गृहस्थ में प्रवेश से पूर्व उसकी जिम्मेदारी समझें

गृहस्थ जीवन के लिए पूर्व तैयारी आवश्यक

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पाश्चात्य देशों में विवाह के पूर्व ही युवक-युवतियों को यौन विषयक जानकारी दी जानी आवश्यक समझी जाती है। हमारे यहां इस विषय को गोपनीय मानकर बच्चों को नहीं बताया जाता। यह कहना कि बच्चों के वयस्क होते-होते उन्हें यौन विषयक जानकारी दे देनी आवश्यक होती है। उचित मानें भी तो भी यह मत एकांगी ही ठहरता है। यौन विषयक जानकारी युवक-युवतियों के लिए उतनी आवश्यक नहीं है जितनी कि उन्हें विवाह के पूर्व वैवाहिक वैवाहिक दायित्वों, विवाह की महत्ता और उसकी सफलता के तथ्यों का ज्ञान कराना आवश्यक है। इनका समुचित ज्ञान न होने के कारण या तो वे विवाहोत्तर जीवन की ऐसी काल्पनिक तस्वीर अपने मन-मस्तिष्क में लेकर चलते हैं कि जीवन के नग्न यथार्थ से टकरा कर जब वह टूटती है तो वे स्वयं भी बहुत कुछ टूट जाते हैं। ऐसी काल्पनिक तस्वीर वे न भी बनाएं तो भी वे शारीरिक व मानसिक तौर से उन बातों के लिए तैयार नहीं रह पाते जो उनके सामने आती हैं। विवाह जैसे महत्वपूर्ण दायित्व और व्यवस्था का न स्वयं पूरा लाभ उठा सकते हैं न समाज को और परिवार को ही उसका लाभ दे सकते हैं।

आज तक अधिकांश माता-पिता विवाह को अनिवार्य तो मानते हैं, लड़के-लड़कियों के हाथ पीले करके गंगा नहाने की बात तो करते हैं, किन्तु उनका यह गंगा नहाना कितना अधूरा रहता है जब बच्चे विवाहोत्तर जीवन के भार को उठा पाने में असमर्थ रहते हैं या बेगार की तरह गृहस्थी की गाड़ी खींचते रहते हैं। विवाह की अनिवार्यता को स्वीकारने के साथ ही उसकी सफलता के लिए बच्चों को शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक रूप से तैयार व समर्थ बनाना भी उतना ही महत्व रखता है, जितना कि विवाह करवा देना।

आज से कोई पचास वर्ष पहले लड़कियों के लिए जीवन साथी का चुनाव प्रायः माता-पिता ही करते थे। यहां तक कि उनसे इस संबंध में सहमति लेना भी आवश्यक नहीं समझा जाता था। अब स्थिति में कुछ परिवर्तन आ रहा है। माता-पिता इस विषय में उनकी सहमति का ध्यान रखने लगे हैं। कुछ उदाहरण अब ऐसे भी देखने को मिलते हैं जब लड़के-लड़की माता-पिता की इच्छा के विपरीत प्रेम विवाह भी कर लेते हैं। विवाह संबंध कैसे भी बांधे गए हों उसके पहले लड़के-लड़की के लिए उसके महत्व का ज्ञान, उसकी समग्र जानकारी आवश्यक होती है। उसके अभाव में वैवाहिक जीवन की सफलता बहुत कुछ असंदिग्ध ही रहती हैं।

माता-पिता का अपनी इच्छा को विवाह के संबंध में पुत्र-पुत्रियों पर थोपना उनके साथ एक तरह का अन्याय ही होता है, किन्तु उन्हीं को अपनी अपरिपक्व बुद्धि के सहारे अपना जीवन साथी चुनने की छूट देना भी हितकारी नहीं होता। उनकी राय भी ली जानी चाहिए, किन्तु माता-पिता को उसके साथ-साथ अपने ज्ञान का, अनुभवों का प्रयोग भी करना चाहिए।

