसरा अक्रियता के कारण रुग्ण हो जाएगा और इससे सारे शरीर को कष्ट उठाना पड़ेगा। इसी प्रकार दांपत्य का शरीर भी कष्ट में जाता है, इसलिए प्रेम में भूलकर अपना कर्तव्य मत छोड़ो। ‘‘काम प्यारा है, चाम नहीं’’ इस कहावत में काफी सच्चाई है, इसलिए अर्थ और काम दोनों जीवार्थों का समन्वय जरूरी है।
अपने में सौन्दर्य कला, ख्याति आदि अधिक हो, तो भी इसका घमण्ड नहीं करना चाहिए। एक-दूसरे को नीचा दिखाने की भावना तो होनी ही नहीं चाहिए। अगर कभी अपनी तारीफ भी हो तो उसमें अपने व्यक्तित्व की तारीफ न हो, किन्तु अपने दांपत्य की तारीफ हो इस ढंग से करना चाहिए।
अहंकार बाहर वालों के साथ भी बुरा है, फिर पति-पत्नी आपस में ही अहंकार का प्रदर्शन करें यह दांपत्य दृष्टि से और भी बुरा है। दांपत्य तो पति-पत्नी के अद्वैत पर खड़ा होता है और अहंकार से तो द्वेष पैदा होता है इसलिए अहंकार को छोड़कर एक-दूसरे के यथायोग्य प्रशंसक होना उचित है। समय पर एक दूसरे की प्रशंसा करने से प्रेम में ताजगी आती है। उसका मिठास बढ़ जाता है।
दुनिया में एक से एक बढ़कर पुरुष और एक से एक बढ़कर नारियां हैं। हो सकता है कि उनमें से किसी के साथ अगर तुम्हारा विवाह हुआ होता तो शायद आज की अपेक्षा तुम्हारा दांपत्य जीवन अधिक आनंददायक या सुखमय हुआ होता, पर जो नहीं हुआ, उसे असंभाव्य ही समझ लो, उसका ध्यान भी मत करो। मैं कैसे आदमी के पाले पड़ गई, या मैं कैसी स्त्री के पाले पड़ गया, इत्यादि बातें बेकार तो हैं ही साथ ही एक दूसरे के मन फाड़ देने वाली हैं।
जीवन को बोझिल या कटीला बनाकर असह्य मत बनाओ। मन की निर्बलता, असहिष्णुता, विलासिता और अहंकार के कारण जीवन असह्य बन जाता है। इससे पग-पग पर क्रोध, रिझाना, झक-झक, रोना, हाय-हाय करना, बात-बात में असंतोष प्रकट करना आदि बातें होने लगती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि जो बाहरी दुःख सरलता से सहा जा सकता है, जिसमें दूसरों की खुशी से सेवा और सहानुभूति मिल सकती है—वह दुःख दस गुणा बढ़ जाता है और सेवा, सहानुभूति या तो दुर्लभ हो जाती है अथवा मिलती है तो देने वाले को जल्दी ही थका देती है, इसलिए अपने मन को खूब मजबूत बनाओ, प्रसन्न-मुख रहो, कोई कष्ट हो तो थोड़े में उचित समय पर ही प्रकट करो, उसके सहने पर बहादुरी दिखाओ, अपना दुःख दूसरे पर जबर्दस्ती न उड़ेलो, अन्यथा इसका परिणाम यह होगा कि साथी साथ से बच निकलने की कोशिश करेगा। पति घन में आए और उसके पहले उसे यह चिंता लग जाए कि न जाने आज ‘भवानी’ के साथ कैसे पाला पड़ेगा, उसकी क्या-क्या शिकायतें सुनने को मिलेंगी तो समझना चाहिए कि पत्नी ने अपना जीवन असह्य बना डाला है। प्रेम कितना भी गहरा हो, उसने प्रेम की जड़ में घातक कीड़ा लगा दिया है जो हर समय उसे कुतरता ही रहता है, ऐसी हालत में पानी देते रहने पर भी प्रेम का वृक्ष सूख जाता है।
इसी प्रकार पति के आने से पहले ही अगर पत्नी को यह चिंता हो जाए कि न जाने आज ‘देवता’ क्या बकझक करेंगे आदि तो कहना चाहिए कि पति ने अपना जीवन असह्य बना डाला है और उसने प्रेम के वृक्ष को सुखाने के निमित्त बना दिया है।
