दांपत्य जीवन के ऊपर पारिवारिक, सामाजिक, व्यक्तिगत सभी तरह की उन्नति, विकास निर्भर करते हैं। पति-पत्नी के सहयोग, एकता, परस्पर आत्मोत्सर्ग, त्याग, सेवा आदि से दांपत्य जीवन की सुखद और स्वर्गीय अनुभूति सहज ही की जा सकती है, इससे मनुष्य के आंतरिक और बाह्य जीवन के विकास में बड़ा योग मिलता है। सभी भांति स्वस्थ, संतुलित, सुंदर दांपत्य जीवन स्वर्ग की सीढ़ी है और मानव विकास का प्रेरणा-स्रोत है।
जीवन लक्ष्य की लम्बी मंजिल को तय करने के लिए पति-पत्नी का अनन्य संयोग यात्रा को सहज और सुगम बना देता है। नारी शक्ति है तो पुरुष पौरुष। बिना पौरुष के शक्ति व्यर्थ ही धरी रह जाती है तो बिना शक्ति के पौरुष भी किसी काम नहीं आता। वह अपंग है। शक्ति और पौरुष का समान प्रवाह, संयोग एकता नव सृजन के लिए, नव-निर्माण के लिए आवश्यक है। इनकी परस्पर असंगति, असमानता ही अवरोध, हानि, अवनति का कारण बन जाती है। पति-पत्नी में यदि परस्पर विग्रह आपा-धापी, स्वार्थपरता, द्वेष, स्वेच्छाचार की आग सुलग जाएगी तो दांपत्य-जीवन का सौंदर्य, विकास, प्रगति, महत्वपूर्ण संभावनाओं का स्वरूप अपने गर्भ में ही नष्ट हो जायगा।
पति पत्नी संसार पथ पर चलने वाले जीवन रथ के दो पहिये हैं जिसमें एक की स्थिति पर दोनों की गति, प्रगति निर्भर करती है। दोनों का चुनाव जितना ठीक होगा दांपत्य जीवन उतना ही सुखद, स्वर्गीय, उन्नत और प्रगतिशील बनेगा। दोनों में से एक भी अयोग्य, कमजोर हो तो दांपत्य जीवन का रथ डगमगाने लगेगा और पता नहीं वह कहीं भी दुर्घटना ग्रस्त होकर नष्ट-भ्रष्ट हो जाए अथवा मार्ग में ही अटक जाए। इससे न केवल पति-पत्नी वरन् परिवार समाज के जीवन में भी गतिरोध पैदा होगा। क्योंकि दांपत्य जीवन पर ही परिवार का भवन खड़ा होता है और परिवारों से ही समाज बनता है। इसलिए पति-पत्नी का चुनाव एक महत्वपूर्ण पहलू है।
अक्सर देखा जाता है कि लड़के-लड़कियों के संबंध उनके मां-बाप ही तय करते हैं। वह पक्ष वालों ने गोरी सुंदर लड़की, मालदार घराना देखा लड़की के मां-बाप ने पढ़ा-लिखा सुंदर लड़का देखा और संबंध तयकर लिया। धूम-धड़ाके के साथ विवाह आयोजन होते हैं। लम्बी-चौड़ी दावतें, खर्च, गाना-बजाना सभी कुछ होता है। किन्तु विवाह हुए कुछ ही दिन समाप्त नहीं होते हैं कि पति-पत्नी में लड़ाई-झगड़े, मन-मुटाव, घृणा-द्वेष के विषाक्त कीटाणु फैल जाते हैं। ये प्रवृत्तियां एक ही दिन प्रकट में होने लगती हैं। सारे घर को मालूम होने पर घर वाले बहू को उल्टा-सीधा सुनाते हैं। बात लड़की के माता-पिता तक पहुंचती है तो विचारे सिर पर हाथ धरकर रोते हैं और कहते हैं ‘इतना सारा धन पानी की तरह बहाकर भी लड़की को कुंए में फेंक दिया।’ पति-पत्नी ही नहीं दोनों परिवार दुःख, क्लेश, चिंता, शोक के अड्डे बन जाते हैं। दंपत्ति मन ही मन अपने दुर्भाग्य पर रोते हैं। परस्पर के क्लेश और लड़ाई-झगड़े में उनके स्वप्नों के महल तहस-नहस हो जाते हैं। कइयों को शारीरिक और मानसिक रोग धर दबाते हैं और वे अल्पकाल में काल कवलित हो जाते हैं। एक छोटी-सी भूल, पति-पत्नी का स्वभाव, गुण, कर्म के आधार पर चुनाव न करना, अनमेल विवाह करना ही इसका मुख्य कारण है। दही और दूध को एक जगह मिलाकर रखने से खराबी पैदा होगी ही। आग और बारूद का अस्तित्व एक जगह कर देना विनाश को निमंत्रण देना है। इसी तरह अनमेल विवाह करना लड़के-लड़कियों के जीवन को बर्बाद करना है।
हमारे एक परिचित युवक अपने मां-बाप के अकेले पुत्र थे। बचपन से ही उनकी रुचि आध्यात्मिक, धार्मिक थी। अध्ययन के अतिरिक्त अपना समय चिंतन-मनन, साधना आदि में लगाते थे। स्वभाव से बड़े सीधे-सादे संतोषी और उदार थे। उनके वयस्क होने पर कई लड़की वाले देखने आए। घर वालों ने अच्छा-सा घराना देखकर संबंध तय कर लिया, घर में बहू आई। वह निकली पूरी आधुनिक खाना-पीना, मौज उड़ाना, नित्य नए-नए जेवरों वस्त्रों की मांग करना उसके स्वभाव की विशेषताएं थीं। पति महोदय साधारण से अध्यापक थे, इस पर भी आध्यात्मिक विचारों के। पत्नी अपनी कामना रुचि इच्छा की पूर्ति न होती देखकर कलह करने लगी। घर भर में विष फैल गया, बहूजी सबसे तकरार करने लगीं। बेचारा युवक इससे चिंतित और परेशान रहने लगा। कुछ ही समय में उनकी स्नायु शक्ति दुर्बल हो गई और वे विक्षिप्त पागल से हो गए। लड़की के माता-पिता भी इस परिस्थिति के कारण चिंता में घुलने लगे। इस तरह दो परिवारों का दुःखद जीवन एक गृहस्थी का उजड़ना, समाज में दूषित प्रभाव पड़ना तथा अन्य बुराइयां सब एक ही भूल से पैदा हो गईं, और वह भूल थी अनमेल विवाह की।
पति-पत्नी का चुनाव जहां तक हो दोनों की इच्छा, रुचि की अनुकूलता पर होना आवश्यक है। साथ ही इस रुचि का आधार एक दूसरे के गुण, कर्म, स्वभाव, सद्भावनाएं आदि ही होना चाहिए। अन्यथा रूप, यौवन, वासना से प्रेरित निर्णय भी अंततः, दुःख परेशानी परस्पर कलह का कारण बन ही जाता है क्योंकि ये तत्व अधिक दिनों तक स्थिर नहीं रहते।
कदाचित पति-पत्नी के स्वभाव आदि में कुछ भिन्नता भी रह सकती है। विभिन्न रुचियों में भी यदि वे परस्पर टकराएं नहीं, एक दूसरे को परेशानी पैदा न करें तो भी दांपत्य जीवन की गाड़ी चलती रह सकती है। निवाहने और समझौता करके चलने की उदारता जिनमें है, वे भिन्न-भिन्न रुचियों के होते हुए भी एक दूसरे को निवाहते हुए चल सकते हैं। वस्तुतः यही मध्यम मार्ग है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी स्वाभाविक विशेषताएं, भिन्नताएं कुछ न कुछ अवश्य ही होती हैं। निभाने और समझौता करने चलने के आधार पर ही सम्मिलित कुटुंब प्रणाली भारत में हजारों वर्षों से चली आ रही है। अपनी इच्छा, अपनी कामना और उनकी पूर्ति को महत्व देकर पति-पत्नी अपने मधुर संबंधों में दरार पैदा कर लेते हैं। स्नेह, प्रेम, आत्मीयता के स्थान पर कटुता के बीज अपने ही हाथों बो लेते हैं, जिसके फलस्वरूप तलाक, हत्या, दुर्व्यवहार, आत्महत्याओं के दुष्परिणाम निकलते हैं।