विवाह आवश्यक तो है, किन्तु प्रत्येक के लिए अनिवार्य नहीं। साथ ही विवाह की एक आयु, एक स्थिति और सामर्थ्य होती है। उसको ध्यान में नहीं रखते हुए किए गए विवाह संबंध सुख कारक नहीं होते। शारीरिक दृष्टि से रोगी या मानसिक दृष्टि से अविकसित पुत्र का विवाह करके माता-पिता को किसी लड़की के जीवन से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। विवाह के लिए उस व्यक्ति की सामर्थ्य आंकी जानी चाहिए जिसका विवाह होने को है। माता-पिता को अपने पुत्र के, अपने पांवों पर खड़े होने पर पत्नी व परिवार का भार उठा लेने की आर्थिक व बौद्धिक सामर्थ्य आ जाने पर ही विवाह की बात सोचनी चाहिए। जो युवक-युवतियां माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध विवाह करते हैं उन्हें भी यह बात ध्यान में रखनी चाहिए। जहां तक हो सके वहां तक माता-पिता की सहमति लेनी ही चाहिए, किन्तु वे किसी झूठी भ्रांत मान्यता के दुराग्रह से बुरी तरह ग्रस्त हैं और लड़के-लड़की मात्र आकर्षण या सुखद कल्पनाओं से ही प्रेरित हो विवाह नहीं कर रहे हों। उन्हें वैवाहिक जीवन के उतार-चढ़ावों का भी ज्ञान है तो माता-पिता की इच्छाओं को महत्वहीन भी माना जा सकता है।

ग्रामीण व अशिक्षित समाज में माता-पिता लड़के-लड़कियों की आयु, शरीर सामर्थ्य, कमाने की शक्ति, भावी जीवन के संघर्षों व सुखों का ज्ञान आदि का ध्यान रखे बिना ही उन्हें विवाह के जुए में जोत देते हैं, यह बहुत बुरी बात है। यह संतान के साथ बहुत बड़ा अन्याय ही नहीं समाज व राष्ट्र को दिया गया बहुत बड़ा धोखा है। शरीर, मन, बुद्धि से समर्थ होने पर ही बच्चों के विवाह की बात सोचनी चाहिए। बंदर-बंदरी नचाने, गुड्डे-गुड़ियों के ब्याह रचाने की इस अविवेकपूर्ण बाल विवाह प्रथा ने हमारे देश का जो अनिष्ट किया है उसे हम आज तक भोग रहे हैं।

बच्चों को स्वयं स्कूलों में पत्र पत्रिकाओं व तद्विषयक पुस्तकों द्वारा विवाह के पश्चात् उनके सिर पर आने वाली जिम्मेदारी व मिलने वाला सुख, दाम्पत्य व पारिवारिक जीवन की सफलताओं के सूत्र, अनुभव, सावधानियां, पारस्परिक समझ, मनमुटाव से बचने के लिए क्या करें आदि जानकारियां देनी चाहिए। जिनके अभिभावक नहीं हैं या जो स्वेच्छा से अपना जीवन साथी वरण करना चाहते हैं उन्हें भी पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, अपने मित्रों के अनुभव या अपने पास पड़ौस में रहने वाले विवाहित दंपत्तियों के जीवन का निरीक्षण और उन पर चिंतन-मनन करके विवाह के पूर्व उसकी मानसिक तैयारी कर लेनी चाहिए।

पारिवारिक सुख पाने के रहस्यों का ज्ञान कराने के नाम पर आज कल जो यौन विषयक पुस्तकें बिकती हैं इनमें सार की कोई बात नहीं रहती, उनमें ले देकर काम-वासना का ही मिर्च-मसाला भरा पड़ा रहता है। वे मार्ग-दर्शन तो कम देती हैं और कुत्साएं अधिक फैलाती हैं, उत्तेजना भड़काती हैं। इनसे बचा रहना ही उत्तम है। काम भावना ही दाम्पत्य जीवन का आधार नहीं होती। यह तो उसका एक नगण्य सा अंग मात्र होती है।

युवक-युवतियों के पास चाहे जैसी ही उच्च डिग्रियां हों वे जीवन के अनुभव में प्रायः कोरे ही होते हैं, विवाह के पूर्व उनके लिए यह जान लेना बहुत आवश्यक होता है कि उन्हें अपने-अपने सहधर्मी के साथ कैसे निर्वाह करना है। यह देखने में आता है कि माता-पिता के द्वारा निर्धारित किए गए संबंधों को मान करके विवाह कर लेने वाले पति-पत्नी भी अपने दांपत्य जीवन को निभाने में सफल होते हैं और स्वेच्छा से प्रेम विवाह करने वाले दंपत्तियों में भी आगे चलकर खटपट होती है और नौबत तलाक लेने पर पहुंच जाती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि साथी के चुनाव के स्थान पर विवाह और वैवाहिक जीवन के प्रति स्वस्थ व समग्र दृष्टिकोण होना ही सफलता का कारण होता है।