महीनों में होने वाली किसी खास घटना की बात दूसरी है पर साधारण नियम यह होना चाहिए कि मिलते समय दूसरे को खुशी ही हो, आपका प्रसन्न मुख देखकर वह अपना भी थोड़ा-बहुत दुःख भूल जाए, न कि प्रसन्न वातावरण में मनहूसी आ जाए। चिड़-चिड़ापन, तुनुक-मिजाजी आदि से हम अपना दुःख भीतर से बढ़ाते ही हैं, साथ ही सेवा-सहानुभूति आदि खोकर उसे बाहर से भी बढ़ा लेते हैं। इसलिए अपने जीवन को ऐसा बनाओ, जिससे उसका बोझ दूसरे पर कम से कम पड़े और किसी को उससे चोट न पहुंचे।
परिपाटी के तौर पर जो प्रतिज्ञाएं धर्म पुरोहित उच्चारण कर देते हैं, उनका व्यावहारिक-जीवन में नाम भी नहीं रहता। दांपत्य-जीवन एक दूसरे के लिए बोझ बन जाता है। इसका कोई बाह्य कारण नहीं। अपितु पति-पत्नी दोनों के ही परस्पर व्यवहार आचरणों में विकृति पैदा होने पर ही अक्सर ऐसा होता है। यदि इन छोटी-छोटी बातों में सुधार कर लिया जाए तो दांपत्य-जीवन परस्पर सुख-शांति, आनंद का केंद्र बन जाए।
दांपत्य–जीवन की सुख-समृद्धि एवं शांति के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि व्यवहार में एक दूसरे की भावनाओं का ध्यान रक्खें। एक मोटा-सा सिद्धांत है कि ‘‘मनुष्य दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करे, जैसा वह स्वयं के लिए चाहता है।’’ पति-पत्नी भी सदैव एक दूसरे की भावनाओं, विश्वासों का ध्यान रखें। किन्तु देखा जाता है कि अधिकांश लोग अपनी भावना, विचारों में इतना खो जाते हैं कि दूसरे के विचारों, भावों का कुछ भी ध्यान नहीं रखा जाता। वे उन्हें निर्दयता के साथ कुचल भी देते हैं। इस तरह दोनों की एकता, सहयोग के स्थान पर असंतोष का उदय हो जाता है। अपनी इच्छानुसार पत्नी को जबर्दस्ती किसी काम के लिए मजबूर करना, उसकी इच्छा न होते हुए भी दबाव डालना, पति के प्रति पत्नी के मन में असंतोष की आग पैदा करता है। इसी तरह कई स्त्रियां अपने पति के स्वभाव, रुचि, आदेशों का ध्यान न रखकर अपनी छोटी-छोटी बातों में ही उन्हें उलझाए रखना चाहती हैं। फलतः उन लोगों को विवाह एक बोझ-सा लगने लगता है। दांपत्य जीवन के प्रति उन्हें घृणा, असंतोष होने लगता है और यही असंतोष उनके परस्पर के व्यवहार में प्रकट होकर दांपत्य-जीवन को विषाक्त बना देता है। यदि किसी की मानसिक स्थिति ठीक न हो तो परस्पर लड़ाई-झगड़े होने लगते हैं। एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करते रहते हैं।
पति-पत्नी को सदैव एक दूसरे के भावों, विचारों एवं स्वतंत्र अस्तित्व का ध्यान रखकर व्यवहार करना, दांपत्य-जीवन की सफलता के लिए आवश्यक है। इसी के अभाव में आज-कल दांपत्य-जीवन एक अशांति का केंद्र बन गया है। पति की इच्छा न होते हुए, साथ ही आर्थिक स्थिति भी उपयुक्त न होने पर स्त्रियों की बड़े-बड़े मूल्य की साड़ियां, सौंदर्य-प्रसाधन, सिनेमा आदि की मांग पतियों के लिए असंतोष का कारण बन जाती है। इसी तरह पति का स्वेच्छाचार भी दांपत्य-जीवन की अशांति के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। यही कारण है कि कोई घर ऐसा नहीं दीखता, जहां स्त्री-पुरुषों में आपस में नाराजगी, असंतोष न दिखाई देता हो।
परस्पर एक दूसरे की भावनात्मक स्वतंत्रता का ध्यान न रखने में एक मुख्य कारण अशिक्षा भी है। यह कमी अधिकतर स्त्रियों में पाई जाती है। पर्याप्त शिक्षा-दीक्षा के अभाव के कारण भी मानसिक विकास नहीं होता जिसके कारण एक दूसरे की भावनाओं, व्यावहारिक जीवन की बातों के बारे में मनुष्य को जानकारी नहीं मिलती। इसके निवारण के लिए प्रत्येक पुरुष को कुछ न कुछ समय निकालकर पत्नी को पढ़ाने, उसका ज्ञान बढ़ाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। जीवन-साथी का समकक्ष होना आवश्यक है। अपने ज्ञान, बुद्धि, विकास एवं कल्याण के लिए भी अन्य आवश्यक कार्यों की तरह ही प्रयत्न करना आवश्यक है, तभी वह जीवन में सहयोग, एकता, सामंजस्य का आधार बन सकती है, किंतु देखा जाता है कि अधिकांश लोग इसमें दिलचस्पी नहीं लेते। मन, बुद्धि के विकास के अभाव में दांपत्य–जीवन सुखी और समृद्ध नहीं बन सकता।
योग्य होकर भी एक दूसरे की भावनाओं का ध्यान रखते हुए भी कभी-कभी स्वभावतः ऐसा व्यवहार हो जाता है जो पति-पत्नी में से एक दूसरे को अखरने लगता है। ऐसी स्थिति में किसी भी एक पक्ष को क्षमाशीलता, सहिष्णुता का परिचय देकर विक्षोभ उत्पन्न न होने देने का प्रयत्न करना आवश्यक है। साथ ही एक दूसरे पक्ष को भी अपनी भूल महसूस कर क्षमा मांगकर परस्पर मनों को साफ रखना चाहिए। अन्यथा परस्पर मनो-मालिन्य बढ़ जाता है और दांपत्य-जीवन में कटुता पैदा हो जाती है। महात्मा सुकरात, टालस्टाय जैसे महापुरुषों ने अपनी फूहड़, लड़ाकू स्त्री को सहनशीलता, क्षमा, उदारता के साथ जीवन में निवाहा था।
स्त्रियां तो बेचारी सदा से ही अपने पतियों के कटु स्वभाव, व्यवहार निर्दयता, स्वेच्छाचार को भी सहन करके दांपत्य-जीवन की गाड़ी को चलाने में योग देती रही हैं। भारतीय-नारी का महान आदर्श इसी त्याग, सहिष्णुता और पतिव्रत-धर्म से निर्मित रहा है। पति-पत्नी में से जब किसी एक में भी कोई स्वाभाविक कमजोरी दीखती हो तो उसका सहनशीलता के द्वारा निराकरण करके गृहस्थ की गाड़ी को चलाने में पूरा-पूरा प्रयत्न करते रहना आवश्यक है।
पति-पत्नी दोनों का जीवन एक सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों में अभिन्नता है, एक्य है। भारतीय संस्कृति में तो पुरुष और स्त्री को आधा-आधा अंग मानकर एक शरीर की व्याख्या की गई है, जिससे पुरुष को अर्द्ध-नारीश्वर तथा स्त्री को अर्द्धांगिनी कहा गया है। दांपत्य जीवन स्त्री पुरुष की अनन्यता का गठबंधन है अतः परस्पर किसी तरह का दुराव, छिपाव, दिखावा, बनावटी व्यवहार करना, परस्पर अविश्वास, एक दूसरे के प्रति घृणा को जन्म देता है और इसी से दांपत्य जीवन नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं। अपनी प्रत्येक चेष्टा में स्पष्टता, दुराव-छिपाव का अभाव रखकर अभिन्नता प्रकट करते हुए