गृहस्थ में प्रवेश से पूर्व उसकी जिम्मेदारी समझें

दांपत्य-जीवन को नारकीय होने से बचाएं

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दांपत्य जीवन का महत्व मनुष्य की अनेक कोमल एवं उदार भावनाओं, विचारशीलता तथा सद्वृत्तियों पर खड़ा होता है। स्नेह, आत्मीयता, त्याग, उत्सर्ग, सेवा, उदारता आदि अनेक दैवी गुणों पर दांपत्य-जीवन की नींव रखी जाती है। दांपत्य जीवन यथार्थ की धरती पर कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व का सम्मिलित प्रयास है जिसमें स्त्री-पुरुष का परस्पर स्नेह व आत्मीयता, त्याग, बलिदान, जीवन की कठोरताओं, शुष्क मरुभूमियों को भी खींचकर उसे सरस, सरल और स्वर्गीय बना देता है। अनेक कठिनाइयों में भी इस सम्मिलित प्रयास से पग-पग पर नई आशा, नई उमंग, नई प्रेरणा जगी रहती हैं। पुरुष नारी की सरलता, सहिष्णुता, त्याग सेवा से सशक्त बना रहता है तो नारी पुरुष के स्नेह पूर्ण संरक्षण, आत्मीयता, आदर-सम्मान को पाकर सबला देवी गृहणी के रूप में प्रतिष्ठित होती है।

पति-पत्नी के व्यवहार में सामान्य-सी भूल, असावधानी अथवा अज्ञान, परस्पर के मधुर संबंध, कटुता, द्वेष, प्रतिद्वन्द्विता में बदल जाते हैं। गृहस्थ जीवन में फैले हुए गृह-कलह, असंतोष, संघर्ष, लड़ाई, झगड़े में मनुष्य की उन्नति, विकास, उत्कर्ष सब धरे ही रह जाते हैं। वस्तुतः इनका आधार व्यवहार की सामान्य-सी बातें ही होती हैं, जिनका ध्यान रखा जाए तो दांपत्य-जीवन को नारकीय होने से सहज ही बचाया जा सकता है।

पति-पत्नि की परस्पर आलोचना दांपत्य-जीवन के मधुर संबंधों में खटाई पैदा कर देती है। इससे एक दूसरे की आत्मीयता, प्रेम, स्नेहमय आकर्षण समाप्त हो जाता है। कई व्यक्ति अपनी स्त्री की बात-बात पर आलोचना करते हैं। उनके भोजन बनाने, रहन-सहन, वस्त्र ओढ़ने-पहनने, बोलचाल आदि तक में नुक्ताचीनी करते हैं। इससे स्त्रियों पर दूषित प्रभाव पड़ता है। पति की उपस्थिति उन्हें बोझ सी लगती है, वे उनकी उपेक्षा तक करने लग जाती हैं।

स्त्रियां सदैव यह चाहती है कि पति उनके काम, रहन-सहन आदि की प्रशंसा करें। वस्तुतः पति के मुंह से निकला हुआ प्रशंसा का एक शब्द पत्नी को वह प्रसन्नता प्रदान करता है जो कि बाह्य साधन, वस्तु से उपलब्ध नहीं हो सकती। पति की प्रशंसा पाकर स्त्री अपनत्व तक को भूल जाती है। दांपत्य-जीवन में जो परस्पर प्रशंसा करते नहीं अघाते वे संतुष्ट और प्रसन्न रहते हैं।

जिन स्त्रियों को पतियों की कटु आलोचना सुननी पड़ती है वे सदैव यह चाहती हैं कि कब ये यहां से हटें और पति की अनुपस्थिति में वे अन्य माध्यमों से अपने दबे हुए भावों की तृप्ति करती है। सखियों के साथ गपशप लड़ाती हैं। तरह-तरह के बनाव शृंगार करके बाजारों में निकलती हैं, यहां तक कि कई तो पर पुरुषों की प्रशंसा पात्र बनकर अपने भावों को तृप्त करने का भी प्रयत्न करती हैं। जो प्रेम और प्रशंसा उन्हें पति से मिलनी चाहिए थी उन्हें अन्यत्र ढूंढ़ने का प्रयत्न करती हैं। कई स्त्रियां अन्य मानसिक रोगों से ग्रस्त हो जाती हैं। उन्माद, भूतव्याधा, हिस्टीरिया, स्नायु रोगों से पीड़ित हो जाती हैं अथवा क्रोधी, चिड़चिड़े स्वभाव की झगड़ालू बन जाती हैं। घर उन्हें सूना-सूना और उजड़ा हुआ-सा लगता है। जहां स्त्री को पति की प्रेम युक्त प्रशंसा के स्थान पर कटु आलोचनाएं सुननी पड़ती हैं, वहां सहज प्रेम तो समाप्त हो ही जाता है। पति गृह नारी के लिए जिस आकर्षण, प्रसन्नता और उल्लास का वातावरण होना चाहिए, वह निराशा, खिन्नता, रुखाई और श्मशानवत् नीरवता में बदल जाता है। वहां सद्भावना, प्रेम, आत्मीयता से रहित पति-पत्नी के जड़ शरीर ही हिलते-डुलते नजर आते हैं।