विवाह के सूत्रों में बंधने वालों को यह जान लेना आवश्यक है कि विवाहोपरान्त उन्हें बहुत कुछ देना भी पड़ता है। पत्नी का स्नेह, ममत्व, अनुराग, सेवा, सहयोग, संरक्षण आदि पाने के लिए स्वयं पति को भी उसे विश्वास, संरक्षण, सहयोग, स्नेह, सद्भाव आदि देना पड़ता है। वैवाहिक जीवन वहां कटु, शुष्क व नीरस होने लगता है जहां साथी से अपेक्षाएं तो हजार की जाएं और अपनी तरफ से देने के लिए कुछ भी तैयार न हो। अपेक्षाएं करने की अपेक्षा देने की रीति-नीति अपनाई जाए तो अपने आप दांपत्य जीवन में मधुरता का प्रवाह उमड़ने लगता है।

वैवाहिक जीवन मात्र सुख की सेज नहीं वह कांटों का भी पथ है। उसमें सुख-दुःख की धूप-छांह चलती ही रहती है। ऐसे समय पति, पत्नी के लिए परीक्षा का अवसर होते हैं। उनकी कल्पना विवाह के पहले ही कर लेना और उनसे निपटने की मानसिक तैयारी कर लेना ठीक रहता है। विषम समय में यदि पति-पत्नी एक दूसरे का साथ देते रहेंगे तो उनकी दांपत्य नौका डगमगाने से बच जाएगी और यदि ऐसे समय में वे एक दूसरे को उन परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार ठहराने लगे तो वह डगमगाने लगेगी बहुत संभव है डूब ही जाए।

विवाह के पश्चात् सामान्य रूप से अर्थोपार्जन का दायित्व पति पर आ जाता है और गृह प्रबंध और स्नेह रस-वर्णन का दायित्व पत्नी सम्हालती है। माता-पिता पर आश्रित या अकेले रहने वाले युवक-युवतियों को उस समय उत्पन्न होने वाली समस्याओं का ज्ञान नहीं होता। फिर जब विवाह के पश्चात् वे उनमें उलझते हैं तो उन्हें विवाह जंजाल में फंसने जैसी बात लगने लगती है। क्योंकि वे उसकी मानसिक तैयारी नहीं किये होते हैं।

इन्सान कोई पूर्ण नहीं होता, उसमें कुछ न कुछ दोष, कमियां रहती हैं। विवाह के पहले अपने जीवन साथी के बारे में यह आग्रह पालन कि वह ऐसा होगा, ऐसा करेगा, ऐसा बोलेगा, हंसेगा, त्याग करेगा आदि बातें सोचने के साथ ही इसके लिए भी तैयार रहना चाहिए कि यदि उनमें वे सब गुण नहीं हैं जिनकी हमने कल्पनाएं अपेक्षाएं की थीं तो, उन्हें विकसित करने का धैर्य से प्रयास करना चाहिए।

विवाह के पश्चात् व्यक्ति की संयम, त्याग, बलिदान आदि की भूमिकाएं आरंभ होती हैं। विवाहोत्तर जीवन में असंयम चाहे शरीर का हो, धन का हो या अन्य कामनाओं का वह दुःखद ही होता है। किन्तु यौवन के रंगीन पंख लग जाने पर इस आयु में व्यक्ति धरती से नहीं आसमान से बात करना चाहता है, जबकि उस रुमानियत का संयमित रूप ही वैवाहिक जीवन में निभ सकता है। अत्यधिक सुंदर पत्नी या सर्वगुण संपन्न पुरुष की कल्पनाएं कुछ ऐसी ही रुमानियत लिए हुए होती हैं, जबकि दाम्पत्य जीवन का प्रसाद पत्नी का शारीरिक सौन्दर्य नहीं मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक सौंदर्य और पति के विवेक, सूझबूझ व धैर्य पर निर्भर करता है। ऐसे दुराग्रह लेकर दाम्पत्य जीवन के मार्ग पर चलने वाले पथिक बीच मार्ग में ही थकित अवसन्न होने लगते हैं। अतः विवाह के पूर्व अभिभावक गुरुजन उन्हें इस संबंध में पूरी जानकारी करा दें। अकेले रहने वाले युवक युवतियां भी इस संबंध में यथार्थ दृष्टि ही लेकर चलें तो वह लाभदायक होगी।