धनी-निर्धन का प्रश्न भी पति के चुनाव में देखना आवश्यक है। यदि किसी धनवान के यहां गरीब लड़की का संबंध हो जाए तो बेचारी को ससुराल में मां-बाप की गरीबी के ताने सुनने पड़ते हैं, उसकी कोई कदर नहीं की जाती। अपने साथ कोई दहेज न लाने पर उसे जीवन भर कोसा जाता है। कदाचित् पति भी लड़की की उपेक्षा करे तो उसका जीवन भार बन जाएगा और शारीरिक, मानसिक कष्टों से ग्रस्त दुःखी जीवन बिताएगी। कई लोग धन के आकर्षण में अपनी लड़की का विवाह कम या अधिक उम्र के लड़कों से कर देते हैं। किन्तु दोनों स्थितियों में दांपत्य का दुःखी और असफल होना निश्चित है।
जब धनी घर की लड़की गरीब युवक को ब्याही जाती है तो समस्या और भी पेचीदा हो जाती है ऐसा जब होता है जब लड़की में कोई नुक्स हो अथवा लड़का होनहार योग्य हो। उधर लड़के के मां-बाप भी खुश होते हैं अमीर और धनी घराने में शादी करके। किन्तु गरीब घर में अमीर की लड़की आने पर बड़ी परेशानी खड़ी हो जाती हैं। जैसा उसे पितृगृह में अभ्यास था उसकी के अनुरूप वह सुख-सुविधा, मकान, नौकर, वस्त्र, आभूषण, स्वादिष्ट भोजन, सौंदर्य प्रसाधनों की मांग करने लगती है। बेचारा गरीब पति इन मांगों को पूरा करने में असमर्थ होता है। फलतः असंतुष्ट पत्नी गरीब घर की शांत छाया के लिए चिनगारी बन जाती है।
शिक्षित-अशिक्षित दंपत्ति का जीवन भी क्लेशयुक्त हो जाता है, किसी शिक्षित युवक का विवाह निपट गंवार, निरक्षर लड़की से कर दिया जाए तो दोनों के जीवन की गति में तालमेल नहीं बैठेगा। अशिक्षा के कारण कोई भी पक्ष एक दूसरे की भावना, मानसिक स्थिति को समझ नहीं सकेगा और इसके कारण परस्पर के जीवन में योगदान नहीं दें सकेगा। ऐसे संबंधों में पति-पत्नी एक दूसरे के सहायक, सहयोगी न रहकर परस्पर भार बन जाते हैं।
कुल मिलाकर दांपत्य जीवन के कलह, विच्छेद, अशांति, विकृतियों का मूल कारण पति-पत्नी का ठीक-ठीक चुनाव न होना ही है और इसके लिए खासकर अभिभावकगण ही जिम्मेदार होते हैं जो अपनी ही रुचि भावना को स्थान देकर वर-कन्या का चुनाव करते हैं। हर हालत में चुनाव करते समय अपनी-अपनी संतान के मत को भी उदारतापूर्वक ध्यान में रखना चाहिए। यह तो आवश्यक है कि संतान यदि कुमार्ग ग्रहण करे तो माता-पिता उन्हें अधिकारपूर्वक रोकें और सही मार्ग दिखाएं, किन्तु शादी-विवाह जैसे जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं पर संतान की संमति लेना भी आवश्यक है। जो अभिभावक माता-पिता अपने संकुचित और अनुदार दृष्टिकोण अथवा अभिमानवश ऐसा नहीं सोचते, बच्चों की संमति, भावनाओं को उदारता के साथ स्वीकार नहीं करते तो बच्चों का दांपत्य जीवन बरबाद होना, घर उजड़ना स्वाभाविक है। इसका परिणाम उन्हें भी अपने जीवन में भोगना पड़ता है जब संतान द्वारा अपना अपमान होने देखते हैं। घर की कलह, लड़ाई-झगड़े होते देखकर, इज्जत को बिगड़ते देखकर लोगों द्वारा उनका तमाशा देखे जाने पर अनेक अभिभावक नौ-नौ आंसू रोते-कलपते, बिलखते देखे जाते हैं और भी अनेक तरह तड़प-तड़पकर उन नासमझ अभिभावकों को अपनी भूल का पश्चाताप करना पड़ता है।
पिछले दिनों अमेरिका की पत्रिका में एक व्यंग्य प्रकाशित हुआ है कि यहां इतने अधिक तलाक लिए जाने लगे, कि शादी के गाउन ऐसे कपड़ों से तैयार किए जाएं जिन्हें धोकर बिना इस्तरी किए तुरंत ही फिर से पहना जा सके।
अमेरिका में बढ़ती हुई तलाक की संख्या को देखकर यह कहा जाने लगा है कि ‘‘एक स्त्री को पति बदलने में इतना समय नहीं लगता जितना करवट बदलने में लगता है।’’ हो सकता है कि इस कथन में अतिशयोक्ति हो पर इतना अवश्य है कि वहां नगण्य सी बातों को लेकर तलाक दे दिया जाता है जिन्हें जानकर हंसी लगती है। पति या पत्नी के मन के विरुद्ध जरा-सी बात हुई कि तलाक का प्रार्थना पत्र न्यायालय में पहुंचा दिया जाता है।
पश्चिमी देशों में तलाक की बढ़ती हुई संख्या ने दांपत्य जीवन में कटुता और अस्थिरता उत्पन्न कर दी है। किसी व्यापारिक संस्थान में काम करने वाली स्त्री शाम को घर लौटेगी या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। फिनलैंड के एक वृद्ध दंपत्ति तलाक के प्रकरण को लेकर न्यायालय में पहुंचे। पति की आयु 87 वर्ष और पत्नी की 85 वर्ष थी।
न्यायाधीश ने पूछा—‘‘तुम्हारी शादी कब हुई थी?’’
‘6 दिसम्बर 1876 को।’
‘तुममें खटपट कब से शुरू हुई?’
‘विवाह के ही दिन से।’
अब न्यायाधीश क्या कहता? तलाक का प्रार्थना पत्र तुरंत स्वीकार कर लिया गया। तलाक के बढ़ते हुए आंकड़ों को देखकर यह स्पष्ट होता है कि महायुद्ध के पश्चात् जिन देशों में तलाक की सुविधा है वहां के लोग अपने इस अधिकार का बड़े उत्साहपूर्वक प्रयोग कर रहे हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में लगभग डेढ़ करोड़ स्त्री-पुरुष तलाक शुदा हैं जिनके चालीस लाख बच्चे अनाथों की तरह जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
रूस में तलाक करना जितना सरल है इतना संसार के अन्य किसी देश में नहीं है। वहां यदि पति-पत्नी का जोड़ा परस्पर किसी बात को लेकर असंतुष्ट हो जाता है तो दो-तीन माह का नोटिस देकर तलाक कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें न्यायालय में जाने की तभी जरूरत पड़ती है जब बच्चों की देखभाल या संपत्ति के बंटवारे को लेकर कोई मतभेद हो। वहां एक वर्ष में 7 लाख तलाक हुए। रूस में दंपत्तियों की संख्या लगभग 7 करोड़ है इसका अर्थ यह हुआ कि वहां दस प्रतिशत विवाह बंधन टूट जाते हैं। वहां कुमारी माताओं को हीन दृष्टि से नहीं देखा जाता। स्त्रियां आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र हैं जिन्होंने औद्योगिक संस्थानों में अपना आधिपत्य जमा रखा है। ब्रिटेन में 1965 में तलाक के लिए 43 हजार आवेदन पत्र प्राप्त हुए थे।