पति-पत्नी को एक दूसरे का विश्वास, मानसिक एकता प्राप्त करनी चाहिए। वैसे जहां तक बने, प्रत्येक व्यक्ति को अपने बाह्य जीवन में भी रहस्य, छल, बनाव, दिखावे से बचना चाहिए। क्योंकि इस बाहरी व्यवहार को देखकर भी पति-पत्नी एक दूसरे पर संदेह करने लगते हैं। वे सोचते हैं—‘‘हो सकता है, यह व्यवहार हमसे किया जा रहा हो’’ और संदेह की भूल-भुलैया में ही अनेकों का जीवन क्लिष्ट, उलझा हुआ, दुरूह बन जाता है।
पति-पत्नी दोनों अपने मानसिक क्षेत्र में बहुत बड़ा कुटुम्ब होते हैं। अपनी मानसिक आवश्यकताओं के आधार पर पति अपनी पत्नी से ही विभिन्न समय में सलाहकार की तरह मंत्री की सी योग्यता, भोजन करते समय—मां की वात्सल्यता, आत्म-सेवा के लिए—आज्ञा पालक नौकर, जीवन-रथ में एक अभिन्न मित्र, गृहणी, रमणी आदि की आकांक्षा रखता है। इसी तरह पत्नी भी पति से जीवन निर्वाह के क्षेत्र में मां-बाप, दुःख-दर्द में अभिन्न साथी, कल्याण और उन्नति के लिए सद्गुरु, कामनाओं की तृप्ति के लिए भर्तार, सुरक्षा संरक्षण के लिए भाई आदि के व्यवहार की अपेक्षा रखती है। जब परस्पर मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती है तो एक दूसरे में असंतोष, अशांति पैदा हो जाती है, जिससे दांपत्य-जीवन में विकृति पैदा हो जाती है।
एक दूसरे की भावनाओं का ध्यान रखते हुए, एक दूसरे की योग्यता वृद्धि, खासकर पुरुषों द्वारा स्त्रियों के ज्ञानवर्धन में योग देकर, परस्पर क्षमाशीलता, उदारता, सहिष्णुता, अभिन्नता, एक दूसरे की मानसिक तृप्ति करते हुए दांपत्य-जीवन को सुखी, समृद्ध बनाया जा सकता है। अधिकतर इसके लिए पुरुषों को ही अधिक प्रयत्न करना आवश्यक है। वे अपने प्रयत्न और व्यवहार से गृहस्थ-जीवन की काया पलट कर सकते हैं। अपने सुधार के साथ ही स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा, ज्ञान-वृद्धि, उनके कल्याण के लिए हार्दिक प्रयत्न करके दांपत्य-जीवन को सफल बनाया जा सकता है। धैर्य और विवेक के साथ एक दूसरे को समझते हुए स्वभाव, व्यवहार में परिवर्तन करके ही दांपत्य-जीवन को सुख-शांतिमय बनाया जा सकता है।
मां की ममता और पिता का प्यार कन्याओं को उनके विवाह के पूर्व तक ही मिल पाता है। बाद में उन्हें ससुराल की चहारदीवारी में जीवन गुजारना पड़ता है। अतः उनके मात-पिता अपनी निगाहों के सामने उन्हें आराम देने के उद्देश्य से काम कम कराते हैं। विवाह के बाद में भी बेटी को उसके पति के साथ सुखी जीवन व्यतीत करने की इच्छा रखते हैं। शायद ही ऐसे कोई मां-बाप होंगे जो अपनी बेटी को दुःखी देखना चाहते हों। किन्तु वे उसकी दुःखी कहानी सुनकर दुःखी होते हैं तब उनकी पहले की कल्पना अधूरी रह जाती है। वे बेटी के भाग्य को कोसते रहते हैं। ससुराल पक्ष वालों की इच्छा बहू से अधिक काम और पिता पक्ष वालों की इच्छा बेटी को आराम देने की रहती है। इन दोनों विपरीत बातों का सम्य नहीं हो पाता। दोनों पक्षों में इस कारण कटुता की वृद्धि होने लगती है। बात बढ़ जाने पर कभी-कभी संबंध विच्छेद हो जाने के संकट तक बात पहुंच जाती है।