विवाह के लिए आयु की परिपक्वता ही काफी नहीं रहती। उसके लिए संतुलित दृष्टिकोण का विकसित होना बहुत आवश्यक है। भिन्न-भिन्न गुण, कर्म व स्वभाव के व्यक्ति जीवन भर एक सूत्र में आबद्ध होकर रहते हैं, तो उनमें सुखद प्रसंग भी आते हैं और दुखद प्रसंग भी आते हैं। बुरे दिन भी आते हैं तो अच्छे दिन भी, कष्ट भी आते हैं तो हर्ष के प्रसंग भी। इन सबको धैर्य से स्वीकारते हुए विवाह धर्म का निर्वाह करने की दक्षता तो विवाह के पश्चात् ही प्राप्त होती है, किन्तु उनकी पूर्व जानकारी हो जाना बहुत आवश्यक होता है।

विवाह मात्र कामनाओं की तृप्ति का साधन नहीं यह तो एक धर्म है। इसी कारण पति-पत्नी एक दूसरे के साथ रहकर एक महान दायित्व का पालन करने को प्रवृत्त होते हैं, तो उन्हें एक दूसरे पर अधिकार मिल जाने की बात सोचने की अपेक्षा उसका साहचर्य, सहयोग मिलने की ही भावना रखना हितकर होता है। यह बात नहीं भूल जाना चाहिए कि दोनों एक सूत्र में आबद्ध इसलिए हुए हैं कि अकेला व्यक्ति इस दायित्व को निभा नहीं सकता अतः दो साथी मिलकर निभा रहे हैं, ताकि वह नीरस न हो जाए। उनके सामर्थ्य को देखना उतना ही आवश्यक है जितना विवाह संपन्न कराना।

जब तक मनुष्य अकेला रहता है तब तक वह अपूर्ण रहता है, उसका जीवन स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों में ही बीतता है। नैतिक जीवन के जो संस्कार मनुष्य में बाल्यावस्था में पड़ते हैं उनका विकास गृहस्थ जीवन में होता है। प्रेम और निष्ठा, तप और त्याग, श्रम और पालन, शील और सहिष्णुता आदि सद्गुणों का उन्नयन पूर्ण रूप से गृहस्थ जीवन में ही होता है। गृहस्थ मनुष्य की सर्वांगपूर्णता का विद्यालय है और विवाह उसका प्रवेश। जिस प्रकार शिक्षा की प्रारंभिक नींव विद्यार्थी के लिए अधिक महत्वपूर्ण होती है उसी प्रकार गृहस्थ जीवन के सुचारु-संचालन के लिए विवाह की परंपरा भी बड़ा महत्व की होती है। इसी उद्देश्य की स्मृति दिलाने के लिए वेद के पाणिगृहीत पुरुष से कहलवाया है—

गृहणामि ते सौभगत्वाय हस्तंमयापत्या जरदष्टिर्ययास ।

भगोऽर्य्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यं त्वादुर्गार्हपत्याः देवाः ।।

‘हे प्रियतमे! जीवन के पुण्य-पर्व पर मैं देवताओं की सुखद साक्षी में तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेता हूं। हे सुहागिनि! तुम चिरकाल तक मेरी साथी सौभाग्य शालिनी बनकर रहो। मैं अपनी गृहस्थी का संचालन तुम्हारे हाथ में देता हूं, सुखपूर्वक इसका निर्वाह करो।’

वह समय सचमुच कितना सुखद होता है जब मनुष्य देवताओं की साक्षी में उपर्युक्त व्रत धारण करता है। मनुष्य का एकाकीपन, उसकी उदासीनता समाप्त होती है और एक ऐसे जीवन का सूत्रपात होता है जिसमें वह अपने जीवन-ध्येय की प्राप्ति कर लेता है।