पारिवारिक समस्याओं के अमरीकी विशेषज्ञ विलियम गुड ने तलाक समस्या के अध्ययन हेतु जो अंग्रेज देशों के आंकड़े एकत्रित किए हैं उनसे वस्तु स्थिति स्पष्ट हो जाती है।
प्रति हजार पीछे तलाक-अमेरिका 259, इंग्लैंड 70, फ्रांस 3, बेल्जियम 71, स्वीडन 175, आस्ट्रेलिया 89, यूगोस्लाविया 131।
अमेरिका के एक वकील का जो विगत 35 वर्षों में 3000 से भी अधिक लोगों के तलाक प्रकरणों को निबटा चुके हैं, कहना है—‘मेरे पास तलाक लेने के लिए अधिकतर ऐसे लोग आए जिनकी शादियां गलत कारणों से हुई थीं और प्रारंभ से ही जिनके असफल होने की संभावना थी। इनमें अधिक संख्या उन लोगों की थी जिन्होंने बिना सोचे विचारे चटपट विवाह कर लिए।
अमेरिका में पांच शादियां में एक शादी ऐसी लड़की की होती है जो विवाह से पूर्व ही गर्भवती हो जाती हैं। जब कोई प्रेमी-प्रेमिका गर्भवती होने के कारण विवाह करने को विवश हो जाते हैं तो उनके सारे रंगीन सपने टूट जाते हैं। वे अब तक जिस रंगीले जीवन का आनंद लेते रहे हैं वह उनसे छिन जाता है। वैवाहिक जीवन में अपने को अच्छी तरह ढाल भी नहीं पाते कि उन पर प्रथम शिशु का उत्तरदायित्व आ जाता है। यदि किसी बच्चे का जन्म न होता तो विवाह के बाद भी पत्नी साल दो साल काम करके परिवार की आर्थिक स्थिति सुधार सकती थी। पर अब आर्थिक तंगी बढ़ती ही चली जाती है।
बहुत-सी शादियां शराबखोरी के कारण टूटती हैं। आजकल व्यसन औरतों में भी पाया जाता है। वे दिन भर घर में अकेली रहती हैं। समय काटने के लिए थोड़ा-थोड़ा पीना सीख लेती हैं जिससे घरेलू कार्यों की ओर ध्यान नहीं दे पातीं फिर तो उनकी स्थिति इतनी खराब हो जाती है कि कोई भी आदमी उनके साथ रहना नहीं चाहता। निर्धनता, अविश्वास, निर्दयता और रूखापन जैसे अनेक कारण हैं जो शराबखोरी से संबद्ध हैं।
कभी-कभी तो शादियां शराब के नशे में ही हो जाती हैं। कोई क्लब में किसी लड़की को अपने साथ खाने, नाचने या सिनेमा देखने के लिए ले जाता है और क्षणिक आवेश में शादी शुदा हो जाता है। बाद को तो उसे यह भी याद नहीं रहता कि उसकी शादी क्यों, कहां और किन परिस्थितियों में हुई थी। कितनी ही लड़कियां ऐसे आदमी से केवल प्रतिशोध की भावना से शादी कर लेती हैं।