इसी तरह स्त्रियों द्वारा पति की उपेक्षा, आलोचना करना भी इतना ही विषैला है। पुरुषों को अपने काम से थककर आने पर घर में प्रेम एवं उल्लास का उमड़ता हुआ समुद्र लहराता मिलना चाहिए जिसमें उनकी दिनभर की थकान, कलान्ति, परेशानी घुल जाती है। इसके स्थान पर यदि पत्नी की कटु आलोचना, व्यंग्यबाण, बच्चों की धरपटक, हाय हल्ले का सामना करना पड़े तो उस व्यक्ति की क्या दशा होगी, भुक्तभोगी इसका सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।

अच्छे-अच्छों का धैर्य उस समय डिग जाता है जब पत्नी के कटु-क्लेश व्यवहार का सामना पुरुष को लगातार करना पड़ता है। फ्रांस का सम्राट नेपोलियन तृतीय अपनी पत्नी की आलोचना और रुखाई से तंग आकर वेश्याओं के यहां जाने लगा था। उसने एक अन्य स्त्री से भी अपना संबंध बना लिया था। लिंकन जैसा महापुरुष अपने अच्छे स्वभाव और सद्गुण के बल पर दांपत्य-जीवन को काफी समय तक निवाहता रहा, किन्तु अंत में उससे अलग होना पड़ा। महान विचारक टाल्सटाय अपनी स्त्री के कर्कश स्वभाव को सहते रहे, किन्तु अंत में बयासी वर्ष की आयु में परेशान होकर, घर छोड़कर चले गए और रास्ते में ही निमोनिया के प्रभाव से उनकी मृत्यु हो गई।

इस तरह के अनेक उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है। पत्नी की कर्कशता से तंग आकर व्यक्ति यदि आदर्शवादी होता है तो वह दार्शनिक विचार तथा क्रियाओं की ओर मुड़ जाता है। जैसे सुकरात, भतृहरि आदि। इसके विपरीत साधारण मानसिक शक्ति और सामान्य बुद्धि वाला हुआ तो वह वेश्यागामी, शराबी, व्यसनी बन जाता है। जिन लोगों को घर में स्त्रियों का प्रेम, सद्भाव नहीं मिलता वे अन्यत्र उस प्रेम की पूर्ति करना चाहते हैं। अथवा नशेबाजी आदि व्यसनों में अपनी परेशानी भुलाना चाहते हैं। घर के कटुतापूर्ण, आलोचना प्रधान वातावरण के कारण कितने ही लोगों का जीवन अपराधी बन जाता है।

पति-पत्नी की एक दूसरे के प्रति कट्टरता और अविश्वास की भावना भी गृहस्थी को नष्ट कर देती है। जब पति-पत्नी एक दूसरे के चरित्र, व्यवहार, रहन-सहन पर संदेह करने लगते हैं तो पारस्परिक मधुर संबंधों के बीच गहरी खाई पैदा हो जाती है और वह धीरे-धीरे बढ़ती ही जाती है। इससे दांपत्य जीवन की सुख-शांति तो नष्ट होती है कालांतर में आत्म-हत्या, हत्या, धोखेबाजी के रूप में कई भयंकर परिणाम भी मिलते हैं। अखबारों में आए दिन इस तरह के समाचार पढ़े जा सकते हैं। वस्तुतः परस्पर सचाई, नम्रता, सहिष्णुता और उदारता, क्षमता से ही दांपत्य–जीवन निभता है। इससे बुरे पक्ष का भी गुजारा हो जाता है।