उस दिन मनुष्य का क्षेत्र विभाजन होता है। पुरुष आजीविका और उदर-पोषण के सात्विक कर्मों में लगता है और स्त्री गृह कार्य सम्हालती है। इन कार्यों में विवेक, सत्यनिष्ठा और विचार से ही गृहस्थ-जीवन सफल होता है। रस्म के रूप में केवल भांवरें डालकर अस्त-व्यस्त गृहस्थ-जीवन बिताना भारतीय परंपरा के सर्वथा प्रतिकूल है। हमारे सिद्धांत ऐसे हैं जिनमें विवाह जीवन की अग्नि परीक्षा का प्रारंभ है अतः इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने से ही गृहस्थ जीवन सार्थक हो सकता है।

त्याग और तपस्या की यह भूमिका भी बड़ी सुखदायी होती है। मनुष्य यदि विवाह काल में किए गए संकल्पों का पालन करता रहे तो सचमुच गृहस्थ में स्वर्गीय सुख का वातावरण उत्पन्न कर सकता है। पत्नी साक्षात् लक्ष्मी स्वरूप होती है। इस धन, इस लक्ष्मी के अभाव में मनुष्य का जीवन नीरस व निष्प्राण ही बना रहता है। प्रणयी का यह कथन किसी भांति असत्य नहीं कि—

अमोऽहमस्मि मात्वम् मात्वमस्यमो हम् ।

सामहमस्म ऋक् त्वं द्यौरहं पृथ्वीत्वम् ।।

‘तुम लक्ष्मी हो। मैं तुम्हारे बिना दीन था। सत्य ही तुम्हारे बिना उस जीवन में कुछ भी सुख न था। सौम्ये! हमारा सम्मिलित साम और उसकी ऋचा, धरती और आकाश के समान है।’

उपर्युक्त शब्दों में स्रष्टा ने विवाह की सबसे महत्वपूर्ण व्याख्या की है। विवाह का प्रश्न किसी व्यक्ति का प्रश्न नहीं वह सम्पूर्ण समाज से संबद्ध है। इसलिए उन विवाहों को, जो व्यक्ति और समाज के हित का विचार करके न किए गए हों, दोषयुक्त ही मानना चाहिए।

सुख प्राप्ति की आकांक्षा केवल भोग-विलास से पूरी नहीं होती। मनुष्यत्व का विकास भोग से नहीं, संयम से होता है। इसलिए विवाह का हेतु भी भोगेच्छा की पूर्ति नहीं हो सकता। राष्ट्र की संपत्ति, श्रेष्ठ नागरिकों के जन्म देने के लिए नियमित जीवन जीने की जो शर्त लगा दी गई है उससे विवाह का हेतु भोग-विलास कदापि नहीं हो सकता। विवाह एक संकल्प है जो राष्ट्र के भावी बल, सत्ता और सम्मान को जाग्रत रखने के लिए किया जाता है।

शास्त्रकार का कथन है :—

तावेहि विवहाव है सह रेती दधाव है ।

प्रजां प्रजनयावहै पुत्रान् विन्दावहै बहून ।।

अर्थात्—‘‘विवाह का उद्देश्य परस्पर प्रीति युक्त रहकर राष्ट्र को सुसंतति देना है।’’ ऐसी परम्परा को जीवित रखने के लिए ही ‘पाणिग्रहण’ को संस्कार का रूप दिया जाता है, किन्तु आज जो पद्धति अपनाई जा रही है उससे बहुधा कोई उद्देश्य पूर्ण नहीं होता। बाल-विवाह की प्रथा से तो और भी अनर्थ होता है। अल्पवय के किशोर बाल जिन्हें यह ज्ञान नहीं होता कि विवाह एक व्रत है, दाम्पत्य जीवन को खिलवाड़ में ही बिताते हैं। फलस्वरूप अनेक तरह की सामाजिक कुरीतियों, अनर्थ और अनैतिकता का ही प्रसार होता है।

प्रेम-विवाह की आधुनिकतम परंपरा भी सोद्देश्य नहीं, एक आवेश मात्र में जिनके परिणाम कुछ दिनों में बड़े ही भयानक निकलते हैं। असफल ग्रहण और तलाक के अधिकांश मामले प्रेम-विवाह वालों में ही पाए जाते हैं। ऐसे विवाह चंचलता और उच्छृंखलता पर अधिक आधारित होते हैं जो आजीविका या विचार-वैषम्य की गंभीर परिस्थिति आते ही मनुष्य को इस तरह बर्बाद करते हैं कि उनकी तमाम शारीरिक और मानसिक शक्तियां नष्ट हो जाती हैं।