कुछ शादियां तो केवल पैसे के लिए ही होती हैं। एक लड़की जिसका बचपन गरीबी और अभावग्रस्तता में बीता, ऐसे युवक से शादी कर लेती है जो उसे मौज-शौक की जिंदगी उपलब्ध करा सके, पर कुछ ही दिनों बाद उसे ऐसा लगने लगता है कि वह अपने पति के साथ क्षण भर नहीं रह सकती। कुछ स्त्रियां जान-बूझकर ऐसे अधेड़ आदमी को फंसाने का प्रयास करती हैं जिनके पास पैसा अधिक होता है, वे सोचती हैं इसका पैसा अपने हाथ में आ जाएगा। कितने ही पति विवाह के तुरंत पश्चात दिखाने के लिए फर्नीचर, महंगी पोशाकें, कार और मौज-शौक पर इतना अधिक खर्च कर देते हैं कि कर्ज उनके सर पर चढ़ जाता है और उसका ब्याज चुकाते ही उनकी हालत खराब हो जाती है। पत्नी के गर्भवती होते ही खर्च में और वृद्धि होती है जिससे वैवाहिक जीवन में कहा-सुनी हो जाती है।
कितने ही विवाह इसलिए असफल हो जाते हैं कि युवक और युवती का स्वभाव एक दूसरे के योग्य नहीं होता या उसका स्वभाव चिड़चिड़ा अथवा गुस्सैल होता है। कोई स्वार्थी या घमण्डी होता है या ऐसी आदतों का शिकार होता है जिसे दूसरा सहन नहीं करता। कभी-कभी लम्बी अस्वस्थता भी तलाक के द्वार तक पहुंचा देती है।
शारीरिक सौंदर्य को प्रधानता देने वाले दंपत्ति वैवाहिक जीवन के आठ-दस वर्ष व्यतीत हो जाने पर प्रारंभिक आकर्षण में कमी अनुभव करने लगते हैं। पति को लगता है कि पत्नी लापरवाह और भद्दी हो गई है। पत्नी को लगता है कि पति उसकी ओर पूरा-पूरा ध्यान नहीं देता। वह और किसी के चक्कर में रहता है और फिर उनके लिए तलाक का द्वार खुल जाता है।
जब छोटे-छोटे बच्चे हों उस समय तलाक पति-पत्नी को अभिशाप ही सिद्ध होता है। तलाक के बढ़ते हुए आंकड़े तथाकथित प्रगतिशील देशों के लोगों की अदूरदर्शिता, असहनशीलता और संकुचित दृष्टिकोण की साक्षी देते हैं।
अमेरिका में तलाक लेने के कारण इस प्रकार हैं—
शराबखोरी - 30 प्रतिशत
व्यभिचार - 25 प्रतिशत
उत्तरदायित्व - की उपेक्षा 12 प्रतिशत
प्रतिकूल स्वभाव - 12 प्रतिशत
रिश्तेदारों के कारण - 7 प्रतिशत
यौन समस्याएं - 5 प्रतिशत
मानसिक रोग - 3 प्रतिशत
धार्मिक कारण - 3 प्रतिशत
अन्य कारण - 3 प्रतिशत
तलाक के कुछ भी कारण हों पर उनसे किसी समस्या का समाधान नहीं होता। ऐसे नर-नारी का मानसिक विक्षोभ एवं असंतोष बढ़ते-बढ़ते उन्हें अर्ध विक्षिप्त की स्थिति में पहुंचा देता है। वे अपनी समस्या को हल करने के लिए दूसरा विवाह करते हैं। और वे ही समस्याएं आकर सामने खड़ी हो जाती हैं।
दांपत्य जीवन के कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को जब तक गंभीरतापूर्वक समझा और निवाहा नहीं जाएगा तब तक मात्र यौनलिप्सा की पूर्ति के लिए किए गए विवाह कभी सफल नहीं होंगे। दो आत्माओं का एक-दूसरे में घुलाने की और एक दूसरे को निवाहने की, एक पक्षीय प्यार देने की भारतीय विवाह परंपरा ही पति-पत्नी को सघन सूत्र में बांधे रह सकती है, अन्यथा दैनिक जीवन में आते रहने वाले छोटे-छोटे मतभेद ही गृहस्थ जीवन के आनंद को नष्ट कर देंगे। बिना सुदृढ़ आधार पर दांपत्य जीवन की नींव रखे पति-पत्नी के बीच चिरस्थायी सौजन्य पूर्वक निर्वाह नहीं हो सकता।