गृहस्थ में प्रवेश से पूर्व उसकी जिम्मेदारी समझें

पाश्चात्य देशों में विवाह के पूर्व ही युवक-युवतियों को यौन विषयक जानकारी दी जानी आवश्यक समझी जाती है। हमारे यहां इस विषय को गोपनीय मानकर बच्चों को नहीं बताया जाता। यह कहना कि बच्चों के वयस्क होते-होते उन्हें यौन विषयक जानकारी दे देनी आवश्यक होती है। उचित मानें भी तो भी यह मत एकांगी ही ठहरता है। यौन विषयक जानकारी युवक-युवतियों के लिए उतनी आवश्यक नहीं है जितनी कि उन्हें विवाह के पूर्व वैवाहिक वैवाहिक दायित्वों, विवाह की महत्ता और उसकी सफलता के तथ्यों का ज्ञान कराना आवश्यक है। इनका समुचित ज्ञान न होने के कारण या तो वे विवाहोत्तर जीवन की ऐसी काल्पनिक तस्वीर अपने मन-मस्तिष्क में लेकर चलते हैं कि जीवन के नग्न यथार्थ से टकरा कर जब वह टूटती है तो वे स्वयं भी बहुत कुछ टूट जाते हैं। ऐसी काल्पनिक तस्वीर वे न भी बनाएं तो भी वे शारीरिक व मानसिक तौर से उन बातों के लिए तैयार नहीं रह पाते जो उनके सामने आती हैं। विवाह जैसे महत्वपूर्ण दायित्व और व्यवस्था का न स्वयं पूरा लाभ उठा सकते हैं न समाज को और परिवार को ही उसका लाभ दे सकते हैं।

आज तक अधिकांश माता-पिता विवाह को अनिवार्य तो मानते हैं, लड़के-लड़कियों के हाथ पीले करके गंगा नहाने की बात तो करते हैं, किन्तु उनका यह गंगा नहाना कितना अधूरा रहता है जब बच्चे विवाहोत्तर जीवन के भार को उठा पाने में असमर्थ रहते हैं या बेगार की तरह गृहस्थी की गाड़ी खींचते रहते हैं। विवाह की अनिवार्यता को स्वीकारने के साथ ही उसकी सफलता के लिए बच्चों को शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक रूप से तैयार व समर्थ बनाना भी उतना ही महत्व रखता है, जितना कि विवाह करवा देना।
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पाश्चात्य देशों में विवाह के पूर्व ही युवक-युवतियों को यौन विषयक जानकारी दी जानी आवश्यक समझी जाती है। हमारे यहां इस विषय को गोपनीय मानकर बच्चों को नहीं बताया जाता। यह कहना कि बच्चों के वयस्क होते-होते उन्हें यौन विषयक जानकारी दे देनी आवश्यक होती है। उचित मानें भी तो भी यह मत एकांगी ही ठहरता है। यौन विषयक जानकारी युवक-युवतियों के लिए उतनी आवश्यक नहीं है जितनी कि उन्हें विवाह के पूर्व वैवाहिक वैवाहिक दायित्वों, विवाह की महत्ता और उसकी सफलता के तथ्यों का ज्ञान कराना आवश्यक है। इनका समुचित ज्ञान न होने के कारण या तो वे विवाहोत्तर जीवन की ऐसी काल्पनिक तस्वीर अपने मन-मस्तिष्क में लेकर चलते हैं कि जीवन के नग्न यथार्थ से टकरा कर जब वह टूटती है तो वे स्वयं भी बहुत कुछ टूट जाते हैं। ऐसी काल्पनिक तस्वीर वे न भी बनाएं तो भी वे शारीरिक व मानसिक तौर से उन बातों के लिए तैयार नहीं रह पाते जो उनके सामने आती हैं। विवाह जैसे महत्वपूर्ण दायित्व और व्यवस्था का न स्वयं पूरा लाभ उठा सकते हैं न समाज को और परिवार को ही उसका लाभ दे सकते हैं।

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