कुछ समय पूर्व अनेक सदस्यों का मिला-जुला सम्मिलित परिवार सुख शांति पूर्वक अपने दिन गुजारता था। सबका निर्वाह भली प्रकार होता था, अनेकता में एकता की साध भी पूरी होती थी। किन्तु अब तो बड़े सम्मिलित परिवारों की बात तो दूर परस्पर पति-पत्नी में ही एकता, समता, सामंजस्य नहीं है। इसका कारण है परस्पर अधिकार की भावना, आपाधापी और व्यक्तिगत स्वार्थ का दृष्टिकोण एवं सामंजस्य की भावना का अभाव।

वस्तुतः एक से दो अथवा अधिक का निर्वाह तभी हो सकता है जब उनमें परस्पर आपाधापी की भावना न हो। अपना स्वार्थ, अपना सुख, अपना लाभ, अपनी इच्छाओं की पूर्ति के संकीर्ण दृष्टिकोण को छोड़ने में ही पति-पत्नी या परिवार के जीवन की गति संभव है। घर में तनातनी या लड़ाई-झगड़ा होने पर बाजार में जाकर मिठाई खाने वाले, पत्नी को दुःखी, असंतुष्ट, परेशान छोड़कर मौज-मजा करने वाले, मित्रों में जाकर हंसी-खुशी मनाने वाले पति कभी भी अपनी पत्नी की सद्भावना और आत्मीयता प्राप्त नहीं कर सकते। इसी तरह दिन भर काम से थके हुए पुरुष को समय पर आवश्यक सेवा, सहायता, सहानुभूति न देकर सखियों में गपशप लड़ाने वाली, पड़ोसिन के यहां जाकर बातें बनाने वाली या घर में कुहराम मचा देने वाली स्त्री दांपत्य जीवन के नीड़ में ही आग लगा देती है। इसकी ज्वालाओं से दग्ध पुरुष की निराशा, कुण्ठा, अवसाद और फिर विरक्ति के उच्छवासों में दांपत्य जीवन की सभी स्वर्गीय संभावनायें नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं।

पति-पत्नी का एक समान संबंध है, जिनमें न कोई छोटा है, न कोई बड़ा। जीवन यात्रा के पथ पर पति-पत्नी परस्पर अभिन्न हृदय साथियों की तरह ही होते हैं। दोनों का अपने-अपने स्थान पर समान महत्व है। पुरुष जीवन क्षेत्र में पुरुषार्थ और श्रम के सहारे प्रगति का हल चलाता है तो नारी उसमें नव-जीवन, नव-चेतना, नव-सृजन के बीज वपन करती है। पुरुष जीवन रथ का सारथी है तो नारी रथ की धुरी। पुरुष जीवन-रथ में जूझता है तो नारी उसके रसद, व्यवस्था और साधन-सुविधाओं की सुरक्षा रखती है। किन्तु अज्ञान और अभिमान पुरुष नारी के इस सम्मान का पालन नहीं करता। दांपत्य जीवन में विषवृद्धि का एक कारण परस्पर असम्मान और आदर भावनाओं का अभाव भी है।

दांपत्य जीवन में गतिरोध पैदा होने का एक कारण विवाह और संबंध तय होने की गलत परंपराएं भी हैं। अक्सर माता-पिता द्वारा केवल जातीय नियम या ऊपरी बातें देखकर ही विवाह संबंध तय हो जाते हैं, किन्तु इससे विवाह का मूल उद्देश्य पूरा नहीं होता, इसी तरह नई सभ्यता के भावुकता और अंधे प्रेम पर आधारित अनुभव विवाह संबंधों के दुष्परिणाम और विफलता कुछ कम हानिकारक नहीं होते।

उक्त दोनों ही आधार गलत हैं। एक अनमेल विवाह में दंपत्ति के विचार, भाव, मानसिक स्तर में भिन्नता रहना स्वाभाविक है। दूसरे में, विवाह एक बच्चों जैसा खेल बनकर रह जाता है। आवश्यकता इस बात की है कि विवाह संबंध में गुण, कर्म, स्वभाव का समुचित मेल मिलाया जाए। गुण, कर्म और स्वभाव की प्रेरणा से होने वाले संबंध चिरस्थायी, मधुर और सत्परिणाम देने वाले होते हैं। सावित्री ने गुणों से प्रभावित होकर सत्यवान को अल्पायु होने पर भी अपना पति चुना था। गुण और कर्तव्य पर आधारित दंपत्ति के जीवन की अनेक समस्याएं सहज ही सुलझ जाती है।

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