दोनों पक्षों की इन इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए कन्या को सफल गृहस्थी की योग्यता सिद्ध करनी पड़ती है। इसके अभाव में स्वर्गीय सुखमय जीवन नारकीय दुःखों में व्यतीत होने लगता है। ऐसे समय पर लड़की की शिक्षा, उसके कुल, उसका सौंदर्य, मधुरता सभी निरर्थक हो जाते हैं। चूंकि नारी गृह लक्ष्मी होती है और यदि इस क्षेत्र में ही वह असफल रहे तो यह उसके गौरव के विरुद्ध भी है। यही पारिवारिक विवाद का लघु रूप बाद में विकराल विघटन तक फैल जाता है। अनेक प्रकार के हृदय विदारक तानों के साथ कठिनाइयों की शुरुआत हो जाती है। नव-विवाहिता बहू का किताबी ज्ञान एवं रूप-लावण्य कुछ काम नहीं आता। वे इस प्रवाह में ढह जाते हैं।
लड़कियां भी विवाहित जीवन में दांपत्य सुख की इच्छा रखती हैं, किन्तु उनकी यह इच्छा भी तब मृगतृष्णा बनकर रह जाती है, जब गृहस्थी की अयोग्यता में तानों के साथ दुःखों और पीड़ाओं का आरंभ होता है। अनेक कुंठाओं से भरा उसका जीवन नीरस और भार स्वरूप बनकर रह जाता है। उसके व्यक्तिगत जीवन में अंतर्द्वन्द्व और पारिवारिक संबंधों में संघर्ष के दौर चलने लगते हैं। तब वह समझ पाती है कि गृहस्थी के कार्यों की सुव्यवस्था कर लेना तलवार की धार पर चलने के बराबर है। ऐसे समय में उसे यह समझते देर नहीं लगती कि यदि इन कार्यों का प्रशिक्षण बचपन में ही मायके में प्राप्त कर लिया होता तो वर्तमान जीवन कल्पनाओं के अनुरूप साकार हो जाता।
किन्तु लड़की बचपन में अबोध होती हैं, उसे अपने कर्तव्यों का भान नहीं होता। वह मजा-मौज भरा जीवन पसंद करती है एवं अपने भाग्य को सराहती है कि सुख-सुविधाओं के जीवन से बढ़कर कौन-सा अच्छा भाग्य हो सकता है। यदि दूरदर्शिता पूर्ण दृष्टि से विचार किया जाए तो लड़की की भावी सुखों को नष्ट करने का दोष स्वयं लड़की पर नहीं उसके माता-पिता पर ही आरोपित होगा, जिसने उसे बचपन से ही लाड़-प्यार में पाला है और गृहस्थी के किसी भी कार्य का प्रशिक्षण नहीं दिया। उनका यह व्यवहार अदूरदर्शितापूर्ण होता है।
यदि लड़की के माता-पिता विवाह के पूर्व ही उसे गृहस्थी का प्रशिक्षण देते तो ऐसी समस्या नहीं आ सकती। भोजन पकाना, परोसना, बर्तनों की सफाई, खाद्यान्नों की सुरक्षा आदि रसोई से संबंधित कार्य, पारिवारिक सदस्यों तथा मेहमानों के साथ व्यवहार, बोलचाल, उनकी प्रसन्नतानुसार कार्य, बिस्तर, कपड़ों की सुरक्षा, घर की सफाई, बजट में बचत, अपने स्वयं के व्यवहारों में शिष्टता आदि ऐसे ही कार्य हैं जो लड़की को मायके में ही सीख लेना हितकर होता है। इस कर्तव्य से चूकने पर उन्हें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दुःखों को सहना पड़ता है। ससुराल में तिरस्कृत व अपमानित होना पड़ता है। इतना जानते हुए भी अपनी लड़की को गृह कार्य न सिखाना अज्ञानमूलक है। इस पर ध्यान दिया जाना ही माता-पिता का लड़की के प्रति ईमानदारीपूर्ण कर्तव्य है। दांपत्य जीवन की सफलता में ऐसा प्रशिक्षण एक बड़ा आधार सिद्ध होता है।