ऐसे विवाह केवल आकर्षण से होते हैं। प्रेम को आकर्षण नहीं कह सकते। इस दृष्टि से इन विवाहों को आकर्षण विवाह कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी। यह आकर्षण सौन्दर्य या धन के लिए होता है जिसमें स्थिरता नहीं होती, इसलिए इन विवाहों का प्रचलन भी हमारे समाज के अहित का कारण है।

बेमेल, बाल आकर्षण विवाहों की पद्धति भारतीय नहीं है। इन्हें एक सामाजिक अभिशाप ही कहा जा सकता है। इससे विवाह की पवित्रता, विवाह के संकल्प का लक्ष्य पूरा होना तो दूर रहा, अनेक अनर्थ और उपद्रव ही खड़े बने रहते हैं।

यह अनियमितताएं देशकाल, परिस्थिति और बाह्य संस्कृति के प्रवेश के कारण उत्पन्न हुई है इसलिए ये परिवर्तनीय हैं।

यह पद्धति वह है, जिसमें व्यक्ति और समाज के स्वास्थ्य, बल, शारीरिक-बौद्धिक और मानसिक उन्नति, मनुष्य जाति की चिरंतनता, स्फूर्ति, एकता, तेजस्विता, प्रसन्नता और चिरस्थायी सुख का विचार नहीं किया जाता है। विचार हीन पद्धति चाहे वह नई हो या पुरानी उसे प्रमाण मान लेना हमारी सबसे बड़ी भूल है। हमें इन परंपराओं की तुलना में विवेक का आश्रय लेना अधिक प्रतीत होता है।

सफल वैवाहिक परंपरा वह है जिससे इंद्रिय-लालसा और भोग-भाव मर्यादित रहें, भावों में शुद्धि रहे। संयम और त्याग की ओर मनुष्य की प्रवृत्ति हो। संतानोत्पत्ति से वंश रक्षा, प्रेम की पूर्णता में पारिवारिक सरसता और उल्लास के द्वारा गृहस्थ की पवित्रता ही विवाह का सही दृष्टिकोण होना चाहिए। दूसरों के हित के लिए त्यागमय जीवन का अभ्यास और अंत में जीवन सिद्धि ही विवाह का पवित्र उद्देश्य होना चाहिए।

हिन्दू–विवाहों की आर्ष परंपरा पूर्ण वैज्ञानिक थी, उसमें आज की तरह स्त्री-पुरुष का भेद-भाव नहीं किया जाता था। पुरुष को अधिक श्रेष्ठ और नारी को अपवित्र मानना, कलंकित ठहराना, इस युग का सबसे बड़ा दूषण है। हमारे यहां विवाहों में पत्नी का समाद्रत स्थान है। इनमें से एक को प्रमुख और दूसरे को गौण मानने की नीति अज्ञानी लोगों की चलाई हुई है। स्त्री पुरुष का संयोग ही पारिवारिक विकास का मूल है। इस नैसर्गिक प्रवृत्ति की पूर्ति के लिए भेद-भाव की परंपरा असामाजिक है, इसको दूर किया ही जाना चाहिए। मंगलमय जीवन का सूत्रधार है—

ते सन्तु जरदृष्टयः सम्प्रियो रोयिष्णू सुमनस्यमानौ ।

पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम् शरदः शतम् ।

‘‘हम सौन्दर्ययुक्त होकर परस्पर प्रीतिपूर्वक जीवनयापन करें। हमारी भावनाएं मंगलमय हों हम सौ वर्ष देखें, सौ वर्ष जियें और सौ वर्ष तक जीवन के वसंत का मधुर राग सुनते रहें।’’ नीतिकार ने उपर्युक्त वचनों में स्पष्ट कर दिया है कि सुखमय गृहस्थी का आधार स्त्री पुरुषों की एकता, आत्मीयता और प्रेम भावना है। इसके लिए विवाह को कौतुक नहीं एक व्रत मानना है और उसे ज्वलंत संकल्प की भांति जीवन पर्यन्त धारण किए रहना है।
गृहस्थ जीवन में प्रवेश के पूर्व विवाह के इस महत्व को तथा विवाहोपरांत उपस्थित होने वाली नई-नई जिम्मेदारियों को ठीक से समझना आवश्यक है। इस पूर्व तैयारी के बिना विवाह रचा लेने वालों का सफल दंपत्ति सिद्ध हो पाना कठिन ही होता है।
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